22.10.18

वृन्दावन ...लोहे के घर से एक संस्मरण

कोटा पटना का लेट होने का कोटा अभी पूरा नहीं हुआ है। लेट, और लेट, और और लेट होती चली जा रही है।  कोटा से चलकर रात में आनी थी मथुरा, भोर में आई। सुबह, दिन में बदलने जा रहा है लेकिन यह रुक रुक, छुक छुक चल रही है। भाप का इंजन होता तो इसकी छुक छुक कर्ण प्रिय होती। बिजली का इंजन है, छुक छुक इलेक्ट्रिक शॉक की तरह झटके दे रही है। दिन में पहुंचना था बनारस। अब लगता है, कल भोर में पहुंचेगे। 

मथुरा आने का पारिवारिक कारण था। अवसर मिला तो वृन्दावन और आगरा घूम लिए। अवसरवादी तो सभी होते हैं लेकिन आम आदमी सबसे बड़ा अवसरवादी होता है। अपनी छोटी छोटी पहुंच में छोटे छोटे अवसर तलाशता है। पैर फिसलने से नदी में गिर गया तो नहाकर, हर हर गंगे कहते हुए, मुस्कुराते हुए बाहर निकलता है। ताकि आप समझें कि वह गिरा नहीं था, पुण्य बटोर रहा था। यही हाल अपना है। पारिवारिक मिलना जुलना भी हो गया, घुमाई भी हो गई।

आगरा और वृन्दावन की तुलना में वृन्दावन ने अधिक आनंद दिया। वृन्दावन का माहौल ही राधे राधे है। जिस गली या सड़क से गुजरो.. राधे राधे। खुली नालियों वाली गन्दी गली से गुजरो या चमचमाती सड़कों से हर तरफ कृष्ण की भक्ति और संगीत का माहौल। गली के एक घर से आते संगीत की धुन मध्यम पड़ी तो दूसरे घर से उठता भजन सुनाई पड़ने लगा। कहीं नृत्य का अभ्यास हो रहा है तो कहीं हारमोनियम, झांझ और ढोलक की ताल में राधे राधे। 

वृन्दावन में घूमने की शुरुआत निधि वन से हुई। इसके बारे में कई प्रकार की रहस्यमयी बातें सुन रखी हैँ। इसके हजारों वृक्ष रात के समय गोपियाँ बन जाती हैं! कृष्ण स्वयं रात के समय रासलीला रचाते हैं। दिन डूबते ही आज भी मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। रात के समय मन्दिर प्रवेश की इजाजत किसी को नहीं है। इन सुनी सुनाई बातों से उलट, तुलसी के पौधे जैसे दिखने वाली घनी झाड़ियों के इस छोटे से वन में राधे कृष्ण की मूर्तियाँ विद्यमान थीं। वन में बन्दर और मंदिर में पुजारी अपने पेट के जुगाड़ के लिए भक्तों को आसभरी निगाहों से देखते मिले। दोनो के लालच में गहरी समानता दिखी। भक्तों की आस्था जितनी प्रबल, इनका लोभ भी उतना ही उच्चकोटि का। पुजारियों और बंदरों में फर्क सिर्फ इतना था कि बन्दर चना मिलने ही भाग कर, किसी कोने में दुबक थैला कुतरने लगते, पुजारी चादर में नोट सजा कर और और की जुगत भिड़ाते। बन्दर सामने आ कर मांगते,  पुजारी मुख खोल कर नहीं मांगते पर कैसे और मिले इसकी नई नई तरकीबें सजाते।

इन सबसे अलग आने वाले भक्तों में गजब की आस्था दिखी! कोई ताली पीट पीट ठुमकते, कोई हाथ कमर हिलाकर नृत्य करने लगते। सब तरफ राधे कृष्ण का माहौल। आप में जरा भी आस्था हो तो वहाँ का माहौल ही ऐसा है कि आप भक्ति में डूबे बिना नहीं रह सकते। मैं कौतूहल से सबको देखता रहा। सब से अधिक कौतूलह तो मुझे निधि वन के पौधों को देख कर हुआ। खोखले और अष्टवक्री इन पौधों के पत्ते इतने हरे भरे कैसे हैं! इसमें इतना जीवन और इतनी ऊर्जा कैसे है!!! कौन सी निधि इसमें समाई है कि इसका नाम निधि वन पड़ा?


निधि वन बाहर निकले तो एक पुरुवा स्वादिष्ट लस्सी पी कर थकान मिटाई। दुकानदार खरीदने पर ही पानी देता था। लोग पानी के अभाव में, लस्सी पी कर पुरुवा फेंक दे रहे थे। मैंने दुकानदार को एक बनारसी उपदेश पिलाया। तुम पानी नहीं पिलाते हो, लोग पुरुवे के साथ पुरुवे मे चिपका दही भी फेंक रहे हैं। यह गो रस का अपमान है! तुम्हेँ पानी की व्यवस्था करनी चाहिए। ताकि लोग पुरुवे में घोलकर पानी के साथ दही भी पी जांय। उसने मेरी बात स्वीकार नहीं करी तो नकारा भी नहीं। सिर्फ इतना कहा.. आपकी यह बात अलग है! 

वहाँ से निकल बांके बिहारी मंदिर के लिए चला। संकरी गलियाँ और अपार भीड़। दोनो तरफ सजे भांति भांति के दुकान। मैं गलियों का वीडियो बनाने लगा। एक राधे कृष्ण की तस्वीरों के दुकानदार ने वीडियो बनाने से रोक दिया। मैंने कहा..इससे तो तुम्हारा प्रचार ही होगा। तुम्हें क्या तकलीफ है? उसने भी मेरी बात स्वीकार तो नहीँ किया लेकिन नकारा भी नहीँ। वीडियो बनाने से रोकते हुए सिर्फ इतना कहा.. आपकी यह बात अलग है! 

इन दो दुकानदारों से मैंने यह नसीहत सीखी कि जब कोई आपको सत्य का उपदेश देने लगे तो आप उसकी बात शालीनता से, बिना नकारे हुए कैसे काट सकते हैं! आपको सिर्फ इतना कहना होगा.. आपकी यह बात अलग है!!! हम पान सुर्ती खाते हैँ। कोई मना करेगा। जहर खाने का भय दिखाएगा। अवगुन गिनाएगा तो कह देंगे..आपकी यह बात अलग है! 

बाँके बिहारी मंदिर के चारों तरफ घुसने और निकलने के दरवाजे हैं। मन्दिर में प्रवेश करते ही अपार भीड़ और आस्था के महासागर से सामना हुआ। बेचैन मन, आस्था के सागर से उठने वाली लहरों में, डूबने उतराने लगा। जब आप भीड़ से घिर गए हों तो खुद के बचाव का सबसे सरल उपाय यह है कि आप संघर्ष करने के बजाय भीड़ का हिस्सा बन जाओ। जिधर भीड़ ले जाये, उधर चलते चले जाओ। जो भीड़ करे, वही करते चले जाओ। मैं भी भीड़ की तरह राधे-राधे गाते हुए थिरकने लगा और देखते ही देखते मेरी नैया भी पार हो गई। मतलब बाँके बिहारी के दर्शनोपरांत मन्दिर से बाहर आ गया। बाहर निकल कर कुछ पल आनन्द की अनुभूति में डूबा रहा फिर दूसरे ही पल चप्पल ढूंढने के लिए बाहर की भीड़ से संघर्ष करता रहा। चप्पल उतारा एक गेट में, निकला किसी दूसरे अजनबी गेट से। अब ऐसे में संघर्ष के अलावा चारा क्या था! जब बात अपने पर आती है तो तटस्थ रहने वालों को भी भीड़ से संघर्ष करना पड़ता है। संघर्ष किया और संघर्ष का परिणाम सुखद रहा। मुझे मेरा वही पुराना, बिना पलिस का अधमरा चप्पल एक गेट के कोने में उदास पड़ा मिल गया।

एक इच्छा के पूर्ण होते ही दूसरी इच्छा जागने लगती है। जो पूर्ण हुई उसका जश्न मनाना भूल, मन दूसरे के लिए बेचैन हो उठता है। बाँके बिहारी मंदिर से निकलते ही श्री कृष्ण जन्मस्थली के दर्शन की इच्छा हुई। श्री कृष्ण जन्मस्थली की व्यस्था टंच थी। शाम के नौ बजे का समय था। सौभाग्य से यह भगवान कृष्ण की आरती का समय था। मंदिर के ऊपर बने राधे कृष्ण की भव्य छवि की आरती शुरू ही हो रही थी। भक्त भजन गाते हुए थिरक रहे थे। मन्दिर का प्रांगण खूब बड़ा था। स्थान की तुलना में भीड़ अधिक नहीं थी। शांति और प्रेम का माहौल था। हम भी भक्तों में शामिल हो थिरकने लगे। राधे कृष्ण, राधे कृष्ण जपते हुए सुंदर वस्त्राभूषण से सज्जित, राधे कृष्ण की मनोहर छवि का दर्शन करने लगे। सामने दीवारों पर सुंदरता का वर्णन करते कई छंद अंकित थे। स्वभावतः छंद पढ़ते हुए मूर्तियों की सुंदरता का छंद से मिलान करते रहे। जितने सुंदर छंद, उतनी भव्य मूर्तियों की सजावट। मन आनन्द में ऐसा डूबा कि कब आरती खत्म हुई पता ही नहीं चला। वहाँ से निकल नीचे जन्मस्थली का भी दर्शन किया। जन्मस्थली की दीवारें किसी तानाशाह के जेल की तरह ही लग रहीं थीं। सामने चबूतरे पर लड्डू गोपाल की बाल छवि की तस्वीरें, फूल माला के साथ सजा कर रखी हुई थी। एक पुजारी मन्दिर की साफ़ सफाई कर रहे थे। इस मंदिर के किसी पुजारी के चेहरे पर लोभ नहीं दिखा, सभी कृष्ण भक्ति के प्रेम में डूबे मिले। 

रात भर की भारतीय रेलवे की सुखद यात्रा(जिससे सभी पूर्व परिचित हैं।) और दिन भर की अपनी बेचैनी से अर्जित भगदौड़ ने शरीर को इतना थका दिया था कि फिर कुछ देखने की इच्छा नहीँ हुई। कब पड़ाव पहुंचा, कब भोजन किया और गहरी नींद में सो गया, पता ही नहीं चला। 

अपने पास छुट्टी के फ़क़त दो दिन थे और बहुत कुछ देखना बाकी था। मथुरा से साठ किमी दूर, आगरा का ताज महल भी देखना था। आदतन भोर में नींद खुल गई। अपने साथ सो रहे साथी भाई को जगाया और उन्हें प्रातः भ्रमण के लिए राजी कर लिया। एक दिन पहले की भागदौड़ से वे भी थके थे और सोना चाहते थे। टालने का प्रयास किया लेकिन मेरा मूड देख कर झट पट तैयार भी हो गए। नेट में तलाश किया शहर में सबसे बढ़िया उद्यान कहाँ है? नेट ने चार किलो मीटर दूर शहीद भगत सिंह पार्क का नाम सुझाया। देखा नहीं था इसलिए एक ऑटो पर बैठ गया। मन में प्रेम मन्दिर, वृन्दावन देखने की इच्छा भी दबी हुई थी। आदतन ऑटो वाले से बात चीत शुरू कर दी। उसने बताया कि इस समय प्रेम मन्दिर खुला मिलेगा। मथुरा में जहाँ ठहरे थे वहाँ से वृन्दावन लगभग 14 किमी दूर था। थोड़े मोल भाव के बाद ले जाने और ले आने का भाड़ा तय हो गया और हम पहुँच गए प्रेम मंदिर।

ईश्वर अनुकूल होता है तो सब सही सही घटता चला जाता है। हमने प्रातः साढ़े पाँच बजे मंदिर में प्रवेश किया और वहाँ जाने के बाद पता चला कि ठीक साढ़े पाँच से साढ़े छः तक मंदिर खुला रहता है। यह प्रातः परिक्रमा का समय था। सुफेद संगमरमर से बना बड़ा भव्य मंदिर है प्रेम मंदिर। बनाने वाले ने वाकई इसे बड़े प्रेम से बनाया है। इसको देखने से ही पता चलता है कि इसके निर्माण में तन, मन और धन तीनो मुक्त हस्त से लुटाए गए हैं। मंदिर बिजली के प्रकाश से जगमगा रहा था। विशाल प्रांगण के चारों ओर भगवान कृष्ण की लीलाओं की लगभग सभी छवियाँ, सुंदर कलाकृतियों से सजाई गई थीं। जिधर नजरें जातीं, उधर की ओर मुँह कर ठिठक कर खड़े के खड़े रह जाते। विशाल चबूतरे के बीचों बीच बने संगमरमर के भव्य मंदिर की शोभा देखते ही बनती थी। उसी समय जगत गुरु कृपालु महाराज की तस्वीर सजा कर भक्त नाचते गाते राधे कृष्ण, राधे कृष्ण का जाप करते गए मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे। हम भी मंदिर में प्रवेश करना भूल, मंदिर की परिक्रमा करने लगे। मंदिर की दीवारों पर भी कृष्ण लीला की मनोहारी छवियाँ उकेरी गईं थीं। छवियों में लाइटिंग की भी व्यवस्था थी। भोर का समय था। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। 

मंदिर के भीतर की एक परिक्रमा करते करते मंदिर के कपाट बंद हो गए। पुरुष और महिलाएं अलग अलग पंक्तिबद्ध हो बैठ कर भजन कर रहे थे। मंदिर में भीड़ नहीं थी। लग रहा था कि ये रोज आने वाले नियमित भक्त हैं जो भोर में ही स्नान, ध्यान के बाद, ललाट पर चंदन सजा कर, साफ सुथरे वस्त्रों से सज्ज होकर यहाँ विराजमान होते हैं। कुछ कुँआरी कन्याएं भी मीरा की तरह कृष्ण भक्ति में लीन दिखीं। प्रेम मंदिर का पूरा वातावरण कृष्ण प्रेम में पूरी तरह डूबा हुआ था। हम कभी मंदिर की सुंदरता में डूबते तो कभी भक्तों के भक्ति भाव में। प्रेम मंदिर के कण कण से प्रेम और प्रेम ही छलक रहा था। 

प्रेम मंदिर से लौटकर शहीद भगत सिंह उद्यान में घूमने लगे। सुबह के साढ़े सात बज रहे थे। घूमते घूमते घर से बेटियों का फोन आ गया..हम लोग तैयार हैं। आगरा नहीं चलना?

5 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 145वीं जयंती - स्वामी रामतीर्थ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-10-2018) को "सुहानी न फिर चाँदनी रात होती" (चर्चा अंक-3134) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  3. रोचक यात्रा संस्मरण !

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  4. This comment has been removed by the author.

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  5. रोचक संस्मरण

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