7.8.16

सुदामा के कृष्ण

हे कृष्ण!
आज भी हैं कालिया नाग
आज भी दरिद्र हैं
सुदामा पाण्डे
महुअर का मंत्र फूँक
कुछ नई लीला कर।
मैं भुने चने लेकर चढ़ जाऊँ डाल पर?
तू आयेगा भूखा-प्यासा?
पूछेगा?
क्या खा रहे हो यार!
आ!
मैं झूठ नहीं बोलुँगा
खा लेना
जितना जी चाहे।
न जाने कब से
डूबी हुई है
बच्चों की गेंद
एक नहीं,
अनेक हैं कालिया नाग
हवा में तैरती
उफनाई नदी में
आ कृष्ण आ!
चावल के दाने के दिन गये
मित्रता संकट में है
बहने भी
घबड़ाई हुई हैं।
..............

5 comments:

  1. सुदामा बन गया जब मानव तो कृष्ण भी बन सकता है..वह कहीं दूर तो नहीं हर घट में बसता है..

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलमंगलवार (09-08-2016) को "फलवाला वृक्ष ही झुकता है" (चर्चा अंक-2429) पर भी होगी।
    --
    मित्रतादिवस और नाग पञ्चमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत सुन्दर

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  4. भाई देवेन्द्र जी! यह रचना बहुत कुछ कहती है... और मुझे याद आ गया धर्मवीर भारती जी की पंक्तियाँ...

    "यह अंधा युग अवतरित हुआ
    जिसमें स्थितियां, मनोवृत्तियाँ,आत्माएँ सब विकृत हैं
    है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
    पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में
    सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का
    वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त
    पर शेष अधिकतर हैं अंधे
    पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित
    अपने अंतर की अंध गुफाओं के वासी."

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    1. इस उदधरण से ऐसा लगा कि धर्मवीर भारती हों, कोई अदना कवि हो या फिर हमारी तरह ककहरा पढ़ रहा बेचैन..ऐसे भाव सभी सभी संवेददनशील व्यक्ति के ह्रदय को झकझोरते हैं।

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