पीपल के नीचे
पक्के फर्श पर
वह
प्रतिदिन
निर्धारित समय पर
बिखेरता है
पंछियों के लिए दाना।
थोड़ी ही देर में
आते हैं
ढेर सारे कौए
काँव-काँव, काँव-काँव
चीखते, झपटते
चुग जाते हैं
पूरा का पूरा।
यदा कदा
घुस पाती है
एक गिलहरी भी
लेकिन छोटे पंछी
दूर खड़े
ललचाई नज़रों से
कौए
दाना चुगने के बाद
बूंद बूंद टपकते
सरकारी टोंटी से
पीते हैं
पानी भी।
इन सबके बावजूद
वह
प्रतिदिन
बिखेरता है
पंछियों के लिए दाने
उसे देखकर
चहचहाने लगते हैं
निरीह पंछी
मुझे लगता है
कह रहे हैं...
हमारी सरकार ! हमारी सरकार !
...................................
पंछियों के लिए दाने
ReplyDeleteगिराए जाते हैं समभाव से,
पर उन्हें बलपूर्वक चुगता है कौवा,
आदमियों के लिए दाने गिराने और
समेटने वाले एक ही गुट के होते हैं
इसलिए यहाँ केवल निर्बल रोते हैं !
(१) अपात्र की मदद करना अनुचित है ! उनके दाने अकारथ हुए !
Delete(२) संतोष जी ने नग्न चित्रों के सार्वजनिक प्रकाशन के विरूद्ध अभियान छेड़ा है फिर भी आपने वस्त्रहीनों के चित्र छापे हैं :)
ऊपर-ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं,
ReplyDeleteकहते ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं..!!
so true :(
Deleteवो बेदर्द है जालिम है
ReplyDeleteजो दानों का हश्र देखकर
भी रोज बिखरा जाता है दाने ...
कहीं कौओं को उसी ने तो नहीं पाला है ?
अच्छा है।
ReplyDeleteबिम्बों के माध्यम से घातक प्रहार किया है..
ReplyDeleteदाने-दाने पे लिखा है खाने/पाने वाले का नाम.
ReplyDeleteमानों एक भोक्ता हो और एक दृष्टा (लेकिन निरपेक्ष नहीं)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteसिस्टम पर सटीक चोट ।
आभार भाई जी ।।
कौवा मोती खा रहा, दाना तो है खीज ।
वंचित वंचित ही रहे, ताकत की तदबीज ।
ताकत की तदबीज, चतुर सप्लाई सिस्टम ।
कौआ धूर्त दलाल, झपट ले सब कुछ हरदम ।
काँव-काँव माहौल, जमाता कुर्सी-किस्सा ।
है अपनी सरकार, लूट ले सबका हिस्सा ।।
जिसकी लाठी , उसी की भैंस .
ReplyDeleteहालाँकि आखिरी पंक्ति में सन्देश कुछ और ही है .
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति |
ReplyDeleteशुक्रवारीय चर्चा मंच पर ||
सादर
charchamanch.blogspot.com
.
ReplyDelete.
.
रोचक सुंदर कविता ।
धन्यवाद!
वाह....................
ReplyDeleteपर्यावरण से होते हुए खोखले आवरण पर आ गयी रचना....
बहुत खूब...
सादर
शायद वह बिखेरता हो दाने कौवो के लिए ही..कि कहीं उसकी मुडेर पर बैठ कर कांव काव न करें वो.और वह बच जाये कुछ अवांछित घर में घुसने वाले मेहमानों से :).
ReplyDeleteबेहतरीन और शानदार बिम्बों के सहारे अत्यंत ही सार्थक पोस्ट ।
ReplyDeleteकौव्वे तो दाने चुगने में व्यस्त है...नारे लगा कर शोर मचाने के लिए दाना डाल कर नन्हे पंछियों को बुलाना जरूरी है..
ReplyDeleteअच्छी कविता
khubsurat bimbo ka prayog.... :)
ReplyDeleteaisa hi kuchh ho raha hai ....
बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...!
ReplyDeleteबेध डाला ...
ReplyDeleteबहुत गहन .. प्रतीकों के माध्यम से
हर जगह उअही स्थिति है, दाना तो कौआ चुग जाते हैं, छोटे पक्षी ताकते ही रह जाते हैं।
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुन्दर रचना.ग़रीबों के नाम से बहुत कार्यक्रम चलते हैं मगर वे तो देखते रह जाते हैं.छोटे से उदाहरण से बहुत बड़ी बात कह दिया आपने.
ReplyDeleteबड़ों की धमक में छोटे यूँ ही ललचाकर रह जाती है ..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर यथार्थ चित्रण ...
बड़ी ऊंची बात कह दी सिरीमानजी ने।
ReplyDeleteफेंकती है दाने चार
ReplyDeleteले जाते मुखिया-सरदार
जनता को सब कुछ बेकार
जी सरकार, हाँ सरकार!
फर्ज तो पूरा निभ ही रहा है, और क्या जान लोगे सर..र की?
ReplyDeletebahut gahan aur ek karara vyang bhi vastvik sthititiyon par....sarkar gareebon ke liye sekdo yojnaye banati hai par unka fayda utha lete hai bicholiye....
ReplyDeleteमत भेद न बने मन भेद -A post for all bloggers
कभी कभी फ़र्ज़ कों इतिश्री समझ लेते हैं ... पूरा फर्ज शायद तभी पूर्ण होता है जब दाना पंछियों रक् पहुंचे ...
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