9.10.12

आदमी


आँधियों में
पत्तियों सा
झर रहा है।
चाँद पर पहुँचा
नज़र से
गिर रहा है।

पागलों सा
दौड़ता है भीड़ में
या कि उड़ता है
सुनहरे स्वप्न में!
कल तलक तो
चल रहा था साथ में
दूर तक
मुझको नहीं अब
दिख रहा है।

सेंकता है
कौन इसको आँच पर ?
फूलता है
सेठ की रोटियों सा!
या कहीं
भूख से तिलमिलाकर  
पचकता अभागी
मज़दूर के पेट सा !

मकड़ियाँ फँसती नहीं
खुद जाल में
रोज बुनता और फँसता
जा रहा है।
ज्ञान का झाड़ू लिये
जो घूमता
साँप बन
उसको ही डँसता
जा रहा है।
......................... 

27 comments:

  1. चंद पर पहुंचा ,नजर से गिर रहा है ...
    वाह वाह और वाह....क्या सटीक ख्याल बुना है.

    ReplyDelete
  2. अच्छी उपमाएं दीं हैं. सेठ की रोटियों सा फूलता आदमी, मजदूर के पेट सा पिचकता आदमी. बहुत दिनों से आपने कोई भोजपुरी कविता नहीं लिखी.

    ReplyDelete
  3. कहाँ जाना तय था, कहाँ पहुँच गया, आदमी आश्चर्य में है।

    ReplyDelete
  4. मुक्ति जी से सहमति ! ...पर उपमाये काफी ज्यादा हो गई हैं !

    ReplyDelete
  5. पिचकता हुआ आदमी मजदूर के पेट सा ,.........आधुनिक और नए बिम्ब लिए है यह रचना जो हमारे समय का दस्तावेज़ है आदमी की नियति का .
    ram ram bhai
    मुखपृष्ठ

    बुधवार, 10 अक्तूबर 2012
    कैसे हो जाता है फंगल मैनिनजाईटइस

    http://veerubhai1947.blogspot.com/

    ReplyDelete
  6. बहुत खूब ।

    विकट भाव किन्तु सरस बहाव

    बधाई ।।

    मकड़ी मानुष में फरक, घातक खुद का जाल ।

    गड्ढा खोदे गैर हित, बनता खुद का काल ।

    बनता खुद का काल, नजर फिर भी न नीची ।

    करता नए बवाल, पाप का पादप सींची ।

    बैठा काटे डाल, जलावन वाली लकड़ी ।

    पाया नहीं सँभाल, मौत की फाँसे मकड़ी ।।

    ReplyDelete
  7. आदमी की आज के परिवेश में सटीक व्याख्या ।

    ReplyDelete
  8. बिल्कुल,यही तो आम आदमी है!

    ReplyDelete
  9. सुन्दर रचना ....

    ReplyDelete
  10. अद्भुत, कमाल.....वाह देव बाबू ......हैट्स ऑफ इसके लिए ।

    ReplyDelete
  11. कमाल की रचना

    ReplyDelete
  12. पूर्ण रूप से कवि का रूप दिखाया है .
    सुन्दर रचना .

    ReplyDelete
    Replies
    1. यह भी खूब रही... पूर्ण रूप से कवि का रूप दिखाया है। मैं बहुरूपिया कब से हो गया डाक्टर साहब?:)

      Delete
  13. एक आम आदमी से ख़ास बनने की यात्रा में कौन कौन से गर्त्त में गिरता, किस किस आँच पर सिंकता, पकता, फूलता, पिचकता यह आदमी कहाँ और कैसे अपने बुने जाल में फंसता जा रहा है.. कमाल का चित्रण किया है आपने देवेन्द्र भाई!
    किन्तु बीच में लय बिखर गई है.. न जाने कैसे!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, बीच में लय टूटी है। कल शाम एक झटके में लिखा और पोस्ट कर दिया। दो चार दिन बाद पोस्ट करता तो शायद कुछ और अच्छा सूझता। कुछ दिनों के बाद चुपके से संपादित कर देंगे।:)

      Delete
  14. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 11-10 -2012 को यहाँ भी है

    .... आज की नयी पुरानी हलचल में ....शाम है धुआँ धुआँ और गूंगा चाँद । .

    ReplyDelete
  15. वैसे बहुत सार्थक है -मनचाहा संपादन भी कर डालिये !

    ReplyDelete
  16. समय के साथ क्षरण और पतन की अच्छी और सच्ची तस्वीर खींची है आपने।

    ReplyDelete
  17. वास्तविकता है यह आज के मनुष्य की ..
    :-)

    ReplyDelete
  18. मनोवैज्ञानिक विश्लेषण...!
    बहुत सुन्दर और सही...!

    ReplyDelete
  19. वास्तविक अर्थ लिये सटीक शब्दों में खाँटी बनारसी सुंदर अभिव्यक्ति। बधाई पांडेयजी।

    ReplyDelete
  20. ज्ञान का झाडू लिए जो घूमता
    सांप बन उसको ही डसता जा रहा है !!
    क्या कहने ...
    हालात तो आजकल यही हैं !

    ReplyDelete
  21. ये आदमी भी क्या चीज है !आदमी में केवल बुराईयां ही नहीं अछ्छायियां भी हैं,किस्मत ने चाहा तोडना इसे पर,टूटता नहीं बस मुडा जा रहा है.

    ReplyDelete