आधियों ने गिराये
किचन गार्डेन में लगे
अकेले आम के वृक्ष से
ढेर सारे टिकोरे
मैने हंसकर कहा...
कुदरती खेल।
चिड़ियाँ
कुतर रही हैं
पक रहे
कुछ आम
ये वही हैं
जिन्हें
रोज देता हूँ दाना-पानी !
अब नहीं कह पाता
कुदरती खेल
क्रोध आता है इन पर
उड़ा देता हूँ
दूर जाकर
जोर-शोर से चीखती हैं....
दाना-पानी देकर
हम पर एहसान करते हो ?
आँधियों का दंश
क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
.........................
दाना-पानी देकर
ReplyDeleteहम पर एहसान करते हो ?
आँधियों का दंश
क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
सोचने को मजबूर करती बहुत भावपूर्ण रचना...
दाना-पानी देकर
ReplyDeleteहम पर एहसान करते हो ?
आँधियों का दंश
क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
sach hi to kahti hai...
YE TO SACH HAI KI PARKRTI PAR HAR EK JEEV KAP ADHIKAR HAI. . . . . . . JAI HIND JAI BHARAT
ReplyDeleteबिल्कुल सच कहा है हर एक पंक्ति में ..
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति ।
सोचने को मजबूर करती बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति|
ReplyDeleteकमाल की कल्पना ....
ReplyDeleteचिड़ियों की भाषा आज पहली बार समझ पाया और वाकई यह सच कह रही हैं ! हार्दिक शुभकामनायें देवेन्द्र भाई !
वाह क्या खूब ? मनुष्य को इतना तो दान पुन्य कर ही देना चाहिए !
ReplyDeleteभला चिड़ियों के कुतरने से फलदारी वृक्ष का बोझ कभी कम हुआ है भला?
कीचन =किचन
बेहद गहन …………सोचने को मजबूर करती है।
ReplyDeleteप्रकृति के फलों पर प्रकृति का अधिकार है, सबको सब मिले, समुचित।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर .......सच है प्रकृति किसी में भेद नहीं करती.....शानदार |
ReplyDeleteदाना-पानी देकर
ReplyDeleteहम पर एहसान करते हो ?
आँधियों का दंश
क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
एक गहन विचारणीय प्रश्न उठाती बहुत सुन्दर और सार्थक रचना..
सहज ही उस प्रश्न को आपने छुआ है जिसे मानव द्वारा प्रकृति पर विजय अभियान के प्रश्नचिह्न के रूप में देखा जाता है। संवेदना की बुहार में एक जरूरी बात!! शुक्रिया, कवि जी!!
ReplyDeleteपाण्डेय जी, आज तो आपने हमारी ऑंखें खोल दी हम तो पके फलों पर अपना अधिकार मानते थे .....
ReplyDeleteSach...prakruti sabhee jeevon ke liye apna astitv bikhertee hai!
ReplyDeleteबहुत सही कहा है आपने....मनुष्य समझता है कुदरत का सब कुछ तेरे लिए ही है. यही उसकी भारी भूल है.
ReplyDeleteकुदरत को घर की लौंडी समझाने वाले मनुष्यों से "कुदरत" का वाजिब सवाल!!
ReplyDeleteसंवेदनशील पोस्ट. नाज़ुक एहसासों में रची बसी पोस्ट...
ReplyDeleteचिड़ियों के मार्फ़त आंधी-पानी झेलने के अधिकार का सही प्रश्न उठाया है आपने.....
दाना-पानी देकर
हम पर एहसान करते हो ?
आँधियों का दंश
क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
आँधियों का दंश
ReplyDeleteक्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक लेखन के साथ विचारणीय भी ....
बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने लाजवाब रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeleteसुंदर भाव से सजी आप की यह अति सुंदर रचना, धन्यवाद
ReplyDeleteदाना-पानी देकर
ReplyDeleteहम पर एहसान करते हो ?
आँधियों का दंश
क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
संवेदनशील रचना ..गहन विचार
आप तो चिड़ियों की बातें भी समझ जाते हैं,बधाई है.
ReplyDeleteहम एक दूसरे की पीड़ा समझने लगें तो कितनी समस्याएं हल हो जाएं।
ReplyDelete@पक रहे फलों पर
ReplyDeleteक्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
हम नहीं समझें तो
मानवता पर धिक्कार है!
Nice .
ReplyDeleteलखनऊ से अनवर जमाल .
लखनऊ में आज सम्मानित किए गए सलीम ख़ान और अनवर जमाल Best Blogger
अद्भुद!... सटीक...
ReplyDeleteबहुत कुछ कहती हुई कविता आगे बढ़ती है..इस अद्भुत रचना के लिए जितनी तारीफ़ करे कम है..एक नई ढंग की कविता वाकई सच कहती हुई....मानव को सोचना होगा...कविता के लिए हार्दिक बधाई..मातृदिवस की शुभकामना
ReplyDeleteबहुत खूब ... इंसान अपने आपको महान समझता है ... पेड़ पाल कर सोचता है वो उसकी जागीर है ...
ReplyDeleteसच बात है, हम सुनते तो और भला था वरना प्रश्न तो वहीँ रहा है युगों से।
ReplyDeleteप्रभावी अभिव्यक्ति......
ReplyDeleteसच चिड़ियों को दाना दे कर कोई अहसान नहीं करते अपितु उनकी चहचहाट से मन प्रसन्न कर लेते हैं ....सादर!
अंतिम पंक्तियों में आपने जो परिस्थितियां और प्रश्न रखे...मेरा मन उससे एक कदम आगे बढ़ इस बात पर चीत्कार उठता है जब निरीह पशु,पक्षियों या किसी भी जीव के मनुष्य द्वारा अकारण ( खाने के लिए) प्राण हारते देखती हूँ...
ReplyDeleteयही प्रश्न व्यथित करता है कि क्या यह संसार केवल मनुष्यों के लिए है..यहाँ रहने और जीने ,सुखी होने का अधिकार अन्य प्राणियों का नहीं है....
मन को झकझोर गयी आपकी रचना....
साधुवाद विषय को सार्थक ढंग से उठाने के लिए...
सच ही तो कहती है बेचारी चिडियां और सच ही कहती है बेचारी जनता। सारे फलों पर चंद लोगों का अधिकार
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, आपकी रचनाएँ अनुभव के बेहद करीब होती है .सजीव अच्छा लगता है पढ़ना
ReplyDeleteपके हुए फलों पर क्या तुम्हारा ही अधिकार है .सुन्दर प्रस्तुति ,सूक्ष्म का अन्वेषण करती पारखी दृष्टि .
ReplyDeleteशायद पहली बार आया हूँ, लेकिन आ कर अच्छा ही लगा. प्रकृति को हम बचा सकें तो हम भी बचेंगे ही. मगर लोग समझे तब तो.. बहरहाल;, कविता ने अपना काम किया है. जगाने का.
ReplyDeleteआँधियों का दंश
ReplyDeleteक्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
कविता के माध्यम से वाज़िब प्रश्न उठाया। शुभकामनायें।
दर-असल आजकल हम अपना माल कम पराया ज़्यादा उड़ाने के आदी जो हो गए हैं.दूध,शहद,फल और न जाने क्या-क्या हम उपभोग कर रहे हैं,पर कुछ सीमा तो बांधनी होगी !
ReplyDeleteभाई,अब तो चिड़िया का ही अस्तित्व संकट में है,उसके राशन की तो बात छोडो !
हर जीव [पशु ,पक्षी अथवा मनुष्य ] जिसका अधिकार मारा जाता है वो यूँ ही चीख चीख कर कुछ कहना चाहता है ...लेकिन अब लोग बहरेपन से ग्रस्त हैं शायद।
ReplyDeleteसंवेदनशील मन के कोमल भावों और कमाल की कल्पना की उपज है ...आपकी सुन्दर रचना
ReplyDeleteचिड़ियों का पूरे अधिकार से झगड़ना...........वाह , क्या कहना !
और क्या आशा कर सकते है इन इंसानों से आजकल तो इससे भी बुरा कर रहे है लोग
ReplyDeleteअच्छा लिखा है।
ReplyDeleteराहत इन्दौरी की एक गजल याद आ गयी:
सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है।