कामायनी एक्सप्रेस
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लम्बी यात्रा है, कामायनी एक्सप्रेस है, बनारस से जा रहे हैं भोपाल। रोज की यात्रा भले स्लीपर में करें, लंबी यात्रा में अपन ए.सी. बोगी में बर्थ रिजर्व करा लेते हैं। कोई एक घण्टे की यात्रा तो है नहीं, खड़े-खड़े भी हो जाएगी, पूरे 16 घण्टे निर्धारित हैं, अधिक भी हो सकते हैं! लंबी दूरी की यात्रा में, ए.सी. में बर्थ न मिले तो चढ़ना ही नहीं है, कौन स्लीपर में चढ़कर फजीहत मोल ले!
लफड़ा यह है कि अपनी साइड अपर है और अभी मुझे ऊपर चढ़ने और नीचे उतरने में तकलीफ होती है। फिलवक्त साइड लोअर में ही लेटा हूँ, बर्थ का मालिक अभी आया नहीं है। हमसे भी बुजुर्ग हुए तो हमको ही ऊपर जाना पड़ेगा, कम उम्र के हुए तो उन्हीं से ऊपर जाने का अनुरोध किया जाएगा। बहरहाल जो भी हो, अच्छा ही होगा। प्रयागराज तक तो सफर ऐसे ही चलेगा।
मेरे सामने के बर्थ में सभी आ चुके लगते हैं, एक के टिकट में कुछ लोचा है, उसे नींद भी आ रही थी, मेरी बर्थ पर लेटा है, मैने भी कह दिया है, "जब तक कोई मुझे नहीं उठाएगा, आप आराम से अपनी नींद पूरी कर लीजिए।"
ट्रेन में बैठते ही कुछ लोगों को भूख लगती है या दूसरों को बताना चाहते हैं कि हम टिफिन वाले हैं, टिफिन खोल कर बैठ जाते हैं और चटखारे लेकर खाने लगते हैं! मेरे सामने बैठे युवकों की भी जब टिफिन खतम हुई तो उनकी सिसकियों को देख मैने अपना झोला आगे बढ़ा दिया, "मिठाई है, खाना चाहें तो खा सकते हैं, वैसे अजनबियों का दिया कभी नहीं खाना चाहिए, आपकी मर्जी!" वे पेट पकड़ कर हँसने लगे, "अंकल जी! आप भी कमाल करते हैं, दोनो बातें करते हैं! अब कोई कैसे खाएगा?" मैने कहा, "मर्जी आपकी, मैने तो अपना दोनो फर्ज निभाया है। आपको सिसकते भी नहीं देख सकता, गलत आदत भी नहीं डाल सकता! मैं इसी डिब्बे से खा रहा हूँ, शेष हिम्मत आपको करना है, वैसे अजनबियों के हाथ से वाकई कुछ नहीं खाना चाहिए!"
वे हँसते रहे, अपने बोतल से निकालकर पानी पीते रहे, मेरी मिठाई नहीं खाई। इस तरह सबका कल्याण हो गया, उन्हें नसीहत भी मिल गई, मेरी मिठाई भी बच गई, वैसे मेरे पास बहुत मिठाई है, वे खतम करना चाहें तो भी खतम नहीं होगा, हिम्मत उनकी, मैं क्या कर सकता हूँ!
अब सूर्यास्त हो चुका है, बाहर अँधेरा छाने को है, भीतर रोशनी हो चुकी है। लोहे के घर में, शाम के समय, रोज ऐसा होता है, जितना बाहर अँधेरा छाने लगता है, भीतर उतनी रोशनी फैलती जाती है। असल जीवन मे भी ऐसा हो तो कितना आनन्द आ जाय! जब-जब हम अंधेरों से घिरें, भीतर रोशनी हो जाय।
प्रयागराज में वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था, एक दम्पत्ति आए और महिला का हवाला देकर, मेरे साइड अपर की बर्थ में जाने से साफ इनकार कर दिया। मुझे ही अपने बर्थ पर ऊपर चढ़ना पड़ा। ट्रेन लगभग 30 मिनट प्रयागराज में खड़े होने के बाद अब चल चुकी है।
जब तक खुद ऊपर न जाओ, स्वर्ग नहीं मिलता। यहाँ बहुत आनन्द है। सभी बर्थ पर निगाह पड़ रही है और उनकी बातें सुनाई पड़ रही हैं। एक समय ऐसे ही ऊपर लेटा था तो कल्पना में सही, सभी ब्लॉगरों को एक साथ यात्रा करते हुए देख लिया था! अभी एक महिला पूड़ी का डिब्बा खोलने की खूब कोशिश कर रही हैं, बोली अवधी है, अपने जौनपुर साइड की। बड़ी मेहनत से महिला ने डिब्बा खोला, पूड़ी अखबार में बिछाई और तुरंत उनके श्रीमान जी दोनो हाथों से शुरू हो गए! बनाने/रखने में इनका कोई योगदान नहीं दिखा, अब खाने में भरपूर साथ निभा रहे हैं। हम उनसे कुछ नहीं कहेंगे, हम बोले तो ये हम पर ही चढ़ बैठेंगे, "कमा कर लाया कौन है?" बस चुप होकर लीला देखने और बातें सुनने में आनन्द है।
अब सभी ने अपना टिफिन खाली कर लिया है और सुफेद चादर चढ़ा कर लेट चुके हैं। देखा देखी हमने भी यह नेक काम कर लिया, टिफिन खाली करी और चादर चढ़ा ली। कोरोना काल के बाद बहुत दिनों तक ट्रेनों में कम्बल/चादर नहीं मिलता था, रंग बिरंगे चादर दिखते थे। अब फिर वही सुफेद चादर वाले जिस्म दिखने लगे! हाँ, लोग अभी मेरी तरह मोबाइल चला रहे हैं, किसी से बात कर रहे हैं या वीडियो देख रहे हैं तो पोस्टमार्टम हाउस में एक के ऊपर एक डिब्बों में रखे जिस्मो जैसा भयावह माहौल नहीं है। अभी तो आवाज आ रही है, "कहाँ पहुंच्या?"
अब वेंडर खाना-खाना चिल्लाते हुए घुसे हैं! इस कूपे के सभी लोग खा/पी चुके, कोई खाना नहीं मांग रहा। एक यात्री ने पूछा,"नॉन वेज में क्या है?" वेंडर ने साफ इंकार कर दिया, "भाई साहब! यहाँ केवल वेज मिलता है!" सुनकर अच्छा लगा, "प्रयागराज के वेंडर भी शाकाहारी हैं!"
खाना-खाना वाले गए अब पानी-पानी वाले आ गए। इनका तालमेल अच्छा है। 'खाना' के बाद 'पानी' तो चाहिए ही होगा! यह अलग बात है कि इस कूपे के सभी लोग अपनी टिफिन, अपनी पानी की बोतल वाले थे! अब वेंडर बिचारे मुँह बनाकर जाने के सिवा कर ही क्या सकते हैं!
कामायनी सही समय से चल रही है। अभी सुबह के 5.15 हुए, भोपाल से लगभग 150 किमी दूर, 'बीना' स्टेशन में खड़ी है। रात अच्छी नींद आई। मुझे नींद अच्छी ही आती है। रात 10 बजे के बाद कोई जगा नहीं सकता, सुबह 4 के बाद कोई सुला नहीं सकता। अब अपवाद हर नियम में होते हैं, अब बीती रात को ही याद करें तो बीच-बीच में चढ़ने वाले टॉर्च जलाकर अपनी सीट ढूँढने के लिए और उतरने वाले खुशी में आपस मे बतियाते हुए जगा ही रहे थे! फिर भी, जो नींद मिली वो अच्छी ही माननी चाहिए।
सफर में नींद पूरी होने का एहसास हुआ! यही क्या कम है? सब चाय वाले की कृपा है। नहीं, सच कह रहा हूँ, जैसे अभी करीब से चाय-चाय चीखते हुए, एक चाय वाला गुजरा, वैसे रात भर गुजरते तो कौन सो पाता भला? एक भी चाय वाला रात्रि जगाने नहीं आया, हम सो पाए, यह उसी की कृपा है। सब महसूस करने की बात है, रात सो लिए तो अच्छे दिन अपने आप आ जाएंगे! बिना चाय वाले की कृपा से अच्छे दिन आ ही नहीं सकते, यह ज्ञान कोई चाय की अड़ी नहीं, लोहे का घर ही दे सकता है।
लेकिन यह ट्रेन अभी तक 'बीना' में ही क्यों खड़ी है? 5.10 सही समय पर आई, 5.54 हो गए! इसे तो 5 मिनट रुक कर चल देना चाहिए था!!! 50 मिनट से रुकी है। कोई कारण होगा, ट्रेन अकारण कभी नहीं रुकती, इसीलिए अभी भी इसकी यात्रा सुरक्षित मानी जाती है, अब अपवाद तो हर नियम में होते हैं, कुछ भी पूर्ण नहीं होता।
कोई-कोई मौका ताड़कर बाथरूम जा रहा है, शेष अभी सोने के मूड में लगते हैं। सूर्योदय का समय हो तो बर्थ से नीचे उतरकर दरवाजे के पास चला जाय, आज सूर्यदेव का दर्शन नहीं किया तो दिन कुछ अधूरा-अधूरा लगेगा। उगते सूर्य और घटते/बढ़ते चाँद का दर्शन तो हर व्यक्ति को रोज करना चाहिए, इससे ही तो एहसास होता है कि हम धरती के प्राणी हैं! नदियाँ, झरने, पहाड़, समुंदर और बाग-बगीचे तो किस्मत की बात है। कुछ न मिले तो लोहे के घर से ही उगते सूर्य का दर्शन करना चाहिए। कोई ट्रेन सामने से आई है, लगता है, अब अपनी वाली चलेगी।
...@देवेन्द्र पाण्डेय।
05/06 मार्च 2023 की पोस्ट है।
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