( बनारसी मस्ती के वर्णन में एक-दो शब्द बनारसी स्पेशल गाली का भी प्रयोग हुआ है। जिसके लिए मैं उन पाठकों से पूर्व क्षमा याचना करता हूँ जिन्हें खराब लगता है। अश्लील लगता हो तो कृपया न पढ़ें। इनके प्रयोग के बिना वर्णन अधूरा होता, मजा नहीं आता।)
जल्दी में हों तो बनारस मत आना। यह
नैनीताल नहीं कि दिन में नैया पर घूमे, शाम को माल रोड पर चहलकदमी करी, थोड़ी
खरीददारी करी, बीयर-सीयर पीया और होटल में जाकर, खाना खाकर, दुबक गये रजाई में। एक दिन में बनारस घूमना तो क्या ठीक
से देखना भी नहीं हो पायेगा। जैसे मंदिर में इत्मिनान से जाते हैं। बाहर चप्पल
उतारकर श्रद्धा से शीश झुकाते हुए प्रवेश करते हैं, शांत भाव से जुड़ते हैं भगवान
से, हां...ठीक वैसे ही आना बनारस। चंचलता की पोटली अपने शहर में छोड़कर।
बनारस की नींद धीरे-धीरे खुलती है,
आहिस्ता-आहिस्ता जागता है यह शहर। बड़ी सी तोंद लटकाये तेज-तेज चलने वाले किसी व्यक्ति को देखकर मत समझना कि वो किसी जल्दी में है। आगे चलकर ठहरेगा। घंटों चाय या
पान की दुकान में बैठकर देश की चिंता करेगा। हर चुस्की में करेगा बात नये घोटाले
की, हर पीक थूकेगा किसी भ्रष्ट नेता का
नाम लेकर। चाय वाला जल्दी से नहीं देता चाय। जानता है कि इसे चाय नहीं, चर्चा की
चाह खींच लाई है। चाय तो यह घर में भी पी लेता। पान वाला जल्दी से नहीं देगा पान।
मानता है कि इसे पान खाने की कोई जल्दी नहीं है। पान तो वह किसी को भेजकर भी मंगा
लेता। घाट में उतरोगे तो नाव वाला आपको देखते ही समझ जायेगा कि आप किस दर्जे
के हो। धनपशु हो, लोभी हो या रसिक। आप जैसे हो ठीक वैसे ही पेश आता है यह शहर।
चाय की दुकान पर खड़े होकर हड़बड़ी करोगे तो दुकानदार कह देगा...”आगे बढ़ा ! चला जा !! वहाँ जल्दी मिल जाई।“ पान वाला कह सकता है...”हमरे यहां पान नाही हौ !”
लंका में सौ साल की एक बुढ़िया जिलेबी
बेचती है। सभी उसे बुढ़िया दादी कहते हैं। सुबह होते ही उसकी दुकान में
कचौड़ी-जिलेबी खाने वालों की भीड़ लगी रहती है। आपको बनारसी गाली सुनने का शौक हो
तो चले जाइये वहाँ और बुढ़िया से बस इतना कह दीजिए...”हमको जरा जल्दी चाहिए, जरूरी काम से जाना है।“ बुढ़िया तमतमा कर कहेगी...”अचरज कs चोदल हउआ..? मेहरारू के लगे जाये कs जल्दी हौ ? इतना लोग खड़ा हउन तोहे पहिले काहे दे
देई ? जा ! हमरे इहां नाहीं हौ जलेबी।“ लोगों को उसकी गाली सुनकर क्रोध नहीं आता, मजा आता है। लोग जानबूझ कर उसे चिढ़ाते हैं ताकि बुढ़िया और
गाली दे। गाली मानो बुढ़िया का आशीर्वाद है जिसे यहां के मौजी लोग जरूर प्राप्त
करना चाहते हैं।
यहां के लोग घलुआ के बहुत शौकीन हैं।
घलुआ मतलब थोड़ा और। थोड़ा और.... जो मुफ्त में मिले। सब्जी खरीदेंगे तो घलुए में धनियाँ-मिर्चा
मांग लेंगे। मलैयो खरीदेंगे तो पूरा पुरूवा चट कर चुकने के बाद...थोड़ी मीठी दूध।
कुछ खाने पीने की चीजों के साथ तो दुकानदार भी इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि वो
बिना मांगे घलुआ दे देंगे। यह आपको जानना है कि किसके साथ घलुआ मिलेगा, किसके साथ
नहीं। अब जिलेबी वाली बुढ़िया से आप घलुआ मांगेंगे तो वह आपको घलुए में ढेर सारी
बनारसी गालियाँ दे देगी ! आप अभ्यस्त नहीं हैं
तो बुरा मान जायेंगे।
यहां कोई किसी की परवाह नहीं करता।
कोई नहीं डरेगा आपके रूतबे से। होंगे आप लॉट गवर्नर। जहां के हैं, वहीं के बने
रहिए । पान घुलाये, चबूतरे पर चुपचाप बैठा पागल सा दिखने वाला शख्स, जिसे आप बहुत
देर से बौड़म समझ रहे थे, अचानक से उठकर एक झटके में आपके विद्वदापूर्ण उपदेश का
तीया-पांचा कर सकता है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर है चाय पान की अड़ी। छोटी बड़ी चर्चा
के बीच बनते बिगड़ते रहते हैं शब्द। एक ही दुकान पर चाय पीते हैं प्रोफेसर, नेता,
रिक्शावान, मजदूर या सरकारी बाबू। भ्रष्टाचार पर अन्ना हजारे के समर्थन में लम्बा
भाषण देने वाले विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को बोल सकता है दुकान में काम करने वाला, मुंह लगा किशोर... (जिसे आप बबलू या किसी भी नाम से
पुकार सकते हैं)....”काहे न बोलबा बाऊ...! पचास हजार तनखा पावला न ! अइबे करी भाषण। दिन भर
इहां भाषण देवला...कब पढ़ावला लइकन के ? ई भ्रष्टाचार नाहीं
हौ ?” आस पास खड़े लोगों के ठहाकों के बीच झल्ला कर चीखता है
प्रोफेसर...”चुप सारे..! जा गिलास
धो..।“ लड़का मुस्कुराता है....”हमें तs चुप कराइये देबा। मगर ई मत समझ्या कि ........।“
गुरूजी फिर चीखते ... ”चुप..! अबकी
बोलबे तs पटक के मारब ! (चाय वाले से)
का मालिक ! एहके आज दिनभर धूप में खड़ा करा ! एकर दिमाग चढ़ गयल हौ।“ ढीठ नौकर हंसता, बुदबुदाते
हुए भागता....”कउनो गुरू के घरे मिठाई नाहीं आयल अबकी गुरू
पूर्णिमा के.....! हे देखा..पंडीजी भी आ गइलन ! बिना नहाये...! कोई कहेगा....काहे ? लाल, गोल चंदन तs लगइले हौवन ! (बबलू पलट के, हाथ नचाते हुए) ..चंदन
! ई चंदन हौ ? शीशी में रोली धैइलेहौवन मेहरारू कs !
ललाट में भभूत पोत के शीशी उलट देवलन..! हो गयल
स्नान ! बहुत बड़ा ढोंगी हउवन। अब्बे देखिया...अउते
कहियें...नहाये में देर हो गयल।“ दुकानदार डांटता...”कौनो दिन बहुत मरइबे अउर हम छुड़ाए न आइब। चुप रहबे कि नाहीं ?” वह देर तक चुप नहीं रह पाता। कोई न कोई छेड़ देता...का बेटा ! आज कुछ बोलत नाहीं हौए ! डंटा गइले का ? वह फिर शुरू हो जाता।
एक दिन अस्सी चौराहे पर, चाय की दुकान
में, कवि कौशिक से भेट हो गई। कौशिक जी का पूरा नाम श्री रवीन्द्र उपाध्याय है। उम्र 70
के पार। सेवा निवृत्त स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी। इनको इनके पद से कोई नहीं जानता। अपनी बेहतरीन गज़लों के लिए ही जाने जाते हैं। कई गज़ल संग्रह प्रकाशित और वर्तमान में काशी के कवियों के भीष्म पितामह। इस उम्र में भी उनकी रोज की
अड़ीबाजी और बनारसी मस्ती देखते ही बनती है। मैने कहा..”चाय पी लीजिए गुरूजी।“ उन्होने
इनकार कर दिया..”अभी पीया हूँ..आप पी लीजिए।“ ऐसा कैसे हो सकता है ? एक कप तो पी ही लीजिए। मेरे
जिद पर दुकानदार से कहने लगे...”झांटांश..! झांटांश..!!” मैं शब्द सुनकर सकपका गया। ई का
गुरूजी..? कोई नया शब्द गढ़े हैं का..?
हंसते हुए बोले... यह अस्सी है। यहां रोज शब्द बनते-बिगड़ते रहते हैं। झांटांश का
क्या अर्थ हुआ..? कवि बोले... किसी भी वस्तु की न्यूनतम
मात्रा को झांटांश कहते हैं। मैं सुनकर धन्य हुआ। और लोग जो दुकान पर बैठे थे, इस चमत्कारिक
शब्द का नया श्रोता पा बहुत खुश हुए। जहाँ 70 के पार विद्वान और सम्मानित गज़लकार तथा
100 के पार की बुढ़िया एक समान रफ्तार से फर्राटेदार गाली दे सकते हों, उस लोक का
आनंद, आप ऊपर ही ऊपर बस् भीड़-भाड़ देखकर चले जायेंगे तो क्या पायेंगे ?
एक नवयुवक कवि कौशिक के पास आया
और झुंझलाकर बोला..गुरूजी बहुत दिन से एक गज़ल लिखत हई..ससुरा लिखौते नाहीं हौ। भाव
बनत हौ तs काफिया उड़ जात हौ, काफिया सही
करत हई तs मीटर गड़बड़ा जात हौ..का करी ? कवि जी उतनी ही तेजी से उठे। अभी-अभी जमाये पान के पीक को पच्च से थूककर
अपने भारी जिस्म के साथ दुकान के भीतर चबूतरे पर लद्द से बैठते हुए बोले.....
न गाने से, न रोने से, ग़ज़ल का जन्म होता है
सजल आँखों के कोने से, ग़ज़ल का जन्म
होता है
ह्रदय तोड़े सुह्रद कोई, नयन सींचा
करें निशि-दिन
पुराना दर्द बोने से, ग़ज़ल
का जन्म होता है
न रोगी व्यक्त कर पाये, न शल्यक वेदना बूझे
चिकित्सा कुछ न होने से, ग़ज़ल का
जन्म होता है
सभी साधन सुलभ हों सिद्धि के, लेकिन किसी
कारण
क्वचित् असमर्थ होने
से, ग़ज़ल का जन्म होता है
न जगने से, न सोने से, न चाँदी से, न
सोने से
वरन् सर्वस्व खोने से, ग़ज़ल का जन्म होता है
विरह के कूप में “कौशिक” नेह की डोर से कसकर-
कलश मन का डुबोने से, ग़ज़ल का जन्म होता है
........................................................................
कहना न होगा कि कवि कौशिक की इस एक ग़ज़ल ने चर्चा के पूरे माहौल को देखते ही देखते फर्श से उठाकर अर्श पर पहुँचा दिया।......
( पोस्ट लम्बी हो रही है। बनारसी
अनुभव और कवि कौशिक के
अन्य ग़ज़लों की चर्चा फिर कभी।)
इस पोस्ट में बनारस को जी दिया आपने..... हर लफ्ज़ बनारस का आईना है. इस पोस्ट को पढ़कर "काशी का असी" की बरबस याद आ गयी, तिस पर कौशिक साहब की ग़ज़ल तो सितम ढा रही है.....!!!!!
ReplyDeleteअच्छी लगी पोस्ट. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteवाह पाण्डेय जी, आपने तो अपने लेख से आज स्वादिस्ट कचौड़ी व गरमागरम जिलेबी एकसाथ खिला दिया, जो बहुत दिनों से बेताबी से मिस कर कहा हूँ। आप ने ठीक कहा, बनारस का स्वाद तो बनारस में रह-सह कर ही महसूस किया जा सकता है।भोले बाबा की नगरी तो उन्हीं की तरह औघड़ व विलक्षण हे,जिसका स्वाद अनुभव तो कर सकते हैं पर व्यक्त करना अति कठिन। पर आप ने शिवजी की कृपा से बहुत सुंदर ढ़ंग से अभिव्यक्त किया है।
ReplyDeleteबनारस की सुबह, अवध की शाम..
ReplyDeleteगज़ल के जन्म के बहुत ही सुंदर कारण दर्शाये गये हैं। बात दर-असल ऐसी है कि "दुख मे सुमिरन सब करें सुख मे करे न कोय" दुख कौनो बात का रहे… विरह की पीड़ा… स्वयम की असमर्थता…आदि आदि…भोजपुरी समझ मे तो ज्यादा आती नही फिर भी बोली लगती बढ़िया है…सुंदर रचना।
ReplyDeleteदनादन ई आदमी को दौडाए जा रहे हैं और कहते हैं कि बनारस में सब इत्मिनान से होता है... मगर कौशिक जी की गज़ल पढकर आनंद दूना हो गया!! चौह्चक गज़ल कहीं, मुला कहे का आजादी रहित हमहूँ कासी का अस्सी वाली भासा में सबासी ठोंक दिहले रहितीं!!
ReplyDeleteआनंद!!
सही कहा यूँही नहीं जन्म लेती ग़ज़ल बहुत अच्छी पोस्ट ............
ReplyDeleteसलिल भैया...
ReplyDeleteदौड़ाना आ गया हमको, बैठाना नहीं आता
रूलाना आता हो जैसे,हंसाना ही नहीं आता।
...वैसे दौड़ा भी रहे हैं तो इत्मिनाने से दौड़ा रहे हैं। बैठाना सीखते हैं...आपको आये तो बताने का कष्ट करें। कल अनूप जी भी जालिम लिख के गये हैं।
आनन्द आ गया। अभी कुछ दिन पूर्व ही बनारस जाकर आए हैं और लंका भी। आज ही बनारस का निमंत्रण था। वहाँ की बोली वाकई आनन्द देती है। इस बार जाएंगे तो जलेबी पक्की रही।
ReplyDeleteफुर्सत के कुछ लम्हे--
ReplyDeleteरविवार चर्चा-मंच पर |
अपनी उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ,
आइये करिए यह सफ़र ||
चर्चा मंच - 662
http://charchamanch.blogspot.com/
वाह बनारस की मस्ती का मस्त विवरण और गजल की तो मत कुछ पूछिए ग़ज़लों की ग़ज़ल है यह !
ReplyDeleteमस्त हुइ गये पोस्टवा पढ़ि के
ReplyDeleteलंका के कचौड़ी जलेबी अउर गारी त तन्न तन्न. मुला झाँटांश अउर कौशिकवा के गजल से पाला नाहीं परल रहे, ऊ तूँ परवाई देहल. अगिला कड़ी अइसही चौंचक रहे. जीय रजा बनारसी!
कल हम जालिम कहे थे आज डबल जालिम कह रहे हैं। बेचारा भारत के विकास की गति से दौड़े चला जा रहा और विकसित होने की मंजिल का पता नहीं। इसको हटा दीजिये वर्ना हम तो यही समझेंगे कि आपके मन में बिल्कुल्ल दया ममता नहीं है।
ReplyDeleteबाकी बनारस के सीन मजेदार लगे। दो साल बनारस में रहे हैं। उस समय के सीन याद आ गये।
हमारे स्वामी निर्मलानन्द जी ने भी बनारस को कनपुरिया नजर से देखा है। आपने अगर उनको बांचा न हो बांचिये और आनन्दित होइये।
ई रजा काशी हौ भाग १, भाग २, भाग ३ और भाग ४
बकिया मस्त रहा जाये। :)
ये भी एक बनारसी पोस्ट!
ReplyDeletehttp://girijeshrao.blogspot.com/2009/05/blog-post_10.html
देवेन्द्र जी .. बहुत खूब
ReplyDeleteआपने हम जैसे बनारस से बिछड़े को फिर से बनारस पहुँचा दिया.
आंचलिकता का समावेश आलेख को बहुत ही जीवंत बना दिया है.
सलाम आपकी लेखनी को.
padhkar achha laga...
ReplyDeletejai hind jai bharat
बहुत उम्दा गज़ल पढ़वाई..ऐसी ही गज़ल का जन्म होता है.
ReplyDeleteऐसा लग रहा हैं वहीं -कहीं घूम रहा हूँ,सचित्र वर्णन .कौशिक साहब नें भी क्या उम्दा मारा है.
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट,आभार.
काशी का अस्सी की याद हो आई। बनारसी गालीयां तो जैसे फूल की तरह लगती हैं।
ReplyDeleteलो भैया...दौड़ता हुआ आदमी चला गया। लिया का बेचारा। एक कविता देकर ही गया। वैसे लगाने के बाद जब भी हम ब्लॉग खोलते..उसका दौड़ना देखा न जाता। यही वजह है कि उस पर एक कविता लिख दिये। उस पोस्ट तक तो बात ठीक ही लग रही थी। लेकिन अब उसका दौड़ना हमको भी खल रहा था। अनूप जी और सलिल भैया के कमेंट के बाद तो हटाने का उपाय जैसवाल जी से पूछना ही पड़ा। इसी बहाने लगाने-हटाने आ गया, ई का कम है ?
ReplyDeleteकमाल का वर्णन है। सारे दृश्य सजीव होकर आंखों के सामने तैरने लगते हैं।
ReplyDeletegajab!!!!banaras hamar sasural aur hindustan ke sabhyata aur asabhyata doono ke janamsthali hao
ReplyDeleteपढ़ कर मजा आ गया..बहुत ही अच्छी लगी गजल...
ReplyDeleteइसे पढ़कर तो बनारस का असली रूप देखने को मिला । अच्छा हुआ बनारस जाने से पहले ही सब कुछ पता चल गया । अब सावधान रहेंगे । न कभी चाय पियेंगे , न पान खायेंगे , न नाव में बैठेंगे , न घाट पर जायेंगे --पर फिर बनारस में करेंगे क्या ।
ReplyDeleteचलिए वहां जाकर ही फैसला करेंगे ।
बहुत सुन्दर वर्णन । दर्द भरी ग़ज़ल लिखने के गुर भी सीख लिए ।
सुंदर गज़ल और बनारस के किस्से. वाह वाह.
ReplyDeleteशानदार प्रस्तुती।
ReplyDeleteकई स्वाद से भरा पोस्ट.
ReplyDeleteबनारस का अछ्छा वर्णन कइले हौआ.बहुत से यैसे लोग वहाँ है,जिन्हे छेड देने पर धाराप्रवाह गाली देने लगते है और इसी कारण लोग उनको छेडकर मजा लेते है.
ReplyDeleteकौशिकजी की रचना सुन्दर है.
बनारस कई बार देखा, विरोधाभास से भरा नगर। एक बार वहाँ नौकरी करने का सन्योग भी बना मगर कुछ व्यक्तिगत कारणों से काशी के बजाय अमेरिका के एक छोटे से शहर आना हुआ। उसके बाद से कभी बनारस नहीं देखा। इत्तेफ़ाक़ ही है कि यह टिप्पणी लिखते समय एक भारतीय चैनल के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण में बनारसी बाबू फ़िल्म के गीत पर "बनारसी नौटंकी" का बैनर लगा दिख रहा है। ग़ज़ल और उसका विषय पसन्द आया।
ReplyDeleteगुरू, ऐसी पोस्ट लिखो तो फ़िर लंबाई मत देखा करो। बनारसी मस्ती की सही छटा बिखेर गये, कौशिक गुरूजी की गज़ल भी बहुत सुंदर लगी।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी लगी गजल|
ReplyDeleteबनारस देखना बाकी है .शहर बहुत देखें हैं .देश के विदेश के पर बनारस आने का कब से मन है .जब भी वहां के बारे में पढ़ा है या बखान सुना है किसी से इच्छा को पंख लगे हैं .
ReplyDeleteबनारस देखना बाकी है .शहर बहुत देखें हैं .देश के विदेश के पर बनारस आने का कब से मन है .जब भी वहां के बारे में पढ़ा है या बखान सुना है किसी से इच्छा को पंख लगे हैं .और हाँ कौशिक जी की ग़ज़ल का अपना रंग था जिसे चर्चा ने नै परवाज़ दी .
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा है आपने ...यूं ही नहीं होता गजल का जनम ... ।
ReplyDeletesahee.....sarwasw khone aur kalash mann ko dubone se hi gazal ka janm hota hai.....
ReplyDeleteअपनी भाषा में एक ही शब्द कहने का मन है इस पर...
ReplyDeleteचउचक!!
बस एक बात से ऐतराज़ करने को मन होता है, बनारस आहिस्ता-आहिस्ता नहीं जागता, बनारस फुर्सत से बतियाता है।
AC में वेंडिंग मशीन नहीं दबाता, कुल्ल्हड़ के सहारे सोंधापन पीता है।
दुई ठे (दो नहीं) समोसा खा के दिन भर में अड़तालीस घंटे जीता है।
वैसे मेरा भाई पढ़ता तो अधिक खुश होता, हम दोनों में झगडा इस बात पे है कि कि बेहतर क्या है?
वो कहता है दादी की जलेबी, जबकि मैं पहलवान के लौंगलते का तलबगार हूँ। :)
मन खुश हो गया।
ऐसन घुमाई बनारस के...
ReplyDelete☺️
Deleteअब कचौड़ी वाली दादी नहीं रहीं।
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