18.9.20

मदारी मुक्त बन्दर

गंगा उफान पर है

डूब चुकी हैं पंचगंगा घाट की सभी मढ़ियाँ

नहीं जा सकते 

एक घाट से दूसरे घाट तक

श्रीमठ के पास

सीढ़ियों पर बैठ

जहाँ टकरा रही थीं

गंगा की लहरें

कई लोग एक साथ कर रहे थे

पितरों को तर्पण

मन्त्र पढ़ रहा था, ऊपर बैठा पण्डा

बीच-बीच में निर्देश देता..

जनेऊ

गले में माला कर लीजिए,

अपसव्य होइए!

जनेऊ

बाएँ कन्धे पर,

सव्य होइए!

जनेऊ दाएँ कन्धे पर,

राजघाट पुल की ओर अर्घ्य दीजिए,

रामनगर की ओर अर्घ्य दीजिए,

अपना गोत्र बोलिए,

पितरों को याद कीजिए....


मैं भी गया था

तर्पण देने

ढूँढ रहा था 

अपने पण्डित जी को

मुझसे पहले

पण्डित जी ने मुझे देख लिया

हाथों से इशारा किया..

वहाँ बैठिए जजमान,

गंगा स्नान कीजिए,

अर्घ्य दीजिए.....


तभी एक बंदर

किसी की पोटली से

एक आलू निकालकर भागा

पण्डे ने डांटा

मगर यह वाला बन्दर

मदारी मुक्त था, स्वतन्त्र था

आलू मुँह में दबाए

चढ़ता चला गया

घाट की सीढ़ियां!

...................

10 comments:

  1. वाह , कितना सटीक उदाहरण दिया है । पंडित सच यजमान को बन्दर ही बना छोड़ते हैं ।

    ReplyDelete
  2. Hahaha
    मजेदार तंज
    और सच्चाई भी।
    ज़ोरदार।
    गुजरे वक़्त में से...

    ReplyDelete
  3. व्वाहहहहह
    देखा सुना
    पर अनुभव अभी हुआ
    सादर नमन

    ReplyDelete
  4. अपने मन का, अपने तन का..

    ReplyDelete
  5. सशक्त व्यंग!!!

    ReplyDelete
  6. बहुत ही सटीक ...

    ReplyDelete
  7. काश हम भी मदारियों से मुक्त हो सकें

    ReplyDelete