31.10.11

नाग नथैया



चित्र राष्ट्रीय सहारा के वाराणसी संस्करण से साभार। पूरा समाचार यहाँ पढ़ सकते हैं।

यह वाराणसी के तुलसी घाट पर 400 वर्षों से भी अधिक समय से प्रतिवर्ष  मनाया जाने वाला लख्खा मेला है। इसकी शुरूवात गोस्वामी तुलसी दास जी ने की और जिसे आज भी प्रदूषण रूपी कालिया नाग से मुक्ति हेतु चलाये जाने वाले अभियान के रूप में प्रतिवर्ष पूरे मनोयोग से मनाया जाता है। यह अलग बात है कि इतने प्रयासों के बाद भी गंगा में गंदी नालियों को बहना रूक नहीं रहा है। जल राशि निरंतर कम होती जा रही है। किनारे सिमटते जा रहे हैं। हर वर्ष वर्षा के बाद जब गंगा का पानी उतरता है तो  घाट पर जमा हो जाता है मिट्टी का अंबार। किनारे नजदीक से नजदीक होते जा रहे हैं...सूखती जा रही हैं माँ गंगे।  

रविवार, 30 अक्टूबर, ठीक शाम 4.40 बजे कान्हां कंदब की डार से गंगा में  गेंद निकालने के लिए कूदते हैं और निकलते हैं कालिया नाग के मान मर्दन के साथ। अपार भीड़ के सम्मुख कान्हां तैयार हैं नदी में कूदने के लिए। भीड़ में शामिल हैं वेदेशी यात्रियों के साथ एक बेचैन आत्मा भी..सपरिवार। बजड़े में ढूँढिये विदेशी महिला के पीछे हल्का सा चेहरा देख सकते हैं। मैने अपने कैमरे से भी कुछ तश्वीरें खीची लेकिन उनमें वह मजा नहीं है जो आज राष्ट्रीय सहारा के वाराणसी अंक में प्रकाशित इस चित्र में है। पास ही खड़े मेरे मित्र गुप्ता जी ने भी अपने मोबाइल से खींची कुछ तश्वीरें  मेल से भेजी हैं जिन्हें नीचे लगाता हूँ।


नाग को नथते हुए प्रकट हुए भगवान श्री कृष्ण

हम घाट के सामने बजरे पर बैठे हुए थे। कान्हां का चित्र पीछे सें खीचा हुआ है। मजे की बात यह कि श्री कृष्ण के निकलते ही काशी वासी जै श्री कृष्ण के साथ-साथ खुशी और उल्लास के अवसर पर लगाया जाने वाला   अपना पारंपरिक जय घोष हर हर महादेव का नारा लगाना नहीं भूल रहे थे।

चारों ओर घूमने के पश्चात घाट की ओर जाते श्री कृष्ण।

घाट किनारे खड़े हजारों भक्त बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं अपने कान्हां का। डमरू की डिम डिम और घंटे घड़ियाल के बीच आरती उतारने के लिए बेकल ।


इन्हें तो आप पहचान ही चुके हैं।


कौन कहता है कि बाबा तुलसी दास केवल राम भक्त थे ! वे तो कान्हां के भी भक्त थे। तभी तो उन्होने गंगा तट को यमुना तट में बदल दिया था। धन्य हो काशी वासियों का प्रेम कि वे आज भी पूरे मनोयोग से इस लीला को मनाते हैं।

जै श्री कृष्ण।


27.10.11

उल्लू



शहर में
या गांव में
कहीं नहीं दिखे
उल्लू
बिन लक्ष्मी के
फीकी रही दीपावली
इस बार की भी।

सोचा था
दिख जायेंगे
तो अनुरोध करूँगा
ऐ भाई !
उतार दे न इस बार
लक्ष्मी को
मेरे द्वार !

शहरों में
बाजार दिखा
पैसा दिखा
कारें दिखीं
महंगे सामानो को खरीदते / घर ले जाते लोग दिखे
रिक्शेवान दिखे
और दिखे
अपना दिन बेचने को तैयार
चौराहे पर खड़े
असंख्य मजदूर।

गांवों में
जमीन दिखी
जमींदार दिखे
भूख दिखी
और दिखे 
मेहनती किसान
सर पर लादे
भारी बोझ
भागते बदहवास
बाजार की ओर ।

न जाने क्यों
दूर-दूर तक
कहीं नहीं दिखे
लेकिन हर बार
ऐसा लगा
कि मेरे आस पास ही हैं
कई उल्लू !

जब से सुना है कि
लोभी मनुष्य
तांत्रिकों के कहने पर
लक्ष्मी के लिए
काट लेते हैं
उल्लुओं की गरदन
मेरी नींद
उड़ी हुई है।
..................................

26.10.11

दिवारी


पिछली पोस्ट उफ्फर पड़े ई दसमी दिवारी में आपने चकाचक को पढ़ा। 28 कमेंट के बाद यह महसूस करते हुए कि कुछ लोग काशिका में लिखी उस कविता को ठीक से समझ नहीं पा रहे उसका अर्थ भी लिख दिया है। आप चाहें तो उसे फिर से पढ़ सकते हैं। उसी क्रम में आज प्रस्तुत है चकाचक की लिखी दूसरी कविता....दिवारी। हास्य व्यंग्य विधा में लिखी यह कविता आज भी प्रासंगिक है।

ओही कS हौS त्योहार दिवारी।

भइल तिजोरी जेकर भारी।
सूद कS खाना हौS लाचारी। 
गहना लादै जेकर नारी।
उल्लू जेकर करै सवारी।

ओही कS हौS त्योहार दिवारी।

जेल काट भये खद्दरधारी।
बनै वोट कै दिव्य भिखारी।
मंत्री बन के सुनै जे गारी।
करै टैक्स जनता पर जारी।

ओही कS हौS त्योहार दिवारी।

बाबू और अफसर सरकारी,
बिना घूस के ई अवतारी,
कइलन सम्मन कुड़की जारी,
लूटSलन जे बारी बारी,

ओही कS हौS त्योहार दिवारी।

गोल तोंद औ काया भारी,
फइलल जस नामी रोजगारी,
परमिट कोटा हौS सरकारी,
चमकल सच्चा चोरबजारी,

ओही कS हौS त्योहार दिवारी।

जे मंत्री हउवे व्यभिचारी,
जे नेता हउवे रोजगारी,
जे सन्यासी हौS संसारी,
हज्ज करै तस्कर व्यापारी,

ओही कS हौS त्योहार दिवारी।

इहां बिक गइल लोटा थारी,
भइल निजी घर भी सरकारी,
का खपड़ा पर दिया बारी,
जेकरे पास हौS महल अटारी,

ओही कS हौS त्योहार दिवारी।

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आप सभी को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं। इस अनुबंध के साथ कि......

आओ चलो  हम दिवाली मनायें।

एक दीपक तुम बनो
एक दीपक हम बने

अंधेरा धरा से मिलकर मिटायें।

माटी के तन में
सासों की बाती
नेह का साथ ही
अपनी हो थाती

दरिद्दर विचारो का पहले भगायें।

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23.10.11

उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।



जब भी दिवाली के अवसर पर कुछ लिखने का मन बनाता हूँ स्व0 चकाचक बनारसी की यह कविता इस कदर सर पर सवार हो जाती है कि कुछ लिखते नहीं बनता। आज भी इससे अच्छा क्या लिखा जा सकता है भला ! यही सोचकर रह जाता हूँ। इस कविता में उफ्फर पड़े शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ  हुआ भाड़ में जाय। निराशा की चरम अवस्था...उफ्फर पड़े। 

स्व0 चकाचक बनारसी हास्य-व्यंग्य के चलते फिरते गोदाम थे। इनका जन्म 22 दिसम्बर सन् 1932 को हुआ। आपका वास्तविक नाम श्री रेवती रमण श्रीवास्तव था । बनारस के काली महल नामक मोहल्ले में रहते थे। आपने ऐसे समय हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी जगह बनाई जब बनारस में ही बेढब बनारसी और भैया जी बनारसी जैसे  उन्ही की विधा में लिखने वाले राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध रचनाकार सक्रीय थे। वे जब तक जीवित रहे तब तक उन्होने अपनी एक भी पुस्तक प्रकाशित नहीं करवाई। चाहते तो कर सकते थे। उनके जाने के बाद उनके प्रेमियों ने विभिन्न मौकों पर उनके द्वारा बनारसी मंच पर सुनाई जाने वाली कविताओं का संकलन कर उसे एक पुस्तक का आकार दिया जो ई राजा काशी हौ के नाम से प्रकाशित है। वे काशिका में ही लिखते थे ।  बनारसी कविता प्रेमी श्रोताओं के लिए सिर्फ यह जानना ही पर्याप्त होता था कि बनारस में कहां कवि सम्मेलन हो रहा है, चकाचक तो वहां होंगे ही। दिवाली के अवसर पर उनकी प्रसिद्ध कविता दसमी दिवारी पढ़वाने का मन हो रहा है। प्रस्तुत है उनकी कविता....

दसमी  दिवारी


अदमी के दुई जून रोटी हौS भारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।

मेहररूआ गुस्से में नइहर हौS बइठल,
ऊ साड़ी बिना दसमियैं से हौS अइंठल,
बाऊ क उप्पर से चटकल नशा हौS,
लड़िकन क घर में बड़ी दुरदसा हौS।

झनखत हौS हमरे पे बुढ़िया मतारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।

रासन में गइली त गेहूँ नदारद,
गेहूँ जो आयल त चीनी नदारद,
दुन्नो जो आयल त पइसा नदारद,
पइसा जुटवली त दुन्नो नदारद।

त्यौहारा दिन में इ आफत हौS भारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।

ऊ दिन लद गयल जब की सोरही फेकउली,
एक्कै फड़े पर हजारन गंवउली,
जो धइलेस पुलिस सबके हमही बचउली,
जे नाहीं बचल हम जमानत करउली।

न वइसन हौS जूआ न वइसन जुआरी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।

दारू पियै वाला पीयत हौ ताड़ी,
गोदी कS लड़िका भी पीयत हौ माड़ी,
ई कइसे चली देस कS अपने गाड़ी,
कि मंत्री हो गइलन अबाड़ी कबाड़ी।

मुंहे से सबहन के निकसत हौS गारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।

सबत्तर कS मूड़े प कर्जा चपल हौS,
चिन्ता के मारे न आँखी झपल हौS,
कमाई औ खर्चा बरोबर नपल हौS,
उप्पर से मंहगी प महंगी तपल हौS।

दरिद्दर कS घर में डटल हौS सवारी,
त उफ्फर परै अब ई दसमी दिवारी।

सबै चीज त हमरे मूढ़े मढ़ल हौS,
ई लावा, मिठाई सबै त पड़ल हौS,
खेलउना बदे कल से लड़िका अड़ल हौS,
मकाने क भी टैक्स मूड़े चढ़ल हौS।

बिना टैक्स अबकी हौ कुड़की क बारी,
त उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवारी।

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28 कमेंट के बाद......

यह कविता आम आदमी की पीड़ा को उसी के द्वारा बोली-समझी जाने वाली भाषा में की गई सफल  अभिव्यक्ति है। कुछ ब्लॉगरों के कमेंट से ऐसा एहसास हुआ कि वे क्लिष्ट हिंदी तो समझते हैं पर ठेठ भोजपुरी (काशिका) ठीक से नहीं समझ पा रहे हैं। ऐसे पाठकों के लिए अपनी समझ से इसका अर्थ बताने का प्रयास कर रहा हूँ।

जहां दुई जून रोटी...दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना भी कठिन हो वहां हर त्यौहार आम आदमी के लिए मुसीबत का सबब बनकर आते हैं। उनके मुख से यही निकलता है कि हाय ! अब क्या करूं..? कैसे पत्नी को मनाऊँ...? कैसे बच्चों को समझाऊँ..? कैसे बूढ़ी हो चली माई को बताऊँ कि यह आप वाला जमाना नहीं है.....अब महंगाई अपने चरम पर है। वह आक्रोश और गहन वेदना से चीखता है...उफ्फर पड़े...! मतलब भाड़ में जाय, मर खप जाय..बिला जाय। उफ्फर पड़े अब ई दसमी दिवाली। अदमी के दुई जून...दसमी दिवाली। इन दो पंक्तियों में जहाँ आम आदमी का दर्द है, वहीं हास्य भी है। कह लीजिए यह वह करूण हास्य है जिसे कहने वाला तो रो-रो कर कहता है..सुनने वाला सुनकर बरबस ही हंस देता है।

मेहररूआ...दुरदसा हौ।

ये पंक्तियाँ सभी के समझ में आ गई होंगी। कुछ भी कठिन नहीं है। हौ..काशिका में... है के लिए है। हौ बनारसी बोली में जरा खींच कर बोलते हैं..हौs। पति के त्यौहार में कुछ न करने से पत्नी नाराज हो कर अपने मयके चली गई है। एक साड़ी भी नहीं दिला सकता मेरा पति ! बाबू जी का भी नशे का मूड बन रहा है..वे भी अपने कमाऊ पूत की ओर ही निहार रहे हैं। पत्नी के रूठ कर चले जाने से बच्चे बेहाल हैं। झनखत हौ....क्रोध में झुंझला रही है बूढ़ी माई...तो ऐसे में क्या कहे...उफ्फर पड़े..! भाड़ में जाय यह दसमी दिवाली।

रासन...नदारद।

शहरी आम आदमी अन्न के लिए रासन की ओर देखता है। रासन की दुकान में एक चीज मिलती है तो दूसरी खतम हो जाती है। पैसा जुटवली...पैसा जुटाया तो दुन्नो नदारद—दोनो चीज गायब हो गई। त्यौहार के दिन में घर में अन्न न हो तो कितना बड़ी आफत है। ऐसे में वह क्या कहे....उफ्फर पड़े ई.....!

ऊ दिन...जुआरी।

कवि इन पंक्तियों में उन दिनो को याद कर रहा है जब दिवाली के अवसर पर धूम धाम से जुआ होता था। महीनो जुए के अड्डे चलते थे। लोग बाग, खाना पीना भूलकर रात-दिन जुए में लिप्त रहते थे। सोरही फेकउली...जूए का एक खेल जो कौड़ियों से खेला जाता था। पासे फेंके जाते थे। फड़...जुए के अड्डे पर की बैठकी जिसमें कई लोग सम्मिलित होते हैं। एक बैठकी में ही हजारों रूपिया हार जाने वाले जुआरी। पुलिस का छापा...धर पकड़...जमानत कराने का वो रोमांच। दिवाली के दिन में अब न वैसा जुआ होता है और न वैसे जुआरी ही रह गये हैं। मतलब अब तो दीवाली का रोमांच ही जाता रहा। अब क्या मजा है दिवाली में..सब बेकार। उफ्फर पड़े ई....!

दारू...गारी।

इन पंक्तियों में महंगाई का दर्द है। नशेड़ी जहां शराब भी नहीं पी पा रहे हैं वहीं माएँ अपने बच्चों को चावल की माड़ पिलाकर चुप करा रही हैं। मंत्री हैं कि कुछ कर ही नहीं रहे हैं..! अबाड़ी-कबाड़ी..मतलब बेकार के हैं। आम जन का कुछ भी भला नहीं कर रहे हैं। इनके कारनामे को याद कर तो मुंह से गाली ही निकलती है। ऐसे मे क्या करे...? उफ्फर पड़े ई......!

सबत्तर....सवारी।

इन पंक्तियों में चपल..झपल..नपल..तपल जैसे बनारसी शब्दों का सुंदर प्रयोग है। चपल हौ...दबाव है। झपल हौ...झपकी नहीं लग रही है। बरोब्बर नपल हौ.....आमदनी और खर्च दोनो का अनुपात एकदम बराबर है। जरा सा भी आमदनी कम हुई तो भूखे सोना तय। तपल हौ...ताप, यहां महंगाई की ताप। जैसे जेठ धूप में आदमी झुलस जाता है वैसे ही महंगाई की गर्मी महसूस करता है। दिवाली में मान्यता है कि घर से गरीबी दूर करने के लिए दरिद्दर खदेड़ा जाता है। दरिद्दर भगाया जाता है। मगर यहां तो उल्टा ही है। दरिद्रता की सवारी डंटी हुई है ! घर से जाने का नाम ही नहीं ले रही है। ऐसे में वह क्या कहे...? उफ्फर पड़े ई....!

सबै चीज...बारी।

सब कुछ तो मुझे ही खरीदनी है। मैं ही तो घर का कमाऊ पूत हूँ। सब कुछ तो मेरे ही...मूड़े मढ़ल हौ...मेरे ही सर लदा है। दिवाली में लावा, मिठाई और बच्चों के खेल के लिए बम-फुलझड़ियाँ खरीदना अत्यंत जरूरी है। सब कुछ तो खरीदना बाकी ही है। इतना ही नहीं...अभी तक मकान का टैक्स भी जमा नहीं किया ! सरकार की तरफ से टैक्स न जमा कर पाने पर घर को कुर्क करने..नीलाम करने का फरमान भी जारी किया जा चुका है। ऐसे में क्या करे...क्या कहे आम आदमी जब दिवाली आ जाय...? उफ्फर पड़े ई दसमी दिवारी।

इस कविता को जब चकाचक मंच से सुनाते थे तो उनके कहने के अंदाज पर लोग कहकहे लगाते थे और अर्थ समझ नम होती पलकें, चुपके से आँसू पोछती भी नज़र आती थीं। हास्य व्यंग्य की इसी गहराई का नाम था....चकाचक बनारसी। मुझे लगता है कि आज भी यह कविता प्रासंगिक है। अवसर देखकर इनकी और भी बेहतरीन कविताएँ पढवाउंगा।

...इस पोस्ट से जुड़ने के लिए सभी का आभार।

19.10.11

कैद हैं परिंदे


आज एक कविता और पोस्ट कर रहा हूँ। इस वादे के साथ कि अब कुछ दिन चैन से टिपटिपाउंगा। सुरिया जाता हूँ तो लिखने से खुद को रोक नहीं पाता। इसे पोस्ट करने की जल्दी इसलिए कि जब से  श्री अरविंद मिश्र जी की बेहतरीन पोस्ट मोनल से मुलाकात पढ़ी तभी से यह कविता बाहर आने के लिए छटपटा रही थी।  प्रस्तुत है कविता ...


कैद हैं परिंदे


मीठी जितनी बोली
ज़ख्म उतने गहरे
कैद हैं परिंदे
जिनके पर सुनहरे

चाहते पकड़ना
किरणों की डोर उड़कर
सूरज की पालकी के
ये कहार ठहरे

झील से भी गहरी
हैं कफ़स की नज़रें
तैरते हैं इनमें
आदमी के चेहरे

वे भी सिखा रहे हैं
गोपी कृष्ण कहना
जानते नहीं जो
प्रेम के ककहरे

आदमी से रहना
साथी जरा संभल के
ये जिनसे प्यार करते
उनपे इनके पहरे।
...................................

( चित्र भी वहीं से उड़ा लिया )

18.10.11

पत्नी और पति


कल मैने एक कविता पोस्ट की थी...पापा। जिसको आप सब ने खूब पसंद किया। उसी मूड में, उसी दिन, मैने दो कविताएँ और लिखी थीं। जिन्हें आज पोस्ट कर रहा हूँ।


पत्नी


प्रेशर कूकर सी
सुबह-शाम आँच पर चढ़ती
हवा का रूख देख
खाना पकाती है
दबाव बढ़ते ही
चीखने-चिल्लाने लगती है
पहली सीटी देते ही
दबाव कम कर देना चाहिए
अधिक हीट होने पर
ऊपर का सेफ्टी वाल्ब उड़ जाने
या फट जाने का खतरा बना रहता है
पिचक जाने पर
मरम्मत के बजाय
दूसरे की तलाश करना
अधिक बुद्धिमानी है।

............................


पति


एक शर्ट
जो गंदा होने पर
धुल जाता है
सिकुड़ जाने पर
प्रेस हो जाता है
बाहर स्मार्ट बना घूमता है
घर में
हैंगर के प्रश्न चिन्ह की तरह चेहरा लिए
सर पर सवार रहता है
प्रश्न चिन्ह को पकड़ कर टांग दो
चुपचाप टंगा रहता है
दुर्लभ नहीं है
पैसा हो
तो फट जाने पर
दूसरा
बाजार में
आसानी से मिल जाता है।

......................................देवेन्द्र पाण्डेय।

17.10.11

पापा



घर की खोल में चुपचाप पड़ा रहने वाला
दुर्लभ थर्मामीटर
जिसे नाना जी ने
दादा जी से
पूरी कीमत चुका कर
खरीदा था
जो बाजार में दूसरा नहीं मिलता
जिसका इस्तेमाल
घर के सदस्यों का बुखार नापने के लिए किया जाता है
जिसका दिमाग
पारे की तरह
चढ़ता-उतरता रहता है
इसका इस्तेमाल
मम्मी
बहुत सावधानी से करती हैं
हाथ से छूट जाने पर
टूट कर
बिखर जाने की संभावना बनी रहती है।

.......................................................देवेन्द्र पाण्डेय।

15.10.11

भिखारी



धँसी आँखें
पिचके गाल
पेट-पीठ एकाकार
सीने पर हड़्डियों का जाल
हैंगरनुमा कंधे पर झूलता
फटेला कंबल
दूर से दिखता  
हिलता-डुलता कंकाल
एक हाथ में अलमुनियम का कटोरा
दूसरे में लाठी
बिखरे बाल
चंगेजी दाढ़ी
सड़क की पटरी पर खड़ा था
एक टांग वाला
भिखारी।

मुसलमान को देखता
फड़फड़ाते होंठ...
अल्लाह आपकी मदद करे !
हिंदू को देखता
फड़फड़ाते होंठ...
भगवान आपकी मदद करे !

प्रतीक्षा..प्रतीक्षा...लम्बी प्रतीक्षा
एक सिक्का खन्न....
कटोरा ऊपर
सर शुक्रिया में झुका हुआ

प्रतीक्षा..प्रतीक्षा...लम्बी प्रतीक्षा
एक सिक्का खन्न.....
नमस्कार की मुद्रा

देखते-देखते रहा न गया
एक सिक्के के साथ
उछाल दिया कई प्रश्न...!

कभी राम राम, कभी सलाम
क्यों करता है इतना स्वांग ?
कौन है तू
हिंदू या मुसलमान ?

एक पल 
हिकारत भरी नज़रों से घूरता
अगले ही पल
बला की फुर्ती से
लाठी के बल झूलता
संयत हो
अलग ही अलख जगाने लगा
भिखारी
अंधे को आईना दिखाने लगा....

जहां इंसान नहीं
हिंदू और मुसलमान रहते हों
भीख भी
धर्म देख कर दी जाती हो
नाटक करना
पापी पेट की लाचारी है
क्योंकि आपकी तरह
बहुत से पढ़े लिखे नहीं जान पाते
कि मांगने वाला
सिर्फ एक भिखारी है।
.....................................

11.10.11

....दिलजला भी दिलदार होता है।



छुट्टी का दिन था। सुबह का समय था। अचानक से खयाल आया कि आज क्यों न सुबह की सैर की जाय और जमकर फोटोग्राफी की जाय ! मूड मिज़ाज एक था, इरादा नेक था, मेरे हाथ में कैमरा और श्रीमती जी के कंधे पर हमेशा की तरह बाहर निकलते वक्त टंग जाने वाला बैग था। बच्चे बड़े और समझदार हो चुके हैं। हमें देखते ही समझ गये कि आज अम्मा-पापा सुरिया गये हैं। अपनी दुवाओं के साथ हमें रुखसत किया और हम उछलते-कूदते, चलते-मचलते पहुँच गये काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थित कृषि विभाग के विशाल कंपाउंड में। यहाँ का नजारा बड़ा मन मोहक है। कहीं गुलाब खिल रहे हैं तो कहीं हरी-हरी धान की बालियाँ लहलहा रही हैं। कहीं छोटी जुनरी लहक रही है तो कहीं कमल के फूल ही फूल तैर रहे हैं। भौरों की गुंजन और पंछियों के कलरव का तो कहना ही क्या ! एक कैमरा और नौसिखिये दो फोटोग्राफर । कभी हम उनकी फोटू खींचते कभी वो हमारी। हम दो ही थे । ये कहिए कि हम ही हम थे । दूर-दूर तक सुंदर प्राकृतिक नजारों के सिवा और कोई न था। यदा कदा, इक्का दुक्का ग्रामीण दिख जा रहे थे। धूप निकल आई थी और मार्निंग वॉकर रूखसत हो चुके थे। वैसे भी सभी स्वर्ग में पहुँच ही कहाँ पाते हैं...! पहुँचते भी हैं तो ठहर कहाँ पाते हैं !! हम तो भई जन्नत की सैर करि आये। लोगों की शिकायत रहती है कि हम अपनी पोस्ट में तश्वीर नहीं लगाते। हम सोचते हैं कि लिखें तो शब्द बोलें। तश्वीर लगायें तो तश्वीर बोले, शब्द फीके पड़ जांय। आज फोटू ही फोटू झोंक रहे हैं। देखिएगा तो मान ही जाइयेगा कि सुबह की सैर में दिलजला भी दिलदार होता है । दिलबर का साथ हो तो कहना ही क्या !