20.7.14

लोहे के घर से........2

जब यात्रा लम्बी होती है तो कभी-कभी पैसिंजर ट्रेन के यात्रियों को भी करना पड़ता है ए.सी. में सफ़र। यात्री पुराना किताबी कीड़ा हुआ, नयाँ-नयाँ ब्लॉगर हुआ, हजारों मित्र सूची वाला फेसबुकिया हुआ और लैपटॉप नेट का जुगाड़ साथ-साथ लिये घूम रहा है तब तो  फिर कोई चिंता नहीं। सफ़र तीन दिन का हो या चार दिन का। जब तक सर पर सवार होकर कोई कैटर खाना-खाना न खड़खड़ाये तब तक वह होश में आने वाला नहीं। लेकिन यदि इनमे से कुछ नहीं हुआ। पैसिंजर ट्रेन में सुर्ती ठोंककर, मूँछें ऐंठकर, धुरंधर राजनैतिक बकवास करने वाला हुआ तब तो उसका बेड़ा गर्क हुआ समझिये। सफ़र पूरा होने तक वह पागल न हुआ तो यह तय मानिये कि एकाध शरीफ यात्री के शराफत की चादर जबरी खींचकर उनसे दो-दो हाथ जरूर कर चुका होगा।

यहाँ चारों तरफ अजीब शराफती माहौल है। कोई किसी से बात नहीं कर रहा। सभी शराफ़त की धुली चादर ओढ़े अपने-अपने बर्थ पर लेटे हैं। बनारस से चेन्नई तक के सफ़र में वैसे भी तमिल भाषी यात्री अधिक मिलते हैं। कभी-कभार जब वे आपस में बातें कर रहे होते हैं या फोन से बतिया रहे होते हैं तो उनकी भाषा को ध्यान से समझने का प्रयास कीजिए। कुछ संस्कृत से मिलते शब्द लगते हैं लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ता। हाँ, पढ़े-लिखे हैं तो हर वाक्य में हिंदी नहीं अंग्रेजी जरूर लपेटे रहते हैं। हिंदी से इनका कोई पुराना वैर लगता है। अंग्रेजी के एक शब्द से और बोलने के अंदाज से पूरे वाक्य का थोड़ा बहुत अनुमान लगाया जा सकता है कि बात किस दिशा में हो रही है। कभी कोई बच्चा माँ के अनुरोध पर अंग्रेजी पोयम सुनाता है तो सुनकर अपार हर्ष होता है कि यह तो मेरा बेटा भी सुनाता था! मतलब हम एक ही देश के निवासी है।

सुबह का समय है। बंद शीशे के पार धरती का अपार विस्तार है। खेत तेजी से पीछे भाग रहे हैं। कभी कभार दो बैलों की जोड़ी लिये किसान दिख जा रहे हैं। इससे पता चलता है कि दक्षिण भारत में अभी भी किसान बैलों की सहायता से खेतों की जुताई करते हैं। दो बैलों की जोड़ी के महानायक मुंशी प्रेमचंद जी के पूर्वांचल में तो बैल प्रायः लुप्त हो चुके हैं। नाले जैसी इक नदी यहाँ भी दिखी। यह जरूर कंकरीट के जंगल से होकर आई होगी। दो सफेद बगुले यहाँ भी दिखे। एक स्टेशन गुजरा। यात्रियों की थोड़ी-सी भींड़ मेरी भागती ट्रेन को कौतूहल से निहार रही थी। यहाँ के खेत जंगल जैसे फैले हैं। हमारे पूर्वांचल में तो ट्रेन से जिधर देखो जोते, बोये खेत ही दिखते हैं। फिर दो बैलों की जोड़ी लिये हल चलाता किसान दिखा। फिर जंगल। इन जंगली पौधों, वृक्षों के नाम के मामले में मेरा ज्ञान कम है वरना आपको उनके नाम लेकर बताता । सामने पहाड़ियाँ दिखने लगीं। इन पहाड़ियों के नाम भी मुझे नहीं मालूम। बड़े साहित्यकार कैसे जर्रे-जर्रे की पड़ताल करके लिख देते हैं! L अपन को तो कुछ ज्ञान ही नहीं। धूप आ गई। कोई बदली हारी होगी। बंद शीशे से हवा भले न घुस पाये धूप तो घुस ही जाती है..बेधड़क। आगे खेत सुंदर दिख रहे हैं। अरहर जैसे लेकिन अरहर नहीं हैं। कुछ भुट्टे भी रोपे गये हैं। कुछ भैंसे लेकर एक ग्रामीण महिला खड़ी थी। सफेद बगुला यहाँ भी बैठा था एक भैंस की पीठ पर। ये बगुले भैंस की पीठ पर हर जगह बैठ जाते हैं। क्या उत्तर, क्या दक्षिण। मंडेला जीत गये मगर लगता है भैंस की पीठ पर बगुलों का शासन कभी खत्म नहीं होगा।

पहाड़ियाँ नजदीक आ रही हैं। हरी-भरी हैं। सतना की पहाडड़ियों की तरह पथरीली नहीं हैं। दूर पहाड़ियाँ, फैले खेत, बीच-बीच में छोटे-छोटे मकान और सामने रेल की एक पटरी सभी साथ-साथ चल रहे हैं। ढेर सारी रेल की पटरियाँ दिख रही हैं। लगता है कोई स्टेशन आने वाला है। छोटा स्टेशन था, ट्रेन नहीं रूकी। आज हम बड़ी ट्रेन के यात्री हैं। छोटों के मुँह नहीं लगते। फिर सामने फैला खेत। ट्रैक्टर से खेत जोतता किसान भी दिखा। बिजली के बड़े-बडे जालीदार खंबे, इर्द-गिर्द उड़तीं छोटी-छोटी चिड़याँ। ढेर सारे अर्ध निर्मित फ्लैट्स। ओवर ब्रिज भी दिखा। लगता है आदमियों के लाखों घोंसले वाला कंकरीट का कोई बड़ा जंगल करीब आ रहा है। शायद विजयवाड़ा।

एक यात्री ने बताया कि तमिल का संस्कृत से कोई संबंध नहीं है। हम जैसे हिंदी नहीं जानते वैसे संस्कृत भी नहीं जानते। मुझे आश्चर्य हुआ। दक्षिण भारतीय लोग ईश्वर के प्रति ग़ज़ब के आस्थावान होते हैं। इनकी शिव भक्ति तो बनारस में रोज देखता ही आ रहा हूँ। इन्हे संस्कृत के एक भी श्लोक याद नहीं! इनके श्लोक भी तमिल में ही होते होंगे। इसका एक अर्थ यह भी समझा जा सकता है कि तमिल साहित्य इतना समृद्ध है कि उसे संस्कृत या हिंदी के मदद की कोई आवश्यकता ही नहीं है! हम तो यही समझते थे कि पंडित वही जो संस्कृत में श्लोक पढ़े। मैने यात्री से कहा कि शिव जी तो संस्कृत ही समझते हैं तो वह हँसने लगा—नहीं, शिव जी तमिल हैं। उनकी आस्था, उनके विश्वास को नमन।


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नोटः- यह सब फेसबुक में यूँ ही लिखता और शेयर करता चला गया। जब अंतिम पैरा शेयर किया तो कुछ बढ़िया कमेंट आये जिससे बात और साफ़ हुई...

सनातन कालयात्री दोनों भाषायें एक दूसरे से समृद्ध हुई हैं। संस्कृत के नीर, मीन आदि शब्दों के मूल दक्षिणी हैं। आज संस्कृत के प्रमाणिक विद्वानों का अधिकांश तमिल या दक्षिण मूल से है, बनारस तो इस मामले में मृतप्राय है। रही बात संस्कृत से अनजान होने की बात तो वे सज्जन द्रविड़ आन्दोलन से प्रभावित रहे होंगे। शिव संश्लिष्ट देव हैं उत्तर के रुद्र और दक्षिण के शंकर मिल कर शिव सुन्दर हो गये। उनसे पूछना था दक्षिणी शिव सुदूर उत्तर कैलाश में क्यों रहते हैं? और गंगा का पानी रामेश्वरम को क्यों चढ़ता है? 

Kajal Kumar तमिल , दुनि‍या की ऐसी अकेली प्राचनीतम भाषा है जो आज भी बोली जाती है. अन्‍य प्राचीन भाषाएं आज नहीं बोली जातीं. तमिल समाज में, अन्‍य समाजों की तरह यह बताने के लि‍ए पंडि‍तजी/काजी/मौलवि‍यों आदि‍ जैसे भाषावि‍शेषज्ञों की आवश्‍यकता नहीं पड़ती कि‍ फलां कि‍ताब में जो लि‍खा है, उसके मायने क्‍या हैं. तमि‍ल संस्‍कृति‍ में तांत्रि‍कता का महत्‍व भी नगण्‍य है.

कमेंट्स को पढ़कर इस विषय में और जानने की इच्छा हुई तो गूगल में सर्च किया। ब्लॉग जगत में एक शानदार पोस्ट हाथ लगी। आदरणीय प्रतिभा सक्सेना जी की यह पोस्ट तमिल और संस्कृत का अंतः संबंध उजागर करती है। पठनीय है। लिंक यह रहा.. तमिल और संस्कृति का अंतः संबंध


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14.7.14

ढल रहा था दिन......



अकेले लेटा था

भागते घर के ए.सी. कमरे में

साइड वाले बिस्तर पर

सामने थी

शीशे की बंद खिड़की

पर्दा

आधा खुला था

दिख रहे थे

ठहरे हुए बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े

तेजी से पीछे भागती

वृक्षों की फुनगियाँ

ढल रहा था दिन

हुआ एहसास

घर ही नहीं

भाग रही है

पूरी धरती ही।


अचानक से चाँद दिखा

चलने लगा साथ-साथ

ऐसे

जैसे पीछा कर रहा हो मेरा

युगों-युगों से

मैं मचला

जैसे मचलते हैं

लड़के

बादल सिंदूरी हो गये

मन कस्तूरी हो गया।


कुछ ही पलों के बाद

आगे यह भी हुआ

घर को

अँधेरी सुरंग ने छुआ

एक बाद दूसरी

दूसरी के बाद तीसरी

जब तक कटता

सुरंगों का सफ़र

चाँद

अँधेंरेमें

कहीं गुम हो चुका था।
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7.7.14

चींटी और पहाड़


चींटियों को
घर-आँगन
अन्नकण मुँह में दबाये
पंक्तिबद्ध हो
आते-जाते ही देखा है न?

तपती रेत में
अपने सर पर पहाड़ लादे
दिशा हीन
इधर-उधर भागते तो नहीं देखा ?

कल देखा तो एकदम से डर गया!
चीखने लगा...

रूको!
मूर्ख चींटियों
पेट
चीनी के एक दाने से भी छोटा
और सर पर लादे भाग रही हो पहाड़!!!

मेरी चीख से
लड़खड़ा गये
एक चींटी के कदम
सर से गिरकर
लुढ़कने लगा पहाड़
पहाड़ के साथ खाई में गिरकर
मर गया
एक हाथी का बच्चा
बच्चे के मरते ही
हवा से बातें करने लगा
पागल हाथियों का झुण्ड।

चींटी ने मुझे
डांटते हुए कहा....

मूर्ख !
क्या मैं इतना भी नहीं जानती
कि मेरा पेट
चीनी के एक दाने के बराबर है ?
पहाड़ ढोती हूँ तो क्या खा सकती हूँ पूरा ?

एक अन्नकण के लिए
पहाड़ ढोना
मेरी नीयति है
पेट से अधिक
कौन खा पाता है भला?

मैं समझ नहीं पाया
बोलते-बोलते चींटी बड़ी होती जा रही थी
या मैं
चींटी की तरह छोटा !

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बारिश



बारिश के मौसम का मजा यह भी है कि अंधेरी रात में घर में बिजली न हो, इंनवर्टर भी जवाब दे गया हो और हल्की-हल्की फुहार के बीच बिजली की प्रतीक्षा में आप छत पर टहल रहे हों। दाहिनी ओर फैले खेत से मेंढ़कों और झिंगुरों की जुगल बंदी के बीच किसी अजनबी पंछी की टेर रह-रह कर सुनाई दे रही हो। बायीं ओर कंदब के घने वृक्षों के बीच बेला के फूल चमक रहे हों। बांसुरी हाथ में हो पर बजाते हुए भय लग रहा हो कि कहीं कोई सर्प सुनते हुए ऊपर न चढ़ जाये। इतने में बिजली आ जाय और आप वापस फेसबुक में मूड़ी घुसेड़ कर सुख का अनुभव करें! 

जब छत पर टहल रहे हों तो बिजली की प्रतीक्षा करें और जब फेसबुक से जुड़े हों तो प्रकृति के आनंद को याद करें। मन कितना चंचल है!!!


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सुबह छत पर गया तो देखा कॉलोनी की कच्ची सड़क पर खूब पानी जमा है। मतलब जब मैं गहरी नींद में था तब जमकर बारिश हुई होगी। पहली बारिश के बाद जो पीले मेंढक दिखाई पड़ रहे थे वो कहीं गुम हो चुके हैं। रात में सभी मिलकर टरटराकर शंखनाद कर रहे थे अभी हरे-हरे, डरे-डरे दिखाई दिये। पंछियों की चहचहाहट ही सुनाई पड़ रही है। वक्त एक समान नहीं होता। बेला के कुछ फूल पानी से गलकर सड़ चुके थे, कुछ जमीन पर झड़े थे और कुछ पूरी तरह खिल कर चमक रहे थे। जो आज चमक रहे हैं वे कल झड़ जायेंगे, जो आज जमीन पर गिरे हैं वो कल सड़ जायेंगे और बहुत सी कलियाँ भी हैं जिन्हें कल खिलना है। रात में कंदब दिखाई नहीं पड़ रहे थे सुबह शाख से लटके झूम रहे थे। 

बदली अभी भी घिरी है। सूरज कोशिश कर रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई शरारती बच्चा बार-बार पर्दा हटाकर कमरे में झांक रहा हो और माँ के आँख दिखाने पर छुप जा रहा हो।

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दोपहर से बारिश बंद है। मौसम ठंडा है। घर लौटते वक्त अंधेरे में बाइक की हेडलाइट के आगे बहुत से पतिंगे आ रहे थे। धूल नहीं थी इसलिए चश्मा नहीं पहना। दूर नहीं जाना था इसलिए हेलमेट भी नहीं लगाया। पतिंगों को शायद इसी का इंतजार था। आँखों में ऐसे घुसे आ रहे थे जैसे यही इनका घर है। जैसे तैसे घर आया तो दरवाजे पर ढेर सारे पतिंगे। कमरे में घुसते ही बिजली बंद किया। दरवाजे की खिड़कियों पर जाली लगी है मगर न जाने कहाँ-कहाँ से पतिंगे घुस जाते हैं! अभी भी लैपटाप की स्क्रीन पर दो चार मंडरा रहे हैं। जवानी के दिनो में एक शेर गुनगुनाता था...पता नहीं किसका लिखा है...

कितने परवाने जले राज़ ये पाने के लिए
शमा जलने के लिए है या जलाने के लिए।

फिर आगे कुछ ऐसा था....

शमा की गोद में जलते हुए परवाने ने कहा
क्यूँ जला करती है तू मुझको जलाने के लिए।

परवाने तो हैं मगर शमा का स्थान ट्यूब लाइट या शेफल बल्ब ने लिया है। पंतगे इनमें पर तोड़-तोड़ कर गिर रहे हैं। मर रहे हैं मगर न शमा है न शमा की गोद। कितने बदनसीब है आज के परवाने। शमा पर मरते तो हैं मगर जलने का आनंद भी नहीं ले पाते!


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अभी छत से टहल कर आ रहा हूँ। अजीब सा सन्नाटा पसरा है। कंदब, आम, सागौन और बेला सभी स्तब्ध हैं। न फिज़ाओं में हवा की सरगोशी, न गगन में बादलों की आवाजाही, न शाखों का हिलना, न कल की तरह मेंढकों की टर टर। मैने पूछा- इतना सन्नाटा क्यों पसरा है भाई? कोई कुछ नहीं बोला। एक चमगादड़ इधर से उधर उड़ा। सागौन के वृक्ष में छुपे कुछ जुगनू हंसते हुए चमक दमक मचाने लगे। सन्नाटे में दूर दूर तक बस झिंगुरों का शोर ही सुनाई पड़ रहा था। तभी एक मेंढक की टर टर सुनाई दी...

झिंगुरों से पूछते, खेत के मेंढक 

बिजली कड़की
बादल गरजे
बरसात हुयी

हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा

मगर जो दिखना चाहिए 
वही नहीं दिखता !

यार ! 
हमें कहीं, 
वर्षा का जल ही नहीं दिखता !

एक झिंगुर 
अपनी समझदारी दिखाते हुए बोला-

इसमें अचरज की क्या बात है !

कुछ तो 
बरगदी वृक्ष पी गए होंगे

कुछ 
सापों के बिलों में घुस गया होगा

मैंने 
दो पायों को कहते सुना है

सरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है 
फटाफट सूख जाता है !

हो न हो
वर्षा का जल भी 
सरकारी अनुदान हो गया होगा..! 


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नोटः-बहुत दिनों से ब्लॉग में कुछ लिख नहीं पा रहा हूँ। एक दिन फुर्सत का मिला तो फेसबुक में ही जुटा रहा। वहाँ लिखे स्टेटस को यहाँ कापी-पेस्ट करके एक पोस्ट बना दी। उन मित्रों के लिए जो फेसबुक से नहीं जुड़े हैं।