न आम में बौर आया, न गेहूँ की बालियों ने बसन्ती हवा में चुम्मा-चुम्मी शुरू करी, न धूल उड़े शोखी से और न पत्ते ही झरे शाख से! अभी तो कोहरा टपकता है पात से। सुबह जब उठ कर ताला खोलने जाता हूँ गेट का तो टप-टप टपकते ओस को सुन लगता है कहीं बारिश तो नहीं हो रही! कहाँ है बसन्त? कवियों के बौराने से बसन्त नहीं आता। बसन्त आता है तो हवा गाने लगती है, कोयल कूकने लगती है और पत्थर भी बौराने लगते हैं। अभी तो चुनाव आया है। जो जीतेगा बसन्त तो सबसे पहले उसी के घर आयेगा। आम को तो बस बदलते दाम देखने हैं। अभी जो परिवर्तन के लिए उत्साहित हैं वे बाद में समझेंगे कि रहनुमा बदलने से दुश्वारियाँ नहीं जातीं। मालिक भेड़-बकरी का सदियों से कसाई है। कहॉ है बसन्त?
द़फ्तर जाते हुए रेल की पटरियों पर भागते लोहे के घर की खिड़की से बाहर देखता हूँ अरहर और सरसों के खेत पीले-पीले फूल! क्या यही बसंत है? भीतर सामने बैठी दो चोटियों वाली सांवली लड़की दरवाजे पर खड़े लड़कों की बातें सुनकर लज़ाते हुए हौले से मुस्कुरा देती है। लड़के कूदने की हद तक उछलते हुए शोर मचाते हैं! क्या यही बसंत है?
अपने वज़न से चौगुना बोझ उठाये भागती, लोहे के घर में चढ़कर देर तक हाँफती, प्रौढ़ महिला को अपनी सीट पर बिठाकर दरवाजे पर खड़े-खड़े सुर्ती रगड़ते मजदूर के चेहरे को चूमने लगती हैं सूरज की किरणें! क्या यही बसंत है?
अंधे भिखारी की डफ़ली पर जल्दी-जल्दी थिरकने लगती हैं उँगलियाँ। होठों से कुछ और तेज़ फूटने लगते हैं फागुन के गीत। झोली में जाता है, हथेली का सिक्का। क्या यही बसंत है?
द़फ्तर से लौटते हुए लोहे के घर से मुक्ति की प्रतीक्षा में टेसन-टेसन अंधेरे में झाँकते नेट पर दूसरे शहर की चाल जांचते मोबाइल में बच्चों का हालचाल लेते पत्नी को जल्दी आने का आश्वासन देते मंजिल पर पहुँचते ही अज़नबी की तरह साथियों से बिछड़ते, हर्ष से उछलते, थके-मादे कामगार। क्या यही बसंत है?
पहले बसन्त आता था और बसन्त के बाद फागुन आता था। बसन्त और फागुन के मिलन का सुखद परिणाम यह हुआ कि हमारे नौजवानों को प्यार सिखाने वेलेंटाइन आ गया! प्यार तो हम पहले भी करते थे मगर गुलाब पेश करते बहुत झिझकते थे। कितने फूल किताबों में मुर्झा गए। कितने शादी के बाद किताबों में दुश्मन के हाथ लगे। जब से वेलेन्टाइन की शुरुआत हुई गुलाब क्या खुल्लम खुल्ला गुलदस्ता पकड़ाये जाने लगे! बसन्त पंचमी के दिन माँ सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त कर पढ़ाई में जुटने के बजाय लड़के वेलेंटाइन के इन्तजार में दंड पेलने लगे। लड़के तो लड़के उनके पिताजी भी बेचैन आत्मा का गीत गुनगुनाने लगे-"बिसरल बसन्त अब त राजा आयल वेलेंटाइन! आन क लागे सोन चिरैया, आपन लागे डाइन!!"
अभी तो कड़ाकी ठंड है। सुबह गेट खोलो तो बसन्त के बदले देसी कुत्तों के पिल्ले भीतर झांकते हुए पूछते हैं-मैं आऊँ? मैं आऊँ? अभी तो खूब हैं लेकिन कड़ाकी ठंड में पैदा हुए कुत्ते के दर्जन भर पिल्ले बसन्त आने तक दो या तीन ही दिखते हैं। जैसे आम आदमी को बसन्त नसीब नहीं होता वइसे ही सभी पिल्लों को बसन्त नसीब नहीं होता। जिन्दा रहते तो गली में निकलना और भी कठिन हो जाता। प्रकृति को इससे कोई मतलब नहीं। कोशिश करो तो छप्पर फाड़ कर देती है। कहती है-पाल सको तो पालो वरना हम तो उसी मिट्टी से नये खिलौने गढ़ देंगे! शायद इसी को महसूस कर नारा बना होगा-दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे। बाद में सरकार को इससे भी कठिनाई महसूस हुई तो नारा दिया-हम दो, हमारे दो। नहीं माने तो परमाणु बम हइये है। कोई #ट्रम्प चाल चलेंगे और साफ़ हो जाएंगे दोनों तरफ के आम आदमी। फिर आराम से मजे लेंगें ख़ास, बसन्त का। हमारा बसन्त तो बाबाजी का घण्टा!
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