11.1.15

हँसते-हँसते रोया कर....


दिन भर मारा फिरता है
रातों में तो सोया कर।

कल फिर सूरज निकलेगा
कुछ सपनो में खोया कर।

नफ़रत के किस्से मत लिख
ढाई आखर बोया कर।

दर्पण को झूठा मत कह
अपना मुँह भी धोया कर।

रोने का जब भी मन हो
हँसते-हँसते रोया कर।

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16 comments:

  1. हाइ अल्लाह !!!!
    इतना खूबसूरत लेखन
    एक पल तो ऐसा लगा कि मोहम्मद अल्वी साहब को पढ़ रही हूँ।
    क्या बात है ! बैरागी रंगों की कबीरियत
    कितनी ख़ूबसूरती से निखर कर आ रही है आजकल आपके कलाम में ​

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  2. सुन्दर प्रस्तुति

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  3. वाह बहुत ही लाजवाब ....
    मस्त हैं सभी शेर ... कुछ कहते हुए ... चुटीले ...

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  4. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (12-01-2015) को "कुछ पल अपने" (चर्चा-1856) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. सुभानअल्लाह ! गागर में सागर...

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  6. चेहरा तो जस का तस रखना है पर दर्पण बदलने की ज़िद सब लिये हुए हैं। सुंदर प्रस्तुति।

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  7. सफर ट्रेन का करता है
    भारत को तू देखा कर.
    एक आँख से कैमरे की
    प्रकृति को तू समेटा कर!
    बच्चों को ऊँचाई नहीं
    लम्बाई में देखा कर!
    फेसबुक पर धूम मचा
    ब्लॉग भी आया जाया कर!
    बेचैनी इस आत्मा की
    अपनों में सुलझाया कर!
    हमरे छोटे भैया हो,
    बस यूँ ही मुस्काया कर!

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  8. वाह वाह ! कमाल कर दिया आपने !

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