10.11.13

'धूमिल' की धूम

कल 9 नवम्बर, 2013 को जनकवि सुदामा पाण्डे 'धूमिल' की 77वीं जयंति बनारस में धूमधाम से मनाई गई। उनके पैत्रिक गांव खेवली से शहर की अड़ियों तक विविध कार्यक्रम हुए। यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक कविता-


मोचीराम 


राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
झण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाते हुए स्वर में
वह हँसते हुए बोला-
बाबूजी! सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है, जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे खयाल रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच
कहीं-न-कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अंगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग नवैयत
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता हैः
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक चेहरा पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे टेलीफून के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है
बाबूजी ! इस पर पैसा
क्यों फूँकते हो ?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ--भीतर से
एक आवाज़ आती है—कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो !’
आप यकीन करें, उस समय
मैं चकतियों की तरह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुए आदमी को
बड़ी मुश्किल से निवाहता हूँ

एक जूता और है जिसके पैर को
नाँधकर एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे कहीं जाना नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
इशे बाँद्धो, उशे काट्टो, हियाँ ठोक्को, वहाँ पीट्टो
घिश्शा दो, अइशा चमकाओ, जुत्ते को ऐना बनाओ
...ओफ्फ ! बड़ी गर्मी है
रूमाल से हवा करता है, मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर आतियों-जातियों को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घंटे-भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ नट जाता है
शरीफों को लूटते हो वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचनाक चिहुँककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर बढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और उँगली में गड़ती है

मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई गलतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह ख़याल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अंगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी ! असल बात तो यह है कि जिन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फ़र्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाषा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हज़ारों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिए
लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुए बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इनकार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौंकने की नहीं, सोचने की बात है
मगर जो ज़िंदगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमज़ात मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं, शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो यह सोचता है कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं, किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत यह है कि आग
सबको जलाती है
सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि इनकार से भरी हुई एक चीख़
और एक समझदार चुप
दोनो का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में, चुप और चीख़
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।
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