25.4.23

साइकिल की सवारी 8

रोज की तरह आज भी साइकिल उठाकर भोर में घूमने के लिए निकल पड़े। दरवाजे से बाहर आते ही मोबाइल में घड़ी देखी तो सुबह के 4 बजने में अभी 15 मिनट शेष था! यह तो बहुत जल्दी है!!! अभी तो सारनाथ का बुद्ध मन्दिर या धमेख स्तूप पार्क सब बंद होगा। आज छुट्टी भी नहीं है कि दूर चला जाय लेकिन घर से निकल लिए तो फिर लौटना मतलब घर जा कर सो जाना, नींद आ गई, तो गए काम से, घूमना भी नहीं हो पाएगा। इसी उधेड़बुन में लगे रहे और मन ही मन तय किया कि गंगाजी चलते हैं, जो होगा देखा जाएगा। कभी अपना लिखा याद आया...

सड़क पर घूमते पहिये, गगन में चाँद तारे थे
सुबह जब घूमने निकले, परिंदे भोर वाले थे।

सड़क पर कुछ कुछ घूमते पहिए और चांद तारों का साथ लेकर 4,5 कि.मी. कम रोशनी में साइकिल चलाते रहे, कुत्तों के झुण्ड भौंकते हुए आते और साइकिल वाला देखकर लौट जाते। मुझे लगा शायद इन आवारा कुत्तों को साइकिल वालों से प्रेम होता है, अंधेरे में बाइक वालों या कार वालों पर अधिक गुस्साते हैं और भौंकते हुए पीछा करते हैं, साइकिल वाले को कैसे छोड़े जा रहे है! आवारा कुत्तों को साइकिल वालों से इतना प्रेम क्यों होता है? यह शोध का विषय है।

सारनाथ से नमो घाट जाने के कई मार्ग हैं। एक रास्ता गांव- गांव घूमते हुए, पंचकोशी मार्ग से कपिलधारा, सराय मोहाना, वरुणा-गंगा के संगम तट, आदि केशव घाट, बसंता कॉलेज होते हुए जाता है, एक आशापुर से सीधे कज्जाकपुरा रेलवे क्रासिंग होते हुए जाता है, एक पांडेयपुर, चौकाघाट होते ही राजघाट की ओर मुड़ता है और चौथा नख्खी घाट होते हुए, वरुणा पुल पार करता है। अंधेरा होने के कारण गांव वाले रास्ते को छोड़ दिया हालांकि अधिक दूर होते हुए भी वह रमणीक और शहर के कोलाहल से दूर शांत मार्ग है। पांडेयपुर, चौकाघाट वाला मार्ग कार से जाने के लिए अच्छा है, साइकिल से जाने के लिए दूर भी है और शहरी प्रदूषण वाला भी। कज्जाकपुर क्रासिंग वाले मार्ग में ओवरब्रिज निर्माण का कार्य प्रगति पर है इसलिए उससे भी जाना असंभव था। अब एक ही नजदीक वाला मार्ग बचा 'नख्खी घाट',  हमने चलते-चलते उधर ही साइकिल मोड़ दी।

कुत्तों से डरते/बचते हुए जब नख्खी घाट रेलवे क्रासिंग के पास पहुंचे तो दिमाग घूम गया। न केवल रेलवे क्रासिंग बंद थी बल्कि यहां भी निर्माण का कार्य चल रहा था, क्रासिंग खुलने की कोई संभावना नहीं थी! सबको पहले से पता होगा इसलिए लोग भी कम थे, कोई भीड़ नहीं थी। मायूस होकर सोचने लगा, "अब क्या किया जाय, लौट चला जाय?" तभी आशा कि एक किरण दिखाई दी! एक ग्रामीण बंद रेलवे, क्रासिंग के नीचे से साइकिल निकालकर कुछ दूर पटरी-पटरी जा रहा था! मैने तत्काल उनका अनुसरण किया, साइकिल झुकाकर मैं भी पटरी- पटरी चलने लगा। आगे साइकिल लाइन पारकर, रेलवे क्रासिंग भी पार करते हुए, सड़क पार कर चुकी थी। न किसी ने रोका न टोका! हम मुख्य सड़क पर आ चुके थे। रास्ते में आई बाधा ग्रामीण की प्रेरणा से दूर हो चुकी थी। यहां से वाराणसी सिटी स्टेशन पार करते हुए हम तेजी से राजघाट की ओर बढ़ चले।

राजघाट के बगल में ही नमो घाट है। नमो घाट पहुंचकर जब पार्किंग में साइकिल खड़ी की, सुबह के 5 बजने में अभी 15 मिनट बाकी थे और भोर का उजाला हो रहा था। राजघाट पुल की बत्तियां जल रही थीं, इक्का दुक्का प्रातः भ्रमण वाले स्थानीय नागरिक आने शुरू ही हुए थे। नमो घाट, नया और खूबसूरत घाट है। एक चक्कर लगाने के बाद राजघाट पुल के नीचे घाट की सीढ़ियां उतरते चले गए और जहां से नाव पकड़ने के लिए घाट किनारे पानी में न डूबने वाले पीपे के चौकोर चकत्ते लगे हैं, वहीं पूर्व दिशा की ओर मुंह करके, पलेठी मारकर, इत्मीनान से बैठ गया। मन ही मन बोला,"आइए सूर्यदेव! आज हम आपके स्वागत के लिए बिलकुल सही समय पर तशरीफ रख चुके हैं।"

सूर्यदेव अपने समय पर निकले और हम अपलक सूर्योदय का दर्शन करते रहे। मोबाइल से खूब तस्वीरें खींची, वीडियो बनाए और सेल्फी भी ली। घर से, स्नान की तैयारी से निकले ही नहीं थे, स्नान होना भी नहीं था लेकिन मां गंगा की गोद में, ध्यान और देव दर्शन दोनो हो गया। गंगा किनारे जन्म होने और जवान होने तक का संबंध हो या कुछ और गंगा तट पर आज भी थोड़ी देर के लिए बैठने या घाट घूमने का सौभाग्य मिल जाता है तो मन अतिरिक्त ऊर्जा से भर जाता है। गंगा तट पर मन उदास हो, ऐसा नहीं हुआ।

आजकल सूर्यदेव कुछ समय के लिए ही मोहक लगते हैं, ज्यों- ज्यों समय बीतता जाता है, सर पर सवार हो, आग उगलने लगते हैं। यही सोचकर सूर्यदेव को नमस्कार किया और लौट चला। घाट की सीढ़ियां चढ़कर जैसे ही पुनः नमो घाट पहुंचा, अजय बाबू (नींबू की चाय वाले) ने आवाज लगाई, "आज यहां कैसे? आज तो मंगलवार है!" अजय बाबू जानते हैं कि मैं दूर से आता हूं और छुट्टी के दिन के सिवा नहीं आ सकता। मैने उन्हे हाथ से अभी आने का वादा किया और घाट के एक चक्कर लगाने लगा। अब घूमने का शौक नहीं बचा था लेकिन डर था कि सूर्यदेव और ऊपर चढ़ गए तो मोबाइल से उनकी तस्वीरें उतारना संभव नहीं।

एक चक्कर घूम कर सूर्यदेव की खूब तस्वीरें लीं, जहां पर तीन हाथ जोड़ने वाली मुद्रा में पक्की मूर्तियां बनीं हैं, उसी के सामने ला कर रखे, बालू के ढेर पर कलाकारों ने हाथ जोड़ने वाली मूर्तियों की नकल करते हुए बालू पर खूबसूरत कलाकारी कर रखी है और उस पर लिखा है, G 20 मैने उसकी भी तस्वीरें लीं और घूमते हुए अजय बाबू के पास वापस आ कर, वहीं बने एक चबूतरे पर बैठकर, नींबू की चाय सुड़कते हुए, सूर्यदेव, गंगा जी और घाटों की सुंदरता को हृदय से लगाने लगा।

मोबाइल में घड़ी देखी, सुबह के 6 बज चुके थे, आज ऑफिस भी जाना है, अब रुकने का समय शेष नहीं था। समय हो तब भी सूर्योदय के बाद जाड़े की तरह घाटों में अधिक देर घाट- घाट नहीं घूमा जा सकता, साइकिल निकाली और पैदल ही चल दिया। दरअसल नमो घाट से मुख्यमार्ग तक पहुंचने के लिए लगभग 100 मीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है, उतरते समय तो मजा आता है लेकीन चढ़ते समय, साइकिल चलाकर नहीं चढ़ा जा सकता। जैसे सुख के दिन ढलान की तरह कब खतम हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता और दुःख के दिन मेहनत से काटने पड़ते हैं वैसे ही हमने मुश्किल से साइकिल चढ़ाई और मुख्य मार्ग पर पहुंचकर बसंत महिला महाविद्यालय वाला, गांव-गांव जाने वाला रास्ता पकड़ा। अब सुबह हो चुकी थी, इस मार्ग से जाना अच्छा था, यह शहर के कोलाहल और प्रदूषण से मुक्त मार्ग है।

देर हो रही थी इसलिए रास्ते में पड़ने वाले जिंदा कुआं (अमृतकुंड) की तरफ देखा भी नहीं, आदिकेशव घाट के पास बने पुल को पार करते हुए, गंगा वरुणा के संगम तट पर एक निगाह दौड़ाई और चलता चला गया लेकिन  पुलिया तक पहुंचते पहुंचते शरीर ने जवाब दे दिया। पुलिया पर बैठकर वहीं आराम करने लगा, पुलिया में मेरे अलावा कोई नहीं था,  पिछली साइकिल की सवारी में जो लोग मिले थे, पुलिया में उनसे से भी कोई नहीं आया था। कुछ समय थकान मिटाने  और दो कुत्तों की दोस्ती देखने के बाद वहां से चला तो रास्ते में नेपाली टोपी पहने, पुलिया की ओर आ रहे श्री खम बहादुर सिंह' दिख गए। मेरे पास समय नहीं था इसलिए रुका नहीं, केवल हाथ उठाकर 'जय नेपाल' किया, उन्होंने भी मुझे देखा और पहचान कर/ खुश होकर 'जय नेपाल' बोला। मेरे लिए यही बड़ी बात थी। एक बार दस मिनट की पुलिया पर बैठकर होने वाली बातचीत के बाद कोई आदमी आपको राह चलते पहचान ले तो यह खुशी की बात है! शायद स्वाभाविक प्राणी प्रेम है। यहां से आगे बढ़ने के बाद घर पहुंचकर ही दम लिया। अभी बहुत देर नहीं हुई थी, घड़ी में सुबह के सात बजे थे, अभी ऑफिस जाने के लिए शरीर में ताकत कम थी लेकिन घड़ी में बहुत समय बाकी था।
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22.4.23

सोने के सिक्के

जहां वह खड़ा था वहां दूर-दूर तक, जिधर निगाह जाती, मिट्टी गीली थी। हल्की-फुल्की जमीन धंस भी रही थी लेकिन कहीं दलदल नहीं दिखा। आराम-आराम से धंसते-उठते चल पा रहा था। एक नया अनुभव था, रोमांच हो रहा था! जब चलना प्रारंभ किया, शुरू शुरू में डर लगने लगा लेकिन अब कोई भय नहीं था, उल्टे मजा आ रहा था।


एक स्थान पर मिट्टी से सने कुछ सिक्के दिखाई दिए, लपक कर उठा लिया और रूमाल निकाल कर मिट्टी पोंछने लगा। मिट्टी गीली थी, सिक्के जल्दी ही चमकने लगे। सिक्के देखकर मन ही मन खुशी से चीख पड़ा,"अरे! ये तो सोने के हैं!!!" 


लालची मनुष्य! इतने से संतुष्ट नहीं हुआ। चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगा, 'शायद कहीं कुछ और हों!' चलते-चलते आखिर एक स्थान पर कुछ सिक्के और मिल गए, वे भी सोने के थे!! अब लालच और बढ़ गया। अनुमान लगाने लगा, 'यह पूरा इलाका ही सोने के सिक्कों से भरा होगा, मिट्टी गीली है इसलिए नहीं दिख रहा!"


अब वह चलते-चलते, सिक्के बीनते-बीनते पूरी तरह थककर चूर हो चुका था। उसके दोनो जेब सोने के सिक्कों से भर चुके थे। गीली मिट्टी की कोई सीमा नहीं दिख रही थी! अभी भी जहां तक दृष्टि जाती, मिट्टी ही मिट्टी! अब तो उसे यह भी याद नहीं रहा कि उसने कहां से चलना शुरू किया था? पलटकर पीछे देखता, दाएं देखता, बाएं देखता, जिधर देखता गीली/ धंसती मिट्टी ही मिट्टी! 


धंसते-उठते पैरों ने अब चलने से इनकार करना शुरू कर दिया था। जब थोड़ा रुकता, थोड़ा और धंसने लगता, जल्दी से वापस पैर खींच कर भागने लगता, अब रोमांच, लालच सब खतम हो चुका था। मेहनत से बीने सिक्के भी बोझ लगने लगे थे! अब उसे सिर्फ भूख और जान बचाने की चिंता थी। 


सोने के सिक्के हाथों से छूटकर वापस मिट्टी में मिलने लगे! सिक्के क्या, अब तो वह भी मिट्टी में धंसने लगा!!तभी अचानक चमत्कार हुआ। लंबी गरदन, बड़ी चोंच और पूरी तरह मिट्टी से सने 8 पैरों वाला एक पंछी सामने आया और पूछने लगा, "सोना चाहिए या अभी और जीना चाहते हो?" रोते हुए उसके मुख से एक ही वाक्य निकला, "मुझे बचाओ! लंबी गरदन वाले पंछी ने दया दिखाई, उसे अपनी चोंच से पकड़ कर पीठ में बिठाया और पलक झपकते ही उड़ चला। 


आदमी की नींद खुली तो उसने अपने आपको गंगा किनारे गीली मिट्टी में पड़ा पाया। यहां सोने के सिक्के नहीं थे लेकिन सामने रेत पर ककड़ी/खरबूजे/ तरबूजे बिखरे पड़े थे जो सोने के सिक्कों से अधिक अच्छे लग रहे थे और यहां की मिट्टी भी नहीं धंस रही थी! सामने मेहनती पुरुष और महिलाएं खेतों में काम कर रही थीं। 

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14.4.23

लोहे का घर 71

शाम के 6.10 बज चुके हैं। दून अभी जफराबाद में खड़ी है। इसे खड़ी कर एक मालगाड़ी को पास दिया गया है। अब मालगाड़ी अगले स्टेशन पर पहुंचेगी तब इसे छोड़ेगा। आज बोगी में खूब भीड़ है, रोज के यात्रियों (बंगालियों) के बीच बैठे हैं, सब चर्चा में लीन हैं। एक का ट्रांसफर बनारस हो गया है, सब उसी साथी की चर्चा कर रहे हैं और ट्रेन को कोस रहे हैं। 

पानी वाले वेंडरों की चांदी हो चुकी है। घूम-घूम कर पानी बेच रहे हैं। ट्रेन का अनायास देर तक रुकना इनके लिए सौभाग्य है, अच्छी बिक्री हो जाती है। 'खाना' वाले वेंडर भी अपना ऑर्डर ले रहे हैं। ट्रेन अपने निर्धारित समय से लगभग 4 घंटे विलम्ब से चल रही है। 

ट्रेन का हॉर्न बजा, चलने का सिग्नल हुआ और ट्रेन चल दी। दुखी यात्रियों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। वे इसी बात पर खुश हैं कि केवल एक मालगाड़ी को पास दिया। कभी-कभी तो तीन-तीन मालगाड़ियों के गुजरने के बाद चलती है! आज तो एक के बाद ही छोड़ दिया!!! हर लेट ट्रेन के आगे एक मालगाड़ी होती है, अपने आगे भी एक चल रही है।

अभी बाहर उजाला है, खेतों में चरती बकरियां दिख रही हैं। एक आदमी लुंगी और बनियाइन में पगडंडी-पगडंडी चल रहा है, उसके पीछे एक ग्रामीण महिला हाथ में टोकरी लिए चल रही है। ट्रेन की रफ्तार तेज हुई और दृश्य बदल गए। मैं खिड़की के पास बैठा हूं और लिखते-लिखते बाहर भी नजर दौड़ा रहा हूं। कहीं खेतों के बीच सजा कर रखे उपलों के गट्ठर दिख रहे हैं, कहीं झोपड़ी और नाद से बंधे भैंस दिख रहे हैं। 

मेरे सामने एक नवयुवक बैठा है। रुड़की से BBA कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में दमदम में रहता है। रुड़की से हरिद्वार गया और वहां से यह ट्रेन पकड़ा। ट्रेन में चढ़ते समय मेरा चश्मा कहीं गुम हो गया था। बैठने पर पता चला जेब में चश्मा नहीं है! इसी युवक ने ढूंढकर चश्मा लाया और मुझे पकड़ा दिया। इस तरह मेरी एक बला टली और मैं लिख पा रहा हूं, मैने लड़के को खूब धन्यवाद दिया। लड़का बोल रहा है, "हॉस्टल में खाना मसालेदार मिलता है, खाना पसंद नहीं है, हॉस्टल छोड़ने भी नहीं दे रहे और खाना भी अच्छा नहीं बना रहे हैं।" वेस्ट बंगाल से phonics grup of institution में जाकर अपने को फंसा हुआ महसूस कर रहा है।  पहले सेमेस्टर की परीक्षा देकर घर जा रहा है। एक/दो महीने बाद लौटेगा, कोई छुट्टी नहीं लेकिन अभी पढ़ाई भी नहीं होगी।  वेस्ट बंगाल में BBA करने के लिए कॉलेज है लेकिन फीस बहुत ज्यादा है। जहां पढ़ रहा है, फीस कम है, इसलिए इतनी दूर रुड़की में पढ़ रहा है। 

ट्रेन जलालपुर से आगे हवा से बातें कर रही है, मैं लड़के से बातें कर रहा था। लोहे के घर में अनजान यात्रियों से बातें करो तो नई-नई कहानी मिलती है। अब बाहर खूब अंधेरा हो चुका है। ट्रेन खालिसपुर में रूक गई है, यहां इसका स्टॉपेज नहीं है। इस रूट पर चलने वाली ट्रेनें स्टॉपेज पर ही रुकेगी, यह जरूरी नहीं है। आगे चल रही मालगाड़ी इसे हर स्टेशन पर रुकने के लिए बाध्य कर रही है। 

चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर अंधेरे में झांको तो टिमटिमाते बल्ब दिख रहे हैं। इस पूरे रास्ते में जंगल नहीं हैं, खेत हैं और तेजी से गांवों का शहरी करण हो रहा है। झोपड़ियां कम दिखती हैं, दूर दूर तक पक्के मकान और मकानों में जलते बल्ब दिख ही जाते हैं। लोहे के घर के भीतर खूब उजाला है। बंगाली बतियाने में मस्त हैं। बतियाने के लिए कोई न कोई विषय मिल ही जाता है। एक रोज के यात्री खूब चाव से अपने पढ़ाई के समय का संस्मरण सुना रहे हैं। सामने बैठे लड़के ने जो अपने कॉलेज का हाल बताया कि पूरा माहौल ही शिक्षा और कॉलेजों की चर्चा पर केंद्रित हो गया। साथी अपने कॉलेज का संस्मरण सुना रहे हैं। पश्चिम के कॉलेजों के वर्क कल्चर की तारीफ हो रही है। 

ट्रेन रुकते/चलते कभी स्पीड से, कभी मंथर चाल से चल रही है। अब बाबतपुर से आगे चली है। लगता है आज बनारस पहुंचने में शाम के आठ बज जाएंगे। रोज के यात्रि इस बात से खुश हैं कि कल तो अंबेडकर जयंति की छुट्टी है, कल नहीं आना है। इसे ही कहते हैं दुःख में सुख ढूंढना। रोज के यात्रि ऐसे ही दुःख में सुख ढूंढ लेते हैं।


लोहे का घर 70

जफराबाद से चली है दून। शाम के साढ़े पांच बजना चाहते हैं, धूप का ताप कम नहीं हुआ है, खिड़कियों से किरणें झांक रही हैं। जिस बोगी में बैठा हूं, मेरे अलावा 5 यात्री और हैं। सामने शाहगंज से चढ़े एक प्रौढ़ सज्जन धीरे-धीरे बिस्कुट कुतर रहे हैं। जब सब बिस्कुट कुतर चुके, प्लास्टिक खिड़की से बाहर लोका दिया और पानी की बोतल खोल दी। पानी पीकर खैनी रगड़ रहे हैं। मुझे लिखता देखकर रोज के एक सहयात्री बोर हो कर दूसरे डिब्बे में साथी तलाशते हुए, निकल लिए। उनके जाने से मुझे यह राहत मिली कि आराम से पैर फैलाकर लेट गया। दिनभर बैठने के बाद यात्रा में ऐसे लेटने मिल जाय तो आनंद आना स्वाभाविक है। साइड लोअर में दो यात्री बैठे हैं और साइड अपर बर्थ में एक यात्री लेटे हैं। सामने वाले सज्जन खैनी जमाकर मोबाइल झांक रहे हैं। उन्हें हावड़ा तक जाना है।  सभी बंगाली मतलब रोज के यात्री एक जगह जमा हो चुके हैं। यहां शांति का माहौल है।

ट्रेन एक स्टेशन आगे जलालपुर पहुंच रही है। इस रूट में इसके कई स्टॉपेज हैं। यहां से चली तो आगे बाबतपुर भी रुकेगी। आज किस्मत अच्छी लग रही है, अपने समय से भले लेट हो, ट्रेन यहां से भी चल दी। ऐसे ही चलती रही तो आज की दौड़ जल्दी ही खतम हो जाएगी। 

सुरुज नारायण अभी ताप बनाए हुए हैं। ढलने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन अभी ढले नहीं हैं, पियरा गए हैं लेकिन आकाश में दिख रहे हैं। सामने बैठे सज्जन की टी शर्ट पर पड़ रही किरणों के कारण मैं लेटे-लेटे अनुमान लगा रहा हूं। किरणों से आदमी उजला-उजला नजर आ रहा है। उसे इस बात का जरा भी एहसास नहीं कि किरणों की कृपा से वह कितना खिला- खिला दिख रहा है। हम उजले दिख रहे हैं या मलीन यह हमे देखने वाला ही बता सकता है, हम कभी नहीं जान पाते। हमारी कमियां या गुण दूसरा ही बता पाता है, हम तो हमेशा आत्ममुग्ध रहते हैं। 

ट्रेन खालिसपुर में रुकी है। यहां इसे नहीं रुकना चाहिए लेकिन रुक गई तो कोई क्या कर सकता है! अब किरणें गुम हो चुकी हैं लेकिन बाहर अभी उजाला फैला है। सूर्यदेव दिन का सबसे बड़ा अधिकारी होता है, डूबने के बाद भी उसका ताप/उजाला कम होने में समय लगता है। 

ट्रेन यहां से भी चल दी। लोहे का घर ऐसे ही दुःख और खुशी देता रहता है। हमारे जैसे रोज के यात्री न इसके रुकने से बेचैन होते हैं न चलने से खुश। बेचैन इसलिए नहीं होते कि अनचाहे स्टेशन पर रुकना तो इसका रोज का काम है, खुश इसलिए नहीं होते कि क्या पता आगे फिर रूक जाय! घर पहुंचकर इकट्ठे खुश या दुखी होते हैं। एक/दो घंटे में घर पहुंच गए तो खुश, रात हो गई तो दुखी। दुःख भी क्षणिक ही होता है, एक ही वाक्य बोलते हैं, "चलो! आज देर हो गई, सोया जाय, कल फिर चलना है।" 

ट्रेन बनारस पहुंचने से पहले अपने अंतिम स्टेशन बाबतपुर पहुंच रही है। यहां से आगे बढ़े तो हम भी एलर्ट मूड में हो जाएंगे। साइड लोअर में बैठे यात्री ट्रेन को पानी पी कर गाली दे रहे हैं। उनके हिसाब से ट्रेन बहुत लेट हो चुकी है। बोल रहे हैं, "यहां से चले और आगे शिवपुर न रुके, बनारस पहुंचा दे तो बढ़िया है।" हम सोच रहे हैं जैसे जौनपुर इनके दुर्भाग्य और मेरे सौभाग्य से लेट आई और हम पकड़ पाए वैसे शिवपुर रूक जाए तो हम उतर कर भाग भी जाएं। एक ही घटना किसी के लिए सुख और किसी के लिए दुःख का कारण होता है। 'राम नाम सत्य' न हो तो श्मशान की लकड़ी कैसे बिके? ट्रेन चल दी, अब लिखना बंद करता हूं, जय राम जी की।

10.4.23

लोहे का घर 69

मेरी गाड़ी पटरी पर चल रही है। चलते-चलते, बचपन और जवानी के कई स्टेशन आए, चेन पुलिंग भी हुई, भिड़े भी, गिरे भी, बिन स्टेशन के घंटों रुके भी लेकिन थक कर बैठे नहीं, हारे नहीं, चलते रहे। लोग कह रहे हैं, "अगला स्टेशन बुढ़ापा है, कितना चलोगे? कोई आश्रम ढूंढों, हरिभजन का समय आ गया है, उतर जाओ।" मैं कहता हूं, "जिसने गाड़ी को ही घर बना लिया हो, उसे किस बात से डराते हो? मंजिल आएगी तो चार लोग मिलकर खुद ही उतार देंगे! मंजिल से पहले क्यों उतरें? जब उतरेंगे, जहां उतरेंगे, समझ लेना वही मेरी मंजिल थी। मंजिल किस चिड़िया का नाम है? जब तक जिस्म में सांस है, कोई स्टेशन आखिरी नहीं होता।"


गोधुली बेला है, सूर्यास्त हो चुका लेकिन रोशनी शेष है। एक बच्चा लोहे के घर की खिड़की से बाहर झांक रहा है। पास के वृक्ष पीछे छूट रहे हैं, दूर के साथ चलते प्रतीत हो रहे हैं। जब ट्रेन किसी छोटे स्टेशन पर रुकती है, खुशी के पल की तरह, काले पंखों वाली चिड़िया किसी शाख पर फुदकती है। गाड़ी चल देती है, चिड़िया भी गुम हो जाती है। खुशी के हों या दुःख के हों, पल कभी टिकते नहीं। गाड़ी चलती है, दृश्य बदल जाते हैं। 


धीरे-धीरे बाहर अंधेरा, भीतर रोशनी होती जा रही है। लंबी यात्रा के बाद ही इसका एहसास होता है। छोटी दूरी के यात्री या वे जिन्हें मंजिल पाने की हड़बड़ी होती है, भीतर के उजाले को महसूस ही नहीं कर पाते। जब चांद निकलता है, साथ साथ चलता है, आंखों से ओझल नहीं होता! सूर्योदय से पहले होता भी नहीं। बच्चे को खिड़की झांकने में अब मजा नहीं आ रहा, लोहे के घर के भीतर की रोशनी अच्छी  लग रही है, मोबाइल अच्छा लग रहा है।


मैं एक ही गोल के या विभाग के यात्रियों के समूह को चार बंगाली कहता हूं। चार बंगाली इसलिए कि अक्सर अपने रूट पर बंगाल जाने वाले यात्री मिल जाते हैं। वे अपनी बोली में/अपने धुन में मस्त रहते हैं। न दूसरे उनकी बात समझ पाते हैं, न इन्हें दूसरों की कोई परवाह रहती है। राजनीति की बहस छिड़ गई तो अपने ही धुन में आलोचना/समर्थन करने में/ बहस करने में/ मशगूल रहते हैं। उनकी बहस सुनकर लगता है, खूब समाचार देखते हैं और टी वी के एंकरों की तरह मोर्चा संभाले रहते हैं। उन्हें किसी की कोई चिंता नहीं होती। मैं जैसे टी वी में समाचार नहीं देखता वैसे उनकी बातें भी नहीं सुनता। चाय, ब्रेड, अंडे, पानी और मैंगोजूस पीने वाले वेंडर भी उन्हें देख आगे बढ़ जाते हैं, जानते हैं, ये एक पैसे की खरीददारी नहीं करेंगे, इनसे पूछना ही बेकार है। हिजड़े भी इन्हें देख हाय! हाय! करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। 

...@देवेन्द्र पाण्डेय।

लोहे का घर 68

 कामायनी1

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लम्बी यात्रा है, कामायनी एक्सप्रेस है, बनारस से जा रहे हैं भोपाल। रोज की यात्रा भले स्लीपर में करें, लंबी यात्रा में अपन ए.सी. बोगी में बर्थ रिजर्व करा लेते हैं। कोई एक घण्टे की यात्रा तो है नहीं, खड़े-खड़े भी हो जाएगी, पूरे 16 घण्टे निर्धारित हैं, अधिक भी हो सकते हैं! लंबी दूरी की यात्रा में, ए.सी. में बर्थ न मिले तो चढ़ना ही नहीं है, कौन स्लीपर में चढ़कर फजीहत मोल ले! 

लफड़ा यह है कि अपनी साइड अपर है और अभी मुझे ऊपर चढ़ने और नीचे उतरने में तकलीफ होती है। फिलवक्त साइड लोअर में ही लेटा हूँ, बर्थ का मालिक अभी आया नहीं है। हमसे भी बुजुर्ग हुए तो हमको ही ऊपर जाना पड़ेगा, कम उम्र के हुए तो उन्हीं से ऊपर जाने का अनुरोध किया जाएगा। बहरहाल जो भी हो, अच्छा ही होगा। प्रयागराज तक तो सफर ऐसे ही चलेगा।

मेरे सामने के बर्थ में सभी आ चुके लगते हैं, एक के टिकट में कुछ लोचा है, उसे नींद भी आ रही थी, मेरी बर्थ पर लेटा है, मैने भी कह दिया है, "जब तक कोई मुझे नहीं उठाएगा, आप आराम से अपनी नींद पूरी कर लीजिए।"

ट्रेन में बैठते ही कुछ लोगों को भूख लगती है या दूसरों को बताना चाहते हैं कि हम टिफिन वाले हैं, टिफिन खोल कर बैठ जाते हैं और चटखारे लेकर खाने लगते हैं! मेरे सामने बैठे युवकों की भी जब टिफिन खतम हुई तो उनकी सिसकियों को देख मैने अपना झोला आगे बढ़ा दिया, "मिठाई है, खाना चाहें तो खा सकते हैं, वैसे अजनबियों का दिया कभी नहीं खाना चाहिए, आपकी मर्जी!" वे पेट पकड़ कर हँसने लगे, "अंकल जी! आप भी कमाल करते हैं, दोनो बातें करते हैं! अब कोई कैसे खाएगा?" मैने कहा, "मर्जी आपकी, मैने तो अपना दोनो फर्ज निभाया है। आपको सिसकते भी नहीं देख सकता, गलत आदत भी नहीं डाल सकता! मैं इसी डिब्बे से खा रहा हूँ, शेष हिम्मत आपको करना है, वैसे अजनबियों के हाथ से वाकई कुछ नहीं खाना चाहिए!" 

वे हँसते रहे, अपने बोतल से निकालकर पानी पीते रहे, मेरी मिठाई नहीं खाई। इस तरह सबका कल्याण हो गया, उन्हें नसीहत भी मिल गई, मेरी मिठाई भी बच गई, वैसे मेरे पास बहुत मिठाई है, वे खतम करना चाहें तो भी खतम नहीं होगा, हिम्मत उनकी, मैं क्या कर सकता हूँ!

अब सूर्यास्त हो चुका है, बाहर अँधेरा छाने को है, भीतर रोशनी हो चुकी है। लोहे के घर में, शाम के समय, रोज ऐसा होता है, जितना बाहर अँधेरा छाने लगता है, भीतर उतनी रोशनी फैलती जाती है। असल जीवन मे भी ऐसा हो तो कितना आनन्द आ जाय! जब-जब हम अंधेरों से घिरें, भीतर रोशनी हो जाय। 

कामायनी-2

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प्रयागराज में वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था, एक दम्पत्ति आए और महिला का हवाला देकर, मेरे साइड अपर की बर्थ में जाने से साफ इनकार कर दिया। मुझे ही अपने बर्थ पर ऊपर चढ़ना पड़ा। ट्रेन लगभग 30 मिनट प्रयागराज में खड़े होने के बाद अब चल चुकी है। 

जब तक खुद ऊपर न जाओ, स्वर्ग नहीं मिलता। यहाँ बहुत आनन्द है। सभी बर्थ पर निगाह पड़ रही है और उनकी बातें सुनाई पड़ रही हैं। एक समय ऐसे ही ऊपर लेटा था तो कल्पना में सही, सभी ब्लॉगरों को एक साथ यात्रा करते हुए देख लिया था! अभी एक महिला पूड़ी का डिब्बा खोलने की खूब कोशिश कर रही हैं, बोली अवधी है, अपने जौनपुर साइड की। बड़ी मेहनत से महिला ने डिब्बा खोला, पूड़ी अखबार में बिछाई और तुरंत उनके श्रीमान जी दोनो हाथों से शुरू हो गए! बनाने/रखने में इनका कोई योगदान नहीं दिखा, अब खाने में भरपूर साथ निभा रहे हैं। हम उनसे कुछ नहीं कहेंगे, हम बोले तो ये हम पर ही चढ़ बैठेंगे, "कमा कर लाया कौन है?" बस चुप होकर लीला देखने और बातें सुनने में आनन्द है। 

अब सभी ने अपना टिफिन खाली कर लिया है और सुफेद चादर चढ़ा कर लेट चुके हैं। देखा देखी हमने भी यह नेक काम कर लिया, टिफिन खाली करी और चादर चढ़ा ली। कोरोना काल के बाद बहुत दिनों तक ट्रेनों में कम्बल/चादर नहीं मिलता था, रंग बिरंगे चादर दिखते थे। अब फिर वही सुफेद चादर वाले जिस्म दिखने लगे! हाँ, लोग अभी मेरी तरह मोबाइल चला रहे हैं, किसी से बात कर रहे हैं या वीडियो देख रहे हैं तो पोस्टमार्टम हाउस में एक के ऊपर एक डिब्बों में रखे जिस्मो जैसा भयावह माहौल नहीं है। अभी तो आवाज आ रही है, "कहाँ पहुंच्या?"

अब वेंडर खाना-खाना चिल्लाते हुए घुसे हैं! इस कूपे के सभी लोग खा/पी चुके, कोई खाना नहीं मांग रहा। एक यात्री ने पूछा,"नॉन वेज में क्या है?" वेंडर ने साफ इंकार कर दिया, "भाई साहब! यहाँ केवल वेज मिलता है!" सुनकर अच्छा लगा, "प्रयागराज के वेंडर भी शाकाहारी हैं!" 

खाना-खाना वाले गए अब पानी-पानी वाले आ गए। इनका तालमेल अच्छा है। 'खाना' के बाद 'पानी' तो चाहिए ही होगा! यह अलग बात है कि इस कूपे के सभी लोग अपनी टिफिन, अपनी पानी की बोतल वाले थे! अब वेंडर बिचारे मुँह बनाकर जाने के सिवा कर ही क्या सकते हैं!

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कामायनी-3

कामायनी सही समय से चल रही है। अभी सुबह के 5.15 हुए, भोपाल से लगभग 150 किमी दूर, 'बीना' स्टेशन में खड़ी है। रात अच्छी नींद आई। मुझे नींद अच्छी ही आती है। रात 10 बजे के बाद कोई जगा नहीं सकता, सुबह 4 के बाद कोई सुला नहीं सकता। अब अपवाद हर नियम में होते हैं, अब बीती रात को ही याद करें तो बीच-बीच में चढ़ने वाले टॉर्च जलाकर अपनी सीट ढूँढने के लिए और उतरने वाले खुशी में आपस मे बतियाते हुए जगा ही रहे थे! फिर भी, जो नींद मिली वो अच्छी ही माननी चाहिए।


सफर में नींद पूरी होने का एहसास हुआ! यही क्या कम है? सब चाय वाले की कृपा है। नहीं, सच कह रहा हूँ, जैसे अभी करीब से चाय-चाय चीखते हुए, एक चाय वाला गुजरा, वैसे रात भर गुजरते तो कौन सो पाता भला? एक भी चाय वाला रात्रि जगाने नहीं आया, हम सो पाए, यह उसी की कृपा है। सब महसूस करने की बात है, रात सो लिए तो अच्छे दिन अपने आप आ जाएंगे! बिना चाय वाले की कृपा से अच्छे दिन आ ही नहीं सकते, यह ज्ञान कोई चाय की अड़ी नहीं, लोहे का घर ही दे सकता है।


लेकिन यह ट्रेन अभी तक 'बीना' में ही क्यों खड़ी है? 5.10 सही समय पर आई, 5.54 हो गए! इसे तो 5 मिनट रुक कर चल देना चाहिए था!!! 50 मिनट से रुकी है। कोई कारण होगा, ट्रेन अकारण कभी नहीं रुकती, इसीलिए अभी भी इसकी यात्रा सुरक्षित मानी जाती है, अब अपवाद तो हर नियम में होते हैं, कुछ भी पूर्ण नहीं होता। 

कोई-कोई मौका ताड़कर बाथरूम जा रहा है, शेष अभी सोने के मूड में लगते हैं। सूर्योदय का समय हो तो बर्थ से नीचे उतरकर दरवाजे के पास चला जाय, आज सूर्यदेव का दर्शन नहीं किया तो दिन कुछ अधूरा-अधूरा लगेगा। उगते सूर्य और घटते/बढ़ते चाँद का दर्शन तो हर व्यक्ति को रोज करना चाहिए, इससे ही तो एहसास होता है कि हम धरती के प्राणी हैं! नदियाँ, झरने, पहाड़, समुंदर और बाग-बगीचे तो किस्मत की बात है। कुछ न मिले तो लोहे के घर से ही उगते सूर्य का दर्शन करना चाहिए। कोई ट्रेन सामने से आई है, लगता है, अब अपनी वाली चलेगी।













...@देवेन्द्र पाण्डेय।

05/06 मार्च 2023 की पोस्ट है।


9.4.23

साइकिल की सवारी 7

अपनी सुबह तो रोज ही खूबसूरत होती है, आज तो बहुत खूबसूरत हो गई। रोज 2 कि.मी. साइकिल चलाकर सारनाथ पार्क में जाते हैं, आज संडे है तो सोचा कुछ हिम्मत का काम किया जाय। लगभग 10 कि.मी. साइकिल चलाकर, गांव-गांव घूमते हुए सारनाथ से नमोघाट पार्किंग में साइकिल खड़ी कर, ताला लगाकर, यू ट्यूब बंद कर, मोबाइल में घड़ी देखा तो सुबह के 6 बज रहे थे और पहुंचने में 50 मिनट लग चुके थे। यू ट्यूब में डाउन लोड किए, कबीर और गोरखनाथ के सभी भजन खतम हो चुके थे।


सूर्यदेव के दर्शन के लिए पलकें ऊपर उठानी पड़ रही थीं, मतलब हमको 30 मिनट पहले घर छोड़ना चाहिए था। आकाश में बादल के टुकड़े भी छाए थे, देव ताप नहीं बरसा रहे थे, अभी तक शीतलता बनी हुई थी। नमो घाट में घूमते हुए प्रहलाद घाट वाले अजय बाबू और उनकी नींबू की चाय तलाशने लगा लेकिन आज वे भी नहीं दिखे। हम भी कई हफ्ते बाद आए थे। समय एक सा नहीं रहता, पहले जाड़ा था, नींबू की चाय खूब बिकती थी, अब गर्मी आ चुकी, क्या पता, बेल का शरबत बेच रहे हों!!! कुछ भी हो सकता है। 


नमो घाट में भीड़ वैसी ही थी। लोग उगते सूरज, राजघाट पुल, हाथ जोड़ती मूर्तियों और एक दूसरे की तस्वीरें खींचने में आत्ममुग्ध थे। बच्चे एक गाइड के निर्देशन में स्केटिंग सीख रहे थे। हरतरफ खुशनुमा माहौल था। नमो घाट, नया बना बड़ा घाट है, हम जितना देख पाए उतना ही लिख सकते हैं, बहुत कुछ ऐसा भी हो रहा होगा जो हम नहीं देख पाए। 


राजघाट पुल के नीचे से होते हुए नमो घाट से आगे बढ़े तो संत रविदास के भव्य मंदिर के सामने घाट पर बड़े नावों, बजड़ों पर लगे बड़े-बड़े स्पीकरों से भजन का कान फाड़ू शोर सुनाई दिया! भजन को भी मधुर होना चाहिए, कर्ण प्रिय होना चाहिए, संगीतमय होना चाहिए, उतने ही वॉल्यूम में बजाना चाहिए कि कर्ण प्रिय लगे, हम प्रयास करके सुनें और सुनकर हमें अच्छा लगे। यह न हो कि भजन के अलावा हमें कुछ भी सुनाई न दे। हम मजबूर होकर भजन ही सुनते रहें जो भजन न होकर एक शोर लगे। भजन के नाम पर होने वाले इस ध्वनि प्रदूषण पर प्रतिबंध लगना चाहिए। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का प्रत्यक्ष पाठ पढ़ाने वाले महामानव ' संत रविदास' के भव्य मंदिर के सामने तो यह शोर और भी विरोधाभाषी लग रहा था। मरणोपरांत महामानव का मन्दिर बना कर भगवान बना देने से कुछ नहीं होगा, हमको उनके द्वारा दी गई शिक्षा पर भी कुछ अमल करना चाहिए। हम जल्दी-जल्दी वहां से आगे बढ़े कि शायद दूर से अच्छा लगे लेकिन हाय! मुझे तो संगीत दूर से भी कर्ण प्रिय नहीं लगा। 


थोड़ा और आगे बढ़ कर एक घाट पर शांति से बैठकर गंगा की कल-कल, नावों के चप्पुओं की छल-छल, पंडों के मंत्रोच्चारण और गंगा स्नान के बाद भक्तों के खुशी के अतिरेक में लगाए गए नारों 'हर हर महादेव' 'हर हर गंगे' की आवाज जब कानों में पड़ने लगी तो शोर सुनकर अशांत हुआ अपना मन कुछ शांत हुआ। आज गंगा स्नान, दर्शन/भक्ति के मूड में नहीं था, घूमने और साइकिलिंग के मूड में था, कुछ देर बैठकर लौट चला। स्पीकर के शोर से बचते बचाते अपने साइकिल तक पहुंचा और साइकिल लेकर लौट चला।


बसंत महाविद्यालय की सड़क पकड़ कर आगे चला और अपने प्रिय 'जीवित कुएं' के पास साइकिल खड़ी की। जीवित कुआं इसलिए लिखा की बहुत से कुएं अब मर चुके हैं। घर-घर में मशीन के द्वारा बोरिंग से पानी की निकासी होती है। ऐसे में किसी समाज ने कोई कुआं अभी तक जिंदा रखा है तो वह पूरा समाज ही साधुवाद का पात्र है। कुएं की शक्लोसूरत और सीरत आज भी 50 वर्षों पुरानी है जब हम बचपन में गली के बाल सखाओं के साथ पानी पीने के लिए आते थे। थोड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि इसको लोहे की जाली से ढक दिया गया है और पानी निकालने के लिए चापाकल (हैंड पाइप) लगा दिया गया है। एक आदमी 'चापाकल' चलाता है, दूसरा पानी पीता है। हम कुछ देर पास बने चबूतरे पर बैठे और थोड़ी देर सुस्ताने के बाद पेट भर पानी पिए। जिसने पानी पिलाया उसने बकायदा नीचे चप्पल उतारा, बड़ी श्रद्धा से कुएं की जगत को छू कर नमन किया और हैंड पाइप चलाया। पानी पिलाते हुए बोल रहा था,  "ऐ भैय्या! भगवान जी यही न हउअन!" अब इतनी श्रध्दा और विश्वास आपको हर स्थान पर कहां मिलेगा? पानी तो मीठा था ही, मुझे तो पिलाने वाला भी भगवान का कोई दूत लग रहा था। मैने अमृत नहीं पिया इसलिए नहीं कह सकता कि पानी अमृत के समान था लेकिन इतना तो कह ही सकता हूं कि पानी पी कर मन भी तृप्त हो जाता है। शायद इसीलिए इसे 'अमृतकुंड' कहते हैं।


 पानी पीकर, आदिकेशव घाट और उसके बगल में बने शमशान घाट को पार कर साइकिल चलाते हुए वरुणा गंगा के संगम तट पर बने पुल से गुजरते हुए, थाना सराय मोहाना, गांव कोटवा पार करते हुए अपने चिरपरिचित पुलिया पर बैठ गया। आज भक्ति/दर्शन के मूड में नहीं था तो आदिकेशव मन्दिर नहीं गया। बिना नहाए मन्दिर में प्रवेश की इच्छा नहीं होती, बचपन में पड़ा संस्कार कभी पीछा नहीं छोड़ता। मन्दिर में विष्णु भगवान की सुन्दर प्रतिमाएं हैं और घाट भी खूबसूरत बना है।


पुलिया में पहले से चार लोग बैठे हुए थे। एक वृद्ध नेपाली टोपी पहनकर बैठे हुए थे, उन्होंने अपना नाम 'घन बहादुर सिंह' बताया। मैने उनका परिचय पूछा तो बताने लगे कि वे 2005 में नलकूप विभाग से सेवानिवृत हुए हैं, यहीं पास ही गांव में घर बनाकर वर्षों से रह रहे हैं। 18 वर्ष तो सेवानिवृत्त हुए हो चुके, पत्नी का देहांत हो चुका, बिटिया और दामाद भी पास रहते हैं, 11 साल का तो नाती हो चुका। मैने कहा, "यह दिन तो सभी को देखना है, दो में से किसी न किसी को तो पहले जाना ही होगा, आप पहले जाते तो उनको अकेले रहना पड़ता, जो भगवान करते हैं, अच्छा ही करते हैं, आप तो पुलिया पर बैठकर, खैनी खाते हुए, आपस में बतियाते हुए जीवन काट रहे हैं, आपके स्थान पर आपकी श्रीमती जी होतीं तो उन्हें इस समाज में जीवन जीना और भी कठिन होता। ईश्वर ने आपको खूब स्वस्थ रखा है, आपको देखकर तो लगता ही नहीं कि आप इतने बुजुर्ग हैं!" मेरी बात सुनकर वे प्रसन्न दिखे, शेष तीनों ने भी मेरी बात का समर्थन किया, इस तरह पुलिया में बैठे-बैठे मेरी थकान भी दूर हुई और अजनबियों से मीठी बातें भी हो गईं। 


दोस्तों से मीठी बातें करना आसान है, बड़ी बात तो तब है जब अजनबियों से मीठी बातें हों। रोज-रोज लोहे के घर में अजनबियों से बतियाने के अनुभव ने मुझे ढीठ बना दिया है, अजनबी से भी खूब बातचीत हो जाती है। एक बात मैने और अनुभव किया कि जितनी सहजता और प्रेम से गरीब/अनपढ़ वर्ग के लोग खुलकर बतियाते हैं, यह अपनापन पढ़े लिखे रईसों और शिक्षित वर्ग में ढूंढे नहीं मिलता। शिक्षित रईसों में कभी एकाध लोग प्रेम से बोलने वाले मिल जाएं तो भाग्य की बात है। उनके अपने गुरूर और सिद्धांत होते हैं, वाम मार्गी या दाम मार्गी होते हैं, पूर्वमुखी या दक्खिन मुखी होते हैं, वे अपने अहंकार के तले इतने डूबे होते हैं कि सामने वाले को तुक्ष जीव समझते हैं। 


ग्रामीण परिवेश में सीधे/सरल लोगों से बातें करके मन एकदम हल्का हो गया। उनसे विदा लेकर, फिर किसी संडे को मिलने का वादा करके जब मैं वापस चला तो मेरी साइकिल सड़क पर दौड़ रही थी और मन हवा में उड़ रहा था। आज की सुबह बहुत खुबसूरत थी।

... @देवेन्द्र पाण्डेय।







नीचे यूट्यूब के लिंक हैं। वीडियो इसमें पोस्ट नहीं हुआ तो यू टयूब में पोस्ट कर लिंक लगा दिए हैं, चाहें तो देख सकते हैं। लिखा हुआ और स्पष्ट समझ में आएगा।

https://youtu.be/0jglPN3fvwo 


https://youtu.be/7SsJivpWwfg

https://youtu.be/uYfXfV8dkWo

https://youtu.be/mDkqik22eIY