30.4.18

लोहे का घर-41


फिफ्टी डाउन दो घंटे लेट है। ट्रेन हो या महबूबा, लेट होना मिलन का शुभ संकेत है। हम टाइम से पहुंच नहीं सकते, वो टाइम पर आ गई तो हमारे लिए रुक नहीं सकती। सीटी बजाएगी और चल देगी। पकड़ना, चढ़ना और बैठ कर उखड़ती सांसों को ठीक करना हमारा काम है। कुछ तो चढ़ते ही बर्थ पकड़ कर लेट जाते हैं, कुछ पकड़ कर इतने भाव विभोर हो जाते हैं कि अब जाएगी कहां!
ट्रेन हवा से बातें कर रही है। खिड़कियों से आ रहे पवन के हर झोंके में चैत की खुशबू है। लोग सफ़र में थक जाते हैं, हमें सफ़र ही तरोताज किए है। जलाल गंज पुल से गुजरते हुए एक शोर उठा और सई नदी की आवाज बन ठंडी हवा के झोंके #आई_लव_यू बोल गए। हमने मन ही मन #थैंक्स कहा और मुस्कुरा दिया।
खालिसपुर में रुक कर फिर चल दी ट्रेन। कुछ आशिक चढ़े, कुछ उतर गए। नए वेंडर फिर शोर करते हुए आने/जाने लगे। दूर जाने वाले इत्मीनान की और नजदीक के यात्री चौकन्नी नींद ले रहे हैं। आस पास का माहौल ठंडा ठंडा है। एक बच्चा अभी दौड़ कर आगे गया है और उसकी मां यशोदा मैय्या की तरह पीछे पीछे भागी हैं। कल की तरह रास लीला करता कोई किसन कन्हैया नहीं है। पंजाब से आ रही है ट्रेन मगर अपने आस पास कोई पंजाबी परिवार नहीं है।
ये चाय बेचने वाले अजीब अजीब आवाज निकाल कर लोगों को आकर्षित करने और चाय के नाम पर गरम पानी पिलाने में बड़े माहिर होते हैं! अब आप इसका कोई और मतलब न निकालें प्लीज। सच लिखना वाकई बड़ा रिश्की काम है।
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ट्रेन में चढ़ो तो खुद को रेलवे को समर्पित कर दो। टाइम टेबल पर जरा भी ध्यान न दो। कब चढ़े, कितनी दूरी है, कब पहुंचेंगे जैसे प्रश्नों को मन में आने ही न दो। ट्रेन में चढ़ते ही यूं समझ लो कि अब आप कोमा में हैं। कब निकलेंगे? यह स्टेशन मास्टर भी नहीं जानता।
आप को रोक कर माल गाड़ी को आगे बढ़ाया जा सकता है। आप प्लेटफॉर्म पर ठगे से खड़े हो, मालगाड़ी को इधर से उधर, उधर से इधर आते/जाते देखते रहो। चिठ्ठी आती है, चिठ्ठी जाती है कि तर्ज पर आप कोई पैरोडी बना कर गा सकते हैं.. मालगाड़ी आती है, मालगाड़ी जाती है, अपनी वाली की बारी कभी नहीं आती है।
मित्रों को सलाह दिया जाता है कि भारतीय रेल के समय सारिणी के भरोसे घूमने का कोई प्रोग्राम न बनाएं। यात्रा तभी करें जब कोई मज़बूरी हो। प्रोग्राम बनाना जरूरी हो तो एक ट्रेन से दूसरी ट्रेन के बीच कम से कम चौबीस घंटे का फासला बना कर सीट रिजर्व कराएं। नहीं तो पता चला जब तक आप पहुंचेंगे, तब तक लौटने वाली ट्रेन छूट चुकी होगी।
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दून में रामनवमी मना कर लौट रहे यात्रियों के कारण भीड़ अधिक है। इस भीड़ में भी चार युवक दिलचस्प ढंग से सामने साइड अपर पर बैठ कर तास खेल रहे हैं। तीन खिलाड़ी साइड अपर बर्थ पर बैठे हैं और चौथा ठीक सामने वाली अपर बर्थ के एक कोने में अपना पिछवाड़ा टिकाए, साइड अपर पर अपनी दोनों टांगे जमाए पत्ते फेंक रहा है।
मेरे बगल के साइड अपर में धोती कुर्ता पहने एक बुजुर्ग इत्मीनान से सो रहे हैं। मेरे सामने के अपर बर्थ में दूसरे धोती कुर्ता वाले बुजुर्ग सो रहे हैं। इनकी बन्द पलकों के ऊपर चश्मा चढ़ा है जो ललाट की तरफ कुछ अधिक झुका है। लंबी नाक के नीचे घनी सफेद मूछें हैं। मूंछें काली होतीं तो नत्थू लाल के जैसी होती। घुटने तक धोती है और पैर के नीचे खुले मुंह वाला फटा बैग है। फटे बैग के भीतर से कुछ कपड़े बाहर झांकना चाहते हैं। ट्रेन के बदले बस होती तो उछल कर सभी नीचे गिर जाते। लोहे के घर में आम आदमी की गाड़ी ऐसे ही पटरी पर चलती रहती है और इज्जत ढकी रहती है।
साइड अपर के नीचे लोअर बर्थ पर जिसकी बर्थ है वह लेटा हुआ है और बाकी तीन लोग जिनके पास अपनी बर्थ नहीं है, मुश्किल से बैठे हुए हैं। तीनों के हाथों में मोबाइल है और तीनों अपने अपने धंधे में लगे हुए हैं। इन्हें देख ऐसा लग रहा है जैसे तीनों बहुत पढ़ने वाले बच्चे हों और गुरु जी ने कोई कठिन होम वर्क दिया हो!
मेरे सामने खिड़की वाली बर्थ पर एक प्रौढ़ बंगाली महिला अपने मोबाइल से देख देख एक कागज पर कुछ उतार रही हैं। इससे पहले बहुत देर तक मोबाइल में किसी से बहस कर रही थीं। उनके सामने यानी मेरे बगल में एक बंगाली जोड़ा अपने चेहरे पर गंभीरता ओढ़े बैठा है। पत्नी कभी कभार मुस्कुरा कर कुछ बोलती भी है तो पति आंखों के इशारे से ऐसे घूरता है कि उसे हर समय हंसना नहीं चाहिए। यह परिवार हरिद्वार से आ रहा है और हावड़ा जा रहा है। मेरे बनारस रुक कर घूमने की सलाह पर पत्नी तो खुश होकर मुस्कुरा दी मगर पती देव ने फिर आंखें तरेरीं! ये मध्यम वर्ग के पती देव टाइप लोग जब अपनी पत्नी के साथ सफ़र करते करते हैं तो थोड़े अधिक शंकालू, थोड़े अधिक बेचैन हो जाते हैं। कुछ लोग समझते हैं कि पत्नी को अपने सर पर भारी बोझ की तरह लादे संभल संभल कर चल रहे हैं। पत्नी जरा सा मुस्कुराई तो बैलेंस बिगड़ जाएगा और गृहस्थी की गाड़ी धड़ाम से गिर जाएगी।
सामने खिड़की के पास बैठी अकेली महिला अधिक आत्म निर्भर और खुश दिखाई पड़ रही हैं। इन्होंने अब खाना मंगा लिया है और वेंडर से बहस करने के बाद पूरे एक सौ तीस रुपए का भुगतान किया है। वेंडर ने जब समझाया कि दाल भात, रोटी सब्जी के साथ दो डिम भी है तब जाकर शांत हुईं। अब सामने निकले तख्ते को खींच कर उसमे खाना खोल कर सजा लिया है और एक एक कौर इत्मीनान से खाए जा रही हैं। भोजन के बाद उन्होंने फिर लिखना शुरू किया! मैंने मोबाइल से देख कर कागज पर लिखने का कारण पूछा.. क्या आप कहीं पढ़ाती हैं? महिला ने बंगाली में उत्तर दिया.. पढ़ाती नहीं हूं, पढ़ रही हूं! मेरे पती की मृत्यु हो चुकी है। मुझे कम्प्यूटर नहीं आता। मैं यह सीख लुंगी तो नौकरी मिल जाएगी! उसने मुझसे कहा है.. कम्प्यूटर सीख कर आओ तो नौकरी दे देंगे! आह! हंसते चेहरे के पीछे जमाने का दर्द और अनवरत चल रहे संघर्ष की पूरी कहानी है!!!
ट्रेन देर से एक स्टेशन पर रुकी है। अपर बर्थ पर बुजुर्ग वैसे ही सो रहे हैं। एक ने करवट बदला है और दूसरे की धोती कुछ और खुल गई है। तास खेलने वाले लेट चुके हैं और मोबाइल हाथ में लिए होमवर्क कर रहे यात्रियों में से एक ने शायद अपना सबक पूरा कर लिया है शेष दो वैसे ही मोबाइल में भिड़े हुए हैं।
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सरसों कट चुके। खेतों में खड़े थे तो फूलों को देख मन कितना हर्षित होता था! अब उनके ठूंठ के ढेर पड़े हैं। अब गेहूं की बालियां लहलहा रही हैं। ये भी कटेंगी एक दिन। जीवन का सब सौंदर्य जीवन के साथ रीत जाता है। शेष बचता है तो राख, मिट्टी, भूसा या फिर जलावन।
सूरज ढल रहा है। रोज उगना और ढलना इसकी नियति लगती है लेकिन विज्ञान कहता है न सूरज उगता न ढलता है। यह पृथ्वी है जो सूरज के चक्कर लगाती है। दृश्य और सत्य में कितना फर्क होता है! मृत्यु एक बार आती है, मृत्यु का भय जीवन भर डराता है। जिस दुख से जीवन भर भागते फिरते हैं, वही मृत्यु दुखों से निजात दिलाती है।
लोहे के घर में सूप लेकर भीख मांगने वाली भी आई है, ताली बजाकर रंगदारी वसूलने वाले छक्के भी चढ़े हैं। एक मांगने वाला दूसरे मांगने वाले को हिकारत की नजरों से देखता है। एक ही धंधे में लगे लोगों में आपस में जबरदस्त प्रतिस्पर्धा होती है फिर चाहे लोहे के घर में पैसे मांगने वाले भिखारी हों, स्वर्ग की सीढ़ी चढ़ाने वाले मन्दिर के पुजारी हों या जनता से वोट मांगने वाले नेता। सभी एक दूसरे को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हुए अनैतिकता के पक्ष में तर्क देते हुए दिखते हैं।
सरसों के ठूंठ को देख एक प्रश्न तो उठता है मन में..इतने हाहाकरी के बाद जी रहे जीवन का हासिल क्या है? क्यों न जब तक जीयें सरसों के फूलों की तरह हंसते रहें और जब झरें, किसी चूल्हे की आंच बने। शायद मनुष्य की किस्मत में विधाता ने यह सौभाग्य नहीं लिखा। बहुत पुण्य किया तो लोगों ने उसकी मूर्ति बना दी। मूर्तियों का हाल तो आप देख ही रहे हैं।
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अपने मार्ग की ट्रेने लेट चल रही हैं आजकल। पटरियों में विकास दौड़ रहा है। किसी स्टेशन पर कोई स्टेशन मास्टर यह बताने की स्थिति में नहीं रहता कि अमुक ट्रेन कब आएगी और कब चलेगी। पूछो तो एक ही जवाब सुनने को मिलता है... कंट्रोलर जाने। कंट्रोलर कई सौ किमी दूर बैठता है। हर स्टेशन मास्टर को अपने कमरे के बाहर लिखवा के टांग देना चाहिए कि ट्रेन कब आएगी यह ऊपर वाला जाने। हानी,लाभ,जीवन,मरण, यश, अपयश हरि हाथ।
रेलवे ने हर श्रेणी के यात्रियों के लिए बाथरूम युक्त इतना बड़ा प्रतीक्षालय क्यों बनवाया है? प्रतीक्षा करने के लिए। ट्रेनें लेट न हों तो स्टेशन और स्टेशन के बाहर पकौड़े वालों को रोजगार आखिर कैसे मिलेगा? चाय की दुकान आखिर कैसे चलेगी? रेलवे भले खुद रोजगार न दे पाए रोजगार का सृजन तो कर ही रहा है। अब तो फ्री वाई फाई की सुविधा भी उपलब्ध है। नहाइए, धोइए, चाय पीजिए, पकौड़े खाइए और आराम आराम से फिलिम देखिए। रेलवे आपकी सुविधा का कितना ख्याल रखता है। ट्रेन चौबीस घंटे लेट हो जाए मगर आपसे कोई अतिरिक्त किराया वसूल नहीं करता। समय से घर जा कर ही क्या पहाड़ धकेल लेंगे? टीवी में समाचार सुनेंगे, फेसबुक/ वाट्सएप चलाएंगे या मोबाइल में कोई गेम खेलेंगे। ये सब काम तो लोहे के घर में भी हो सकता है।
जिन्हें मोबाइल चलाने नहीं आता उनकी जिंदगी बड़ी दुखदाई है। ट्रेन लेट होने पर लोहे के घर में बैठे वृद्ध यात्री इतनी रोनी सूरत बनाकर करवटें बदलते हैं कि क्या कहें! उन्हें यह नहीं पता होता कि तीस किमी दो घंटे में आई। ये तो बस यह जानते हैं कि दिन में घर पहुंच जाना था, अब तो रात हो गई!
मेरे सामने वाली बर्थ पर दो मध्यम वर्गीय परिवार की प्रौढ़ महिलाएं सोई हुई हैं। दुबली पतली हैं तो एक ही बर्थ पर एडजस्ट हो गईं। मध्यम वर्गीय वैसे भी परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने में माहिर होते हैं। महिलाएं लेटने से पहले बैठी थीं। बैठते बैठते बोर हो गईं तो लेट गईं। लेटे लेटे गहरी नींद में चली गईं। गहरी नींद में जाने से पहले कई बार करवटें बदल रही थीं। अब फाइनली गहरी नींद में हैं। क्या आपने कभी पानी से निकली हुई दो जिंदा मछलियों को तड़फते और तड़प तड़प कर शांत होते देखा है? मुझे न जाने क्यों बीच में मछलियों के तड़पने की याद हो आई।
मेरे बगल में वृद्ध आदमी बैठे हैं। ये प्रौढ़ महिलाओं के साथ हैं। सभी वृद्ध ट्रेन की धीमी चाल की चर्चा कर रहे हैं। जाहिर है लेट होने से दुखी हैं। ये सभी लंबी टूर पर हैं। हरिद्वार से चले हैं, बनारस में रुकेंगे और गया भी जाएंगे। आसाम के सीधे साधे साहसी यात्री हैं। सिंदबाद के समय भी साहसिक यात्राएं होती थीं, आज तो भारतीय रेल और बड़े बड़े प्रतीक्षालय हैं। यात्रा करना सभी के लिए सरल हो गया है। न जाने क्यों आजकल ट्रेन में यात्रा करते समय सिंदबाद की साहसिक यात्राओं का स्मरण हो जाता है!
#ट्रेन जलाल गंज में देर से रुकी है। जौनपुर आने में जब ६ किमी रह गया था और आने का समय नेट में 5.49 दिखा रहा था मैं स्टेशन के लिए चला था। 6 किमी आने में इसे एक घंटा लगा और अब तक २० किमी 1.30 घंटे में पहुंची है। अभी ४० किमी और जाना है। इस हिसाब से ६० किमी चलने में लगभग ५ घंटे लगने वाले हैं। ऐसा नहीं कि इसी ट्रेन का यह हाल है। यह देहरादून एक्सप्रेस है। इसके आगे भी ट्रेन खड़ी है, पीछे भी ट्रेन खड़ी है। पटरियों पर ट्रेनें चीटियों की तरह पंक्तिबद्ध हो चल रही हैं। आगे वाली चींटी रुकती है तो पीछे वाली भी रुक जाती है। कब पहुंचेगी यह ऊपर वाला जाने।
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आज लोहे के घर का मौसम कम्माल का है! गोदिया में लेटा हूं, खिड़की से आ रही है शिमला की ठंडी हवा और खिडकी के बाहर चौदहवीं का चांद पूरे शबाब पर है! लेट कर खिड़की से आकाश में झांको तो दूर ऊपर अपनी समस्त चन्द्र कलाओं के साथ मुस्कुरा रहा है चांद।
अंधेरे में डूबी है पूरी बोगी। अधिक रात हो चुकी है, सभी सो रहे हैं अपनी बर्थ पर। भीतर अंधेरा है, बाहर बिखरी है चांदनी। अभी गोमती के पुल से गुजरी है ट्रेन। चांदनी में नहा रही थी नदी। एक भी लहरें नहीं उठीं। कोई तरंग भी नहीं। झिलमिल चांदनी के पद चिन्ह दिखे। मछलियां और गहरे उतर गई होंगी कहीं तलहटी में।
आहा! क्या मस्त ठंडी ठंडी हवा बह रही है। ठंडी हवा के झोंके हल्के हल्के नहीं हैं, तेज तेज हैं। झोंके कभी हल्के हो ही नहीं सकते। जो हल्के होते हैं वे झोंके नहीं हो सकते। पंकज उधास ने जो ग़ज़ल गाई, न जाने कैसे उसके झोंके हल्के हल्के थे!
चांद गुम हो गया! अभी खिड़की से बाहर झांका तो देखा ट्रेन की छत के ऊपर छुप गया। कोई सुंदरी छुप जाती हो जैसे दरवज्जे के ओट में। सुनती रहती हो पर्दे के पीछे खड़ी खड़ी सभी बातें! वैसे ही गुम हो गया चांद! पटरियों पर उछल उछल हवा से बातें कर रही है #ट्रेन। सूरज न दिखे, धूप दिखे जैसे! चांद छुप गया, चांदनी दिख रही है अभी।
किसी छोटे स्टेशन पर ट्रेन जब पटरियां बदलते हुए तेज रफ्तार से भागती है तो लगता है झूला झुला रही है। ठंडी हवा के झोंके, चौदहवीं का चांद और झूला झुलाती हुई अपनी गोदिया। मंजिल की चाह तो होती है मगर सफ़र में जो आनंद है वह मंजिल में कहां! 
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वही लोहे का घर, वही मौसम, वही बर्थ और सामने वही चौदहवीं का चांद बस समय थोड़ा पहले। आज समय थोड़ा पहले है, शायद इसीलिए चांद एकदम सामने है। इतना साफ है कि उसके दाग भी दिख रहे हैं! ठंडी हवा के झोंके आज भी हैं। आज गोदिया नहीं, कोटा पटना है लेकिन है तो लोहे का घर ही।
लेटे लेटे लोहे के घर की खिड़की से देखते रहो चांद को तो जब खिड़की का राड आ जाता है बीच में चांद दो भाग में बटा नहीं दिखता, दो हो जाता है! ऐसा लगता है जैसे दर्पण में खुद को देख रहा है!!! कभी रबड़ सा खींच कर फैल जाता है नीले आकाश में चार अंगुल लंबा, कभी छुप जाता है पल भर के लिए किसी घने वृक्ष के पीछे। ये चांद की शोख अदाएं हैं या मेरी निगाहों का भरम!
ट्रेन दौड़ रही है पटरी पर, ठंडी हवा के झोंके करा रहे हैं एहसास कि हम चल रहे हैं मगर चांद जहां का तहां! काश! हम दौड़ते न रहते पटरियों पर। पंख होते और उड़ कर पहुंच जाते चांद के पास। पोत देते चांद के धब्बों में कोई क्रीम और फिर चुपके से आ कर लेट जाते लोहे के घर के इसी बर्थ पर। तब आइने में अपनी शकल देख पूरा चक्कर में पड़ जाता चांद।
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