अपनी सुबह तो रोज ही खूबसूरत होती है, आज तो बहुत खूबसूरत हो गई। रोज 2 कि.मी. साइकिल चलाकर सारनाथ पार्क में जाते हैं, आज संडे है तो सोचा कुछ हिम्मत का काम किया जाय। लगभग 10 कि.मी. साइकिल चलाकर, गांव-गांव घूमते हुए सारनाथ से नमोघाट पार्किंग में साइकिल खड़ी कर, ताला लगाकर, यू ट्यूब बंद कर, मोबाइल में घड़ी देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे और पहुंचने में 50 मिनट लग चुके थे। यू ट्यूब में डाउन लोड किए, कबीर और गोरखनाथ के सभी भजन खतम हो चुके थे।
सूर्यदेव के दर्शन के लिए पलकें ऊपर उठानी पड़ रही थीं, मतलब हमको 30 मिनट पहले घर छोड़ना चाहिए था। आकाश में बादल के टुकड़े भी छाए थे, देव ताप नहीं बरसा रहे थे, अभी तक शीतलता बनी हुई थी। नमो घाट में घूमते हुए प्रहलाद घाट वाले अजय बाबू और उनकी नींबू की चाय तलाशने लगा लेकिन आज वे भी नहीं दिखे। हम भी कई हफ्ते बाद आए थे। समय एक सा नहीं रहता, पहले जाड़ा था, नींबू की चाय खूब बिकती थी, अब गर्मी आ चुकी, क्या पता, बेल का शरबत बेच रहे हों!!! कुछ भी हो सकता है।
नमो घाट में भीड़ वैसी ही थी। लोग उगते सूरज, राजघाट पुल, हाथ जोड़ती मूर्तियों और एक दूसरे की तस्वीरें खींचने में आत्ममुग्ध थे। बच्चे एक गाइड के निर्देशन में स्केटिंग सीख रहे थे। हरतरफ खुशनुमा माहौल था। नमो घाट, नया बना बड़ा घाट है, हम जितना देख पाए उतना ही लिख सकते हैं, बहुत कुछ ऐसा भी हो रहा होगा जो हम नहीं देख पाए।
राजघाट पुल के नीचे से होते हुए नमो घाट से आगे बढ़े तो संत रविदास के भव्य मंदिर के सामने घाट पर बड़े नावों, बजड़ों पर लगे बड़े-बड़े स्पीकरों से भजन का कान फाड़ू शोर सुनाई दिया! भजन को भी मधुर होना चाहिए, कर्ण प्रिय होना चाहिए, संगीतमय होना चाहिए, उतने ही वॉल्यूम में बजाना चाहिए कि कर्ण प्रिय लगे, हम प्रयास करके सुनें और सुनकर हमें अच्छा लगे। यह न हो कि भजन के अलावा हमें कुछ भी सुनाई न दे। हम मजबूर होकर भजन ही सुनते रहें जो भजन न होकर एक शोर लगे। भजन के नाम पर होने वाले इस ध्वनि प्रदूषण पर प्रतिबंध लगना चाहिए। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का प्रत्यक्ष पाठ पढ़ाने वाले महामानव ' संत रविदास' के भव्य मंदिर के सामने तो यह शोर और भी विरोधाभाषी लग रहा था। मरणोपरांत महामानव का मन्दिर बना कर भगवान बना देने से कुछ नहीं होगा, हमको उनके द्वारा दी गई शिक्षा पर भी कुछ अमल करना चाहिए। हम जल्दी-जल्दी वहां से आगे बढ़े कि शायद दूर से अच्छा लगे लेकिन हाय! मुझे तो संगीत दूर से भी कर्ण प्रिय नहीं लगा।
थोड़ा और आगे बढ़ कर एक घाट पर शांति से बैठकर गंगा की कल-कल, नावों के चप्पुओं की छल-छल, पंडों के मंत्रोच्चारण और गंगा स्नान के बाद भक्तों के खुशी के अतिरेक में लगाए गए नारों 'हर हर महादेव' 'हर हर गंगे' की आवाज जब कानों में पड़ने लगी तो शोर सुनकर अशांत हुआ अपना मन कुछ शांत हुआ। आज गंगा स्नान, दर्शन/भक्ति के मूड में नहीं था, घूमने और साइकिलिंग के मूड में था, कुछ देर बैठकर लौट चला। स्पीकर के शोर से बचते बचाते अपने साइकिल तक पहुंचा और साइकिल लेकर लौट चला।
बसंत महाविद्यालय की सड़क पकड़ कर आगे चला और अपने प्रिय 'जीवित कुएं' के पास साइकिल खड़ी की। जीवित कुआं इसलिए लिखा की बहुत से कुएं अब मर चुके हैं। घर-घर में मशीन के द्वारा बोरिंग से पानी की निकासी होती है। ऐसे में किसी समाज ने कोई कुआं अभी तक जिंदा रखा है तो वह पूरा समाज ही साधुवाद का पात्र है। कुएं की शक्लोसूरत और सीरत आज भी 50 वर्षों पुरानी है जब हम बचपन में गली के बाल सखाओं के साथ पानी पीने के लिए आते थे। थोड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि इसको लोहे की जाली से ढक दिया गया है और पानी निकालने के लिए चापाकल (हैंड पाइप) लगा दिया गया है। एक आदमी 'चापाकल' चलाता है, दूसरा पानी पीता है। हम कुछ देर पास बने चबूतरे पर बैठे और थोड़ी देर सुस्ताने के बाद पेट भर पानी पिए। जिसने पानी पिलाया उसने बकायदा नीचे चप्पल उतारा, बड़ी श्रद्धा से कुएं की जगत को छू कर नमन किया और हैंड पाइप चलाया। पानी पिलाते हुए बोल रहा था, "ऐ भैय्या! भगवान जी यही न हउअन!" अब इतनी श्रध्दा और विश्वास आपको हर स्थान पर कहां मिलेगा? पानी तो मीठा था ही, मुझे तो पिलाने वाला भी भगवान का कोई दूत लग रहा था। मैने अमृत नहीं पिया इसलिए नहीं कह सकता कि पानी अमृत के समान था लेकिन इतना तो कह ही सकता हूं कि पानी पी कर मन भी तृप्त हो जाता है। शायद इसीलिए इसे 'अमृतकुंड' कहते हैं।
पानी पीकर, आदिकेशव घाट और उसके बगल में बने शमशान घाट को पार कर साइकिल चलाते हुए वरुणा गंगा के संगम तट पर बने पुल से गुजरते हुए, थाना सराय मोहाना, गांव कोटवा पार करते हुए अपने चिरपरिचित पुलिया पर बैठ गया। आज भक्ति/दर्शन के मूड में नहीं था तो आदिकेशव मन्दिर नहीं गया। बिना नहाए मन्दिर में प्रवेश की इच्छा नहीं होती, बचपन में पड़ा संस्कार कभी पीछा नहीं छोड़ता। मन्दिर में विष्णु भगवान की सुन्दर प्रतिमाएं हैं और घाट भी खूबसूरत बना है।
पुलिया में पहले से चार लोग बैठे हुए थे। एक वृद्ध नेपाली टोपी पहनकर बैठे हुए थे, उन्होंने अपना नाम 'घन बहादुर सिंह' बताया। मैने उनका परिचय पूछा तो बताने लगे कि वे 2005 में नलकूप विभाग से सेवानिवृत हुए हैं, यहीं पास ही गांव में घर बनाकर वर्षों से रह रहे हैं। 18 वर्ष तो सेवानिवृत्त हुए हो चुके, पत्नी का देहांत हो चुका, बिटिया और दामाद भी पास रहते हैं, 11 साल का तो नाती हो चुका। मैने कहा, "यह दिन तो सभी को देखना है, दो में से किसी न किसी को तो पहले जाना ही होगा, आप पहले जाते तो उनको अकेले रहना पड़ता, जो भगवान करते हैं, अच्छा ही करते हैं, आप तो पुलिया पर बैठकर, खैनी खाते हुए, आपस में बतियाते हुए जीवन काट रहे हैं, आपके स्थान पर आपकी श्रीमती जी होतीं तो उन्हें इस समाज में जीवन जीना और भी कठिन होता। ईश्वर ने आपको खूब स्वस्थ रखा है, आपको देखकर तो लगता ही नहीं कि आप इतने बुजुर्ग हैं!" मेरी बात सुनकर वे प्रसन्न दिखे, शेष तीनों ने भी मेरी बात का समर्थन किया, इस तरह पुलिया में बैठे-बैठे मेरी थकान भी दूर हुई और अजनबियों से मीठी बातें भी हो गईं।
दोस्तों से मीठी बातें करना आसान है, बड़ी बात तो तब है जब अजनबियों से मीठी बातें हों। रोज-रोज लोहे के घर में अजनबियों से बतियाने के अनुभव ने मुझे ढीठ बना दिया है, अजनबी से भी खूब बातचीत हो जाती है। एक बात मैने और अनुभव किया कि जितनी सहजता और प्रेम से गरीब/अनपढ़ वर्ग के लोग खुलकर बतियाते हैं, यह अपनापन पढ़े लिखे रईसों और शिक्षित वर्ग में ढूंढे नहीं मिलता। शिक्षित रईसों में कभी एकाध लोग प्रेम से बोलने वाले मिल जाएं तो भाग्य की बात है। उनके अपने गुरूर और सिद्धांत होते हैं, वाम मार्गी या दाम मार्गी होते हैं, पूर्वमुखी या दक्खिन मुखी होते हैं, वे अपने अहंकार के तले इतने डूबे होते हैं कि सामने वाले को तुक्ष जीव समझते हैं।
ग्रामीण परिवेश में सीधे/सरल लोगों से बातें करके मन एकदम हल्का हो गया। उनसे विदा लेकर, फिर किसी संडे को मिलने का वादा करके जब मैं वापस चला तो मेरी साइकिल सड़क पर दौड़ रही थी और मन हवा में उड़ रहा था। आज की सुबह बहुत खुबसूरत थी।
... @देवेन्द्र पाण्डेय।
आभार आपका।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteआभार।
Deleteअति रोचक
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