खिलाड़ी
समय और अवसर देखकर
बिछा देते हैं बिसात
सजा देते हैं मोहरे
फूँक देते हैं प्राण
बांट देते हैं अधिकार
और
चलने लगते हैं
अपनी-अपनी चालें!
मोहरे
मंत्रमुग्ध हो
लड़ने-झगड़ने लगते हैं आपसे में
कटने-मरने लगते हैं एक-दूसरे से
और
अंततः
नहीं जान पाते
कि वे
खुद कभी नहीं खेलते
मगर हमेशा
यही समझते रहते हैं
कि वे ही खेल रहे हैं!
खिलाड़ी
खेल खत्म होते ही
हाथ मिलाने के बाद
हँसते हुए
ढूँसकर भर देते हैं सबको
एक बंद डिब्बे में
दूसरे खेल तक के लिए।
इस खेल में
मोहरे बराबर होते हैं
ताकत बराबर होती है
निर्धारित रहता है
युद्ध का क्षेत्रफल
और
तय रहते हैं
क़ायदे-क़ानून।
जब कोई
राजनीति से इसकी तुलना करने लगता है
तो मुझे
अच्छा नहीं लगता।
.......................
समय और अवसर देखकर
बिछा देते हैं बिसात
सजा देते हैं मोहरे
फूँक देते हैं प्राण
बांट देते हैं अधिकार
और
चलने लगते हैं
अपनी-अपनी चालें!
मोहरे
मंत्रमुग्ध हो
लड़ने-झगड़ने लगते हैं आपसे में
कटने-मरने लगते हैं एक-दूसरे से
और
अंततः
नहीं जान पाते
कि वे
खुद कभी नहीं खेलते
मगर हमेशा
यही समझते रहते हैं
कि वे ही खेल रहे हैं!
खिलाड़ी
खेल खत्म होते ही
हाथ मिलाने के बाद
हँसते हुए
ढूँसकर भर देते हैं सबको
एक बंद डिब्बे में
दूसरे खेल तक के लिए।
इस खेल में
मोहरे बराबर होते हैं
ताकत बराबर होती है
निर्धारित रहता है
युद्ध का क्षेत्रफल
और
तय रहते हैं
क़ायदे-क़ानून।
जब कोई
राजनीति से इसकी तुलना करने लगता है
तो मुझे
अच्छा नहीं लगता।
.......................
तुलना करना संभवतः मुझे भी अच्छा न लगता पर क्या करें जब दिखता है कि वही मोहरे पुनः बाहर निकाल लिये गये।
ReplyDeleteपूर्णतया सहमत बिल्कुल सही कहा है आपने ..आभार . ''शादी करके फंस गया यार ,...अच्छा खासा था कुंवारा .'' साथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3महिलाओं के लिए अनोखी शुरुआत आज ही जुड़ेंWOMAN ABOUT MAN
ReplyDeleteGazab ka kenvas taiyar kiya hai ... Hakeekat apne aap kah rahe hain shabd ...
ReplyDeleteनियम-कायदों के स्तर पर भले ही तुलना अनुचित लगे लेकिन चालें तो लगभग वैसी ही होतीं हैं क्योंकि जीतना ही अभीष्ट होता है हर हाल में । जहाँ जीतना ही लक्ष्य हो वहाँ तो सब चलता ही है न । अच्छी कविता ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज रविवार (02-06-2013) मुकद्दर आजमाना चाहता है : चर्चा मंच १२६३ में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यह उपमा कई जगहं फिट बैठती है -आजमूदा है!
ReplyDeleteसही कहा ॥शतरंज में हर मोहरे की चाल भी निश्चित होती है जबकि राजनीति में चाल ढाल कुछ भी निश्चित नहीं ।
ReplyDeleteशतरंज के विसात में सभी मोहरों की चाल निश्चित होती है,,,
ReplyDeleteRECENT POST : ऐसी गजल गाता नही,
bilkul sahi kaha...!!
ReplyDelete...सबके अलग रंग !
ReplyDeleteबेहतरीन भाई. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
येक जबरदस्त रचना ......ये खेल राजनैतिक पार्टियों की चालों से मेल खाती है,ये ठीक है कि पार्टियां नियम-वियम नहीं मानतीं.
ReplyDeleteशतरंज के मोहरों की चाल तो सीमित होती है परन्तु अपनी दुनिया में यह भी निश्चित नहीं.
ReplyDeleteधन्यवाद।
ReplyDeleteबात तो सही है, लेकिन राजनीति के खेल में सिर्फ नाम पुराना इस्तेमाल हुआ है.. फर्क है कि आज बिसात भी अपनी, मोहरे भी अपने, और खेल भी अपना...
ReplyDeleteआपकी कविता का फ्लेवर हमेशा की तरह... ताज़ा!!
Maine apnee zindagee kee shatranj me to hardam maat hee khayee hai...mohron ko sahee tareeqese kabhee bichhan anhee yaaya! Bahut sundar rachana!
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन .सुंदर पोस्ट।
ReplyDeleteखेल में मोहरे और नियम निश्चित होता है परन्तु राजनीति में यह सब अनिश्चित!
ReplyDeleteLATEST POSTअनुभूति : विविधा ३
latest post बादल तु जल्दी आना रे (भाग २)
मोहरे ही अभिशप्त!!
ReplyDeleteयह खेल, राजनीती और अब तो जीवन भी...सब इस खेल सा ही.
ReplyDeleteवो जो सब अच्छा नहीं लगता, होता तो वो भी है ही !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर व्यंग्य किया है आपने.
ReplyDeleteसटीक व्यंग्य
ReplyDeleteगज़ब का व्यंग्य ।
ReplyDeletetulna karna vakai sahi nahi hai.............sattek baat.
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