3.3.18

लोहे का घर-40 (बनारस से लखनऊ)

आज फिर झटके वाली बेगमपुरा में बैठा हूं। हम समझते थे जब हम डाउन होते हैं तभी झटके मारती है लेकिन ये तो अप में भी मार रही है! मतलब झटके मारना इस ट्रेन की पुरानी आदत है। कित्ती पुरानी? ठीक ठीक नहीं पता। कांग्रेस के जमाने से चली आ रही है या २-३ साल पुरानी है कुछ नहीं पता। शायद झटके मारना बेगम के जन्म का रोग हो! चाल ढाल पर मोहित हो लप्प से चढ़ गए, पता चला झटके मारती है! यह तो ट्रेन है, भगवान न करे किसी को ऐसी बेगम मिले।

आज जनरल/स्लीपर नहीं ए.सी. में बैठ कर राजधानी जा रहे हैं। घर से खा पी कर, मूड बना कर चले थे कि दिन भर मस्त सोएंगे मगर इस ट्रेन में कोई सो नहीं सकता। ज्यों झपकी लगी, त्यों झटका लगा। प्लेटफॉर्म पर आए तो एक विभागीय साथी की नजर हम पर पड़ ही गई। सशंकित हो गए कि कहीं यह ट्रांसफ़र कराने के चक्कर में राजधानी तो नहीं दौड़ रहा है! हमने कहा..आज संडे है। सुबह ए बनारस का मजा ले चुके अब सोच रहे हैैं शाम राजधानी पहुंच कर टुंडे कबाब का मजा लिया जाय। वे हंसने लगे। मेरी झूठी बात का उन्होंने यकीन नहीं किया और सच्ची बात न बताकर मैंने उन्हें संदेह के महासागर में पूरी तरह डुबो दिया।

लोहे के घर की ए.सी. बोगी में बैठ, लोगों की बातें लिखने का मूड नहीं बनता। बड़े बोर लोग यात्रा करते हैं ऐसी बोगी में। बड़े शहरों की बड़ी कालोनी टाइप के लोग। न किसी से लेना न किसी को देना। कोई वृद्ध किसी फ्लैट में अकेले रहता हो, मर जाए तो उसके बच्चों को उसकी लाश नहीं कंकाल मिले! यही हाल होता है ए सी बोगी के यात्रियों का। खाए पीए, सफेद चादर खुद ही ओढ़ कर सो गए। यहां का माहौल ही ऐसा है। हम भी यहां आ कर इन्हीं के जैसे मनहूस हो जाते हैं। अकेले हैं तो आप को पूरा सफ़र अकेले ही काट देना है। करें भी क्या मेल जोल बढ़ाकर? जहरखुरानी के शिकार हो जाएं? रेलवे भी अपरिचित यात्रियों पर विश्वास न करने की सलाह देता है। हम बनारसी गलियों के अड़ीबाज लोगों के लिए ऐसे वातावरण में बोरियत महसूस होती है। जनरल और कुछ हद तक स्लीपर बोगी में अपने मिजाज के लोग मिलते हैं। मगर सफ़र लंबा हो तो पेट बातों से तो नहीं भरता, शरीर आराम चाहता है।
फिर बड़े जोर का झटका दिया बेगमपुरा ने। ओह! बड़ी देर से खड़ी थी। हम ही गलतफहमी पाले थे कि क्या शांत वातावरण होता है ए. सी. बोगी का! चली तो झटका दिया। मतलब बेगम की बीमारी यह है कि जब भी चलना शुरू करती है जोर का झटका मारती है! झटके सह लिए तो चलिए न फिर आराम आराम से।
सूर्यास्त हो रहा है लोहे के घर में। शीशे वाली बन्द खिड़की का पर्दा हटाकर देख रहा हूं तेज हीन हो रहे सुरुजनारायन। किसी अनजान जगह पर रुकी है ट्रेन और सामने हैं सूर्यदेव। आम के कुछ पेड़ हैं, आम के पीछे सागौन पंक्तिबद्ध खड़े हैं, दूर सरसों और पास गेहूं के खेत हैं। एक कौआ उड़ते हुए, सूरज के सामने से होते हुए बाएं से दाएं गया।
झटका लगा और चल दी बेगमपुरा। फिर एक वाक्य दोहराया बेगम पूरा झटका देती है।
ठहरे हुए पानी के पोखर के किनारे एक लड़का साइकिल खड़ी कर सूरज की प्रतिछाया निहारता दिखा। हमने सूरज भी देखा, लडके को भी देखा और छाया भी देखी। सब एक पल में घटित हो गया। ट्रेन आगे बढ़ चली।
सूरज अब क्षितज के पास जरा सा ऊपर, दूर घने वृक्षों की फुनगी-फुनगी गेंद की तरह उछलते दिख रहा है। अभी प्रकाश है। सत्ता के जाने के बाद सत्ता के भय की तरह। कुछ समय बाद ढल जाएगा। उगते समय क्या रंग में था! चढ़ते चढ़ते तपने लगा। अब ढलते-ढलते निस्तेज हो चुका है। रोज पूरे जीवन का सार पढ़ाता है मगर हम धूप और अंधेरा ही पढ़ पाते हैं।
पशुओं के लिए घास के भारी ढेर सर पर लादे पगडंडी पगडंडी नंगे पांव चलती बूढ़ी दो महिलाएं ट्रेन को जाते देख जरा भी नहीं रुकीं। ट्रेन अपने रास्ते, ग्रामीण महिलाएं अपने रास्ते। निर्जीव की तरह अपने रास्ते चलते रहना दोनो की मज़बूरी।
अब सूरज नहीं दिख रहा। अंधेरा भी नहीं हुआ है। गोधूलि बेला है लेकिन न धूल है न गायों के झुंड। बल्ला लेकर भागता एक लड़का दिखा। सरसों के पीले चौकोर खेत के एक कोने पर पहरेदार की तरह खड़ा एक बूढ़ा नीम दिखा। साइकिल का टायर दौड़ाते हुए बच्चे दिखे। हम बूढ़े हो चले मगर जब तक खेत दिख रहे हैं तब तक लोहे के घर की खिड़की से ही सही अपना बचपन भी दिखता रहेगा। विचारों की श्रृंखला टूटी तो ध्यान गया, पहुँच चुके हैं लखनऊ।
.............
अब लखनऊ से वापसी है, दिन ढल चुका, अब शाम ढल रही है। शहर बदल रहे हैं। लखनऊ के बाद अब फैजाबाद बीता है। चलते- चलते ही देर हुई। लेट किसान मिली जो और लेट हो गई। बनारस पहुंचते पहुंचते आज की तारीख बदल जाएगी। कल से फिर डयूटी पर। लोहे का घर हमें छोड़ता नहीं या हम लोहे के घर को नहीं छोड़ते। लगता है दोनो इक दूजे के लिए बने हैं। बिटिया साथ में है, उसी को साक्षात्कार दिलाने गए थे लखनऊ। रोजगार पाने के लिए एक अंतहीन दौड़। अपन तो विश्वविद्यालय से निकल झट से एक खूंटे से बंध गए। बच्चों का संघर्ष कठिन है। शायद यह दौर ही कठिन है।
चार लड़कियां चढ़ी हैं फैजाबाद से। लगता है ये अभी पढ़ रही हैं। धनबाद जा रही हैं। वहां से रांची जाएंगी एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी। अपने पढ़ाई की बातें खूब चहक चहक कर कर रहीं हैं। इनकी शब्दावली अपने पल्ले नहीं पड़ रही। मन कर रहा है इनकी बातों को लिखा जाय मगर ये इतनी जल्दी जल्दी बोल रही हैं कि क्या कहें! अपनी बिटिया इनकी बातों पर जरा भी कान नहीं दे रही। वो कोई फिलिम देखने में मगन है। कई दिनों बाद फुरसत और बेफिक्री के पल मिले हैं। उसी का आनन्द ले रही है।लोहे के घर की यही खास बात है। चढ़ने से पहले खूब हड़बड़ी मगर एक बार बैठ गए तो फिर जो मर्जी सो करो। मन करे बहस करो, मन करे पढ़ो, मन करे लिखो या फिर फिलिम देखो। जैसा माहौल मिले वैसा करो। अब लड़कियों ने अपना लैपटॉप निकाल लिया है। मूवी देखने के मूड में हैं। रात के दो बजा चाहते हैं. किसान पहुँच रही है बनारस।

9 comments:

  1. आपके ब्लॉग पर आकर मेरा पुनर्जन्म में विश्वास जाग उठा ....जिओ राजा बनारसी...

    लोहे के घर की किताब जब आएगी तो पहली प्रति मुझे भेजना ...इसकी एवज में चाहो तो भूमिका लिखवा लो या बाद में समीक्षा...दोनों पैकेज हैं ,,बताना

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  2. वाह ! बहुत रोचक अंदाज..एक बार पढ़ना आरम्भ करे तो चाह कर भी छोड़ नहीं पाता पाठक..

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