भोला चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है। चतुर्थ श्रेणी माने शासन की वर्ण व्यवस्था में कर्मचारियों की सबसे कमजोर श्रेणी। सबसे पहले दफ्तर पहुंचना और सबके बाद जाना तो इसकी अनिवार्य जिम्मेदारी है ही मगर किस्मत फूटी और साहब के बंगले पर तैनाती हो गई तो फिर वो सभी काम करने होते हैं जो साहब, मैडम और छोटे साहब यानि साहब के बच्चे चाहें!
अभी जन्म हुआ है भोला का इस वर्ग में। मुश्किल से 6 मास की सेवा। सरकारी वर्ण व्यवस्था से सर्वथा अपरिचित। समाजवादी चिंतन, हरिश्चंद्र सी ईमानदारी, शर्मिला स्वभाव और रोज शाम को अपने घर भाग जाने की जल्दी! जिस कर्मचारी में इतने अवगुण हों उस कर्मचारी से कौन साहब खुश रह सकता है भला!
पता चला भोला की साहब के बंगले पर तैनाती हो गई। इसी का दुखड़ा रो रहा था #ट्रेन में। मैडम ने सब्जी लाने को कहा और पल्ले से भी कुछ रुपये खर्च हो गये। साहब ने किसी बात पर आँखें तरेरीं और जूते पॉलिश करने को कहा। जूता पॉलिश करने से इनकार करने और यह कहने पर कि यह मेरा काम नहीं साहब अत्यधिक नाराज हो गये और नियुक्ति की जांच करने, ट्रान्सफर कराने जैसी धमकी देने लगे।
ट्रेन के अत्यधिक विलम्ब से आने का दुःख भूल कुछ साथी भोला को घेर सम्वेदना प्रकट कर रहे थे और दुनियाँदारी की सीख देते हुए लगातार समझा रहे थे। तब तक बिहार जा रहा एक यात्री उचक कर सबकी बातों से सहमत होते हुये चहकने लगा-
'हम भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे। सब करना पड़ता है मगर इसमें लाभ ही लाभ है! नुक्सान का है? हम तो सौ रुपिया लेते थे और 50 रुपिया का सब्जी लाते थे! पूरा पचास रूपया धर लेते थे अपनी जेब में!!! बुझाया कि नहीं बुझाया? बरका हरिश्चंद्र बने हैं! सब करना पड़ता है। नौकरी करी तो ना न करी। अबहीं का, मैडम का कपड़ा भी फीचना पडेगा, बच्चों को स्कूल भी छोड़ना पडेगा, बरतन भी मांजना पडेगा अउर जो साहब कहेंगे सब करना पडेगा। मगर इसमें नुकसान का है? फ़ायदा ही फ़ायदा है। साहब खुश होगा तो परमोशन जल्दी हो जायेगा! हम आठ साल रहे साहब के बंगले पे। खूब मजा लुटे, हाँ मेहनत भी खूब किये। मेहनत करना पड़ता है। हरिश्चंद्र बनने से कुछ नहीं होगा। नौकरी भी चली जायेगी हाथ से! बुझाया कि नहीं????'
हम भी सबको सुन रहे थे और समझने का प्रयास कर रहे थे। भोला का दुखी मन कुछ हल्का हो रहा लग रहा था। एक ईमानदार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी साथियों की मदद से व्यवस्था के अनुरूप ढलना सीख रहा था।
बनारस आउटर पर ट्रेन के आने की खबर ने मेरा ध्यान भंग किया और मैं जल्दी-जल्दी जूते के फीते बाँधने लगा।
हरिशचन्द्र बनने से कुछ नहीं होगा, और कुछ होने के चक्कर में आदमी घनचक्कर बन जाता है
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