31.1.16

लोहे के घर से-9


आज फिफ्टी डाउन कैंसिल है और किसान लेट। ‪#‎ट्रेन‬ के पड़ाव तक जाने का मन ही नहीं किया। बस स्टेशन से बस पकड़ा और चल दिये। खचाखच भरी है बस लेकिन अजीब सी मुरदैनी छाई है! कुछ लोग यहाँ भी खड़े हैं। Sanjay Singh दौड़ कर चढ़ गये वरना हम भी शामिल होते खड़े यात्रियों में। जब से चले हैं तब से थरथरा रहे हैं। बिना भूकम्प आये हिल रहे हैं। लिखना दुश्वार है। जलाल गंज पुल के ऊपर से मस्तानी चाल में चलती थी ट्रेन तो पुल किसी आशिक की तरह थरथराता था। यहां तो पुल हाथी की तरह शांत खड़ा है बस चूहे की तरह उछल रहा है!
मजा नहीं आता बस की यात्रा में। बस में चलते हुये लगता है कि यात्रा कर रहे हैं। लोहे के घर का एहसास नहीं होता। एक घण्टे की यात्रा में चार जगह तो रुकती है बस। कुछ रुकते हैं, कुछ चढ़ते हैं, कंडक्टर चीखता है-टिकट-टिकट। फिर कुछ देर बाद चीखता है-पैसे बाकी हैं तो लीजिये। मतलब कुल मिलाकर एक उबाऊ यात्रा का माहौल। ट्रेन में लगता है जैसे घर में बैठकर मित्रों से गप्प लड़ा रहे हैं। कभी मूँगफली खा रहे हैं, कभी चाय पी रहे हैं तो कभी तास खेल रहे हैं। बस मंजिल तक पहुँचने की मजबूरी है तो ट्रेन सफ़र का आनन्द।


आज अमृतसर-हावड़ा एक्स्प्रेस ‪#‎ट्रेन‬ 50 डाउन में काफी भीड़ थी। बोगी-बोगी बैठने के लिए सीट तलाशते थक गए। भीड़ का कारण पंजाबी तीर्थ यात्रियों का प्रकाशोत्सव मनाने के लिए पटना साहिब जाना था। मुश्किल से जालंधर से पटना जा रहे एक पंजाबी परिवार से दया प्राप्त करने में सफल रहा। बैठने पर पता चला इससे पहले एक यू पी के सज्जन को अपनी सीट पर बिठाने का उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा। उसने जाते-जाते उनके साथ बदतमीजी की थी। मुझे अपनी बातों से उन्हें संतुष्ट करने में कुछ वक्त लगा कि सभी लोग एक जैसे नहीं होते। मुझसे मिलकर वे संतुष्ट और प्रसन्न दिख रहे थे। काशी और गंगा के बारे में वे मेरे मुख से बहुत कुछ जान चुके तो मैंने गुरु गोविंद सिंह के बारे में पूछा। उन्होने बस इतना बताया कि उनका जन्म पटना में हुआ था और तो अथाह सागर है! फिर मैंने गूगल महाराज की शरण में जाना उचित समझा।
गूगल महाराज से जाना कि गुरु गोविंद सिंह का बचपन का नाम गोविंद राय था। बैसाखी वाले दिन गोविंद राय से गुरु गोविंद सिंह बन गए थे। खालसा पंथ की स्थापना की। सिखों के 10वें गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
वाकई अथाह सागर है गुरु गोविंद सिंह जी का परिचय। वे मुझे कितना बताते! हरिमन्दिरजी पटना साहिब में 349वां प्रकाशोत्सव धूम-धाम से मनाया जा रहा है। शेष जानकारी और अपना अनुभव आप भी बांटें तो आनंद आए।
बारिश हुई, ठण्ड बड़ी, ‪#‎ट्रेन‬ कैंसिल
यात्री परेशान
किसानो के चेहरे की 
लौटी मुस्कान

धुले-धुले
खिले-खिले
अरहर और सरसों
तुम मिलो आज
न कल, न परसों

भूल गया
शेखर एक जीवनी
याद है-
बाड़े पर पोस्ते
खेत फुली कुसुम्मी
पीली चोली वाली री!
दे जा एक चुम्मी।
‪#‎टाटा‬ पर बैठकर टाटा करते चले गये कई रोज के यात्री। ‪#‎49अप‬ भी आ गई। थोड़ी विलम्ब से आई और देर से खड़ी है। बनारस पहुँच कर जोर की अंगड़ाइयाँ ले रही होगी और प्रधान मंत्री जी के शहर को छोड़ने का मन नहीं कर रहा होगा। लगता है मेरी बात सुन कर शर्मा गई, चली हंस की चाल!
टाटा वही ‪#‎ट्रेन‬ है जिससे कटकर लगभग 6 माह पहले अपने एक साथी की मृत्यु हो गई थी। टाटा जौनपुर में नहीं रुकती, बनारस के बाद अगला पड़ाव फैजाबाद है। साथी जफराबाद स्टेशन पर जब ट्रेन धीमी होती है, दौड़कर आउटर पर ही उतर जाते हैं। जिनकी मृत्यु हुई थी वे जफराबाद स्टेशन के आउटर पर उतरने के लिए निचले पाँवदान पर खड़े थे, इतने में प्लेटफॉर्म आ गया और एक पैर उसी में फँसकर उलझ गया था। दुर्घटना में प्लेटफॉर्म से रगड़कर सीने की हड्डियाँ भी टूट गईं थीं और उनकी दुखद मृत्यु हो गई थी।
इस घटना के बाद कई सप्ताह तक लोग टाटा से नहीं गए। स्टेशन पहुँचने पर घर से फोन आते थे-टाटा से तो नहीं गए? और लोगों को सफाई देनी होती थी- नहीं, टाटा से नहीं गए। लगता है लोग उस घटना को धीरे-धीरे भूल चुके हैं और फिर टाटा से जाने वालों की संख्या बढ़ रही है। अभी भी बहुत से यात्री टाटा से नहीं जाते और थोड़े देर से ही सही, सुरक्षित यात्रा करना चाहते हैं। ऐसे यात्रियों की संख्या अधिक है।
कड़ाके की ठण्ड पड़ रही है। लोग कनटोप, मफलर ओढ़े भारी जैकेट की बाहों से उँगलियाँ बाहर निकाले अखबार पढ़ रहे हैं या मोबाइल चला रहे हैं। पीछे की सीट से 'आत्महत्या पर राजनीति' प्रकरण पर चल रही बहस के कुछ शब्द सुनाई पड़ रहे हैं। लोहे के घर की शीशे वाली खिड़कियाँ बन्द हैं। अरहर और सरसों के खेत के साथ गोहरी पाथती ग्रामीण महिलाएं भी दिख रही हैं। सुंदरता श्रम का उपहार है। यह विडम्बना है कि मालिक मस्त, श्रमिक लाचार है। छोटे-छोटे छोकरे कम कपड़ों में मूँगफली, हरे मटर का बोझ उठाये बोगियों में घूम रहे हैं। कई ऐसे होंगे जो श्रम न करें तो घर का चूल्हा न जले।
ट्रेन की रफ़्तार सुस्त है। कोई चीख रहा है-ड्राइवर झंडू है! कुछ देर ट्रेन की चाल और ऑफिस के लिए हो रही देर पर चर्चा हुई। कोई अखबार की संपादकीय पढ़कर बोले-सिंधु घाटी की सभ्यता के समय भी हर घर में शौचालय था! अब बातें प्रधानमन्त्री स्वच्छता अभियान की ओर मुड़ गईं। श्रमजीवी अवसर पाते ही बुद्धिजीवियों की तरह बातें करते हैं। बातें करना, बातें बनाना, बहस करना कितना आसान है! गढ़े मुर्दे उखाड़ना, हत्या-आत्महत्या पर राजनीति करना कितना आसान है, देश का वास्तव में विकास करना कितना कठिन!

आज ठंडी हवा कह रही है-हट जा! मेरे सामने न आ। छुप जा! प्लेटफॉर्म पर मत टहल। ‪#‎ट्रेन‬आएगी तो खिड़की के शीशे बन्द कर बैठ जाना किसी बोगी में।
ट्रेन की प्रतीक्षा लम्बी हो तो ये बात मौजूँ है-मैं ये सोच के दिल बहला रहा हूँ, वो अब चल चुकी है, वो अब आ रही है!
पहले जमाने में प्रेमियों की हालत कालीदास सरीखी थी। मेघ को दूत बनाकर या चाँद के सहारे अपना दुखड़ा रो लेते थे। अब तो नेट है। मगर हाय! नेट भी अपनी बात पर टिका नहीं रहता। धीरे-धीरे समय बढ़ाता है।
पता नहीं कहाँ अटक गई अपनी वाली! देखें कब आती है और कब सीटी बजाते हुये कहती है-आजा मेरी बोगी में बैठ जा।

‪#‎ट्रेन‬ आई। उछलती-कूदती। ऐसे आई जैसे कमाल कर दी हो! लेट से आने की ज़रा भी शर्मिंदगी नहीं। 'बैठना हो तो जल्दी से बैठो वरना मैं चली! मेरे चाहने वाले एक तुम ही नहीं!!!' वाला भाव। मरता क्या न करता। जब घर की बेवफाई सहनी पड़ती है, ये तो ...लोहे की है। बैठ गया चुपचाप।
सामने लोअर बर्थ पर एक महिला कम्बल ओढ़े लेटी हुई हैं। उसके अपर बर्थ पर कनटोप, मफलर बांधे सर झुकाये एक आदमी बैठा है। उसकी मुड़ी किसी गुड्डे की तरह ऊपर-नीचे हिल रही है। उसके बगल में एक युवा 'हरा मटर' बड़े चाव से खा रहा है। मेरे सामने एक मैडम बैठी हैं। बगल में संजय जी बड़ी तेज़ आवाज में मोबाइल बजा रहे हैं-सलामे इश्क,मेरी जां, ज़रा कुबूल कर लो। तुम हमसे प्यार करने की ज़रा सी भूल कर लो.....! कोई उनका बाजा नहीं सुन रहा। सर्वेश भाई अपनी ट्रेन पर चढ़ने की बहादुरी बतिया रहे हैं। गाना एक तरफ, बातें दुसरी तरफ। बन्द लोहे के घर की खिड़कियों से आती ठंडी हवा से एहसास हो रहा है कि आज गलत जगह बैठ गये।
बार-बार चेन पुलिंग हो रही है। हर टेसन पर रुक रही है ट्रेन। साथी परेशान हैं कि यही हाल रहा तो किसान इसे ओवर टेक कर लेगी। सरकार के पास इस बिन बात की चेन पुलिंग का कोई इलाज नहीं है। सिवाय यह कहने के कि यह विरोधी दल की साजिश है। ये चाहते ही नहीं कि देश विकास मार्ग पर तेजी से आगे बढे!
अब ट्रेन ने रफ़्तार पकड़ी है। लगता है पहुँच ही जायेगी कैन्ट स्टेशन। यहीं से कल चलने वाली है ‪#‎महामनाएक्सप्रेस‬ । आदरणीय प्रधान मंत्री जी का बनारस की जनता को नई सौगात। यह ट्रेन बनारस से दिल्ली जायेगी। सुना है कल सुबह 11 बजे प्रधान मंत्री जी अपने हाथों इसका उदघाटन करेंगे। सोचता हूँ कल उसी ट्रेन में बैठा जाये। दिल्ली दूर है मगर जौनपुर तक जाने में क्या हर्ज है?

अधिक देर होने की संभावना से ‪#‎महामनाएक्सप्रेस‬ से जाने का विचार त्यागना पड़ा। ‪#‎49अप‬आज एकदम राइट टाइम पर आई और छूट भी गई। लगता है आज बनारस से छूटने वाली सभी ‪#‎ट्रेनों‬ पर अधिकारियों की पैनी नज़र है। यही दृष्टि रोज मिले तो अपना भी आना-जाना सुगम हो जाय!
ट्रेन छूटी तो यार्ड में महामना एक्सप्रेस का इंजन सज्ज होता दिखा। थोड़ी देर बाद उसके डिब्बे भी दिखे। फूल-मालाओं से सजे डिब्बों को पुराना इंजन धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म की ओर ले जा रहा था। एक और लोहे के नये घर का आज गृह प्रवेश है। भारतीय जनता के मुखिया आदरणीय प्रधान मंत्री जी का संकेत पा कर यात्रा प्रारम्भ करेगी। कल से भारतीय जनता इसके संकेतों की प्रतीक्षा करेगी। ‪#‎काशी‬ के लिये आज खुशी का दिन है और सबसे अच्छी बात तो यह हुई कि ‪#‎महामना‬ के नाम से एक ट्रेन भारत की राजधानी तक चलेगी।
50डाउन कैंसिल है। लेट फरक्का मिली भंडारी स्टेशन पर। आई तो मन प्रसन्न हो गया, रुकी तो रुकी रही। मैंने पूछा-'चलती क्यों नहीं?' गुस्से से बोली-'आगे 'माल'है और जफराबाद तक सिंगल पटरी। मैं क्या करूँ?' मैं चुप हो गया। सरकार 'माल' पर ज्यादा ध्यान देती है। अर्थ व्यवस्था टंच होनी चाहिये। समाजवादी रेल मंत्री जी के समय से सरकारें माल गाड़ी पर मेहरबान हैं। सिंगल को डबल पटरी में बदलने की खबरें भी आ रही हैं। ठीक है, माल कमाओ और माल को डबल पटरी बनाने में खर्च करो। पटरियों के अगल-बगल सिर्फ चूना मत लगाओ।
‪#‎ट्रेन‬ चल दी। जफराबाद पहुँच रही है। यहां और साथी चढ़ेंगे। ट्रेन में भीड़ है, इस बोगी में भी झांकेंगे। अपन को तो सीट मिल ही गई है, उनकी वे जाने। सामने लोवर बर्थ पर एक आदमी मफलर ओढ़े, चश्मा पहने, पूरी तरह झुक कर डायरी के पन्ने पलट रहे हैं। डायरी में आम आदमी की जिंदगी से जुड़ी कुछ अनसुलझी पहेली होगी जिसे वे खाली वक्त में मौक़ा मिलते ही सुलझा लेना चाहते हैं। डूबे हुये हैं बड़ी देर से। मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सकता। अपनी पहेली सभी को खुद ही सुलझानी पड़ती है।
ट्रेन अब जलालगंज पुल को थरथरा कर आगे बढ़ रही है। यह पुल भी कितना बेबस, कितना असहाय है! अब वो आदमी गायब हो गया! मेरा ध्यान पुल के कांपने पर गया और वो आदमी इसी बीच अपनी डायरी के साथ कहीं गुम!!! शायद उसे जलाल गंज स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन स्टेशन पर खड़ी है।
50 डाउन आज कैंसिल है। जौनपुर सिटी से सद्भावना पकड़ने के चक्कर में आये तो बेगमपुरा मिल गई। सिटी में इसका स्टापेज नहीं है मगर रुक गई तो सभी चढ़ गए। सभी चढ़े तो हम भी चढ़ गये। कोई एसी में चढ़ा, कोई स्लीपर में। हमारे सामने जनरल बोगी थी हम जनरल में चढ़ गये।
एक फ़ौजी को नया रंगरूट मिल गया है। लगातार उसे समझाये जा रहे हैं। मैंने सोचा कुछ फ़ौज के टिप्स देंगे लेकिन वो तमाम हितोपदेश दिये जा रहे हैं! अगला भक्त की तरह सुन रहा है।
‪#‎ट्रेन‬ ज़फराबाद में भी रुकी। किसी ने चेन पुल्लिंग किया है। सिटी में रुकी थी तो अच्छा लगा था, जफराबाद में रुकना कुछ जमा नहीं। दूसरे यात्रियों को दोनों बार रुकना बुरा लगा होगा। ऐसा ही है। गलत काम अपने हित में हो तो बुरा नहीं लगता, दूसरा हित साध रहा तो बुरा लगता है! गलत काम न रुकने के पीछे हमारा यही स्वार्थ है।
अब ट्रेन अपनी रफ़्तार में चल रही है। यात्री सभी गुमसुम हैं। जम्मू से बनारस तक चलती है बेगमपुरा। बनारस आते-आते थक चुके होंगे। इनकी बातों से पता चल रहा है कि इस साल वहां अभी बर्फ नहीं पड़ी। सुबह-शाम ठण्ड बहुत है। पुल के थरथराने की आवाज़ आ रही है। जलालगंज आ रहा है। यह ट्रेन सीधे बनारस ही रुकेगी। आगे कहीं गरमा गरम बहस हो रही है।
फिर चेन पुलिंग हुई! बाबतपुर स्टेशन है। धरती वीरों से खाली नहीं। ट्रेन में बहस सुनो, उपदेश सुनो तो लगता है सभी कितने भले लोग हैं! चेन पुलिंग करने वाले आसमान से तो आ नहीं रहे! इसी ट्रेन में चल रहे होंगे या इसी ट्रेन से उतरे होंगे!!!
गणतन्त्र की पूर्व संध्या पर सबको बधाई दिया जाय और अपनी बातों को यहीं विराम दिया जाय। तमाम चेन पुंलिंग के बाद भी ट्रेन अपनी मंजिल तक पहुँचती ही है। रुकते-चलते अपना देश भी एक दिन विकसित राष्ट्र हो ही जाएगा। आप सभी को गणतंत्र दिवस की बहुत बधाई। .....जय हिन्द।
कितना कठिन है
हमारे लिये
जाड़े में
सुबह उठकर
गणतंत्र दिवस मनाने
झण्डा फहराने
घर से निकलना!

और भी कठिन
जब ऑफिस दूर हो
और..
मुँह अँधेरे
छोड़ना पड़े
गर्म बिस्तर।

कितना सरल है
देश के वीर सैनिकों के लिये
हिमालय की बर्फिली पहाड़ियों में
अपनी जान पर खेलकर
सीमाओं की रक्षा करना!
और भी सरल
जब ऊँची पहाड़ियों तक पहुँचने का 
कोई मार्ग ना हो।

कठिन लगने लगे
हमारी तरह 
उनको भी
सीमाओं की रक्षा करना
तो चाह कर भी
नहीं फहरा पायेंगे हम
तिरंगा।
......................

कोहरे को चीरती भाग रही थी 'किसान'। अब दिख रही है अरहर, सरसों के फूलों पर खिली-खिली धूप। धूप, अरहर और सरसों के इन फूलों से तिरंगे रंग में रंगी है पूर्वांचल की धरती। घूम रहे हैं पटरी पर लोहे के पहिये, दौड़ रहा है लोहे का घर। मन में, प्रकृति में, स्कूलों और सरकारी भवनों में हर तरफ गणतंत्र दिवस का उल्लास देखते ही बनता है।
सरकारी मशीनरी के अलावा सभी धार्मिक स्थल भी इससे जुड़ जाते तो आजादी और गणतंत्र दिवस समारोहों की क्या धूम होती! सुबह ईद, दिन होली, शाम क्रिसमस और रात दिवाली होती!!! जैसे ईद और होली की बधाई देते हैं, आपस में तपाक से गले मिलते हैं वैसे ही बधाइयाँ देते आजादी की, लोकतन्त्र की। झिलमिल झालरों से, दीपों से सजे होते सभी घर। नये वस्त्रों में घूम रहे होते देश के सभी बच्चे। पूरब, पश्चिम, उत्तर, दख्खिन चारों दिशाओं में मची होती धूम।

‪#‎ट्रेन‬ भाग रही है अपनी रफ़्तार से। उम्मीद है पहुँचा देगी समय से। छंट रहा है कोहरा। फ़ैल रहा है उजाला। सोचता हूँ खेतों में काम कर रही महिलाओ, मिट्टी ढो कर ले जाते ट्रैक्टर, भेड़ चराते चरवाहे, चाय-मटर बेचते हरकारों, मजूरी पर निकले कामगारों या रिक्शा खींचते किसी गरीब को रोककर मैं उसे गणतंत्र दिवस की बधाई दूँ तो मुझे पागल न समझ ले! छोड़िये! ये काम नहीं करता। आपको देता हूँ और आप मुझे दीजिये-गणतंत्र दिवस की बहुत-बहुत बधाई। ....जय हिन्द।

17.1.16

बसंत की याद में


ठंडी और बसंत की
मिट्ठी नहीं होती है
लौट-लौट आती है
लौट-लौट जाती है
गंगा के लहरों में
बसंत की कोई
चिट्ठी नहीं होती है

वही साइबेरियन पंछी
वही नावें
वही यात्री
वही सहमें-सिकुड़े
बनारस के घाट

बूढ़ा पीपल
हमेशा की तरह हंस रहा है
ललिता घाट पर
दो-चार पतंग क्या फंसा लिए अपने जाल में
अपने को बड़ा
तीस मार खाँ समझता है !

ठंडी जानती है
मेरे जाने पर ही
आयेगा बसंत
फिर भी
इतनी बेकरारी क्यों है?

तू जा न,
जा!
कि आएगा  बसंत
तूने जो कलियाँ खिलाईं हैं
उन्हें चूमकर
फूल बनाने के लिए
आयेगा बसंत
........................

10.1.16

लोहे का घर -8


‪#‎ट्रेन‬ आज राइट टाइम है। रोज के यात्रियों में खुशी की लहर है। खिले-खिले मुखड़े चिड़ियों की तरह चहक रहे हैं। सरसों के फूल रोज से अच्छे लग रहे हैं। बस से जाते-जाते ऊब चुके यात्री बहुत दिनों बाद आपस में बतिया पा रहे हैं। गर्मी के मौसम में सही समय चलती ही है मगर आज यह सिद्ध हुआ कि ठंडी के दिनों में भी ट्रेन सही समय चल सकती है। एक का सही होना कितनों के लिये प्रेरणा दायक हो सकता है! यह अलग बात है कि सही चलने के लिए एक को अधिक श्रम करना पड़ता है, अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। लगता है ट्रेन यह समझ चुकी है कि रुक-रुक कर खरगोश की तरह आराम करना और रेस हार जाने के बाद जीवन भर कछुये के ताने सुनने से अच्छा है बिना रुके चलते जाना। सभी ट्रेन से प्रेरणा लेकर अपनी चाल सही कर लेते तो अपना देश विकाससील से विकसित राष्ट्र में परिवर्तित हो जाता!


50 डाउन के जफराबाद प्लेटफॉर्म नम्बर 1 पर आने की घोषणा हो गई। 6 बजकर 35 मिनट होने को हैं। बड़े शहर में किसी झील के किनारे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से कह रहा होगा-'तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे, मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे।' यहाँ संजय जी अण्डा खा कर, चाय पी कर, पान घुला कर मस्त हैं।
ट्रेन आई। सभी चढ़ गये। कुछ बैठे, कुछ खड़े रह गये। जो खड़े हैं वे ऊपर जाने की तैयारी कर रहे हैं। ऊपर जन्नत नहीं, खाली बर्थ है। ऊपर जा कर गुमसुम-गुमसुम, टुकुर-टुकुर, नीचे ताक-झाँक रहे हैं। जलालगंज पुल के ऊपर से गुजरी है ट्रेन। रफ़्तार तेज़ थी। पुल आशिक की तरह थरथराया तो जरूर होगा।
‪#‎ट्रेन‬ जोर-शोर से चलती जा रही है। रोज के यात्री अपने-अपने गोल से बिछड़ कर, थोडा छितरा कर बैठे हैं। जो गोलबंदी कर पाये हैं वे मुद्दे तलाश कर बहस कर रहे हैं। ताजा मुद्दा जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव परिणाम का है। मुझे देश की राजनीति में कोई रूची नहीं तो जिला पंचायत की राजनैतिक चर्चा कौन सुने? मैं तो बस इतना जनता हूँ कि हम क्या हैं! रहनुमा बदलने से भेड़ बकरियों की किस्मत नहीं बदलती। इनका जन्म ही दुहे जाने या कसाई के हाथों हलाल होने के लिये होता है। सब व्यर्थ की मैं! मैं! है। खाओ पीयो मस्त रहो। मालिक तुम्हें वक्त से पहले मरने नहीं देगा और वक्त आ ही जाय तो हलाल किये बिना छोड़ेगा नहीं। फिर किस बात के लिए मेरा-तेरा? कसाई किसी का भाई नहीं होता। हाँ, भाई कसाई हो सकता है।
कुछ पढ़े-लिखे लोग मोबाइल पर गाना सुना रहे हैं! मैं पूछूँगा-क्यों सुना रहे हो? तो कहेंगे-सुन रहे है, आप भी सुनिए! मैं कहूँगा-अच्छा नहीं लग रहा है तो लम्बा उपदेश देंगे-संगीत से प्रेम करना चाहिये। इससे स्वास्थ ठीक रहता है, दिनभर की थकान मिट जाती है! इससे अच्छा है जब उनसे निगाह मिले तो उनकी तरफ देख कर हौले से मुस्कुरा दिया जाय। वे भी खुश और अपन भी चैन से।


50 डाउन अमृतसर हावड़ा ‪#‎ट्रेन‬ में आज भी भीड़ है। 72 वर्षीय महिला लाठी टेकते हुये अपना सीट तलाश रही हैं। उनका पोता टी टी से अनुरोध कर रहा है। दोनों का बर्थ दूर-दूर है। टी टी भी सम्पूर्ण मानवीय सम्वेदना प्रकट करते हुये एक एक यात्री से पूछ रहे हैं-कोई अकेले है भाई? एक ने साहिष्णुता दिखाई, बर्थ मिल गई दादी को। अब वो सुकून से हैं। इक दूजे के सहयोग से सभी एडजस्ट हो गये।
रोज के यात्री आज भी छितरा गये। जिसे जहाँ जगह मिली वहीं बैठ गया। एक चाय वाला चीख रहा है-'चाय! बोलो चाय।' मैंने बोला-चाय! वो अब चाय लेकर आ रहा है। मैंने कहा-'मुझे नहीं चाहिए।' लगता है वह नाराज हो गया। भुनभुनाते हुये जा रहा है। कहीं प्रधान मंत्री बन गया तो अपनी खैर नहीं।
सफ़ेद मटर को हरे रंग में रंग कर एक बाल्टी मटर लिए आ रहा है मटर वाला। अजीब आवाज में चीख रहा है-येssहरा बोलिये, मोटरली हरा बोलिये! मैंने बोला-मोटरली हरा! उसने सुना अनसुना कर दिया। समझदार लगता है। अइसे ही लक्ष्य पर दृढ रहा तो तरक्की करेगा। प्रधान मंत्री नहीं तो जिला मंत्री बन सकता है। बस किसी पार्टी से जुड़ जाय।
सामने एक यात्री दुसरे यात्री को आड इवेन नम्बर का कोई जोक वाला वीडियो दिखा रहा है। सीन उनकी आंखें देख रही हैं, जोक्स मुझ तक भी पहुँच रहा है। मुझे सुनकर हंसी नहीं आ रही है, वे देखकर खिलखिला रहे हैं! मतलब सीन में अधिक जान है। अब आवाजें आनी बन्द हो गईं। वे पहले की तरह शरीफ दिखने लगे।
मेरे बगल में एक वृद्ध दम्पति बैठे हैं। सुल्तानपुर बार्डर से आ रहे हैं, गंगा सागर जा रहे हैं। एक दूसरे पौढ़ व्यक्ति किसी दुसरे बर्थ से निकल कर उनके पास आये और पूछने लगे-पांडे नाहीं आयेन ? दम्पति दुखी होकर बोले-पता नाहीं कहाँ चली गयेन! हम बोले-हमहूँ पाण्डे हई दादा, मान लो पांडे आई गयेन! वे हंसकर बोले-नाहीं, ऊ 71 बरस क हयेन, काफी वृद्ध हयेन, पता नाहीं कहाँ रही गयेन।
पता चला वे 10 लोग हैं जो गंगा सागर स्नान के लिए जा रहे हैं। पहली बार जा रहे हैं। पता नहीं है कि हावड़ा से कितनी दूर है 'गंगा सागर'! बस इतना जानते हैं कि गंगा सागर वहाँ है जहाँ गंगा सागर से मिलती हैं। ईश्वर इनकी यात्रा सुखद बनाये। पुण्य का लाभ हो। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि गंगा में डुबकी लगाने से आनंद आता है, पाप नहीं कटता।

3.1.16

लोहे का घर-7


आज दून मिली। गलत समय थी तो मिल गई। सही होती तो न मिलती। किसी का गलत होना किसी के लिए सही हो जाता है और सही होना गलत। किसी की किस्मत फूटने से किसी की जग जाती है! आपकी पॉकेट मरा गई, आप रो रहे हैं मगर जिसको मिली वो हंस रहा है! बेटी घर से भाग गई, बाप की किस्मत फूटी मगर उस खुशनसीब को सोचिये जिसे उसकी महबूबा मिली! आप की ट्रेन छूट गई किसी को बर्थ मिल गया। कहने का आशय यह कि जिंदगी को आप जितना मनहूस समझते हैं, उतनी होती नहीं। यह अलग बात है कि खराब दिन आपको हमेशा याद रहते हैं, अच्छे दिन भूल जाते हैं। बाबूजी का थप्पड़ याद है, प्यार वाले दिन भूल गये कि ये तो उनका कर्तव्य था!
ट्रेन में काम चलाऊ भीड़ है। कामचलाऊ इसलिए कि अपना काम चल गया। एक हावड़ा जा रहे यात्री ने सहिष्णुता दिखाई और मुझे बिठा लिया। वो मुस्लिम मैं हिन्दू मगर सहिष्णुता है तो है। आप के कहने से कैसे मान लूँ कि सहिष्णुता कम हो गई है?
दूर जाने वाले यात्रियों में बेचैनी झलक रही है। अभी 3 घंटे लेट है तो रात में कोहरा पड़ेगा तब क्या होगा! और लेट हो जायेगी। ये लोग सफर का मजा नहीं ले रहे, लेट होने का मातम मना रहे हैं। एक तो 3 घण्टे लेट होने का वास्तविक दर्द ऊपर से लेट का मातम मतलब डबल कष्ट! हम मजा ले रहे हैं। यही सफर तो है जहाँ मजा ही मजा है। अपनी मर्जी के मालिक। दफ्तर में साहेब घर में साहेब के आगे एक शब्द और ..मेम साहेब डबल साहेब!
मरना अभी कोषों दूर है मगर मोक्ष की कामना में कितने कष्ट! पाप न करो, पुण्य लूटने की जरूरत क्या है? सफर का मजा लो। जीवन का आनंद लो। बेटे को पढ़ाने भेज रहे हैं, दुखी हैं! पहले पुत्री होने पर रोये, फिन योग्य वर के लिए रोये। चलो मान लिया कि दुःख का कारण था मगर अब जब बेटी की बिदाई हो रही है तो और भी जियादा रोये जा रहे हैं! अगर बेटी के जाने का दुःख होता है तो आने पर खुश क्यों नहीं थे? आने पर खुश थे तभी तुम्हें जाने पर दुखी होने का नैतिक हक है। बेटा-बेटी तो लम्बे सफर का एक हिस्सा भर है।
मंजिल काफी दूर है। सफर लम्बा है। छोटे-छोटे स्टेशन पर ट्रेन के लेट होने का मातम मनाकर पूरे सफर का मजा किरकिरा नहीं करते। ओ दूर जाने वाले यात्रियों! तुम्हारा मन बदले, सफर मंगलमय हो।
मेरा पड़ाव आ गया। मेरे साथी यूक्रेन से आई दो महिला पर्यटकों से बतिया कर बेहद खुश हैं। महिला पर्यटक भी उनसे बात कर के खुश लग रहीं हैं। खुशी-खुशी कटे सभी का सफर ....नमस्ते! (मैं नहीं, वे मुस्कुरा कर कह रहीं हैं। :)) जय हिन्दी, जय हिंदुस्तान। 



स्टॉफ का लोग बहुत ख़याल रखते हैं। नाऊ से न नाऊ लेत, धोबी से न धोबी। केवट ने भी प्रभु राम से उतराई नहीं ली यह कहते हुए कि जब मैं आपके घाट आऊँगा तो आप भी मेरा बेड़ा पार करा देना।
‪#‎ट्रेन‬ में यात्रियों से पैसे मांगने वाला हिजड़ों का दल रोज के यात्रियों को देख कर बुरा सा मुँह बनाते हुए अपने सहेलाओं से कहता है-चलो! निकलो यहाँ से, यहाँ सब स्टाफ़ के हैं!!!
राजनैतिक दल भी जब कुर्सी से नीचे उतरते हैं तो सरकार से इसी भाव से मदद की अपेक्षा रखते हैं। जीता हुआ प्रत्याशी जब हारे हुए को गले लगाता है तो इसमें प्रत्यक्ष तो खेल भावना होती है मगर परोक्ष में वही स्टॉफ भाव से मदद करते रहने का आश्वासन छुपा होता है।
मैंने बहुत सोचा कि इतने लोग कह रहे हैं तो जरूर कहीं न कहीं असहिष्णुता बढ़ रही है। धीरे-धीरे बात साफ़ हुई कि असहिष्णुता इसी स्टॉफ भाव में बढ़ रही है। तभी संसद ठप्प है, तभी बेड़ा गर्क हो रहा है। सत्ताधारियों को स्टॉफ का कुछ तो ख़याल रखना चाहिये! 
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अब विपक्ष आरोप लगा रहा है कि असहिष्णुता बढ़ रही है, बदले की कार्यवाही हो रही है तो इसमें क्या गलत कह रहा है! देश का रख्खें चाहे न रख्खें आपको स्टॉफ का ध्यान तो रखना ही चाहिये! smile emoticon
‪#‎व्यंग्य‬


बढ़िया मौसम है। जाड़ा है तो जाड़े की धूप है। ‪#‎ट्रेन‬ है, साथी हैं, खट्टे-मीठे अनुभव हैं। खिड़की है, खूबसूरत नजारे हैं। झोपड़ी है, चौपाये हैं, गोबर पाथती ग्रामीण महिलाएं हैं। दूर-दूर तक कहीं खाली, कहीं हरे-भरे खेत हैं। सरसों, अरहर के फूल हैं। मटर बेचने वाला लड़का है। अमृतसर जाने वाले यात्री हैं। बज रही मोबाइलें हैं। प्यार भरी बातें हैं, संगीत है, गुरुबानी है।
कंकरीट के घरों में पुरुष और महिलाएं हैं, लोहे के घर में हिजड़े भी रहते हैं। रोज के यात्रियों से हंसी ठिठोली करते हैं। किसी को पकड़ते हैं, किसी से चिपकते हैं फिर ताली पीट कर हँसते हुए अपने साथी से कहते हैं-चलो! यह स्टाफ का है, पक्का!!!
लम्बा टीका लगाये साधू भेषधारी भिखारी हैं। दाढ़ी बढ़ाये, चादर फैलाये, किसी मजार के नाम पर चन्दा मांगते, नकली मोरपंख से फूँक मार कर दुःख दूर करने वाले चमत्कारी हैं।
कौन कहता है, हम सफर में हैं? हम तो चलते फिरते लोहे के घर में हैं। ऐसा घर जो हर पल यह एहसास कराता है कि हम एक ऐसे खूबसूरत देश में रहते हैं जिसका नाम भारत है।