12.7.17

अब तो दर्शन दे दे

धोबियाsss
धुल दे 
मोरी चदरिया 
मैं ना उतारूँ 
ना
एक जनम दूँ
खड़े-खड़े मोरी 
धुल दे चदरिया!

आया तेरे घाट बड़ी 
आस लगा के
जाना दरश को 
शिव की नगरिया
धुल दे चदरिया।

रंगरेजवाsss
रंग दे 
मोरी चदरिया 
मैं ना उतारूँ 
ना
एक जनम दूँ
खड़े-खड़े मोरी 
रंग दे चदरिया

जइसे उजली 
धुली धोबिया ने
वइसे प्रेम रंग 
रंग दे चदरिया 
आया तेरे घाट बड़ी 
आस लगा के
जाना दरश को 
शिव की नगरिया
रंग दे चदरिया।

भोलेsssss
अब तो दर्शन दे दे
धोबिया धुल कर साफ कियो है
प्रेम रंग रँगायो
साफ है मोरी चदरिया
भोलेsss
अब तो दर्शन दे दे।
.........

8.7.17

बरसात

उमड़-घुमड़ जब बादल गरजते हैं तो मनोवृत्ति के अनुरूप सभी के मन में अलग-अलग भाव जगते हैं। नर्तक के पैर थिरकने लगते हैं, गायक गुनगुनाने लगते हैं, शराबी शराब के लिए मचलने लगता है, शाबाबी शबाब के लिए तो कबाबी कबाब ढूँढने लगता है। सभी अपनी शक्ति के अनुरूप अपनी प्यास बुझाकर तृप्त और मगन रहते हैं लेकिन कवि? कवि एक बेचैन प्राणी होता है। किसी एक से उसकी प्यास नहीं बुझती। जिधर देखो उधर टाँग घुसाता नजर आता है। यत्र तत्र सर्वत्र बादलों के साथ मंडराना चाहता है। कवि बरसात पर कविता नहीं लिखता, खुद बरसात हुआ जाता है!

बरसात के मौसम में जब कवियों की याद आती है तो सबसे पहले उन कवियों की कविता याद आती है जिन्हें खुद कवि के मुखारविंद से सुनने का सौभाग्य मिला हो या फिर वो जिसे हम पाठ्य पुस्तक में पढ़ते, गुनते, गुनगुनाते हुए जवान हुए हों। जब बादल उमड़ते घुमड़ते हैं मुझे तो सबसे पहले स्व० कवि चकाचक बनारसी की कविता याद आती है...

बदरी के बदरा  पिछवउलस, सावन आयल का!
खटिया चौथी टांग उठउलस, सावन आयल का!!

बादल केवल घिर कर रह जाते हैं, ताकते रहो बरसते ही नहीं तो सुरेंद्र वाजपेयी के गीत की दर्द भरी एक लाइन याद आती है...

तुमने बादल को आते देखा होगा
हमने तो बादल को जाते देखा है!

बादल बरसते ही नहीं, सूखा पड़ जाता है। तो आधुनिक तुलसी दास कवि बावला किसान का दर्द सुनाते थे...
तोड़ि के पताल के आकाश में उछाल देबे
ढाल देबे पानी-पानी पूरा एक दान में।
रूठ जाये अदरा अ बदरा भी रूठ जाये
भदरा न लागे देब, खेत-खलिहान में!

कवि कहाँ नहीं पहुँचता! किसके खुशी से खुश, किसके दर्द से बेचैन नहीं होता! शायद इसीलिए कहा गया है..जहाँ न पहुँचे रवि, वहॉं पहुँचे कवि! धान रोपती महिलाओं को देखा तो गीत गाया, शराबी के पाँव फिसले तो गीत गाया। किसी ने टोका तो झल्लाया....

हम पथरे पे दूब उगाइब, तोरे बाप क का?
जामुन सालीग्राम बनाइब, तोरे बाप क का?
पूरे सावन बम बम बोलब, तोरे बाप क का?
तोता से मैना लड़वाइब, तोरे बाप क का?

रात भर उमड़ घुमड़ कर बादल बरसे। खेत मे सुबह पानी की एक बूंद नहीं दिखी! पीले मेंढक ने सर उठा कर बूढ़े झिंगुर से पूछा..

बादल गरजे
रात भर बारिश हुई
हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा
यार!
सब दिखता है
मगर जो दिखना चाहिये
वही नहीं दिखता
हमें कहीं वर्षा का जल नहीं दिखता?

बूढ़ा झिंगुर
हौले-हौले झिनझिनाते हुए बोला..

कुछ तो
बरगदी वृक्ष पी गये होंगे
कुछ
सापों के बिलों में घुस गया होगा
हमने
दो पायों को कहते सुना है
सरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है
फटाफट सूख जाता है
वर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान
हो गया होगा!

3.7.17

नाता

बाहर
लाख अँधेरा हो
उजाला है
लोहे के घर में

मौन हैं
अंधेरे में डूबे हुए खेत
हलचल है
घर में

बाहर भी
श्रमिक थे, किसान थे
जब तक
सूरज था
सूरज के डूबते ही
मौन हो गये खेत

उजाले के साथ
शोर का
अँधरे के साथ
मौन का
गहरा नाता दिखता है!

मौन थे
बुद्ध भी
जब तक अँधेरा था

अँधेरा हो
तो चुप रहना चाहिये
अँधरे में
परिंदे भी
खामोश रहते हैं
मेंढक, झिंगुर के अलावा
कोई शोर नहीं करता।

बाहर का संसार

पटरी के किनारे
मालगाड़ी से
सीमेंट की बोरियाँ उतारकर
बीड़ी, खैनी के साथ
बतकही कर रहे हैं
ढेर सारे मजदूर

चीखता है
ट्रेन का इंजन
घबरा कर उड़ते हैं
खेतों में
चुग रहे पँछी
खुश होते हैं हम
लोहे के घर की खिड़की से
इन्हें देखकर!

खेतों में
जमा हो रहा है
बारिश का पानी
किसी ने करी है गुड़ाई
कहीं जमा हैं
घास
कहीं-कहीं
दिख जाते हैं
धान के बीज वाले
चौकोर टुकड़े

बाँसवारी में
लटके हुए बांस की टहनी पकड़कर
ऊपर चढ़ने का प्रयास कर रही है
एक बकरी
बगल में
आम के पेड़ पर चढ़कर
झूला झूल रही है
एक लड़की

मेढ़-मेढ़
पुराना टायर लुढ़काता
भागा जा रहा है
एक लड़का

दूर-दूर तक फैली है
बारिश के बाद की
चटक धूप
अभी कुम्हलाए नहीं हैं
नेनुआ के पीले फूल
अभी
खिलखिला कर
हंस रहा है
सूरजमुखी

खेतों के बीच से
बिछाई जा रही है
गैस की मोटी पाइप लाइन
जिसके मुँह में
ताक/झाँक रहे हैं
गदेले
विकास की अंधेरी सुरंग का रास्ता
ये क्या जाने!
इन्हें तो मजा आ रहा है
एक कदम चढ़कर घुसने
फिर धप्प से कूद कर
ताली बजाने में

पटरी पर
चल रही मेरी गाड़ी
बैठे-बैठे देख रहा हूँ
बाहर का संसार।

2.7.17

बारिश में भीगे?

सुहानी शाम आई
मन सशंकित हो गया
तेरे शहर में
आज बारिश हुई होगी!

खुद से खपा
दिन भर का तपा
ठंडी हवाओं के स्पर्श से भी
चकरा जाता है

बारिश में भीगे?
माटी की सोंधी सुगन्ध पा आल्हादित हुए?
या तपते रहे मेरी तरह
दिन भर?

लोहे के घर की खिड़कियों से
आ रही है ठंडी हवा
घास के बोझ का गठ्ठर सर पर लादे
पगडण्डी-पगडण्डी
चल रही दो महिलाओं के साथ
दो बच्चियाँ भी हैं
बच्चियों के सर पर भी
उठा सकने वाला गठ्ठर है
चारों खुश दिख रही थीं
मन वांछित बोझ
मिल गया होगा आज! 

खुशी
ठंडी हवाओं की मोहताज थोड़ी न है 
चुहचुहाते पसीने में भी 
दिखती है हंसी!

सूखे खेत मे
दौड़ा-भागा जा रहा है
एक कुत्ता
दूर झुग्गी से
उठता धुँआ देख लिया होगा!

इधर रोशनी कम हुई
उधर जलने लगे बल्ब
निःसन्देह
धरती पर
मनुष्यों का राज है।