राजघाट से बसन्त महिला महाविद्यालय के मार्ग पर मुड़ते ही आगे एक खुला गेट आता है। गेट से लगभग 50 मीटर की दूरी पर दाहिने हाथ एक कुआँ मिलता है। सूर्योदय के समय, इस कुएँ का पानी पीने हम अपने किशोरावस्था में साथियों के साथ गली-गली, घाट-घाट दौड़ते-कूदते आते थे। आज मेरे देखते हुए, 50 वर्षो के बाद भी, यह कुँआ जिंदा है और लोगों को पानी पिला रहा है।
आज पानी पी कर लौटते समय थकान मिटाने के लिए कोटवा ग्राम की पुलिया पर बैठे तो एक ग्रामीण ने बताया कि 20 वर्ष पहले वहाँ एक कांड हो गया था। सुनसान इलाका था, किसी ने, किसी को मार कर कुएँ में फेंक दिया था! लाश निकालने के बाद उसकी सफाई हुई और उसे लोहे की पत्तियों से ढक दिया गया, हैंड पाइप लग गया और पानी पीने की व्यवस्था कर दी गई।
इस कुँए के पानी को अमृत माना जाता था। पुरनिए कहते थे कि जो इस कुएँ का पानी पेट भर पी ले उसे कोई रोग हो ही नहीं सकता। आज भी इसके कुँए पर लिखा है, 'अमृत कुण्ड'।आज के आधुनिक समय में जब अधिकांश कुएँ सूख चुके हैं, इसे जिंदा देखकर खुशी होती है लेकिन लोगों की मूर्खता देखकर दुःख भी होता है। मूर्खता यह कि यहाँ बारी-बारी से दयालु/धार्मिक प्रकृति के लोग आते हैं और कुएँ की जगत पर रोटी के टुकड़े, बिस्कुट या कुछ और खाने की चीजें लाकर बिखेर देते हैं। कौए और दूसरे पक्षी भी इसे खाने के लिए टूट पड़ते हैं। खा/पी कर ये कौए कुएँ के ऊपर बैठकर बीट करते हैं और कुएँ के पानी को गंदा करते हैं। मैने एक दो लोगों को समझाया कि आपको कौओं को खिलाने की इच्छा है तो खूब खिलाइए मगर कुएँ के जगत पर न खिलाकर थोड़ी दूर जमीन पर खिलाइए। यहाँ खिलाने से ये कौए, कुएँ के ऊपर बैठकर बीट करते हैं और कुएँ के पानी को गंदा भी करते हैं। मुझे नहीं लगा कि किसी पर मेरी बात का कोई प्रभाव पड़ा। सुबह के समय, एक के बाद एक अनवरत लोग आते हैं और कौओं को कुछ न कुछ खिलाते हैं। अच्छा होता ये मेरी बात समझ जाते और कुएँ की जगत पर न खिलाकर, नीचे कहीं एक फिट आगे खिलाते।
05 अगस्त, 2022
किसी समय कूएँ मात्र एक जल व्यवस्था के संवाहक नहीं थे, एक सामाजिक ,सांस्कृतिक आस्था और आपसी मेलजोल का सशक्त माध्यम थे। ना जाने कितनी कहानियाँ ,कितने किस्से इन कुओँ से जल भर कर लाने के बहाने परवान चढ़े।आज ये लोक जीवन की स्मृतियों का हिस्सा भर बन कर रह गये हैं।पर कहीं आज भी कोई कुआँ जिन्दा है और अपने अमृतजल से पथिकों की प्यास बुझा रहा है। इस कुएँ के मधुर प्रसंग के लिए आभार देवेन्द्र जी
ReplyDeleteपढ़ने और सुंदर प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।
Deleteसच कहा आपने धार्मिकता के चक्कर में फंसे लोग कुछ अहम् बातें कभी समझ ही नहीं पाते कितना भी समझाओ। फिर-फिर वही ढाक के तीन पात'' जैसी स्थिति में आ जाते हैं, कुएं के मेंढक जैसे बने रहने में ही उन्हें अच्छा लगता है. ऐसी कई बातें बहुत से धार्मिक स्थलों में देखते है तो बड़ा बुरा लगता है लेकिन क्या करें उन्हें ये सब अच्छा लगता है भले ही कितनी भी गन्दगी क्यों न हो
ReplyDeleteसार्थक संस्मरण । लोग पुण्य कमाने के चक्कर में कितना अनर्थ कर रहे एहसास नहीं होता ।
ReplyDeleteजी।
Deleteउम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteधन्यवाद।
Delete