28.1.23

वो फ़ोन कॉल

हमारे समय में कम्प्यूटर नहीं था, नेट नहीं था, मोबाइल नहीं थी। किसी को जरूरी समाचार देना होता तो शहर में हरकारा दौड़ाया जाता, बात दूर, दूसरे राज्य की हो तो टेलीग्राम किया जाता। घर में किसी की बीमारी की खबरें तो खत का हिस्सा भी नहीं बनती थी, साफ छुपा ली जाती। तर्क यह होता, "बिचारे को क्यों परेशान किया जाय? आकर भी क्या कर लेगा!" 


घर में कोई मर जाय तो सीधे टेलीग्राम होता....Come soon. यहाँ भी मौत की खबर छुपा ली जाती, "बिचारा, अधिक दुखी हो जाएगा तो आएगा कैसे?"


छोटे भाई का तार मिलते ही बड़े भैया परेशान हो, सपरिवार चल देते, मन ही मन सोचते,"कुछ तो जरूर गड़बड़ है, पिताजी बीमार चल रहे थे, कहीं सच में कुछ हो तो नहीं गया!"😢 

बेटा जब घर से दूर जाता तो पहुँचकर तार करता..Reached. वह समय था जब कम शब्दों में अपनी बात पहुँचानी होती थी, जितने शब्द उतना पैसा। 


आजकी तरह नेट और मोबाइल का समय नहीं था। सबसे ज्यादा मेहनत तो प्रेमियों को करनी पड़ती थी। तीन शब्द कहने में वर्षों लग जाते। एक खत भेजने और जवाब लेने में कितनी मशक्कत होती! पढ़ते समय भी लड़के/लड़कियाँ विश्वविद्यालय पहुँचकर ही मिल/बैठ कर बातें कर पाते। इंटर कॉलेज तक तो भारत पाकिस्तान की सीमा रेखा खींची होती, पूरा बंटवारा होता। कोई इधर से उधर गया तो बवाल हो गया। बादलों, चाँद तारों या फिर किताबों के माध्यम से खत पहुँचाए जाते। बहुत मुश्किल समय था। 


मध्यमवर्गीय परिवार के लिए किताबें या चलचित्र मनोरंजन का बढ़िया साधन हुआ करती थीं। इधर हीरोइन के गले से पल्लू सरका, नेपथ्य में संगीत शुरू हुआ, लड़के रोमांचित हो जाते थे। आज की तरह नग्नता आम बात नहीं हो चुकी थी। मोबाइल में नेट के माध्यम से मनचाहे दृश्य हाथों में नहीं उगते थे।


अब तो सब कुछ हाथ में है। मोबाइल से बातें हो रही हैं, वीडियो चैट हो रहा है, सब आम हो चुका है। पहले पिताजी समझाते थे, बच्चे समझते थे। अब तो पिताजी ही बच्चों से पूछते हैं, "बेटा! देखना जरा, मोबाइल को यह क्या हो गया! अभी जो फ़िल्म देख रहे थे, न जाने कहाँ गायब हो गया!!!"


मोबाइल आने से पहले रईसों के घर एक टेलीफोन हुआ करता था। भारतीय दूर संचार (BSNL) के छोटे-छोटे लाइनमैन जैसे कर्मचारियों का भी समाज में बड़ा धाक रहता था। धीरे-धीरे अड़ोस पड़ोस के घरों में भी टेलिफोन की घण्टियाँ बजने लगीं।   जिनके घर टेलीफोन लगे हों उनसे पड़ोसी बड़े आदर से बात करते और अनुरोध करते कि यदि मेरा कोई फोन आए तो बताने की कृपा करें। सार्वजनिक टेलीफोन बूथ जिसे पीसीओ कहते थे, मोहल्ले-मोहल्ले में छाने लगे और अधिक से अधिक घरों में टेलीफोन के तार दौड़ने लगे। 


मोबाइल के आने तक भी कुछ BSNL का रंग उतरा नहीं था। हर कॉल करने के पैसे लगते थे तो लोग केवल आने वाले कॉलों के लिए मोबाइल लिए घूमते। जब दूसरी प्राइवेट कम्पनियों ने सस्ते दामों में असीमित फोन कॉल और अंतरजाल का बाजार खोल दिया तब जाकर BSNL की धमक समाप्त हुई। सस्ते और सुविधा के लिए लोग निजी कम्पनियों की ओर भागने लगे। फोन आना/जाना साधारण बात हो गई।


हम जब तक कुँआरे थे, वो कॉल कभी नहीं आया जिसकी अपेक्षा शीर्षक देकर की गई है। शादी शुदा होने के बाद कई कॉल आए जिनका व्यक्तिगत जीवन में तो बड़ा महत्व था लेकिन सार्वजनिक जीवन में गंगूतेली के फोन पर आए कॉल का क्या महत्व? हम भी कोई सेलिब्रेटी होते तो गर्व से कहते, वो कॉल भी क्या कॉल था, जिसे सुनते ही हम जवान हो गए थे! अब हम जवान हुए हों या मुर्झा गए हों, किसी को क्या फरक पड़ता है। 


हाँ, एक दर्द भरी कॉल की याद आती है जब मीलों दूर से रात्रि में 3 बजे बड़े भाई साहब ने फोन करके बताया था, "माँ की तबियत अधिक खराब है, तुरंत आ जाओ।" कॉल सुनते ही अपने भेजे टेलीग्राम की तरह, हम समझ गए थे कि वर्षों पहले गुजरे पिताजी की तरह अब माँ भी इस दुनियाँ में नहीं रहीं।

...@देवेन्द्र पाण्डेय।

21.1.23

लोहे का घर 67

आज ताप्ती अपने समय से लेट, मेरे सही समय पर मिली है। रोज के यात्री भण्डारी प्लेटफार्म पर मूँगफली फोड़ कर खा रहे थे, अलग-अलग डिब्बों में चढ़े हैं। अलग-अलग इसलिए कि ट्रेन में भीड़ है। इतनी बर्थ नहीं खाली कि सब एकसाथ बैठ सकें। हमारे साथ एक ही रोज के यात्री बैठे हैं, शेष सभी अलग बोगी में चढ़े हैं। मैं साइड लोअर बर्थ में दो यात्रियों के साथ बैठा हूँ। एक को सूरत जाना है, दूसरे को जलगाँव जाना है। मेरे बाईं ओर बैठे एक यात्री बड़े उत्साह से भारत-न्यूजीलैंड का क्रिकेट मैच मोबाइल में देख रहे थे, बड़े उत्साहित थे। अब नहीं देख रहे। पूछने पर बता रहे हैं, हो गया खेल, भारत ने 349 बना दिया है। अब दूसरी पाली न्यूजीलैंड को खेलनी है। दाईं ओर बैठे सूरत जाने वाले यात्री खामोशी से खिड़की से बाहर देख रहे हैं। अभी अँधेरा नहीं हुआ, गोधूलि बेला है। मुझे क्रिकेट में अब कोई रुचि नहीं है।


मेरे सामने लोअर बर्थ पर कुछ बच्चे और एक महिला बैठी हैं। बच्चे दाना चबाकर थक चुके लगते हैं, अभी खामोश हैं। वेंडर आ/जा रहे हैं। बाईं ओर बैठे मौलाना किसी से मोबाइल में बात कर रहे हैं, बड़े खुश हैं, खुशी से बता रहे हैं, "349 बनाइस इंडिया! #शुभमन_गिल 208 बनाइस है, देखे हो?" उधर से क्या आवाज आई नहीं पता लेकिन ये अपने देश के प्रदर्शन से बहुत खुश दिख रहे हैं। खुश होने वाले को खुश होने के बहाने चाहिए, मातम तो बिन बात के भी मना लेता है आम आदमी।


बीरापट्टी से रेंग रही है ट्रेन, रुकी नहीं है। अभी अंडा ब्रेड वाला निकला है, मैने पूछा, कितने का है? मुझसे कहा, "नहीं है!" मौलाना को बताया, "20 रुपए का दो!" शायद उसने समझा हो, यह नहीं खरीदेगा, टोपी देखकर सोचा हो, मौलाना खरीदेंगे, इसीलिए हमको नहीं बताया, उनको बताया, खरीदा तो उन्होंने भी नहीं। अब मन कर रहा है, फिर आए तो खा कर दिखाऊँ और बताऊँ, "बेटा! मैं भी खा सकता हूँ।" 


ट्रेन बढ़िया चल रही है, आगे शिवपुर स्टेशन है, रुकती है तो उतर जाता हूँ। हाय! नहीं रुकी शिवपुर स्टेशन पर। तेजी से आगे बढ़ गई, अब कैंट स्टेशन के आउटर पर रुकेगी। आउटर आते ही ट्रेन को कोमा में छोड़कर बहुत से यात्री पैदल ही चल देंगे। मेरी हिम्मत पटरी-पटरी पैदल चलने की नहीं है। आउटर आ गया, इत्मिनान से रुक गई ट्रेन। मेरे बगल के यात्री ने अब क्रिकेट देखना शुरू कर दिया है। न्यूजीलैंड की पारी शुरू हो चुकी है।

...@देवेन्द्र पाण्डेय।

लोहे का घर 66

एक चार साल का बच्चा रोते हुए कह रहा है, "यह ट्रेन अच्छी नहीं है, यहाँ से चलो।" माँ चुप करा कर कुछ खाने को दे रही हैं। इनका घर यहाँ से 60 किमी दूर है, नॉन स्टॉप ट्रेन है लेकिन अपने समय से लगातार विलम्बित और विलम्बित होती जा रही है, हर छोटे-छोटे स्टेशन पर 20, 30 मिनट रुक रही है। बच्चे को भूख लगी है, माँ मना रही हैं और बच्चा कह रहा है, "तुम पागल हो! यह ट्रेन अच्छी होती तो अबतक घर नहीं पहुँचा देती?" लगातार कुछ न कुछ बोले जा रहा है। दूसरे यात्री भी ट्रेन की लेट लतीफी से परेशान हैं, बच्चे की बात उनके दिल को छू रही है मगर सिर्फ मुस्कुरा कर देख/सुन रहे हैं। बच्चे की तरह चीख नहीं पा रहे, खुशी नहीं मना रहे।


ट्रेन लेट होने पर लोकल वेंडरों की चाँदी हो जाती है। हमारी आपदा ही उनके लिए अवसर का काम करती है। चाय, रँगा हुआ हरा चना और पानी खूब बिक रहा है।


हिजड़ों का दल नहीं, एक हिजड़ा गुजरा है। सामने बैठे बच्चे के पापा से 10 रुपिया मांग रहा था, उन्होंने बस इतना कहा, "आगे बढ़ो, जब देखो तब माँगने आ जाते हैं! जबरदस्ती है क्या?" हिजड़ा मायूसी से नहीं, झगड़ते/चिल्लाते/गाली देते हुए आगे बढ़ गया, "भीख माँग रहे हैं? पढ़े-लिखे होकर ऐसी बात करते हो? तुम्हारे घर मैय्यत पड़े!"


माँगने वाले भी अधिकार से माँगते हैं! कभी स्वीकार नहीं करते कि माँग रहे हैं! माँगना उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है!!! ये घाट से लेकर हॉट तक, ऑफिस से लेकर सफर तक, कहीं भी पाए जा सकते हैं। आपको एहसास तभी होगा, जब आपका इनसे पाला पड़ेगा और आप देने से इनकार कर देंगे!मैय्यत तक का श्राप दे देंगे!!!


इस मार्ग के हिजड़े हमको अपने स्टॉफ का समझते हैं, बस देखकर मुस्कुराते हैं, कभी-कभी कहते भी हैं, "यह तो अपने स्टॉफ का है, इससे मत माँगो!" हमने एक बार समझाया था, "नाई से न नाई लेत, धोबी से न धोबी, हम भी रोज आने/जाने वाले हैं, तुम लोग भी रोज मिलते हो, कब तक देंगे? जब मन करेगा, खुद ही दे देंगे, हम लोगों से मत मांगा करो।" तभी से इन लोगों ने मेरी बात गाँठ बांध ली है, देखते ही एक दूसरे से कहते हैं,"यह तो स्टॉफ का है।"


मैं लिख रहा था और ट्रेन इत्मिनान से एक लोकल स्टेशन पर रुकी थी, जब बच्चा खुशी से चीखा, "ट्रेन चल दी!" मेरा ध्यान गया, "अरे!ट्रेन तो रुकी थी, अभी चली है!"


जीवन की यात्रा में भी यही होता है, जब आप चलते-चलते देर तक एक ही जगह रुके रहते हैं, कोई काम नहीं करते, सब आपके कारण परेशान रहते हैं, तभी आपकी चेतना जगती है और कुछ कदम चल देते हैं, सभी खुश हो जाते हैं! आपकी गलती भूल जाते हैं, चलो! अब तो रास्ते पर आया, अब पक्का काम करेगा! यह ट्रेन भी कुछ कि.मी. चलकर फिर रुकी, बच्चा फिर चीखा, "यह ट्रेन गंदी है।" फिर चल दी, बच्चा खुशी से फिर चीखा, "ट्रेन चल दी।" 


व्यवस्था ऐसे ही हम सबको बच्चा बनाए हुए है और हम बार-बार इसे गाली दे रहे हैं और खुशी मना रहे हैं। व्यवस्था हमको हिजड़ा बना कर ताली बजवा रही है या खुद ताली बजाकर पैसे माँग रही है! हमें कुछ नहीं पता। हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि हम सफर कर रहे हैं।

....@देवेन्द्र पाण्डेय।

10.1.23

लोहे का घर 65

दून आज खूब लेट आई। 5 बजे आने वाली थी आते-आते शाम के 6.30 के आसपास आई। अभी एक स्टेशन आगे बढ़ी है, लगता है 9 बजाएगी। खूब भीड़ भी है लोहे के घर में। हम लोगों को बैठने की जगह मिल गई यही बहुत है। हम लोग मतलब मेरे अलावा 5 और धैर्यवान रोज के यात्री साथ हैं। स्टेशन के पास खड़े-खड़े ठंड मिटाने के लिए भले कई मुर्गी का और बतख का अंडा हजम कर लेंगे लेकिन ट्रेन से ही जाएंगे, बस से नहीं जाएंगे। जब एक महीने का टिकट बनाएं हैं तो कौन बस का 83 रुपिया खर्च करे! और यह भी कि जो आनन्द ट्रेन यात्रा में है, बस में कहाँ!!!

पीछे के कूपे में कलकत्ता जाने वाले यात्रियों की एक मंडली बैठी है जो खूब भजन कीर्तन कर रही है। लगातार उनके भजन गाने की आवाजें आ रही हैं। चलता हूँ, उनसे अनुमति लेकर एक वीडियो बनाता हूँ। 

सभी मस्त यात्री लग रहे हैं, आनन्द लेना जानते हैं। ट्रेन के लेट होने का मातम नहीं मना रहे, लगता है, जश्न मना रहे हैं। बीच-बीच में वेंडर भी आ/जा रहे हैं। 

ट्रेन अभी भण्डारी से एक स्टॉपेज चल कर जफराबाद में देर से रुकी है। लगता है ट्रेन ने कोहरे के बहाने लेट करने का अधिकार प्राप्त कर लिया है, जबकि अभी कोई कोहरा नहीं है। इस ट्रेन में और देश मे भी उन्हीं का गुजारा हो सकता है जो भक्ति भाव से भजन गाते हुए यात्रा करें। मातम मनाने वालों का न देश में गुजारा है न लोहे के घर में।
..........
नोट: यह वीडियो का लिंक है। यहाँ पोस्ट नहीं हो पाया।

https://youtu.be/aDHTdMQSdv4

6.1.23

बनारस

मणिकर्णिका घाट

बिछी लाशें और जलती चिताओं के ऊपर

एक पतंग उड़ रही थी!

कोई

ठुमका लगा रहा था और वह

ठुमक-ठुमक

उछल रही थी!!!


बगल में

विश्वनाथ धाम है,

हर हर महादेव के नारे लग रहे थे

ये नारे

खुशी के अतिरेक की कहानी कहते हैं।


श्मशान के बगल में

सिंधियाघाट है

ऊपर संकठा माता का मन्दिर है

आज वहाँ

अन्नकूट का शृंगार था।


यह कोई

आज की बात नहीं है,

चिताएं रोज जलती हैं,

पतंग रोज उड़ता है,

हर हर महादेव के नारे रोज लगते हैं

अन्नकूट न सही

माँ संकठा की आरती 

रोज होती है,

इसी का नाम बनारस है।

...............