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हमारे एक मित्र हैं मास्टर साहब। क्षणे रूष्टा, क्षणे तुष्टा। मुख के तेज दिल के साफ । कोई ताव दिखाये तो मारने को तैयार । कोई माफी मांग ले तो सौ खून माफ। प्यार से सब उन्हें मास्टर कहते हैं। पी0एच0डी0 नहीं हैं मगर हर वाक्य में एक गाली घुसेड़ने की कला जानते हैं। इसलिए हम उन्हें डाक्टर कहते हैं। एक दिन बोले...चलिए, पिक्चर देखने चलते हैं। मैने कहा...छोड़ो डाक्टर, पिक्चर तो रोज ही टी0वी0 में आता है, कहाँ फंसते हैं ! बोले-नहीं.s.s..वह नहीं.s.s.। मैने पूछा ...तो ? धीरे से बोले....अंग्रेजी सिनेमा ! मैं उनका आशय जानकर सकपका गया। बोला..धत्त ! कोई देख लेगा तो क्या कहेगा ? समाज पर इसका क्या असर पड़ेगा ? डाक्टर तुनक कर बोले...आप तो पूरे लण्डूरे झाम हैं ! क्या पूरे समाज के सरदर्द के लिए मास्टर ही झण्डू बाम हैं ? मैने कहा - ठीक है..फिर भी...कुछ तो सोचो डाक्टर ! देश कहाँ जाएगा जब भटक जायेगा मास्टर !!
मास्टर तो मास्टर फिर चिढ़ गये। माध्यमिक से उखड़कर प्राइमरी के हो गए। बोले – छोड़िए ! उपदेश मत दीजिए ! हम सभी कवियों का चरित्र जानते हैं। आपका भी और उनका भी जो प्राइम मिनिस्टर हो गये ! मुंह में राम, बगल में छूरी। जीभ में पानी, मिठाई से दूरी।। मैं समझ गया । अब नहीं मानेंगे। कहा..अच्छा चलिए । कौन इस शहर में अपना सगा है ! बताइये कहाँ क्या लगा है ? डाक्टर के लिए इतना पर्याप्त था। मुझे स्कूटर में बिठाकर पहुँच गये सिनेमा हॉल। रास्ते भर गाते रहे तीन ताल !..जो भी होगा देखा जाएगा, कुछ भी होगा मोजा आएगा।
जाड़े का समय कोहरा घना था। मंकी कैप, मफलर, शाल से मुँह ढंकने के पश्चात भी पहचान जाने का खतरा बना था। मारे डर के अपना था बुरा हाल और डाक्टर दिये जा रहे थे ताल पर ताल। पलक झपकते ही बालकनी का दो टिकट ले आए। मैं समझ गया। अब देश उधर ही जायेगा जिधर आज का मास्टर ले जाये !
हॉल में अंधेरा था। भीड़ कम थी। डाक्टर अपने आगे की सीट पर दोनो टांगें फैलाए ऐसे बैठ गये जैसे कमर से उखड़ गए ! हम भी उनकी बगल में जाकर सिकुड़ गये। अंग्रेजी, अश्लील पिक्चर की कल्पना से उत्तेजना चरम पर थी। अभी पिक्चर शुरू भी नहीं हुई थी कि डाक्टर फिर क्रोध से बेलगाम ! पीछे, .हॉल में, .कहीं से आवाज आई...गुरूजी प्रणाम !!
डाक्टर स्प्रिंग की तरह उछलकर खड़े हो गये ! पीछे देखने लगे। कोई दिखलाई नहीं दिया। तमतमाकर बोले...देख रहे हैं पाण्डे जी ! आजकल के लौण्डे कितने बेशरम हैं !! मन किया कह दें… हमको ही कौन शरम है ? मगर चुप रहे। डाक्टर फिर कड़के...दिख जाएगा तो साले को फेल कर दुंगा ! मन ही मन सोंचा...मास्टर और कर भी क्या सकता है ? गुस्सा जायेगा तो फेल कर देगा। खुश होगा तो पास कर देगा। अब विद्यार्थी थोड़े न कुछ करता है। जो करता है मास्टर ही करता है। मगर कहा...ठीक कह रहे हैं डाक्टर। यहाँ नमस्कार, स्वागत-सत्कार का क्या काम ? जहाँ दिख जायें, वहीं थोड़े न करते हैं, गुरू जी प्रणाम ! हम तो पहले ही कह रहे थे...कोई देख लेगा तो क्या कहेगा ! मगर आप ही नहीं माने। अब काहे को डरते हैं ? काहे का गुस्सा करते हैं ?
डाक्टर को मेरी यह बात और भी खल गई। टिकट फाड़ कर बोले...चलिए ! पिक्चर गया तो गया सारा मूड भी खराब हो गया। मैं भी उठकर उनके पीछे हो लिया। बाहर निकल कर चाय की प्याली से बोला....देखा डाक्टर ! विद्यार्थी और शिक्षक के बीच आज भी एक लक्ष्मण रेखा है। जिसे विद्यार्थी भले लांघ दे मगर लांघ ही नहीं सकता मास्टर। लांघेगा तो हो जायेगा बदनाम। लोग सुनेंगे तो कहेंगे..हे राम ! अंग्रेजी सिनेमा में गुरूजी प्रणाम !!
बहुत सही.
ReplyDeleteचलो अच्छा हुआ कि मैं उस दिन पहचाना नहीं गया। आखिर दो मंकी कैप जो लगाकर गया था, एक आगे की तरफ पहन रखी थी और दूसरी पीछे की तरफ। नहीं तो गये थे काम से, फेल हो जाते तो ऊपर वाला ही मालिक था। एक बार फिर-
ReplyDeleteगुरूजी प्रणाम
Ha,ha,ha!Mujhe to padhke bada maza aa gaya!
ReplyDeleteएक भले टीचर के लिए आज भी हाल में जा के फिल्म देखना परेशानी का शबाब होता है. कहीं कोई विद्यार्थी मिले तो प्रणाम प्रणाम के चक्कर में पढ़ना पडेगा....
ReplyDeleteयह अंदाज़ भी अलग ही है,आभार.
ReplyDeleteहा हा हा ! पाण्डे जी , बड़ा गज़्बे लिखते हो । निर्मल आनंद आ गया भाई । प्रणाम ।
ReplyDeleteमास्टर साहब को भगा कर लौंडा साला निर्विघ्न होकर फ़िल्म देखा जबकि होना उलटा चाहिए था -डरपोक निकले मास्साब !
ReplyDeleteहम तो आपको कवि समझे थे आप तो व्यंग्यकार भी हैं।
ReplyDeleteअरविन्द मिश्र जी की बात से सहमत हूँ ...मास्टर जी को भी बता देना ! शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteमास्टर तो मास्टर फिर चिढ़ गये। माध्यमिक से उखड़कर प्राइमरी के हो गए। बोले – छोड़िए ! उपदेश मत दीजिए ! हम सभी कवियों का चरित्र जानते हैं। आपका भी और उनका भी जो प्राइम मिनिस्टर हो गये !.....yh andaaj bhi pasand aaya ..........
ReplyDeleteहमारे यहाँ भी ना, जीने नहीं देते लोग। कहीं भी जड़ देते हैं गुरुजी प्रणाम।
ReplyDeletebechare mastar sahab:D
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,
ReplyDeleteअलग अंदाज़.....इस पोस्ट के कुछ सार्थक अंश जो बहुत अच्छे लगे -
कौन इस शहर में अपना सगा है !
मास्टर और कर भी क्या सकता है ? गुस्सा जायेगा तो फेल कर देगा। खुश होगा तो पास कर देगा। अब विद्यार्थी थोड़े न कुछ करता है। जो करता है मास्टर ही करता है।
विद्यार्थी और शिक्षक के बीच आज भी एक लक्ष्मण रेखा है। जिसे विद्यार्थी भले लांघ दे मगर लांघ ही नहीं सकता मास्टर। लांघेगा तो हो जायेगा बदनाम।
Udaan naam ki ek film aayi thi..usi ki ek ghatna yaad aa gayi..aapka lahja bada kavyatmak hai ji.. :)
ReplyDeleteसही बात है, अब लक्ष्मण रेखा लाँघने की हानि सीता को ही हुयी थी।
ReplyDeleteहा हा हा हा ....यह भी खूब रही...
ReplyDeleteअनुमानित किया जा सकता है की कितना रोमांचक रहा होगा सब..
वैसे हंसी हंसी में संदेस भी दे दिया आपने...
achchha to aap vyangkar bhi hain,
ReplyDeleteBahut majedar post....
बहुत मस्त रही ये तो.:)
ReplyDeleteरामराम.
देवन्द्र जी, इस अंदाज़ में अपनी बात कहना ..कोई आपसे सीखे..अच्छा लगा ये पोस्ट ..
ReplyDeleteमस्त मास्टर जी हैं:)
ReplyDeleteआज अपना वोट सतीश सक्सेना के साथ ! कारण ये कि बुढौती में कोई लालसा शेष नहीं रहनी चाहिए :)
ReplyDeleteक्या ख्याल है आपका ? अगर राजेश नचिकेता के सुझावानुसार 'शबाब' को 'पढ़' लिया जाये :)
अरे हमने तो 'गुरुजी' नहीं 'गुरूजी प्रणाम' कहा था। वे तो समझे ही नहीं आपने भी नहीं समझाया।
ReplyDeleteहा हा हा बिलकुल सहम्त हूँ। बहुत मस्त पोस्ट है। शुभकामनायें।
ReplyDelete@अली सा...
ReplyDeleteराजेश जी शबब लिखना चाहते थे आपने तो शबाब ही पढ़ लिया!
बुढ़ौती मे कोई लालसा शेष नहीं रहनी चाहिए...एक दूसरे के साथ-साथ रहना भी चाहिए..आप सतीश जी के साथ, सतीश जी अरविंद जी के साथ..हम मास्टर जी के साथ।
बहुत ही बढ़िया पोस्ट. मज़ा आ गया.
ReplyDeleteसलाम.
देवेन्द्र भाई ,
ReplyDeleteमुझे मालूम है कि राजेश जी का आशय 'सबब' और 'पड़ना' था पर 'शबाब' को 'पढ़ने' का मज़ा क्यों छोड़ना :)
ये कथा बडी है मस्त-मस्त.
ReplyDeleteएक फड़कन यहां भी देखें
ReplyDeletehttp://rajey.blogspot.com/
यह व्यंग्य नहीं सच्चाई को वयां करती रचना , बधाई
ReplyDeleteक्या बात है ...वाह देवेन्द्र जी.
ReplyDeleteआपका व्यंग पसंद आया बहुत ही... और मासाब का गुस्सा भी जायज लगा और उठना भी जायज लगा ..
ReplyDelete.
ReplyDelete@-मास्टर और कर भी क्या सकता है ? गुस्सा जायेगा तो फेल कर देगा। खुश होगा तो पास कर देगा। अब विद्यार्थी थोड़े न कुछ करता है। जो करता है मास्टर ही करता है.....
मास्टर यदि चाहे तो बहुत कुछ कर सकता है -
मास्टर जी कों कहना चाहिए था - " दरवाजे कि तरफ मुंह करके मुर्गा बन जाओ " और कल कक्षा में पांच हिंदी फिल्मों कि समीक्षा लिख कर लाना ।
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ReplyDeleteशिक्षक बनते ही कई सीमा रेखाएं...खुद ब खुद खींच जाती हैं.
ReplyDeleteKYA GAZAB KA LIKHE HAIN
ReplyDeleteबहुत खूब! लेख के मजे तो हैं ही। लेकिन मुझे आपके लिखने का इस्टाइल बहुत जमा। गजब का प्रवाह। इसे तो कविता के रूप में भी पढ़ सकते हैं!
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