तेरे आगे सब नंगे
हर गंगे, हर हर गंगे।
कोई पूरब से आता है
कोई आता पश्चिम से
कोई उत्तर से आता है
कोई आता दक्षिण से
धुलते हैं सब पाप उसी के
जो होते मन के चंगे।
एक नदी के नहीं ये झगड़े
तुमने माँ को बाँध दिया!
देख सको तो देखो पगले
ईश्वर ने दो आँख दिया!
कहीं धर्म के, कहीं चर्म के
चलते हैं गोरख धंधे।
जमके धोये हाथ उसी ने
जिसने गंगा साफ किया!
जिसके जिम्मे पहरेदारी
उसने गोता मार लिया!
माँ की गरदन टीप रहे हैं
कलजुग के अच्छे बंदे।
तनकर देखो तो मैली है
झुककर देखो तो दर्पण
तुम न करोगे तेरे अपने
कर देंगे तेरा तर्पण।
आ जायेगा चैन कि जिस दिन
मिल जायेंगी माँ गंगे।
हर गंगे, हर हर गंगे
तेरे आगे सब नंगे।
..................................................
@ कहीं धर्म के, कहीं चर्म के, चलते हैं गोरख धन्धे ...
ReplyDeleteसत्य वचन! बहुत सुन्दर! हर गंगे, हर हर गंगे!
गंगा मैया को समर्पित प्यारी और पर्यावरणीय रचना !गंगा की विरासत को बचाना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है पर अर्थ की दौड़ में सब उसे अनदेखा किये बस भागे जा रहे हैं !
ReplyDeleteचंगे जी चंगे
ReplyDeleteहर हर गंगे ☺
मां की दुर्दशा पर आखिर एक कवि की व्यथा होठों तक आ ही गयी
ReplyDeletekai baras ho gaye ganga snan kiye, is saal jaayenge.
ReplyDeletehar har gange
कैसे हैं ये हथकंडे,
ReplyDeleteलूट रहे हैं भिखमंगे ,
घोल-घोल कर विष जल मैं
मुख से कहते 'हरगंगे '
तनकर देखो तो मैली है.
ReplyDeleteझुककर देखो तो दर्पण
तुम ना करोगे तेरे अपने
कर देंगे तेरा अर्पण.
माँ की दुर्दशा से विचलित होना स्वाभाविक है.
बहुत अच्छी गुहार है । किन्तु कवियों की सरकार सुनती ही कहाँ है ।
ReplyDeleteहर हर गंगे ।
ReplyDeleteमाँ को प्रणाम ।
प्रभावी रचना ।।
पंडित जी ने लेख लिखा था,
ReplyDeleteपाण्डे जी ने गीत रचा,
किन्तु अभागिन गंगा मैया का
न कोई सम्मान बचा.
गंगा की संपदा को खोकर हम सब हैं बस भिखमंगे,
माफ करो हे माता, कैसे बोलें हम हर हर गंगे!!
पंडित जी, ऊ का कहते हैं..म्यूज बन गये।:)
Deleteसच कहा है ... माँ गंगे तो सब कुछ आत्मसात कर रही है फिर भी कोशिश कर रही है पवित्र रहने और करने की ... पर उसके पुत्रों कों न जाने क्या होता जा रहा है ... सार्थक चिंतन ...
ReplyDeleteकितने युग, कितने जन देखे..
ReplyDeleteकिस युग ने काले घन देखे.....?
Deleteहर भाल दिखा उजला चाहे
ReplyDeleteअन्दर नागों से फन देखे !!
पंडित जी माहौल बड़ा खराब है मेरी खुद की हालत मां गंग सी हो गई है बुखार के बाद वैचारिक नंग धडंग से स्थिति है कविता लिखने की कोशिश भोथरी पड़ गई है ! अब मजबूरी में यह कह कर खिसक रहा हूं कि बुरा जो ढूंढन मैं चल्या ? ... ये ससुरा इंसान भी बहुत कुत्ती चीज है पैदा होते ही जन्म देने वाली मां पे ही गंद करना चालू कर देता है ज़रा भी पछतावा नहीं करता तो फिर तारने वाली कि चिंता कौन करे :(
चलिये प्रवीण जी की और आपकी पंक्तियों को मिलाकर एक मुक्तक की शक्ल दें...
Deleteकितने युग,कितने जन देखे
युग-युग ने काले घन देखे
हर भाल दिखा उजला चाहे
अन्दर नागों के फन देखे।
अली साब ,आपकी सलामती हमारे लिए बहुत ज़रूरी है,पर अब ख्वाब वैसे न देखना...नंग-धड़ंग वाले !
Deleteआज ही 'निरमल बाबा' से दुआ की थी, 'किरपा' चालू हो गई,आपके आने से !
हद हो गई संतोष जी अब आपका बस चले तो ख़्वाबों पे भी ड्रेस कोड लागू कर दीजियेगा :)
Deleteदेर सवेर तो हम चेतेंगे, नहीं तो हर-हर गंगे!
ReplyDeleteगंगा फिर भी गंगा ही रहेगी।
ReplyDeleteधन्य महाराज :)
Deleteगंगा फिर भी गंगा कैसे रहेगी? क्या इसका अर्थ यह लगाया जाय कि हमे चुपचाप बैठे रहना चाहिए, गंगा फिर भी गंगा ही रहेगी?
Deleteकल्पना कीजिये कि राजा भगीरथ आ गये हैं और गंगा की दुर्दशा से व्यथित हो आमरण अनशन पर बैठ गये है अब सरकार की प्रतिक्रिया क्या होगी?
ReplyDeleteकौशलेन्द्र जी कल्पना करी ,
Deleteअरे भाई राजा भागीरथ 'मरे' हुओं को तारने के लिए गंगा धरती पर लाये थे ! उन्हें अच्छे से पता था कि इस काम में दुर्दशा होती ही है सो अनशन में काहे बैठेंगे :)
तो क्या हमें मरे हुओं से प्रतिक्रिया की उम्मीद भी करनी पड़ेगी :)
बढ़िया...........
ReplyDeleteसुंदर सामायिक रचना..
बधाई...
अनु
कृपया चित्र देखने के लिए पन्ना पलटें !!
ReplyDeleteहम नर्मदा किनारे वाले भी यही महसूस करते हैं।
ReplyDeleteअर्थ पूर्ण कटाक्ष करती रचना -हर गंगे हर हर गंगे ,एक हमाम और सब नंगे ,हाथ लिए सब तिरंगे ...
ReplyDeleteआजाये चैन की जिस दिन मिल जाएगी माँ गंगे....मेरे लिए तो यही पंक्ति अवशयक है क्यूंकि शाद आपको यह जानकर आश्चर्य हो मगर सच यही है की मैंने आज तक, या यौम कहिए की अभी तक माँ गंगा को देखा ही नहीं हाँ गंगा जल का सेवन ज़रूर किया है मगर गंगा नदी को नहीं देखा...खूबसूरत भाव संयोजन से सजी सार्थक रचना.... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/
ReplyDeleteझट पहुंचा दूँगी तल में,
ReplyDeleteगर लेगा मुझसे पंगे....
मगर इंसान है कि पंगे लेना छोडता ही नहीं, लिहाज़ा कभी ऋण तो कभी धन जल से मरता है।
... फणीश्वर रेणु के जुमले में बोले तो!!
ReplyDeleteक्या बात हैं पाण्डेय जी आज तो आपने गंगा जी के दर्शन करा दिए :)
ReplyDeleteइंसान मैया गंगे से पंगे लेने से बाज नहीं आता, लिहाज़ा कभी ऋण तो कभी धन जल से मरने को अभिशप्त है।
ReplyDeleteअद्भुत गंगा दर्शन
ReplyDeleteऔर फिर दिग्दर्शन भी
दोनों ही चित्र गंगा के रूप हैं ... सबका सोचती है गंगा ...
ReplyDeleteआप का जलवा है भाई ...आपके पास गंगा है!!!
ReplyDeleteगंगा तो सबकी है। मेरा सौभाग्य है कि मैं गंगा किनारे बसा हूँ । मेरा कर्तव्य है कि जो देखा सबसे साझा करूँ...
Deletebadhiya rachana ... har har Gange...
ReplyDeleteदुखद है सर!
ReplyDeleteजब जब घर जाता हूँ, मन हहर उठता है।
चकाचक रचना है।
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