8.8.10
आजादी के 63 साल बाद.....
एक जनगणना मकान
एक प्राचीन शहर। बेतरतीब विकसित एक मोहल्ले की गलियाँ। गलियों में एक मकान । मकान के दरवाजे पर कुण्डी खड़खड़ाता, देर से खड़ा एक गणक । उम्र से पहले अधेड़ हो चुकी एक महिला घर से बाहर निकलती है-
का बात हौ..?
क्या यह आपका मकान है ?
हाँ, काहे ?
देखिए, हम जनगणना के लिए आये हैं, जो पूछें उसका सही - सही उत्तर दे दीजिए.
ई जनगणना का होला..?
गणक समझाने का प्रयास करता है कि इस समय पूरे देश में मकानों की और उन मकानों में रहने वाले लोगों की गिनती हो रही है. सरकार जानना चाहती है कि हमारे देश में कुल कितने मकान हैं, कितने पुरुष हैं, कितनी महिलाएं हैं, कितने बच्चे हैं .....
वह बीच में ही बात काट कर पूछती है...
ऊ सब त ठीक हौ मगर ई बतावा कि एहसे हमें का लाभ हौ..? का एहसे हमरे घरे पानी आवे लगी ? बिजली कs बिल माफ़ हो जाई ? लाईन फिर से जुड़ जाई ?....तब तक दो चार महिलायें और जुड़ जाती हैं.. हाँ भैया, एहसे का लाभ हौ ?
प्रश्नों से घबड़ाया गणक अपना पसीना पोछता है, प्यास के मारे सूख चुके ओठों पर अपनी जीभ फेरता है और फिर से सबको समझाने का प्रयास करता है..
देखिए, जैसे आपको रोटी पकाने के लिए आंटा गूंथना पड़ता है तो आप कैसे गूथती हैं .? कितना आंटा गूथेंगी ? जब तक आपको यह न मालूम हो कि घर में कितने लोग खाने वाले हैं ? वैसे ही सरकार यह जानना चाहती है कि अपने देश में कितने लोगों के लिए योजना बनायें, कितने स्कूल खोले जायं, कितने अस्पताल बनायें, कितनी सड़क, कितने मकान की आवश्यकता है, जो मकान हैं उनमें लोग कैसे रहते हैं..? मकान कैसा है, बिजली पानी है कि नहीं , जब तक सरकार को पूरी स्तिथि की जानकारी नहीं होगी वह कैसे अपनी योजनायें बनायेगी..! ईसीलिये सरकार हर १० वर्ष में अपने देश की मकान गणना और जनगणना कराती है.
मतलब एकरे पहिले भी जनगणना भयल होई ! अबहिन ले सरकार का उखाड़ लेहलस ? कम से कम हर घरे में बिजली पानी त मिलही जाएके चाहत रहल ! हम समझ गैली तोहरे जनगणना से हम गरीबन कs कौनो भला होखे वाला नाहीं हौ. सब बेकार हौ....
अरे, अभी आप नहीं बतायेंगी तो भविष्य में भी कोई लाभ नहीं होगा. जनगणना नही होगी तो मतदाता पहचान पत्र कैसे बनेगा ? वोटर लिस्ट में कैसे नाम चढ़ेगा ?
अच्छा तs ई सब वोट खातिर होत हौ..! हमें नाहीं करावे के हौ जनगणना, हमार समय बर्बाद मत करा, अब ले तs हम दुई घरे कs बर्तन मांज के आ गयल होइत.
सरकार पर, सरकारी कर्मचारियों की बातों पर, सरकारी योजनाओं पर, देश की राजनीति और नेताओं पर गरीब जनता का इतना अविश्वास देख गणक हैरान था. अपना हर वार खाली होते देख वह पूरी तरह झल्ला चुका था. अंत में हारकर उसने ब्रह्मास्त्र ही छोड़ दिया...
देखिए, अगर आपने सहयोग नहीं किया तो हमें मजबूर हो कर लिख देना पड़ेगा कि इस मकान के लोगों ने कोई सहयोग नहीं किया फिर पुलिस आके पूछेगी, तब ठीक है..?
तीर ठीक निशाने पर बैठा .
अच्छा तs बताना जरूरी हौ..?
कब से तो कह रहा हूँ . आप लोगों की समझ में ही नहीं आ रहा है. हाँ भाई हाँ, बताना जरूरी है.
एहसे हमार कौनो नकसान तs ना हौ !
नाहीं.
अच्छा तs पूछा, का जाने चाहत हौवा..?
क्या यह आपका मकान है ?
हाँ.
यहाँ कितने लोग रहते हैं ?
चार .
घर के मुखिया का नाम ?
कतवारू लाल ..
इनकी पत्नी का नाम ?
अरे, उनकर शादी ना भयल हौ. पागल से के शादी करी ? देखा सुतले हउवन... गणक ने एक कमरे वाले जीर्ण-शीर्ण घर के भीतर झाँक कर देखा. एक कृषकाय ढांचा, खटिये पर पड़ा-पड़ा ऊंघ रहा था. पलट कर पूछा ...
आप इनकी कौन हैं ?
महिला ने बताया..ई हमार बड़का भैया हउवन...!
अच्छा ! और कौन-कौन रहता है यहाँ ?
हमार तीन भैया अउर एक हम .
अउर दो लोगों की शादी हो चुकी है ?
हाँ.
उनके पत्नी-बच्चे ! वे कहाँ हैं ?
उन्हने कs मेहरारू लैका यहाँ नाहीं रहलिन, नैहरे रहलिन.
अरे, अभी नहीं हैं दो-चार दिन में आ जायेंगी ना !..गणक ने जानने का प्रयास किया .
नाहीं sss......चार पांच साल से नैहरे रहलिन. कब अयीहें कौन ठिकाना !
क्यों ? क्या तलाक हो गया है ?
अरे नाहीं ..ई तलाक - वलाक बड़े लोगन में होला. यहाँ खाए के ना अटल तs चल गयिलिन नैहरे.
तब तक दूसरा भाई भी आ गया...
बढ़ी हुई बाल-दाढ़ी, कमर पर मैली लुंगी, बाएं कंधे पर गन्दा गमछा. लड़खड़ाते-डगमगाते हुए आया और आते ही धप्प से बैठते हुए पूछने लगा...
का बात हौ साहब..?
भगवान का लाख शुक्र वह जल्दी ही बात समझ गया या फिर भीतर कमरे से सुन रहा हो...!
क्या करते हो ?
कुछ नाहीं साहब.
अरे ई का करिहें, साल भर से बिस्तर पर बीमार पड़ल हउवन. ..बीच में ही उसकी बहन ने बताया.
क्या तुम्हारी पत्नी तुम्हें छोड़ कर चली गयी है ?
हाँ, मालिक.
क्यों चली गयी ?
गरीबी सरकार.
राशन कार्ड नाहीं बना ?
राशन कार्ड हौ मालिक लेकिन राशन उठाए बदे पैसा ना हौ.
ओफ़ ! तीसरा भाई.? वह क्या करता है ?
मजदूरी सरकार .
उसकी पत्नी बच्चे ?
वोहू यहाँ ना रहलिन.
क्यों ?
गरीबी सरकार.
अच्छा तो आप बतायिए, आप यहाँ क्यों रहतीं हैं ? क्या आप की शादी नहीं हुई ?
शादी भयल हौ, लेकिन हम यहीं रहीला.
काहे ?
उहाँ भी अइसने गरीबी हौ. हमे खियाए बदे हमरे मरद के पास पैसा ना हौ. उनकर नाक, उनकर गरीबी से बहुत लम्बी हौ. बाहर काम करी ला तs उनकर नाक कट जाला. ईहाँ भाई के घरे कम से कम २-४ घरे कs चूल्हा-चौका करके दू रोटी भरे कs कमा लेईला. कइसेहू पेट कट जात हौ साहब. काहे हमरे गरीबी कs हाल जाने चाहत हौवा ? एहसे आपके का लाभ होई ?
गणक उनकी बातों से मर्माहत और भौचक था. उसे शायद अंदाजा नहीं था कि अभी भी अपने देश में इतनी गरीबी है ! पत्नियाँ, पतियों को छोड़ कर नैहर जा कर, बर्तन मांज कर जीवन यापन कर रहीं हैं. घर में रहकर बाहर काम करने में पतियों की इज्जत जाने का खतरा है.! यह कैसी नाक है ! यह कैसा समाज है ! ये कैसी पंचवर्षीय योजनायें हैं जिनका लाभ आजादी के सत्तरवें दशक तक इन ग़रीबों से कोसों दूर है ! यह कैसी व्यवस्था है ! उसने बात का रुख मोड़ा और अपने को जल्दी-जल्दी समेटने की गरज से सीधा-सीधा प्रश्न करना शुरू कर दिया..
घर में नल है ?
नल हौ पर पानी नहीं आवत.
बिजली है ? तार तो लगा है !
बिजली कट गयल हौ, बिल जमा करे बदे पैसा ना हौ.
घर में कितने कमरे हैं ?
यही एक कमरा हौ . बाक़ी आँगन . जौन हौ आपके सामने हौ सरकार. हमार बात सरकार की तरह झूठ नाहीं होला, गरीब हयी सरकार !
कीचन हौ ?
का ?
खाना कैसे पकता है ? गैस के चूल्हे में, मिट्टी के तेल से ?
अरे नाहीं सरकार, कहाँ से लाई गैस, स्टोव ! लकड़ी-गोहरी, बीन-बान के कैसेहूँ बन जाला ....
गणक ने जल्दी-जल्दी अपना फ़ार्म पूरा किया, रूमाल से माथे का पसीना पोंछा और लम्बी साँसें लेता हुआ घर से बाहर निकला. उसके मुंह से एक वाक्य आनायास निकल गया ...गरीबी हौ सरकार.!
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सरकार तक पहुंचेंगी ये भावनायें? व्यस्त हैं वो लोग तो कॉमनवैल्थ का भव्य आयोजन करने में, आखिर विदेशियों के सामने देश की इज्जत का सवाल है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत बुनावट है सत्य और कथ्य की ! हर अगली लाइन नया चमत्कार करती हुई !
ReplyDeleteहाँ भैया, एहसे का लाभ हौ ?
अच्छा तs ई सब वोट खातिर होत हौ...
फिर पुलिस आके पूछेगी
एहसे हमार कौनो नकसान तs ना हौ !
बाहर काम करी ला तs उनकर नाक कट जाला
गरीब हयी सरकार !
गज़ब देवेन्द्र भाई गज़ब का व्यंग है !
अति-प्रभावी अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteगणक ने जल्दी-जल्दी अपना फ़ार्म पूरा किया, रूमाल से माथे का पसीना पोंछा और लम्बी साँसें लेता हुआ घर से बाहर निकला. उसके मुंह से एक वाक्य आनायास निकल गया ...गरीबी हौ सरकार.!
ReplyDeleteAah nikalti hai bas!
सत्य को बहुत खूबसूरत कथानक के साथ बुना है....क्या कोई नेता इसे पढ़ेगा ?
ReplyDeleteकाश इसे पढ़ सरकार की आँखें खुल सकें .
बहुत अच्छा आखों जैसा देखा हाल वर्णन किया है अपने ।
ReplyDeleteहकीकत तो यही है । सब जानते हैं , मानते हैं लेकिन कुछ करते नहीं ।
बढ़िया आलेख ।
वैसे वास्तव में इस स्ब्स्से होने क्या वाला है सही पूछा अम्मा जी ने जनगणना से न तो महगाई कम होने वाली न रोज़गार बदने वाला तो हिसाब लगा कर सिर्फ इतना पता चलेगा की कित्नेलोग आज भी इस आज़ाद देश में भूखे सोते है !
ReplyDeleteअरे यह देश तो सोनिया ओर मन मोहन का है ओर दस साल तक इन्हे बेठे रहने दो...... जो एक कमरे का मकान है वो भी छिन जायेगा... आंखो देखा हाल सुन कर रोंगटे खडे हो गये जी.....
ReplyDeleteपोल खोलता आलेख लिखने के लिए आभारी हूँ.
ReplyDeleteआपने वो सच्चाई उजागर की हैं, जो जानते-समझते तो सभी हैं लेकिन दुर्भाग्य से इन सब समस्याओं के समाधान का प्रयास कोई नहीं करता.
वेल ड़न जी, बहुत बढ़िया.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
घर में नल है ?
ReplyDeleteनल हौ पर पानी नहीं आवत.
बिजली है ? तार तो लगा है !
बिजली कट गयल हौ, बिल जमा करे बदे पैसा ना हौ.
घर में कितने कमरे हैं ?
wah!...kitani sundar prastuti!
bahoot hi shaandaar post. meri badhai.
ReplyDeleteसार्थक आलेख..काश! सुनने वाले सुनें.
ReplyDeleteई गरीबी हौ सरकार !...कहानी नाहीं ई तो सत्य-कथा हौ सरकार
ReplyDelete!....बहुत खूब,येक शानदार रचना.
marmaahat kar gayi sacchhayi.kitni kushalta se aap ne vishay ka tana bana buna kaabile tareef hai.
ReplyDeleteबहुत सटीक सिक्सर है.
ReplyDeleteरामराम
आपकी प्रस्तुति प्रभावशाली है...
ReplyDeleteअसर भी लाएगी...देखते रहिए.
देवेंद्र भाई साहब!बस आज चुप्पै रहे कS मन करित हवे!
ReplyDeleteबहुत उम्दा प्रस्तुति..हक़ीकत से रूबरू कराया आपने और बेहद रोचक अंदाज में..सबसे बड़ी बात बनारसी बोली में तो बहुत लाज़वाब लग रही थी यह रचना..खूब कही जनगणना अधिकारी की हाल....बधाई चाचा जी
ReplyDeleteहिलाकर रख देने वाला व्यंग। जब जनों की परवाह ही नहीं तो जनगणना का क्या महत्व।
ReplyDeleteमेरे लेख पर टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद जी , आपको किस नाम से संबोधित करें ...बेचैन आत्मा जी ...हम तो बस अपने बच्चों से क्या दुनिया भर के बच्चों से प्यार करते हैं , बच्चों की सफलताएं उनकी अपनी हैं ...बस हमें तो ठंडी हवाएं आती हैं और हम खुश हो लेते हैं । खैर आपके ब्लॉग पर आकर आपका नाम भी पता चल गया , आपका लेख गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते लोगों के बारे में बहुत कुछ बता गया , और वो नाक वाली बात ..अच्छी प्रस्तुति ...
ReplyDeleteपढ़ कर गणक और गणों दोनों की ही स्थितियों ने बेचैन कर दिया. वास्तव में सुन्दर व्यंग्य गढ़ा है आपने!!
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteपोस्ट ’जनगणना’ के बारे मे नही वरन ’जन’ के बारे मे है..यह पूरा पढ़ने के बाद ही समझ आता है..
ReplyDeleteमकानवालो के पूछे सवालात बहुत वाजिब हैं..और उनकी चिंताएं और संदेह भी वास्तविक है..रोटी के लिये जूझते लोगों के लिये सरकारी योजनाएं मायने नही लगतीं जब तक उनकी जिंदगी मे कोई सकारात्मक फ़र्क नही आता..यह बात सही कहती है वह ’हमार बात सरकार की तरह झूठ नाहीं होला, गरीब हयी सरकार’
..गणना के बाद हर दशक मे सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती गरीबी और गरीबों की तादात सरकारी नीतियों की असफ़लता का ही प्रमाण हैं..
..पोस्ट की भाषा खास लगती है..हकीकत अच्छे से उभर के आती है..वहीं हल्की-फ़ुल्की शैली विषय पर गैरजरूरी गंभीरता का मुलम्मा भी नही चढ़ने देती..आपकी परिचित शैली...
यह है असली भारत और हम आजादी का जश्न मनाने को एक बार फिर तैयार हैं !
ReplyDeleteबहुत बढियां /उफ़ अफसोसनाक तस्वीर दिखा दी है आपने !
bahut sahi farmaya aapne... bahut gehrayi se likha gaya hai...
ReplyDeleteMeri Nai Kavita padne ke liye jaroor aaye..
aapke comments ke intzaar mein...
A Silent Silence : Khaamosh si ik Pyaas
देश के जर्जर होते हालात का कच्चा चिठ्ठा है आपकी ये पोस्ट...वाह...
ReplyDeleteनीरज
व्यग्य-कथा ने बेहद सहजता सेआक्रामक वार किया है !
ReplyDeleteप्रभावी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबेचैन आत्मा जी , ज्यादा क्या कहूँ ! बस इतना ही कहूंगा कि जिस गद्य-लेखन का विनम्र अनुरोध महीनों पहले मैंने आपसे किया था उसे विकसित होते देख पुलकित हो रहा हूँ ! किमाधिकम् !
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन प्रस्तुती और कटाक्ष
ReplyDeleteachha likha hian
ReplyDeleteएक जनगणना मकान...व्यंग्य पढ़ा...सटीक रचना के लिए बधाई...
ReplyDeleteव्यंग्य बिलकुल सहज है..हार्दिक बधाई...
ReplyDeleteवास्तविकता को बहुत अच्छे से लिखा है। गहरे मे जा कर समस्या को देखना और महसूस करना और सब से बाँटना --- लेकिन जिसे सुनना है वो सरकार तो कानों मे तेल डाले बैठी है। बहुत अच्छा लगा आलेख। धन्यवाद।
ReplyDeleteफ़ुरसतिया जी पर आपका सुन्दर कमेन्ट पढ़कर बस यहीं चला आया , यहाँ ऊपर बदला हुआ चित्र बड़ा मनभावन लगा ! आभार !
ReplyDeleteसच को उजागर किया है | वैसे यह गणक ईमानदारी से काम कर रहा था |अनेक गणकों ने तो नाम और पते के अलावा अन्य जानकारी अपने अनुमान से भर ली |
ReplyDeleteक्या कहें! ऐसा हाल है अपना अभी भी। नाक लम्बी है, काम करने में अटकती है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा।
यथार्थ का मार्मिक चित्रण करने के लिये साधुवाद!
ReplyDeletejai ho......
ReplyDelete... behatreen !!!
ReplyDeleteयथार्थ का सजीव चित्रण है ..... काश नेता लोगों की ड्यूटी लगती जनगणना के लिए .... तब इनको समझ आता जीना किसको कहते हैं ...
ReplyDeleteबेचारा गणक...
ReplyDelete.....
सच में...कई बार लगता है कि ये सब सरकार सिर्फ एक फोर्मेल्टी के लिए ही करती है...
शायद इस जनगणना में भी नेताओं का ही कोई भला होता हो..
गजब है भैया ...।
ReplyDeleteचाचा आपकर व्यंग्य [अध् कर के लगेला कि आप आपन नाम गलत रख लेहले हई......." बेचैन आत्मा"........नाही आपके " बेचैन करे वाली आत्मा " रखे के चाही.........बेहतरीन ,अकाट्य सत्य उजागर किया है आपने.
ReplyDeleteआपका अपना
तरुण तिवारी
very painful but true...
ReplyDeleteव्यंग्य के साथ दर्द भी ।
ReplyDeleteआजाद भारत की एक श्यामल तस्वीर।
वंदेमातरम्।
यथार्थ का सजीव चित्रण भाषायी तड़के के साथ…संवाद रोचक😊
ReplyDeleteजनगणना कार्य में गणक को कितनी मुश्किलें आती हैं यथार्थ मार्मिक और रोचक चित्रण । वाज्ञ
ReplyDelete2010से 2022 तक भी सामयिक
ReplyDeleteबस सरकार बदलती है ना गरीब ना गरीबी
उत्कृष्ट लेखन
आज भी प्रासंगिक है ये कहानी..यथार्थ का सटीक चित्रण।
ReplyDelete