दूर देश का शिकारी
घुस गया
एक दिन
जहरीले सर्पों के देश
बदलकर भेष
एक बड़े विषधर को मार
चीखने लगा..
मैने उसे मार दिया जिसने मुझे काटा था !
सर्प दंश से परेशान
सभी उसकी बहादुरी पर ताली पीटने लगे
देखते ही देखते
वह हीरो बन गया !
पड़ोसी देश भी
चाहता है करना
उन सर्पों का शिकार
जो उसे काट कर
जा छुपे हैं
सर्पों के देश
मगर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा
जानता है
वह उतना ताकतवर नहीं
जितना
शिकारी
और यह भी
कि दुष्ट पड़ोसी
खुद को साधु कहता है !
कहता है
नहीं रहते यहाँ
एक भी
साँप-बिच्छू !
दूर देश का शिकारी भी कमाल करता है
जो खुद को साधु कहते हैं
उन्हें दूध पिलाता है
जो फन उठाते हैं
उन्हें कुचल देता है
नाचते हैं बहुतेरे
उसकी बीन पर !
सर्प देश का पड़ोसी
बंदूक ले
अपनी सीमाओं पर पहरे देता है
सर्प दंश से बेहाल
हांकता है
हांफता है
भूले से कभी
पकड़ भी लिया किसी को
तो मार नहीं देता
एक बड़े से जार में कैद कर
खिलाता है दूध-भात
चलाता है मुकदमा ।
बहुत ही सुन्दर देवेन्द्र जी ! आभार
ReplyDeleteइशारों इशारों में बहुत कुछ कह दिया आपने .....
ReplyDeleteteenon deshon ki sthitiyon ka sateek chitran
ReplyDeletebahut badhiya vyangy
पाण्डेय जी जिस देश में सर्प को पहचान कर भी लोग उस इस डर से रस्सी पुकारें की कहीं सर्प की भावनाओं को ठेस न पहुंचें और सत्य का विश्लेषण करने वाले को घमंडी, नासमझ की उपाधि दें उस देश के लोगों से आप क्यों बेकार की उम्मीदें पालते हैं. मासूम साहब से प्रेरणा लें और धीरे से अकेले में सर्प के कान में कह दें की उसके मन में जहर भरा है इससे उसकी इज्जत भी बची रहेगी और वो लोगों को काटना छोड़ देगा जिससे सारे देश का भला होगा. हर प्राणी की भावनाओं को समझें उनकी (विष धारण करने वाली )विशेषताओं का सम्मान करें.
ReplyDeleteउच्च कोटि का सटीक व्यंग हमारे देश की लचर व्यवस्थाओं पर ।
ReplyDelete@विचार शून्य जी...
ReplyDeleteकान में धीरे से...! अरे धीरे से क्या इधर हम कान में चीख-चीख कर परेशान हो चुके हैं, उधर लोग देख रहे हैं 'कान' में 'गा गा'..
nice poem.
ReplyDeleteजो कहना जरूरी था सब कुछ कह दिया आपने .....
ReplyDeleteवाह क्या ब्यंग है ! मजा आ गया.
ReplyDeleteपांडेयजी !छा गए !जिस देशका प्रधानमन्त्री एक बिजूका (क्रो -स्केयर -बार )हो ,जिससे पक्षी भी न डरतें हों ,वह दाऊद को पकड़ भी लेगा तो उसे "कसाब के पास बिठाकर ज़िमायेगा ,बिरयानी ,पुलाव खिलाएगा "।
ReplyDeleteबेहतरीन सर -संधान करती है आपकी रचना .यहाँ तो देश में ही कई ओसामाहैं हम सेक्युलर जो ठहरे ,कहीं से कोई एक ईंट दरक जाए तो उसमे से चार ओसामा निकलेंगें .
दूर देश वाले पर नो कमेण्ट। पड़ोसी देश वाला लल्लू है!
ReplyDeleteसटीक व्यंग। कहाँ एक साँप और साँपों का देश।
ReplyDeleteसटीक व्यंग।
ReplyDeleteसांप को दूध पिलाने की यहाँ पुरानी रिवाज़ है ।
ReplyDeleteसटीक रचना ...
ReplyDeleteसटीक व्यंग्य ...
अन्दाज निराला
तीखा व्यंग्य किया है ...शुभकामनायें आपको पाण्डेय जी !
ReplyDeleteसटीक व्यंग ...बहुत बढ़िया ...आभार !
ReplyDelete• इस कविता में आपकी वैचारिक त्वरा की मौलिकता नई दिशा में सोचने को विवश करती है।
ReplyDeleteव्यंग की धार तेज है , . सापों के देश के पडोसी को ,शिकारी बनने के लिए आत्मबल टाइप की कोई चीज़ जुटानी होगी .
ReplyDeleteबहुत सटीक व्यंग .. साँपों को पाल कर दूध पिलाने की परम्परा रही है ... देश भी पिला रहा है ...अच्छी रचना
ReplyDeleteवाह क्या मारा है सपेरे को -सांप भी देर सवेर मारा ही जाएगा :)
ReplyDeletehum jante hain ki ye sanp kaha se ate hai, or apke fenke khajar kidhar jate hain. . . . . . . . Jai hind jai bharat
ReplyDeleteदूर देश का शिकारी भी कमाल करता है
ReplyDeleteजो खुद को साधु कहते हैं
उन्हें दूध पिलाता है
जो फन उठाते हैं
उन्हें कुचल देता है
नाचते हैं बहुतेरे
उसकी बीन पर !
anupam rachna
आने वाले समय में शिकार के लिये भी आऊटसोर्सिंग की जायेगी।
ReplyDelete‘पड़ोसी देश भी
ReplyDeleteचाहता है करना
उन सर्पों का शिकार;
उसके पास हिम्मत का तीर हो, तब ना :)
दूर देश का शिकारी खुद भी तो इन सांप से कम नही... इस लिये ऎसे दुष्ट से बच कर रहे,ओर मिल जुल कर उस का अंहकार भी तोडे,अपने मतलब के लिये उस के तलवे ना चाटे, आज वो पडोसी का सर कुचता हे कल हमारा ना० भी आ सकता हे...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना धन्यवाद
जेब्बात देवेन्द्र भाई!
ReplyDeleteसांप संपोले सब समाप्त हो जायेंगे.. लेकिन हम जो नाग पंचमी डिक्लेयर किये बैठे हैं उसका क्या..!!
दूर देश की छोडो, यहाँ तो अपने देशी कम है क्या।
ReplyDeleteवह रे दूर देश का शिकारी...........:)
ReplyDeleteहैट्स ऑफ.....ज़बरदस्त.....
ReplyDeleteनक्शा खैंच दिया आपने ... भारत क्षेत्र का ... ये सिलसिला जारी रहेगा जब तक देश जागता नही ... नेता लोग वोट की राजनीति बंद नही करते ...
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना! सटीक व्यंग्य! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeleteपांडेय जी आपकी पूरी कविता पर्यायोक्ति अलंकार है तुलसी बाबा ने मानस में बहुत प्रयोग किया है इस अलंकार का
ReplyDeleteबृजमोहन जी,
ReplyDeleteआपने छंदमुक्त कविता (अकविता) में भी अलंकार ढूंढ लिया!
सच कहा ......अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteअपने देश की मजबूरी और पडोसी की बेशर्म सीनाजोरी .....वाकई चिंतनीय है
Sir ji aapne pucha tha ki me hindi ki tippani padh leta hun kya? Han me padh leta hun , bus hindi me likhne me samsya hai, . . . . . . . Jai hind jai bharat
ReplyDeleteसटीक व्यंग ......
ReplyDeleteलाजवाब रचना!
बहुत बहुत सही....
ReplyDeleteदेखना है सपेरा खुद को कब तक बचाता है अपने ही पोसे इन साँपों से जो दिन बा दिन और भी जहरीले हृष्ट पुष्ट और सबको डंसकर समाप्त कर देने को आतुर होते जा रहे हैं..
क्या कमाल लिखा है..सांप भी मर गया और आपकी लेखनी भी सलामत है ..दुआ है..... हमेशा रहेगी ...
ReplyDeleteसामयिक है। चकाचक!
ReplyDeleteवाह क्या मारा है सपेरे को -सांप भी देर सवेर मारा ही जाएगा :)
ReplyDelete