आँधियों
में
पत्तियों
सा
झर रहा
है।
चाँद पर
पहुँचा
नज़र से
गिर रहा
है।
पागलों
सा
दौड़ता
है भीड़ में
या कि
उड़ता है
सुनहरे
स्वप्न में!
कल तलक
तो
चल रहा
था साथ में
दूर तक
मुझको
नहीं अब
दिख रहा
है।
सेंकता
है
कौन इसको
आँच पर ?
फूलता है
सेठ की रोटियों
सा!
या कहीं
भूख से
तिलमिलाकर
पचकता अभागी
मज़दूर
के पेट सा !
मकड़ियाँ
फँसती नहीं
खुद जाल
में
रोज
बुनता और फँसता
जा रहा
है।
ज्ञान का
झाड़ू लिये
जो घूमता
साँप बन
उसको ही
डँसता
जा रहा
है।
.........................
चंद पर पहुंचा ,नजर से गिर रहा है ...
ReplyDeleteवाह वाह और वाह....क्या सटीक ख्याल बुना है.
nice presentation.लगेंगी सदियाँ पाने में .
ReplyDeleteअच्छी उपमाएं दीं हैं. सेठ की रोटियों सा फूलता आदमी, मजदूर के पेट सा पिचकता आदमी. बहुत दिनों से आपने कोई भोजपुरी कविता नहीं लिखी.
ReplyDeleteकहाँ जाना तय था, कहाँ पहुँच गया, आदमी आश्चर्य में है।
ReplyDeleteमुक्ति जी से सहमति ! ...पर उपमाये काफी ज्यादा हो गई हैं !
ReplyDeleteपिचकता हुआ आदमी मजदूर के पेट सा ,.........आधुनिक और नए बिम्ब लिए है यह रचना जो हमारे समय का दस्तावेज़ है आदमी की नियति का .
ReplyDeleteram ram bhai
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बुधवार, 10 अक्तूबर 2012
कैसे हो जाता है फंगल मैनिनजाईटइस
http://veerubhai1947.blogspot.com/
बहुत खूब ।
ReplyDeleteविकट भाव किन्तु सरस बहाव
बधाई ।।
मकड़ी मानुष में फरक, घातक खुद का जाल ।
गड्ढा खोदे गैर हित, बनता खुद का काल ।
बनता खुद का काल, नजर फिर भी न नीची ।
करता नए बवाल, पाप का पादप सींची ।
बैठा काटे डाल, जलावन वाली लकड़ी ।
पाया नहीं सँभाल, मौत की फाँसे मकड़ी ।।
आदमी की आज के परिवेश में सटीक व्याख्या ।
ReplyDeleteबिल्कुल,यही तो आम आदमी है!
ReplyDeleteसुन्दर रचना ....
ReplyDeleteअद्भुत, कमाल.....वाह देव बाबू ......हैट्स ऑफ इसके लिए ।
ReplyDeleteकमाल की रचना
ReplyDeleteपूर्ण रूप से कवि का रूप दिखाया है .
ReplyDeleteसुन्दर रचना .
यह भी खूब रही... पूर्ण रूप से कवि का रूप दिखाया है। मैं बहुरूपिया कब से हो गया डाक्टर साहब?:)
Deleteएक आम आदमी से ख़ास बनने की यात्रा में कौन कौन से गर्त्त में गिरता, किस किस आँच पर सिंकता, पकता, फूलता, पिचकता यह आदमी कहाँ और कैसे अपने बुने जाल में फंसता जा रहा है.. कमाल का चित्रण किया है आपने देवेन्द्र भाई!
ReplyDeleteकिन्तु बीच में लय बिखर गई है.. न जाने कैसे!!
जी, बीच में लय टूटी है। कल शाम एक झटके में लिखा और पोस्ट कर दिया। दो चार दिन बाद पोस्ट करता तो शायद कुछ और अच्छा सूझता। कुछ दिनों के बाद चुपके से संपादित कर देंगे।:)
Deleteआदमी की बुक्कत कुछ भी नहीं
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 11-10 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....शाम है धुआँ धुआँ और गूंगा चाँद । .
देश और समाज की यही स्थिति है।
ReplyDeleteवैसे बहुत सार्थक है -मनचाहा संपादन भी कर डालिये !
ReplyDeleteसमय के साथ क्षरण और पतन की अच्छी और सच्ची तस्वीर खींची है आपने।
ReplyDeleteवास्तविकता है यह आज के मनुष्य की ..
ReplyDelete:-)
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण...!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सही...!
वास्तविक अर्थ लिये सटीक शब्दों में खाँटी बनारसी सुंदर अभिव्यक्ति। बधाई पांडेयजी।
ReplyDeleteज्ञान का झाडू लिए जो घूमता
ReplyDeleteसांप बन उसको ही डसता जा रहा है !!
क्या कहने ...
हालात तो आजकल यही हैं !
ये आदमी भी क्या चीज है !आदमी में केवल बुराईयां ही नहीं अछ्छायियां भी हैं,किस्मत ने चाहा तोडना इसे पर,टूटता नहीं बस मुडा जा रहा है.
ReplyDeletebahut sundar...
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