28.9.23

लोहे का घर 73

कलकत्ता से वापसी यात्रा में भी हम भाग्यशाली हैं। राजधानी एक्सप्रेस में दोनो लोअर बर्थ मिली है फर्क सिर्फ इतना है कि आमने-सामने न होकर एक साइड लोअर बर्थ है दूसरी लोअर। श्रीमती जी साइड लोअर बर्थ में कब्जा जमाए 3 घण्टे से लगातार फोन में बहन, बेटियों से बातें कर रही हैं, बातें, ढेर सारी बातें....।

हम सुकून से फेसबुक चला रहे हैं, सामने लोअर बर्थ पर व्यवसायी दिख रहे, मेरी तरह वृद्ध होने जा रहे एक युवा, आराम कर रहे हैं। सामने के अपर या साइड अपर बर्थ खाली है। शांत और मनहूस वातावरण में कुछ भद्र सज्जनों के कारण जो मोबाइल जोर-जोर से सुनना पसंद करते हैं, कुछ आवाजें आ रही हैं, शेष सब शांति है। आस पास की शांति भंग करने में भद्र लोगों का बड़ा योगदान होता है। ये सोचते हैं कि हम मजा ले रहे हैं तो सभी मजा लें। इसमें इनकी कोई बदनियति नहीं है, बल्कि परोपकार की भावना है। अब यह अलग बात है कि हमारे जैसे कुछ बेचैन आत्मा को उनका यह प्रेम नहीं समझ आता, शोर करने वालों को ही अभद्र! बेवकूफ! असामाजिक! जाने क्या-क्या बोलते रहते हैं!!!


प्रेम से लिख रहे थे, खाना आ गया। खाना ठंडा न हो, खाने लगे। खाते-खाते धनबाद आ गया। धनबाद से बहुत यात्री चढ़े। छोटे बच्चे, गोदी में रोता बच्चा लिए महिला, बुजुर्ग और युवा भी। हमारे कूपे में तीनों अपर सीट भर गई। हमने जल्दी-जल्दी खाना समाप्त किया और हाथ धोकर, पान घुलाकर बैठ गए। अभी लोग सामान और सीट मिला ही रहे हैं, खूब शोर हो रहा है, गोदी का बच्चा अभी माँ का दूध पीकर खेल रहा है। बगल के कूपे में भी इनके साथ की फौज है। ये लोग भी खाना-खाना कर रहे हैं, ऊपर बैठी महिला बच्चे को गोद में लिए खाना भी खा रही है। कुल मिलाकर स्लीपर बोगी की तरह चहकने लगा यह डिब्बा!


ट्रेन पूरी स्पीड से चल रही है, अगला स्टेशन गया है। गया के बाद अपना स्टेशन पंडित दीन दयाल... मुगलसराय है। इसके मुगलसराय पहुंचने का समय रात्रि 1.15 है। हमको मुगलसराय उतरना है। आज घर पहुंचकर ही सोना नसीब होगा। सब सही रहा तो भोर से पहले घर पहुंच जाएंगे। गलती से सो गए तो दिल्ली पहुंच जाएंगे! दिमाग कह रहा है, अभी सोना नहीं है। शरीर कह रहा है, सो जाओ, अजीब मुसीबत है।


आइसक्रीम आ गया! पहले बताया होता होता तो पान नहीं जमाते, दोनो मेरे प्रिय हैं, कैसे छोड़ दें? पान थूककर आइसक्रीम खा लिया, अब दूसरा पान नहीं है। सुख भी मुसीबत ले कर आती है। एक से अधिक सुख, एक साथ मिल जाय तो क्या छोड़ें, क्या पकड़ें वाले उहापोह में आदमी पड़ जाता है।


मेरे अपर बर्थ वाली महिला अब सुकून से है। बच्चा सो गया है, अब वह भी सोने की तैयारी कर रही है। लोहे के घर में दृश्य तेजी से बदलते हैं। बाहर अंधकार है, खिड़कियों के पर्दे बंद हैं, भीतर रोशनी है लेकिन भीतर के नजारे भी तेजी से बदल रहे हैं। महिला का बच्चा सो चुका है, वह भी अब लेट कर मेरी तरह मोबाइल निकाल चुकी हैं। सामने बैठे यात्री भी मोबाइल चला रहे हैं, सामने साइड लोअर बर्थ में अपनी श्रीमती जी भी चश्मा चढ़ा कर मोबाइल चला रही हैं। आज के जीवन में दो ही सच्चे मित्र बचे हैं, एक मोबाइल दूसरा चश्मा, शेष तो झूठा है यह संसार।

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लोहे का घर 72

सेवानिवृत्ति के बाद कुछ दिनों के लिए लोहे का घर छूटा तो इसका मतलब यह थोड़ी न है कि शरीर सलामत हो, जीवन शेष हो फिर भी इसका साथ छूट जाय! मुझे तो ट्रेन पकड़ने का बहाना मिलना चाहिए। अमृतसर हावड़ा एक्सप्रेस 50टी डाउन में कई बार बैठे लेकिन कभी हावड़ा जाने का अवसर नहीं मिला। भालो-आछे, भालो-आछे कहते हुए जौनपुर से चढ़े और बनारस उतर गए। अब फिफ्टी डाउन बंद हो चुकी है, उसे कोरोना निगल गया। (कोरोना काल में जो बंद हुई कि हमेशा के लिए बंद हो गई।) अब हावड़ा जाने के लिए दूसरे विकल्प तलाशने पड़े तो यह विकल्प अच्छा लगा। आठ घण्टे में, होटल चेक इन के समय लगभग 10 बजे यह हावड़ा पहुंचा देगी।


राजधानी हावड़ा एक्सप्रेस में सुफेद चादर ओढ़कर लेटे हैं। पंडित दीन दयाल..... मुगलसराय से रात 2 बजे चढ़े हैं। सुबह के 6 बज चुके हैं, ट्रेन 509 किमी चलकर, धनबाद से पहले, पारसनाथ स्टेशन पर 2 मिनट रुककर चल चुकी है। जिस प्लेटफार्म में रुकी थी, सन्नाटा फैला था। अपनी बोगी में भी बहुत से बर्थ खाली हैं। कुल मिलाकर सन्नाटे का साम्राज्य है। सामने के लोअर बर्थ में श्रीमती जी और इधर के लोअर बर्थ में हम, ऊपर 2 और सामने 2 और बर्थ हैं, शेष पर्दे में डूबा हुआ। श्रीमती जी खर्राटे भर रही हैं और हमको नींद नहीं आ रही। वैसे भी यह मेरा साइकिल चलाने का समय है। ठीक इस समय नमो घाट, बनारस में भजन चल रहा होगा।


राजधानी एक्सप्रेस में रईसी से यात्रा कर रहे हैं लेकिन ट्रेन भारत के मेहनतकश मजदूरों, किसानों के इलाकों से गुजर रही है। बंद शीशे की खिड़की से बाहर झाँकता हूँ तो दूर दूर तक फैले वृक्षों के जंगल, खेत और हरे भरे मैदान दिख रहे हैं। कभी जब छोटे प्लेटफार्म से कूदती /फादती भागती है अपनी राजधानी तो दूर खेतों में उग आई चिमनियां/ कुछ पक्के मकान दिख जाते हैं। अपनी ट्रेन बोल भी रही है, "हम कुछ ही मिनटों में धनबाद पहुंचने वाले हैं!" मतलब बिहार से हम कोयले के खदानों वाले राज्य झारखण्ड आ गए।


धनबाद हम पहले भी आए हैं। बिटिया ने इसी शहर से MBA किया था। उसके प्रवेश से लेकर एग्जाम पास करके निकलने तक कई बार आना हुआ। एक बार तो वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई थी और हॉस्पीटल में एडमिट करने के बाद उसकी सहेलियों ने फोन किया था, हम भागे-भागे आए थे। तब आजकी तरह राजधानी नहीं पकड़ते थे, लुधियाना धनबाद, किसान एक्सप्रेस पकड़ते थे जो शाम को बनारस से चलती और सुबह में धनबाद पहुँचाती थी।


ट्रेन खूब स्पीड में चल रही है। एक चायवाला आया। पहले तो हमने लोकल ट्रेन का चायवाला समझकर मना कर दिया लेकिन श्रीमती जी के कहने पर बुलाया तो पता चला यह राजधानी एक्सप्रेस की मुफ्त सर्विस है, जिसका पैसा टिकट में लिया जा चुका है! एक ट्रे में दो कप गरम पानी, चाय /दूध /शुगर के छोटे-छोटे पैकेट/सबको अच्छे से मिलाने के लिए सीक और दो बिस्कुट भी! चाय पीने के बाद समझ में आया कि अपन लोकल ट्रेन में चलने वाला रोज का यात्री, रइसों के इन चोचलों को इतनी जल्दी कैसे समझ ले? हमको जब भी अकेले सफर करना पड़ा, हम यही सोचते कि कम पैसे में कैसे जांय? जब परिवार के साथ चले तो यह सोचते कि कम से कम कष्ट में कैसे ले जांय? मेरी ही नहीं शायद सभी मध्यम वर्गीय अकेले गृहस्थी चलाने वाले की यही सोच होती होगी। हम एक महीने की MST बनाते थे तो जितनी भी लेट हो, ट्रेन ही पकड़ते थे, 73 रूपया अतिरिक्त देकर बस से आना गवारा नहीं होता था।


कभी राजधानी एक्सप्रेस के कारण अपनी पैसिंजर किनारे लगा दी जाती और 30-30 मिनट रोक दी जाती तो मन ही मन राजधानी एक्सप्रेस को खूब कोसते, "कहाँ से आ गई यह इस समय!" आज इसी राजधानी एक्सप्रेस से सफर कर रहे हैं जिसके आसनसोल स्टेशन आने की घोषणा हो रही है अब अगला ठहराव हावड़ा ही है।

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दोस्ती

एक जिस्म में मजदूर और कवि दोनो साथ-साथ रहते। काम से लौटकर मजदूर घर आता, रोटी खाते-खाते उसे नींद आने लगती। कवि, मजदूर के बल पर दुनियाँ देखा करता। मजदूर की दर्द भरी दासतां सुनकर, नई कहानियाँ लिखा करता, घर आते ही दोनो साथ खाने पर बैठ जाते। इधर मजदूर का पेट भरता, उधर कवि की कविता की भूख जाग जाती! मजदूर पेट भर खा कर चैन की नींद सोना चाहता लेकिन कविता की भूख का मारा कवि उल्लू की तरह जाग कर मजदूर से अपनी नई कविता सुनने और आज के काम का दर्द बयान करने को कहता।


अमां यार! अभी तो बारह भी नहीं बजा, सुन लो! बड़ी अच्छी कविता है। मजदूर का बस चलता तो कवि की गरदन दबा देता लेकिन बिचारा क्या करता? अपनी गरदन कैसे दबाता? आखिर दोनो एक ही जिस्म में रहते थे।

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10.9.23

बनारसनामा

8 सितम्बर, 2123 को श्री कन्हैया लाल गुप्त स्मृति भवन, रथयात्रा, वाराणसी में स्वर्गीय घनश्याम गुप्त जी की 82वीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर काशिका बोली में रचित उनकी छान्दसिक कृति 'बनारसनामा' का भव्य लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर गुरुदेव श्री जितेन्द्र नाथ मिश्र सहित बनारस के कई साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार और गुप्त जी के परिवार के सदस्य उपस्थित थे। वरिष्ठ गीतकार श्री सुरेन्द्र वाजपेयी जी ने सभा का कुशल संचालन किया।

'बनारस नामा' का प्रकाशन अभिनयम प्रकाशन, वाराणसी द्वारा किया गया है। पुस्तक पृष्ठ, छपाई, और ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध है। मूलतः काशिका बोली में प्रकाशित इस कृति को पढ़कर बनारस के इतिहास को समझा जा सकता है। सरसरी तौर पर देखने मात्र से यह समझा जा सकता है कि पुस्तक काफी समृद्ध है और इसमें में तत्कालीन बनारस को जिया गया है।  लेखक बनारस के प्रसिद्ध मिष्टान्न भण्डार 'मधुर जलपान' के मालिक थे, इन दो पंक्तियों में उन्होंने बनारस की जो उपमा दी है, वह मुग्ध करने वाली है....

काशी कs दिल बहुत बड़ा हौ, इहाँ हौ पूरी दुनिया।

लगेला जैसे रस में डूबल इक दोनिया में बुनिया।।

कोई काम जब टल जाता है तो उसे हमेशा के लिए भुला दिए जाने की पूरी संभावना रहती है लेकिन मृत्यु के 23 वें वर्ष में उनकी पुस्तक का लोकार्पण यह बताता है कि यह बनारस के साहित्य प्रेमियों की और उनके परिवार की कितनी दबी इच्छा थी जो अब तक जीवित थी! पुस्तक घनश्याम गुप्त जी को विनम्र श्रद्धांजलि तो है ही, उनके प्रेमियों में मनुष्यता के जिन्दा रहने का प्रमाण भी है।