शहर में
या गांव में
कहीं नहीं दिखे
उल्लू
बिन लक्ष्मी के
फीकी रही
दीपावली
इस बार की भी।
सोचा था
दिख जायेंगे
तो अनुरोध
करूँगा
ऐ भाई !
उतार दे न इस
बार
लक्ष्मी को
मेरे द्वार !
शहरों में
बाजार दिखा
पैसा दिखा
कारें दिखीं
महंगे सामानो को
खरीदते / घर ले जाते लोग दिखे
रिक्शेवान दिखे
और दिखे
अपना दिन बेचने
को तैयार
चौराहे पर खड़े
असंख्य मजदूर।
गांवों में
जमीन दिखी
जमींदार दिखे
भूख दिखी
और दिखे
मेहनती किसान
सर पर लादे
भारी बोझ
भागते बदहवास
बाजार की ओर ।
न जाने क्यों
दूर-दूर तक
कहीं नहीं दिखे
लेकिन हर बार
ऐसा लगा
कि मेरे आस पास
ही हैं
कई उल्लू !
जब से सुना है
कि
लोभी मनुष्य
तांत्रिकों के
कहने पर
लक्ष्मी के लिए
काट लेते हैं
उल्लुओं की गरदन
मेरी नींद
उड़ी हुई है।
..................................
Hey relax !....darna to ulluon ko hai...Smiles.
ReplyDeleteबहुत सारी बात कहती यह रचना ... गहन सोच ..
ReplyDeleteगहरी बात.. गहरा चिंतन.. सादे कफज!!
ReplyDeleteकशमकश और असमंजस से, जिन्दगी अपनी घिरी |
ReplyDeleteढूंढते देवेन्द्र पांडे , इक अदद उल्लू सिरी |
हैं बद्दुआएं फलक पर, दो चार मिलती फिरी |
बाजार में कबिरा सिखाये, क्वालिटी कितनी गिरी |
आपकी उत्कृष्ट पोस्ट का लिंक है क्या ??
आइये --
फिर आ जाइए -
अपने विचारों से अवगत कराइए ||
शुक्रवार चर्चा - मंच
http://charchamanch.blogspot.com/
आपने मेरी नींद क्यों उड़ा दी...
ReplyDeleteबेहतरीन....लाजवाब.........शानदार......बहुत गहराई.........सुभानाल्लाह|
ReplyDeleteKya baat hai! Bahut khoob!
ReplyDeleteज्यादा बेचैन न हों, देवेन्द्र भाई! उल्लू अमर है, अमर रहेगा। उल्लू की गर्दन काटने से उल्लू प्रजाति को नष्ट नहीं किया जा सकता...क्योंकि गर्दन काटने वाला उल्लू और गर्दन कटवाने वाला उल्लू तो जीवित ही बचा रहता हैं!!
ReplyDeleteham hi hain ullu kyonki laxmi ko laade firte hain !
ReplyDeletebadhiya rachna !
सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDelete*दीवाली *गोवर्धनपूजा *भाईदूज *बधाइयां ! मंगलकामनाएं !
ईश्वर ; आपको तथा आपके परिवारजनों को ,तथा मित्रों को ढेर सारी खुशियाँ दे.
माता लक्ष्मी , आपको धन-धान्य से खुश रखे .
यही मंगलकामना मैं और मेरा परिवार आपके लिए करता है!!
संभलकर रहिए।
ReplyDelete*
बहुत मारक कविता है।
नजर उठाईये आसपास ही मिलेंगे
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता. काम, क्रोध, लोभ, मोह जो न करायें वह कम है!
ReplyDeleteगज़ब का लिखा है देवेन्द्र भाई। नींद तो हर उस आदमी की उड़ी हुई है जिसमें संवेदनायें बची हैं।
ReplyDeleteगहन भाव,आभार.
ReplyDeleteबड़ी ऊंची बात कही आपने! लेकिन आपने यह कहा था कि अब कुछ दिन कविता नहीं लिखेंगे! :)
ReplyDeleteअनूप शुक्ल...
ReplyDeleteजी...कहना नहीं चाहिए था। लिखने या न लिखने वाले हम होते ही कौन हैं!
लक्ष्मी जी सदा सहाय ....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको देवेन्द्र भाई !
बेहतर चिंतन।
ReplyDeleteखुबसूरत प्रस्तुति ||
ReplyDeleteआभार महोदय |
शुभकामनायें ||
achchi prastuti.
ReplyDeleteउल्लू परिवर्धित हो रहे हैं - आदमी बन रहे हैं! :)
ReplyDeleteमनुष्य जितना आगे जा रहा है उतना पीछे भी जा रहा है ... ये त्रासदी है इंसान का पागलपन बड़ता जा रहा है ... प्रभावी रहना है ...
ReplyDeleteसंगीता जी कि बात से सहमत हूँ कई सारी बातें कहती हुई और उन बातों पर विचार करने को मजबूर करती हुई रचना ...बहुत बढ़िया
ReplyDeleteसमय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/10/blog-post_27.html
पते की बात..वो भी दूर की कही है.. टोना-टोटका में अगला बलि कौन होता है उसकी योजना भी बन गयी होगी..
ReplyDeleteAchhi rachna. Sachmuch aadmi aaj paise ke liye kisi bhi star tak girne ko taiyar hai.
ReplyDeleteआपको एक भी न दिखे पक्षी वाले ,यहाँ तो बस बस मनुष्य रूपी उल्लूओं की भरमार है!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता
ReplyDeleteइन गर्दन काटने वालों को ही उल्लू का पट्ठा कहा जाता है ।
ReplyDeleteuluon ko dhoondhte ullu ..ulluon se bachate ullu... ullu banate ullu aur ullu bante ullu behatareen kavita..
ReplyDeleteअन्ध विश्वास पर करारी चोट। शुभकामनायें।
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,मेरे पोस्ट पर आने तथा हौसला बढाने के लिए आभार,....
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुती अच्छी रचना...बधाई ...
रोज ही कोई न कोई उल्लू बनता , बनाता है ...
ReplyDeleteडरना वाजिब है !
असली उलूक भोपाली मुद्रा बनाए छुट्टे घूम रहें हैं बगल में मंद बुद्धि बालक दबाए मम्मीजी को सर नवाए .
ReplyDeleteमज़ेदार, बेचारे उल्लू !
ReplyDeletehttp://mansooralihashmi.blogspot.com/search?q=%E0%A4%89%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%82
khoobsoorat vyang badhai devendra ji
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना देवेन्द्र जी...बधाई
ReplyDeleteबेहतरीन व्यंग् ...लाज़वाब अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteअच्छा लगा कुछ पल इन उल्लुओं के नाम करना
ReplyDeleteaapki kavita padhkar to hum sab bhi sakte me hain ..........
ReplyDeleteaakhiri me jo punch mara hai,okar kono jawaab naahi ba .
उल्लू को काट डालते है लोग तान्त्रिक के कहने पर जानकर दुख हुआ,मगर इस दुनिया मे क्या नही होता !तान्त्रिक के कहने पर लोग इन्सानी बच्चे तक की बलि दे देते है.
ReplyDeleteकविता अछ्छी लगी,मगर ये बात कि लछ्मी उल्लु पे वैठ आती है,कुछ जमता नहीं.जहा लछ्मी पूजा नही होती वही के लोग ज्यादे अमीर है.
इस कविता की यात्रा पहली पंक्ति से अंतिम पंक्ति पर अलग अलग दृश्य उपस्थित करती है.. झकझोरती है, सवाल पूछती है, गुदगुदाती है... लेकिन त्यौहारों को मनाया ही इसलिए जाता है कि हम उनका आनन्द उठायें. और कुछ पल को भूल जाएँ कि जीवन में कितनी विकृतियाँ है!! संवेदनशील कविता!!
ReplyDeleteबहुत गहरी व्यंजना समाई है सरल लगती पंक्तियों में .
ReplyDeleteबहुत से उल्लू सामने न आ कर भी उजागर हो जाते हैं .
वाह!!!!!...सोचने को बाध्य करती है कविता........गहरी सोच!!!!
ReplyDeleteक्या नहीं है इस रचना में - कटाक्ष,दर्द,हास्य … सबकुछ
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