27.10.22

सुबह की बातें

अभी सूर्योदय नहीं हुआ है। भोर का अजोर है। धमेखस्तूप पार्क में दो चक्कर लगाने, घास में टहलने, व्यायाम करने और 10 मिनट ध्यान करने के बाद इतना उजाला हो चुका है कि फोटोग्राफी की जा सके। यहाँ नीम के कई घने वृक्ष हैं। इसे पार्क को आप नीम पार्क भी कह सकते हैं। कुछ वृक्ष के नीचे चारों ओर घेर का लकड़ी के खूबसूरत बेंच बना दिए गए हैं। यहाँ बैठकर घण्टों ध्यान कर सकते हैं, चिड़ियों की बोली सुन सकते हैं और मोर/मोरनियों को घूमते देख सकते हैं। किस्मत अच्छी है तो मोर के नृत्य भी देख सकते हैं। 

जहाँ हम खड़े हैं उसके उत्तर दिशा में धमेखस्तूप है और दक्षिण में वन विभाग की बाउंड्री वाल है। बाउंड्री के उस पार पर्याप्त संख्या में मृग/चीतल हैं। उजाला होने से पहले सियार भी खूब चीखते हैं। कुल मिलाकर यहाँ का वातावरण बिलकुल प्रदूषण मुक्त और शांत है। कुछ मिनट बैठ कर, पलकें बन्द कर, सिर्फ सुनते रहने में भी आनन्द है। 

https://youtu.be/acAjvbxWPZg 

6.10.22

दड़बा


एक दड़बा था जिसमें निर्धारित संख्या में कबूतर रोज आते/जाते थे। कबूतर न सफेद थे न काले, श्वेत से श्याम होने की प्रक्रिया में मानवीय रंग में पूरी तरह रंग चुके थे। कबूतरों के दड़बे में आने का समय तो निर्धारित था मगर जाने का कोई निश्चित समय नहीं था। दड़बे में रोज आना और अनिश्चित समय तक खुद को गुलाम बना लेना कबूतरों की मजबूरी थी।  उनको अपने और अपने बच्चों के लिए दाना-पानी यहीं से मिलता था। 


यूँ तो देश के कानून ने आने के साथ जाने का समय भी निर्धारित कर रखा था लेकिन जिस शहर के मकान में वह दड़बा था उस जिले में राजा ने कबूतरों को नियंत्रित करने और देश हित के कार्यों के लिए जिस बहेलिए की तैनाती कर रखी थी उसे देर शाम तक कबूतरों के पर कतरते रहने में बड़ा मजा आता था। इसका मानना था कि पर कतरना छोड़ दें तो बदमाश कबूतर हवा में उड़ कर बेअन्दाज हो जाएंगे!  


कबूतर भी जुल्म सहने के आदी हो चुके थे। बहेलिए जब किसी एक कबूतर को हांक लगाता, सभी हँसते हुए आपस में गुटर गूँ करते...'आज तो इसके पर इतने काटे जाएंगे कि फिर कभी उड़ने का नाम ही नहीं लेगा!' थोड़ी देर में पर कटा कबूतर तमतमाया, रुआंसा चेहरा लिए गधे की तरह रेंगते हुए  साथियों के बीच आता और मालिक को जी भर कर कोसता। यह साथी कबूतरों के लिए सबसे आनन्द के पल होते मगर परोक्ष में ऐसा प्रदर्शित करते कि उन्हें भी बेहद कष्ट है!


ऐसा नहीं कि बहेलिया सभी के प्रति आक्रामक था। दड़बे में झांकने वाले कौओं, गिलहरियों, लोमड़ियों, चूहे-बिल्लियों, भेड़ियों या शेर को देखकर गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर था। किसी को डाँटता, किसी को पुचकारता और किसी किसी के आगे तो पूरा दड़बा ही खोल कर समर्पित हो जाता!


एक दिन उद्यान से भटक कर अपने घोसले को ढूँढता, उड़ता-उड़ता एक नया कबूतर दड़बे में आ फँसा! नए कबूतर को देख बहेलिए की बाँछें खिल गईं..'यह तो तगड़ा है! अधिक काम करेगा।' जैसा कि बहेलिए की आदत होती है वे अपने जाल में फँसे नए कबूतरों का तत्काल पर कतर कर खूब दाना चुगाते हैं ताकि वे नए दड़बे को पहचान लें और इसे ही अपना घर समझें। वह भी नए कबूतर पर मेहरबान हो गया। पुराने कबूतर का चारा भी नए कबूतर को मिलने लगा। साथी कबूतर शंका कि नजरों से गुटर गूँ करने लगे..'कहीं मेरा भी चारा यही न हड़प ले!'


नया कबूतर जवान तो न था लेकिन खूब हृष्ट-पुष्ट था।दड़बे में जिस स्थान को उसने बैठने के लिए चुना वह एक युवा कबूतर का ठिकाना था। संयोग से जब नया कबूतर उद्यान से उड़कर आया, वह एक लंबी उड़ान पर था। लम्बी उड़ान से लौट कर जब युवा कबूतर दड़बे में वापस आया  तो उसने अपने स्थान पर नए कबूतर को बैठा हुआ पाया! आते ही उसने नए पर गहरी चोंच मारी। बड़ा है तो क्या ? मेरे स्थान पर बैठेगा? झगड़ा बढ़ता इससे पहले ही साथियों ने बीच बचाव किया और मामला रफा-दफा हो गया। सब समझ चुके थे कि अब यह भी हमारी तरह रोज यहीं रहेगा। नया कबूतर, जो पहले दड़बे में आ कर खूब खुश था, जल्दी ही समझ गया कि मैं गलत जगह आ फँसा हूँ। यह तो एक कैद खाना है! बात-बात में बड़बड़ाता..कहाँ फँसायो राम! अब देश कैसे चलेगा!!!


बहेलिए ने कबूतरों की पल-पल की गतिविधियों की जानकारी के लिए एक #काका_कौआ पाल रखा था। काका कौआ भी मानवीय रंग-ढंग में रंगे कबूतरों के बीच रहते-रहते अपनी धवलता खो कर काला हो चुका था। यूँ तो वह दड़बे की देखभाल के लिए नियुक्त प्रधान सेवक था लेकिन अपने मालिक का आशीर्वाद पा कर हँसमुख और मेहनती होने के साथ-साथ बड़बोला भी हो चुका था। कभी-कभी उसकी बातें कबूतरों को जहर की तरह लगतीं। शायद यही कारण था कि जब काम लेना होता तो सभी कबूतर उसे #काका बुलाते और जब कोसना होता #कौआ कहते! उसका काम था मालिक के आदेश पर कबूतर को दड़बे से निकाल कर उन तक पहुंचाना। जब तक कबूतर ठुनकते, मुनकते हुए मालिक के कमरे तक स्वयं चलकर न पहुँच जाते वह लगातार चीखता-चिल्लाता रहता। न उठने पर हड़काता और मालिक से शिकायत करने की धमकी देता। मरता क्या न करता! काका कौआ को 'कौआ कहीं का!' कहते हुए कबूतर दड़बे से निकल कर मालिक के दड़बे तक जाते। काका कौआ उन्हें हँसते हुए जाते देखता और पीछे से कोई तंज कसते हुए खिलखिलाने लगता। मालिक ने पर नहीं कतरे, सिर्फ धमकी दे कर छोड़ दिया तो वह उड़कर काका को ढूंगता हुआ वापस दड़बे में घुस कर, साथियों के ताल से ताल मिलाकर गुटर गूँ करने लगता।


जैसे सरकारी सेवा में काम करने की एक निश्चित उम्र हुआ करती है वैसे ही यहाँ के कबूतर भी एक उम्र के बाद मुक्त कर दिए जाते थे। उस दिन एक बूढ़े हो चले कबूतर की विदाई थी। साथियों ने धूमधाम से विदाई समारोह मनाया।  विदाई के समय बहेलिए ने भी उसकी लंबी सेवा की सराहना तो खूब करी लेकिन उसके जाने के बाद उसकी गलतियों के दंड स्वरूप उसके द्वारा सेवा काल में बचाए अन्न की गठरी का कुछ भाग जब्त कर लिया और दूसरे कबूतरों से उसके घर खबर भिजवा कर आतंकित करता रहा कि क्यों न तुम्हारे अपराधों के लिए तुम्हें एक काली कोठरी में बंद कर दिया जाय? यह सब देख दड़बे के कबूतर दिन-दिन और भी भयाक्रांत रहने लगे।


सुबह से दड़बे में गुटर-गूँ, गुटर गूँ का स्वर मुखर है। आज सभी कबूतर बहुत खुश हैं। दशहरे की लम्बी छुट्टी हो रही है। सभी को छुट्टी से पहले दाने की मोटी गठरी मिलने वाली है। उद्यान वाले ने तो छुट्टियों में परिवार सहित लम्बी उड़ान पर जाने का निश्चय कर लिया है। दूसरा कबूतर भी दूसरे राज्य में अपने पुराने मित्रों से मिलने जा रहा है। अधिकांश का कहना है हम तो त्योहार अपनी कबूतरी और बच्चों के साथ मनाएंगे। सभी के अपने-अपने हौसले, अपने-अपने सपने हैं। आजादी कितनी प्यारी होती है! 

(काल्पनिक कथा)

4.10.22

सुबह की बातें-12

पत्ते झरते हैं तो शोर नहीं होता। पत्ते उगते हैं तो शोर नहीं होता। हम चीख कर रोते हुए जन्म लेते हैं। गूंगे पैदा हुए तो भी दूसरे शोर करते हैं..लड़का हुआ है/लड़की हुई है! मरते हैं तो भी शोर होता है..राम नाम सत्य है। नहीं, मुर्दे को नहीं सुनाते। चुपचाप खुद स्वीकार भी नहीं करते, राह चलते दूसरों को सुनाते हैं..जगत मिथ्या है, राम नाम ही सत्य है! कितने तो ढोल, नगाड़े बजा कर निकालते हैं शव यात्रा। मसान से लौटने के बाद राम नहीं सिर्फ काम ही काम। हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक एक कोलाहल है। पत्ते खामोशी से उगते, जीवन भर हँसते और एक दिन चुपचाप झर जाते हैं। हम शांतिदूत की तरह पत्ते कोई शोर नहीं करते।  

...@देवेन्द्र पाण्डेय।



सुबह की बातें-11

सुबह के 6 बज चुके हैं। जैन मंदिर सारनाथ के पुजारी आ चुके हैं। मन्दिर का गेट खोलने के बाद इनका पहला काम परिंदों को दाना देना है। इनके पास बिस्कुट भी होता है। गेट खोलते समय कुछ कुत्ते दिख गए तो उन्हें प्यार से बिस्कुट भी खिलाते हैं। धमेख स्तूप पर बैठे कबूतरों को इन्ही की प्रतीक्षा होती है। जैसे ही पुजारी दाने बिखेरते हैं, कबूतर उड़-उड़ कर आने लगते हैं। जैसा कि होता है, जब सरकार निर्धनों को अन्न बांटती है, कुछ सबल भी दान लूटने आ जाते हैं। वैसे ही जब पुजारी पंछियों के लिए दाने बिखेरते हैं, दाना चुगने कुछ कौए भी आ जाते हैं! अधिक शोर भी यही करते हैं। कुछ गिलहरियां भी आ जाती हैं। हम ट्वीटर पर ट्वीट करते हैं, ये परिंदे यहाँ खूब चहकते हैं।



सुबह की बातें-10

सुबह-सुबह घने नीम के वृक्षों से धमेख स्तूप तक अनवरत उड़ते रहने वाले तोते सन्डे नहीं मनाते। कोई ऑफिस नहीं, कोई छुट्टी नहीं। ये जब स्तूप से उड़कर वापस नीम की शाखों पर बैठते हैं तो कुछ कौए काँव-काँव करने लगते हैं। ऐसा लगता है जैसे नास्तिक पितृपक्ष में ब्राह्मणों के भोजन का उपहास उड़ा रहे हों! तोते भी टांय-टांय कर प्रतिरोध करते हैं। 


धूप तेज हो चली है। घने नीम से अनवरत एक-एक कर पीले पत्ते झर रहे हैं। कोयल के साथ पेड़की ने खूब समा बांधा है।  ये क्या कहते हैं, कुछ समझ में नहीं आता।  गिलहरियों का फुदकना बदस्तूर जारी है। लॉन में कई प्रकार के पौधे हैं मगर कोई आपस में नहीं झगड़ते। कोमल लताएँ सूखे वृक्ष के सहारे ऊपर तक चढ़ जाती हैं। कोई किसी की टांग नहीं खींचता। 


झाडू लगाने वाला आ चुका है। उसने झाड़ू से पत्तों को एक स्थान पर इकट्ठा कर लिया है, जिस पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें पड़ रही हैं। ऐसा लगता है जैसे झाड़ू वाले ने झाड़ू लगाकर कुछ सोना इकठ्ठा कर लिया है! अब चलना चाहिए। आज की सुबह रोज की तरह आनंद दायक रही।

....@देवेन्द्र पाण्डेय।