ओ दिसम्बर!
जब से तू आया है
सुरुज नारायण
बड़ी देर से
निकल रहे हैं,
बिस्तर में ही
आ जाती है
अदरक वाली चाय।
घर से निकलो
चौरस्ते पर, रस्ता रोके
हलवाई की
गरम कड़ाही!
सुबह-सबेरे
छन छन छन छन
नाच रही है
फुली कचौड़ी
औ शीरे में
मार के डुबकी
निकल रही है
लाल जलेबी
लोहे के घर में बैठो तो
रस्ते-रस्ते
सरसों के फूल बिछे हैं
अन्तरिक्ष के यात्री जैसे
सभी पुराने
यार दिखे हैं!
घर लौटो तो
खुशबू-खुशबू
महका-महका
आँगन मिलता,
रात की रानी
दरवज्जे पर ही
बड़े प्यार से
हाय!
बोलती।
ओ दिसम्बर!
जब से तू आया है
नीम अँधेरे
एक पियाली
चुपके-चुपके
छलक रही है,
मेरे दिल में
नए वर्ष की, नई जनवरी
उतर रही है।
....
वाह
ReplyDeleteधन्यवाद।
ReplyDeleteसुंदर शब्द चित्र ।
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