एक बार यमराज को कुम्भ मेले में त्रिवेणी दर्शन का मोह जगा। प्रयागराज में गंगा नदी के तट पर एक कुटिया बनाकर रहने लगे। बगल की कुटिया में एक स्वनामधन्य, पहुँचे हुए साधू रहते थे। एक दिन स्नान करते वक्त यमराज जी से पूछ बैठे...
क्या नाम?
यमराज!
साधू नाराज हो गए, क्रोध से बोले, "मूर्ख! मुझसे मजाक करता है!!!" यमराज जी ने विनम्रता पूर्वक कहा, "नहीं महाराज, मजाक क्यों करूँगा? मैं यमराज हूँ, कुम्भ में गंगा स्नान की इच्छा हुई तो साधूभेष बनाकर चला आया।" साधू और भी नाराज, "यमराज हो तो अपना असली रूप दिखाओ।"
'नहीं महाराज। असलीरूप तो तभी दिखाऊंगा जब आपको ले जाना होगा। प्रतीक्षा कीजिए, अभी आपका समय नहीं आया है, समय आने पर देख लीजिएगा।'
अब साधू को चैन कहाँ! परोक्ष में एक ही शब्द जोर से बोले,'मूर्ख!' और चुप लगाकर चले गए लेकिन भीतर तक क्रोध से काँप गए।
उन्हें यकीन ही नहीं था कि यमराज ऐसा भी हो सकता है। अपने चेलों को भेजकर तरह-तरह से यमराज को परेशान करने लगे। इधर यमराज का मन धार्मिकता में पूरी तरह से डूबा हुआ था। गमछा गायब हो जाए, मेहनत से बनाया खाना गायब हो जाय, आँख खुलने पर कुटिया गन्दगी से भरी पड़ी हो, कोई फर्क नहीं। कुटिया की सफाई करते, स्नान करते, ध्यान लगाते और खाना न मिलने पर भूखे ही सो जाते।
उधर साधू ने समझा कि अब तो बुद्धि सही हो गई होगी, एक दिन फिर पूछा, "क्या नाम है तुम्हारा, अब तो अपना असली नाम बता दो?
सुनकर यमराज मुस्कुरा दिए, "जब हम तुमको लेने आएंगे तभी याद होगा कि हम कौन हैं, उससे पहले न स्मरण रहेगा न विश्वास होगा। जो दिन बचे हैं, अनासक्त हो, प्रभु भजन में बिताओ। मुझे तो तुम भी साधू भेषधारी सांसारिक प्राणी लगते हो।"
अब साधू गुस्से से पागल हो गया। इसी पागलपन में भाँग के साथ ढेर सारा धतूरा पीसकर निगल गया। ऐसा बीमार पड़ा कि चेलों ने बहुत इलाज करवाया लेकिन डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए। मृत्यु निकट आई तो उसे लेने यमराज द्वार पर आए। यमराज को देखकर साधू के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान खिल गई, कांपते हुए अपने चेलों से कहने लगा," देखो!यमराज ऐसा होता है, वह दुष्ट कह रहा था, हम यमराज हैं। जाओ! बगल की कुटिया से उसे पकड़ कर ले आओ।" यमराज से बोला, "महाराज! मैं चलने को तैयार हूं लेकिन उसे भी साथ ले चलिए।"
चेलों ने बगल की कुटिया छान मारी, अपने को यमराज कहने वाले साधू का कहीं पता नहीं था। खाली हाथ लौटकर बोले," महाराज! वहाँ तो कोई नहीं है!!! इतने में यमराज हँसकर बोले, 'मैं यहाँ हूँ महाराज, आपके कारण मुझे साधू भेष का त्याग करना पड़ा और कुंभ का आनन्द भी नहीं ले पाया। चलिए, चला जाय। सुना था, आप त्रिकालदर्शी हैं, इसीलिए आप से झूठ नहीं बोल पाया।"
सुनते ही साधू के प्राण निकल गए, यमराज भी कुटिया से गायब हो गया, चेलों को कुछ भी समझ में नहीं आया। न उन्होंने यमराज को देखा न यमराज से हुई अपने 'साधू महाराज' की बात सुनी। उन्हें बस यह लगा कि हमारे 'महाराज' के मरने में, बगल वाले कुटिया में रहने वाले 'साधू' का कोई हाथ है।
....@देवेन्द्र पाण्डेय।
यही सत्य है
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteयथार्थवादी लेखन, मृत्यु हमारे सामने खड़ी हो तब भी हम आँखें मूंदे रहते हैं और फिर अनजाने में स्वयं ही उसको निमंत्रण दे देते हैं
ReplyDeleteजी, धन्यवाद।
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