परिंदे
बैठ जाते
हैं
वृक्ष की
सबसे ऊँची फुनगी पर
जब पड़ती
है
फुहार
छुप जाते
हैं भाग कर
घने
पत्तियों की आड़ में
जब होती
है
तेज़ बारिश ।
कम होते
ही
बारिश की
धार
फिर से
बैठ जाते हैं
सबसे ऊपर
छुप जाते
हैं फिर से
तेज़ धूप
में।
आतप में
जब
आकुल-व्याकुल रहता है वृक्ष भी
छुपकर
ढूँढते
हैं पानी
ढूँढते
हैं दाना
सर्दियों
की रात में
जब ठंड
से ठिठुरता रहता है वृक्ष भी
दुबक
जाते हैं
गर्म
घोंसले में।
वृक्ष
हर मौसम
में
एक समान
रहता है
परिंदे
कसते है
तंज-
“तुम
जरा भी नहीं सीख पाये
कैसे
लेते हैं आनंद ?
खड़े
रहते हो हमेशा
एक ही
जगह
हमे
देखो,
हम लूटते
हैं
हर मौसम
का मजा
तुम
भोगते हो
हर मौसम
में सजा!”
वृक्ष
हंसता है-
“तुम्हारी
खुशी ही
मेरी
खुशी है।“
आँधियों
में
जब
उखड़ने लगते हैं वृक्ष के पांव
उड़ कर
बिखर
जाता है घोंसला
गिर कर
टूट जाते
हैं अंडे
रोता है
वृक्ष भी
परिंदों
के साथ
बहुत तड़पता
है
जब कोसते
हैं परिंदे-
“पापी
!
नहीं
संभाला गया तुमसे
हमारा
घोंसला भी ?”
शायद
यहीं से
होती है
वृक्षों
में
दीमक
लगने की शुरूआत
धीरे-धीरे
खोखला/बूढ़ा हो जाता है
घना
वृक्ष
छोड़
देती हैं साथ
पत्तियाँ
भी
यदा-कदा
हाँफते-डाँफते
दो पल
ठिठक कर
चोंच
लड़ाते
पंख फैलाते
फुर्र से
उड़ जाते हैं
परिंदे।
............................
वाह....
ReplyDeleteसुन्दर...बहुत सुन्दर रचना......
मन को छू गयी...और निहित भाव झकझोर भी गया....
अनु
हम्म! नीव के ज़ख्म नहीं दिखाई देते।
ReplyDeleteबहुत अच्छा रूपक उठाया है आपने आखिर तक किया है उसका निर्वाह ,न सिर्फ वृक्ष का मानवीकरण किया है उसे मातु पिता का दर्जा दे दिया है आप जिसे उसके आतप /आपद काल में .ज़रायु में छोड़कर फुर्र उड़ जातें हैं परिंदे .बहुत बढ़िया भाव प्रधान रचना और उतने ही सुन्दर बिम्ब आपने उकेरें हैं .
ReplyDeleteशानदार कमेंट के लिए धन्यवाद सर जी।
Deleteवृक्ष और परिंदों जैसा ही तो होता है मनुष्य का भी जीवन .... जब बूढ़ा वृक्ष ढहने लगता है तो तो युवा परीने कहाँ परवाह करते हैं ? बहुत गहन भाव लिए सुंदर रचना
ReplyDeleteआभार।
Deleteगहन जीवन-दर्शन को व्यक्त करती रचना !
ReplyDeleteआज तो वीरू भाई ने महफ़िल लूट ली !
ReplyDeleteसही कह रहे हैं आप..मैने कल ही मेल से धन्यवाद दे दिया था।:)
Deleteवीरू भाई ने अली साब के लिए क्या वास्तव में कुछ नहीं छोड़ा ?
Deleteअरे नहीं..अली सा चाहें तो इस विषय पर पूरा ग्रंथ लिख सकते हैं मगर कन्नी काट कर निकल लिये।:) वैसे भी उन्होने लिखा 'महफ़िल लूट ली' यह कहाँ लिखा कि 'कुछ नहीं छोडा।'.. :)
Deleteअली सा से सहमत . :)
Deleteसंतोष जी के असंतोष से असहमत :)
Delete:):)
Deleteबहुत ही अच्छी कविता भाई साहब बधाई |
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteहर हाल में सहना वृक्ष को ही है !
ReplyDeleteपरिंदों को पनाह और फिर उजाड़ने का साक्षी बनना , वृक्ष होने की त्रासदी को जबान मिल गयी !
सुंदर कमेंट, धन्यवाद।
Deleteआह -यही तो है आख़िरी नियति :-(
ReplyDeleteआखिर में उजड़ना ही नियति है,परिंदे हों या पेड़ हो :-(
ReplyDeleteवृक्ष और परिंदों के माध्यम से ज़िन्दगी की सच्चाइयाँ उधेड दीं ………मन को झकझोरने वाली बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteपेड़ खड़ा रहता है गहरी छाँव लिए अंत आने तक ... और उड़ जाते हैं परिंदे ...
ReplyDeleteसच को आइना दिखाया है ...
कमाल की रचना
ReplyDeleteवृक्ष सदा ही सहारा देता है..पक्षी घूमकर फिर वहीं आते हैं..बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी अच्छी रचना है
ReplyDeleteParidon ne to hamesha udhee jana hota hai!
ReplyDeleteये भी कालचक्र का ही हिस्सा है शायद, सबके दिन बदलते हैं। सुन्दर कविता।
ReplyDeleteप्रकृति के माध्यम से सुंदर जीवन दर्शन.
ReplyDeleteभावमयी प्रस्तुति के लिये बधाई.
“तुम्हारी खुशी ही मेरी खुशी है”
ReplyDeleteअगर वृक्ष कुछ बोल पाते तो यही वाक्य दुहराते....
बहुत सुंदर रचना....
सादर/
जीवन की सच्चाई लिए सुंदर भावाभिव्यक्ति !
ReplyDeleteसादर !
बहुत सुन्दर ,कमाल किया है आपने.जब पिता बूढा हो जाता है ,तो लडके-लडकियां पिता के घर आते हैं,और २-४ दिन गफ मारकर चले जाते हैं- ....चोंच लड़ाते,पूंछ उठाते फुर्र से उड़ जाते हैं.
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteऔर परिँदो को जन्म होते, बड़ा होते और मरते हुए देखने का गम भी तो होगा वृक्ष को.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कल्पना.
यह दुःख तो असहनीय है।
Deleteबहुत दिनों बाद कोई पोस्ट पढ़ने को मिली है आपके ब्लॉग पर पर बहुत ही शानदार और बेहतरीन इंतज़ार का फल मीठा लगा :-)
ReplyDeleteआने वाली त्रासदी से कोई तो डरे ..
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