28.1.18

बजट

सभी अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से बजट बनाते हैं। सरकार और व्यापारी साल भर का, आम आदमी महीने भर का और गरीब आदमी का बजट रोज बनता/बिगड़ता है। सरकारें घाटे का बजट बना कर भी विकास का घोड़ा दौड़ा सकती है लेकिन आम आदमी घाटे का बजट बनाकर आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है। आम आदमी को सीख दी जाती है कि जितनी चादर हो, उतना ही पैर फैलाओ लेकिन सरकारों को अधिकार होता है कि मनमर्जी पैर फैलाओ। चादर छोटी पड़े तो देश/विदेश जहां देखो वहीं चादर फैलाओ। आम आदमी दूसरों के आगे चादर फैलाते-फैलाते शर्म के मारे धरती पर गड़ने लगता है और जिस दिन चादर फट जाती है, आत्महत्या कर लेता है। गरीब के पास न आय न बजट। रोज कुआं खोदो, पानी पियो। न खोद पाओ, भूखे ही सो जाओ। गरीब माल्या बनकर, बैंक से कर्ज लेकर चादर ओढ़ते हुए विदेश नहीं भाग सकता।

बजट का आधार आय है। आय नहीं तो व्यय नहीं और बिना आय व्यय के बजट कैसा? बजट बनाने के लिए आपको मालूम होना होता है कि रुपया कहां से और कितना आएगा? तभी आप व्यय की भी सोच सकते हैं। जिसके पास आय नहीं वह क्या बजट बनाएगा? नंगा नहाएगा क्या, निचोड़ेगा क्या? पकौड़ी बेचना भी रोजगार है। पकौड़ी बेचने वाला भी बजट बनाता है लेकिन उसका बजट रोज बनता/बिगड़ता है। सरकार का बजट बिगड़ने से सरकार भूखी नहीं सोती, घाटे के बजट से काम चला लेती है लेकिन जिस दिन पकौड़ी वाले का बजट बिगड़ जाता है उसे भूखे ही सोना पड़ता है। हम अपने बच्चों के लिए उस रोजगार का ख्वाब देखते हैं जिसमें उन्हें कभी भूखा न सोना पड़े। सरकार कहती है रोजगार दे दिया न? बस! अब जियादे चूं चपड़ मत करो। जब सरकार की दलील को मीडिया समझ गई तो आम आदमी की क्या औकात है! हां जी, हां जी कहना है।

जाड़े के समय एक दिन मैंने लोहे के घर में एक आदमी को चादर ओढ़ने का प्रयास करते हुए देखा था। पैर ढकता तो मुंह खुला रह जाता, मुंह ढंकता तो पैर खुला रह जाता। जाड़ा इतना कि पैर और मुंह दोनो ढकना जरूरी। अब वह क्या करे? कब तक पैर सिकोड़ता रहे? उसने एक उपाय निकाला। जूता मोजा पहन कर, मुंह ढक कर सो गया। चादर का एक सिरा मुंह को ढके था, दूसरा मोजे तक फैला हुआ था। आम आदमी ऐसे ही बजट बनाता है।

सरकार की आय का मुख्य श्रोत तमाम प्रकार के कर होते हैं जो भिखारी से लेकर अरबपति तक को देने होते हैं। किसी से सीधे टैक्स लिया जाता है किसी से घुमाकर। जो सीधे दे ही नहीं सकता उससे घुमाकर लिया जाता है। जो सीधे दे सकता है उससे सीधे भी लिया जाता है, घुमाकर भी। हर प्रकार से वसूली के बाद सरकार के पास जनता के विकास के लिए खर्च करने की ताकत आ जाती है। अखबार में पूरा हिसाब ग्राफ देकर समझा दिया जाता है। रुपया आए कहां से? रुपया जाए तक? सब लिख्खा होता है। जो समझ में न आए वह घाटा होता है और यह घाटे की भरपाई कैसे होगी आम जनता यही नहीं समझ पाती। काश कि हम भी अपने घर में घाटे का बजट पेश कर खुश हो पाते!

सरकारें पांच साल के लिए चुनी जाती हैं इसलिए पांच बार बजट बनाती है। पहले साल उसे चुनाव की चिंता नहीं होती है इसलिए कठोर बजट बनाती है। जनता नाराज हो तो हो.. ठेंगे से! टैक्स के रूप में इत्ता वसूल लो कि पिछली सरकार ने ठीक चुनाव से पहले जो जाते जाते मुफ्त गिफ्ट वितरण और कर्ज माफी वाला मनमोहक बजट किया था और जिसके कारण गाड़ी पटरी से उतर गई थी वह संभल जाय। फिर हर साल धीरे धीरे अपनी महाजनी सूरत को मनमोहक बनाती जाती है। चुनाव के साल तो धन ऐसे लुटाती है जैसे कहीं से कोई गड़ा खजाना हाथ लग गया हो। अर्थशास्त्रियों ने चेताया तो टका सा जवाब.. सरकार में फिर चुन कर आने दो सब घाटा पहली बजट में ही पूरा कर लेंगे। मतलब वही काम करती है जो पिछली सरकार ने किया था मगर इसका अंदाज अलग होता है। नई सरकार नए अंदाज में आम आदमी की पूंछ उठाती है। जनता नई सरकार के जमाने में नए अंदाज में, पहले धीरे धीरे फिर फुग्गा फाड़कर रोती है।

देश का कोई आदमी ऐसा नहीं है जो टैक्स न देता हो। भिखारी भीख मांग कर एक किलो आंटा खरीदता है तो उस आंटे पर भी टैक्स चुका रहा होता है। मजदूर अपनी मजदूरी से आयकर दे रहा होता है। शेष बचे धन की हर खरीददारी में अप्रत्यक्ष कर दे ही रहा होता है। किसान लाभ कमाता ही नहीं तो सीधे कर कैसे देता! वह तो अन्नदाता शब्द सुनकर ही अपने सभी गम भूल जाता है। आम आदमी का काम सरकार को तमाम प्रकार के कर देकर बजट बनाने में सहयोग करना है। आम आदमी क्या बजट बनाएगा! बजट बनाना तो बड़े लोगों का काम है। 

नदी की व्यथा

जब कोई ट्रेन 
हवा से बातें करते हुए
पुल पार करती है
बहुत शोर करता है
पुल
शांत दिखती है
नदी।

आदमियों को
लोहे के घर में बैठ
बिना छुए
ऊपर ऊपर से 
यूं जाते देख
दुख तो होता होगा नदी को?
क्या जाने
कितना रोई हो
जब बन रहा था
पुल!

किसी के
चन्द सिक्के फेंक देने से
खुश हो जाती होगी?

हमारे सिक्कों का 
कर पाती प्रयोग
तो सबसे पहले
तोड़ देती
बांध
फिर तोड़ती पुल
और अंत में
अधिक क्रोध करती तो
बहा कर ले जाती
पूरा गांव।
.... देवेन्द्र पाण्डेय।

23.1.18

बसंत

ठंड की चादर ओढ़
दाहिने हाथ की अनामिका में
अदृश्य हो जाने वाले है राजकुमार की
जादुई अंगूठी पहन कर
चुपके से धरती पर आता है
बसंत
तुमको भला कैसे दिखता?

नहीं
कैलेंडर गलत थोड़ी न है
पत्रा देख कर ही हुई थी
मां शारदे की पूजा
चौराहे पर
रखी जा रही थी
होलिका
शहरों की छतों पर
पीली साड़ी पहन
सेल्फी ले रही थीं महिलाएं

तुम
रोज की तरह
परेशान हाल
थके मांदे घर आए
तुमको भला कैसे दिखता?

परेशान न हो
ठंड की चादर हटेगी
प्रहलाद के विश्वास के आगे
होलिका का घमंड
जल कर
ख़ाक हो जाएगा
अपने आप
फिसल कर गिर जाएगी
बसंत की उंगली से
जादुई अंगूठी

अभी तो
धरती की सुंदरता देख
खुद ही मगन है!
तुमको भला कैसे दिखता?
..... देवेन्द्र पाण्डेय।

20.1.18

लोकतंत्र का बसंत

काशी में मराठी भाषा का एक कथन मुहावरे की तरह प्रयोग होता रहा है.. "काशी मधे दोन पण्डित, मी अन माझा भाऊ! अनखिन सगड़े शूंठया मांसह।" जजमान को लुभाने के लिए कोई पण्डित कहता है.. काशी में दो ही पण्डित हैं, एक हम और दूसरा हमारा भाई। बाकी सभी मूर्ख मानव हैं। ऐसे ही हमारे देश के लोकतंत्र में भी दो संत पाए जाते हैं। एक अ संत दूसरा ब संत। बाकी रही विद्वान जनता जिनकी गलतियों के कारण ही दोनों संत निरंतर मोटाते रहते हैं। इसे यूं समझा जाय कि लोकतंत्र एक बड़ा सा घर है जिसमें अ संत और ब संत दो भाई रहते हैं। जहां असंत है, वहीं बसंत है। जनता जजमान की तरह कभी इनसे छली जाती है कभी उनसे।

जनता अपना काम लेकर कभी अ संत के पास जाती है कभी ब संत के पास। अ संत के पास जाने वाली जनता समझती है कि अ संत ही उसके घर में बसंत ला सकता है। ब संत के पास जाने वाली जनता समझती है कि अ संत तो इसका भाई ही है, वह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा ब संत ने चाहा तो मेरे घर भी बसंत आ ही जाएगा।

भारत का लोकतंत्र एक बहुत बड़ा घर है। इसके चार बड़े बड़े खंबे हैं। ये खंबे इतने मजबूत हैं कि अ संत और ब संत के हरदम बसंत मनाने के बावजूद भी ज्यों का त्यों मजबूत बना हुए हैं। कभी कोई खंबा अ संत की कारगुज़ारियों से कराहता है, कभी कोई खंबा ब संत की कारगुज़ारियों से लेकिन मुश्किल वक़्त में बाकियों के सहारे चारों खंबे मजबूती से लोकतंत्र को टिकाए रखते हैं।

पहले हमारे देश में बहुत से संत रहते थे। कोई अ संत और ब संत नहीं था। भारत का लोकतंत्र उन्हीं संतों की तपस्या का परिणाम है। अब इसमें संत के बेटों अ संत और ब संत का राज चलता है। बारी बारी से दोनों बसंत मनाते हैं और जनता कभी इनकी जय जयकार करती है, कभी उनकी।

प्रकृति का बसंत हर साल आता है। वीरों का बसंत तब आता है जब उन्हें युद्ध के मैदान में जौहर दिखाने का अवसर मिलता है। विद्यार्थी तब बसंत मनाते हैं जब परीक्षा में पास होते हैं। लेखकों का बसंत उनकी नई पुस्तक के लोकार्पण के दिन होता है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र का बसंत पॉच साल में एक बार आता है जब देश में चुनाव होते हैं। प्रकृति का बसंत तो पतझड़ के बाद आता है मगर लोकतंत्र में पतझड़ और बसंत दोनो साथ साथ आते हैं। जो पार्टी हारती है उसके पतझड़ के दिन शुरू हो जाते हैं, जो जीत जाती है उनके पत्ते लहलहाने लगते हैं। इस प्रक्रिया को संत और असंत दोनों लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिस देश में चुनाव ही नहीं होते उस देश का राजा तानाशाह हो सकता है लेकिन लोकतंत्र में भी हारने वाला, शासक दल को तानाशाह घोषित करवाने में लगा रहता है। लोकतंत्र के चारों खंबों पर बारी बारी से पोस्टर चस्पा किए जाते हैं.. लोकतंत्र खतरे में है!

भारत का लोकतंत्र जितना ताकतवर माना जाता है उतना ही कमजोर भी होता है। जरा सी कुछ बात हुई कि खतरे में पड़ जाता है। लोकतंत्र न हुआ भारतीयों का कमजोर अंग हो गया जो हर बात पर फटने लगता है! लोकतंत्र के खतरे में पड़ने का ज्ञान विपक्ष को ही होता है। सत्ता पक्ष तो हमेशा सुदृढ़ लोकतंत्र का ढिंढोरा ही पीटता पाया जाता है। सत्ता पक्ष लोकतंत्र का बसंतोत्सव मनाता है तो विपक्ष लोकतंत्र के पतझड़ की तरह झड़ता रहता है। लोकतंत्र के चारों खंबे जब जब अपना दुखड़ा रोते हैं, विपक्ष तपाक से उनके सुर में सुर मिलाते हुए जनता को भड़काता फिरता है.. लोकतंत्र खतरे में है! विपक्ष की आदत दूसरे के फटे में टांग अड़ाने की है और सत्ता पक्ष सूई धागा लेकर आम जनता के फटे को सीने के लिए दौड़ता भागता दिखने की कोशिश करता है।

विपक्ष का मजबूत होना अच्छे लोकतंत्र की निशानी माना जाता है। अभी भारत में विपक्ष कमजोर है शायद इसीलिए लोकतंत्र बार बार खतरे में पड़ रहा है। विपक्ष तगड़ा हुआ तो सत्ता कमजोर पड़ने लगती है। चुनाव के समय अपने दम पर सरकार बना लेने का दावा करने वाली पार्टियां गणित कमजोर पड़ने पर विपक्षी पार्टियों को तोड़ती मेल जोल करती दिखने लगती है। सरकार बनने के बाद शेष बची हुई पार्टियां विपक्ष में आ जाती हैं और आपस में मिलकर तगड़ा विपक्ष बनने का प्रयास करती हैं। बड़े दंभ से कहती हैं.. आपस में मेल जोल न होई त चली का?

आम आदमी जिसकी पहुंच रोटी, कपड़ा और मकान के आगे सुबह के अखबार/शाम के टीवी तक है वे तो 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के दिन ही लोकतंत्र का बसंतोत्सव मना कर खुश हो लेते हैं। हम भी न अ संत हैं न ब संत। थोड़ा लिखना पढ़ना जान गए हैं। लोकतंत्र के बसंतोत्सव से दो चार फ़ूल मिल गए इसी में खुश हैं। हम भी बस यही मंगल कामना कर सकते हैं कि हमारे महान संतों की घनघोर तपस्या से जो यह लोकतंत्र की बगिया खिली है इसमें से एकाध फूल उन अभागों को भी मिले जिन्हे आजतक पतझड़ और कांटों के सिवा कुछ भी नसीब नहीं हुआ।

14.1.18

पुस्तक मेला और साहित्यकार

एक बार बलिया के पशु मेले में गए थे, एक बार दिल्ली के पुस्तक मेले में। दोनों मेले में बहुत भीड़ आई थी। जैसे पशु मेले में लोग पशु खरीदने कम, देखने अधिक आए थे वैसे ही पुस्तक मेले में भी लोग पुस्तक खरीदने कम, देखने अधिक आए थे। दर्शकों के अलावा दोनों जगह मालिकों की भीड़ थी। कहीं पशु मालिक कहीं पुस्तक मालिक। जैसे पुस्तकों के मालिक केवल लेखक नहीं, प्रकाशक भी होते हैं वैसे ही पशुओं के मालिक भी अपने अपने पशुओं को एक स्थान पर सुपुर्द किए दे रहे जो उन्हें सजा कर बेच रहा था। जैसे पशु मेले में अपना कोई पशु नहीं था वैसे ही पुस्तक मेले में भी अपनी लिखी कोई पुस्तक नहीं थी। दोनो मेले में एक ही प्रश्न देर तक मेरा पीछा करते रहे..आपकी कहां है?

आदमी अपने अनुभवों से ही कुछ सीखता है। यदि आपका थोपड़ा पशु मालिक या लेखक की तरह हो तो आप को दोनो ही मेले में नहीं जाना चाहिए। पशु मेले में जाएं तो आपके हाथ में लंबा पगहा हो और पीछे कोई दुधारू गाय लचक लचक कर चल रही हो। बिना पशु वाले किसान की पशु मेले में और बिना पुस्तक वाले लेखक की पुस्तक मेले में कोई इज्जत नहीं होती। पुस्तक मेले में तब तक न जाएं जब तक आपकी कोई पुस्तक प्रकाशित न हो चुकी हो। बिना अपनी पुस्तक लिए गए तो फिर आप दुकान-दुकान घूम कर पुस्तक खरीदते ही रह जाओगे, बेचने का सुख नहीं मिलेगा।

ईश्वर जानता है कि जो सुख ज्ञान देने में है वह लेने में कत्तई नहीं है। जेब खाली कर ज्ञान वही खरीद सकता है जिसका पेट भरा हुआ हो और घर में खजाना गड़ा हुआ हो। ज्ञान तो धीरे से चुरा लेने की चीज है। लाइब्रेरी में गए और नोट बना लिए। एक पुस्तक इशू कराए दूसरी दबा कर निकल लिए। पढ़ने लिखने वाले चेहरे से शरीफ दिखते हैं इसलिए इनकी चोरी कम पकड़ में आ पाती है। धरा भी गए तो पकड़ने वाले भी पढ़ने लिखने वाले होते हैं, जल्दी से माफी मिल जाती है। अब एक मल्लाह, दूसरे मल्लाह से क्या पार उतरवाई लेगा? लेखक बिरादरी राजनेताओं की तरह कृतघ्न थोड़ी न होती है कि मौका पाते ही विरोधियों के पीछे सी.बी.आई छोड़ दे! लेखक की चोरी पकड़ी भी गई तो भले उपेक्षा का शिकार हो जाय, सजा नहीं पाता।

पुस्तक मेले में घूमने आए लोग सभी स्टाल में जाकर सभी प्रकार की पुस्तकें ऐसे पलटते हैं जैसे सत्य की खोज में निकला फकीर ज्ञान तलाशने के लिए जंगल जंगल भटक रहा हो ! अंत में खरीदते वही दो चार पुस्तकें हैं जिनके लेखकों के नाम अपने पाठ्य पुस्तक से उन्होंने सुन रखे हैं। सब पलटने के बाद मासूमियत से पूछते हैं.. मुंशी प्रेम चंद की गबन है? दुकानदार भी आदतन उस कोने की तरफ इशारा करता है जिधर उसकी टाइप के लोग अधिक आये हैं और जहाँ अधिक भीड़ है। इस प्रश्न पर दुकानदार अधिक झल्लाते पाए जाते हैं.. दो बैलों की जोड़ी है? गनीमत है यह नहीं कहते..दो बैलों की जोड़ी लेनी हो तो पशु मेले में जाओ, यहां क्यों घूम रहे हो?

पहले लेखक बनने और एक पुस्तक छपवाने के लिए भूखे पेट रहकर किसी बड़े साहित्यकार के दरबार में वर्षों खुद को तपाना और लेखक सिद्ध करना पड़ता था। प्रतिष्ठित साहित्यकार का आशीर्वाद मिलने के बाद ही कोई प्रकाशक किसी नए लेखक की कोई पुस्तक छापने की हिम्मत जुटा पाता था। अंतर्जाल के प्रचलन और आभासी दुनियां ने इस पूरे पटल को ही बदल कर रख दिया है। सभी की डायरियां अब ब्लॉग/फेसबुक में लिखी जाने लगी हैं। जेब में पैसा हो, प्रशंसक हों तो आप सीधे प्रकाशक से बात कर सकते हैं.. कित्ता लोगे? और कित्ती दोगे? पुस्तक न बिकनी है न रायल्टी मिलनी है. यह बात आप भी जानते हैं, प्रकाशक भी। एकमुश्त सौदा तय हो जाता है। इत्ती लेंगे और प्रकाशन के बाद इत्ती पुस्तकें देंगे। आपको लेखक बन ख्याति अर्जित करनी है, अगले को प्रकाशक बन पैसा कमाना है। ख्याति और पैसे के इसी सुखद संजोग ने पाठक शून्यता के हाहाकारी जुग में भी चमत्कारिक ढ़ंग से नए लेखकों और प्रकाशकों की नई पौध का सृजन किया है। पुस्तक मेला और कुछ नहीं छुट्टे शब्दों की भीड़ है जो पशुओं की तरह अपने अपने मालिकों के साथ पुस्तक रूपी पगहे में बंधी कुछ पाने की लालसा लिए एक स्थान पर जमा होती है। इस भीड़ में कोई निराला, कोई धूमिल कोई गालिब अपने झोले में अपनी पांडुलिपी दबाए भूखे पेट, प्रकाशक-प्रकाशक घूम रहा हो तो भला उसे कौन पहचानेगा? यह दौर लेखक बन कर नाम कमाने का है तो यह दौर अच्छे लेखकों के बिना प्रकाशित हुए गुम हो जाने का भी है।

7.1.18

लोहे का घर-35

लोहे के घर में तास खेलने वालों की मंडली में एक सदस्य कम था और तीन साथियों ने मुझे खेल से जोड़ लिया। उधर कलकत्ता जा रहे बंगाली परिवार के बच्चों का झुंड शोर मचा रहा था, इधर मेरे बगल में बैठकर कनाडा से भारत दर्शन के लिए आईं एक गोरी मेम पुस्तक पढ़ रही थीं। मेरा ध्यान कभी बच्चों पर, कभी बगल में बैठी गोरी मेम पर और कभी उसके हाथ की पुस्तक पर जा रहा था। जाहिर है खेल में ध्यान न होने के कारण हम हारे जा रहे थे। यह दून एक्सप्रेस थी।

पार्टनर चीख रहा था..का गुरु ई का चलला?
मैं गोरी से बात कर रहा था... यू केम फ्रॉम देहरादून?
महिला भी मुस्कुरा कर जवाब दे रही थीं.. नो फ्रॉम हरिद्वार।
पार्टनर फिर चीखा..हार गइला! ला, फेंटा।

मैं तास फेंटते हुए महिला को टूटी फूटी अंग्रेजी में खेल के बारे में समझा रहा था.. दिस इज दहला पकड़! दहला मिंस टेन। देयर इज फ़ोर टेंस इन कार्ड। हू कैच मोर देन टू, दे विंस।

गोरी ऐसे चमक के ओ येस! हूं..कर रही थी जैसे सब समझ गई हो। फिर उसने कुछ फ्रेंच नाम गिनाए तास के खेल के। मुझे वे नाम ऊटपटांग लगे। मैंने मुस्कुरा कर कहा..नो नो आई डोंट नो। मैं सोच रहा था कि समीर भाई साहब को फोन लगा कर पूछूं कि क्या कनाडा में फ्रेंच बोली जाती है? या यह महिला फ्रांस से आई है? फिर उसकी पुस्तक के बारे में जानना चाहा। उसने पुस्तक दिखाई। वह एक फ्रेंच भाषा में लिखी महात्मा गांधी जी के दक्षिणी अफ्रीका के संघर्ष के बारे में पहला गिरमिटिया टाइप कोई पुस्तक थी। शायद महिला भारत भ्रमण के दौरान गांधी जी को पढ़कर भारत के बारे में जानने का प्रयास कर रही थी।

हम दूसरा गेम भी हार गए। मेरा पार्टनर मुंह बना रहा था और विरोधी मस्त हो रहे थे।

अकेली महिला बनारस जा रही थी, जहां उसके मित्र उसका इंतज़ार कर रहे थे। मैंने महिला को बनारस के घाटों, सारनाथ के बारे में जानकारी दी और सूर्योदय के समय नाव में घूमने की सलाह भी दी। वह मेरी बात समझ भी रही थी या खाली-पीली मुस्कुरा कर हां हूं कर रही थी यह तो वही जाने लेकिन हम लगातार हारे जा रहे थे। जब अपने ऊपर कोट चढ़ता तो हम प्रसन्न होते कि चलो अब पार्टनर पीसेगा और हमें केवल पत्ते फेंकने पड़ेंगे!

यह बहुत देर नहीं चलना था और नहीं चला। खेल बन्द हुआ और हमने महिला को पुस्तक पढ़ने की सलाह देते हुए अपनी मोबाइल निकाल ही ली। जैसे ही बनारस का आउटर आया कौन, मित्र कौन गोरी! ट्रेन को कोमा में छोड़ हमने घर जाने के लिए ११ नंबर की बस पकड़ ली।

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जाड़े में अदरक का क्रेज भांप कर लोहे के घर में वेंडर आवाज लगाते हैं..चाय बोलिए चाय, अदरक वाली चाय। पता नहीं कैसी होती है लेकिन एक बात तो पक्की है कि दूध, चायपत्ती चाहे जैसी हो, अदरक जरूर होती होगी चाय में।

अपनी फोट्टी की प्रतीक्षा में कोहरे में डूबे कैंट प्लेटफार्म पर खड़े खड़े कुछ मजेदार एनाउंसमेंट सुनाई पड़ रहे थे। फिफ्टी डाउन के प्लेटफॉर्म नंबर ६ पर आने का संकेत हो चुका है, यात्री गण ध्यान दें यह गाड़ी १ जनवरी की है! अब एक बार यह गाड़ी १ जनवरी की बताने के बाद टेप चालू हो गया। फिफ्टी डाउन के आने का संकेत हो चुका है, यह गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर....। अब १ जनवरी नहीं बोल रहा। जिसने सुना उसका भला, जिसने नहीं सुना, उसकी किस्मत। ट्रेन में दोनों नंबर लिखे होते हैं। २०४९ के समय २०५० आ जाए तो हड़बड़ी में लोग बिना इंजन देखे एक के बदले दूसरे में बैठे भी पाए जाते हैं। ऐसे लेट लतीफी के मौसम में एक एनाउंसमेंट यह भी होना चाहिए कि यात्री दिशा का ज्ञान रखें कि उन्हें किधर जाना है और इंजन का रुख किस ओर है! ऐसी एक दो ट्रेनें और आईं जो १ जनवरी की थी। शुक्र है कोई पिछले साल की नहीं थी। हमने यह नहीं सुना कि यह गाड़ी पिछले साल की है।

खैर अपनी फोट्टी आई, सभी यात्री उतर गए, सभी रोज के यात्री इत्मीनान से बैठ गए तब ध्यान आया कि एक भारी सूटकेस तो नीचे पड़ा हुआ है! शोर हुआ..यह किसका है? कौन इतना बड़ा बैग लेकर जौनपुर जा रहा है? पता चला किसी का नहीं है! हम में से एक दौड़ कर बाहर गया और चिल्ला कर पूछने लगा..किसी का बैग छूटा है? ट्रेन छूटने वाली थी तभी एक यात्री भागा भागा आया….मेरा एक सूटकेस छूटा है। सूटकेस उतार कर उसने इतनी बार थैंक्यू बोला कि क्या कहा जाय! अपनी आत्मा भी संतुष्ट हुई।

पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी और दिख रहे हैं कोहरे मे डूबे सरसों के खेत। कथरी ओढ़ कर बैठी एक काली गाय आराम आराम से मुंह चला रही दिखी थी अभी। लोहे के घर में बैठे यात्री भी मुंह चला रहे हैं लेकिन ये बतिया रहे हैं वो खाना पचा रही थी। कड़ाकी ठंड में खिड़की खोल कर फोटू खींचना संभव नहीं है। हम इच्छा भी करें तो दूसरे चीखने लगते हैं... तोहें फोटू खींचे के होय त दरवज्जे पे चल जा! नहीं त बइठ जा लोहे के घर के छत पर!!!

जलालपुर का पुल थरथराया है। कोहरे की चादर ओढ़ इत्मीनान से सोई है सई नदी।
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ठंड के थपेड़े कह रहे हैं..आज तो मैं और मैं ही हूं। स्टेशन के बाहर कुछ लोग सूखी लकड़ियां जलाने का प्रयास कर रहे थे। आग जली तो लपटें ऊपर तक उठने लगीं। आग देख भीड़ जुटने लगी। देखते ही देखते अच्छी खासी भीड़ आग के पास गोलाकार खड़ी हो गई। ऊपर आकाश में पीला चांद और नीचे आग की लपटें। ठंडी हवा दुम दबाकर भाग खड़ी हुई। जब तक #ट्रेन नहीं आ गई हम उसी भीड़ में खड़े कभी आग की लपटों को, कभी चांद को देखते रहे।
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स्टेशन के बाहर अलाव जलाने की व्यवस्था है। सूखी लकड़ियां गिरा कर चली जाती है नगर पालिका। पहले आग तापते हुए लोगों को देखकर लगता था..क्या फालतू वक़्त जाया कर रहे हैं लोग! लेकिन ट्रेन की प्रतीक्षा में आग प्राण दायिनी है। जैसे ही उठती हैं लपटें आग के इर्द गिर्द गोलाकार जमा हो जाती है भीड़। भीड़ में शामिल रहते हैं ट्रेन की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर जमे यात्री, सवारी की प्रतीक्षा में खड़े ऑटो ड्राइवर, रिक्शे वाले और भी आस पास खाली बैठे गुमटी/ठेले वाले। खड़े खड़े लोग आपस में बतीयाते भी हैं।
कब तक जलती है आग?
पूरी रात!
रात में तो भीड़ नहीं होती होगी?
रात में तो और भीड़ रहती है। कोई प्लेटफार्म पर थोड़ी न बैठता है, सब यहीं जमा हो जाते हैं।

बीच बीच में अपने स्तर का हल्का फुल्का मजाक करते प्रसन्नता से आग तापते हैं सभी। किसी ट्रेन के आने का संकेत होता है, कुछ भीड़ छटती है। थोड़ी ही देर में नई ट्रेन का समय होता है, नई भीड़ जुड़ती है। मरुधर के आने का समय हुआ, हम भी चढ़ गए लोहे के घर में।
ख़ाली ख़ाली है इस ट्रेन की भी बोगियां। जोधपुर से चलकर बनारस जाने वाली ट्रेन है। पीछे से किसी यात्री के बड़बड़ाने की आवाज सुनाई पड़ रही है...१२ घंटे लेट हो गई! अब कर लो बात। इस कोहरे में पहुंच रहे हैं, यही क्या कम है? लेट न होती तो हम क्या करते? इन्हीं लेट ट्रेनों का ही तो सहारा है। शुक्र है भगवान का कि इस जाड़े में अपनी वाली के साथ सभी की लेट चलती है। घर से एक यात्री के भागवान का फोन आ रहा है। कितनी मासूमियत से दिलासा दे रहे हैं कि अब पहुंचने ही वाले हैं! ये सोच रहे हैं कि घर में इनकी चिंता हो रही है। जबकी रजाई में दुबकी महिला की चिंता यह होगी कि मुसीबत कब घर आने वाली है! खैर! जिस भाव से भी हो, चिंता तो है। शुभ शुभ, अच्छा अच्छा सोचना चाहिए। नकारात्मक सोच से तो सफ़र और भी दुश्वार लगने लगता है।
ट्रेन की रफ्तार धीमी है। आराम आराम से रुक रुक कर चल रही है। यात्रियों को चाहे जितनी जल्दी हो, अपनी पटरी नहीं छोड़ती ट्रेन। सिगनल और नियम कानून का पूरा ध्यान रखती है। जरा सी चूक हुई नहीं कि लोहे के घर से भगवान के घर जाने में देर नहीं होगी। बड़ा विशाल और बहुत कठिन लगता है रेलवे का परिचालन। बैठे बैठे हम चाहे जितनी आलोचना कर लें लेकिन इनकी समस्या और इनकी कठिनाइयां तो ये ही बेहतर समझ सकते हैं।
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लोहे के घर में एक गोल मटोल सुमुखी मोहतरमा फोन से बातें कर रही हैं। स्वेटर शाल से पूरा बदन ढका हुआ लेकिन मुखड़ा पूनम के चांद-सा खुला-खुला। बातों से पता चल रहा है कि यह अपने ससुराल जा रही हैं। खूब बातूनी लगती हैं। साथ में एक सहयोगी है। काम करने वाली लगती है जिसे यह बहन बता रही हैं। फोन में किसी को बता रही हैं...अम्मी खाना बनाकर टिफिन में दी है। सास दुष्ट है जो बार बार मायके भगा देती है। कहती है… अपने पति को भी लेकर जा, भाग यहां से!
तब आप फिर भी अकेली ससुराल जा रही हैं! डर नहीं लगता?
नहीं, अब तो कोर्ट से आदेश हो गया है ना। रहने के लिए घर में एक कमरा और दस हजार रुपया हर महीने देने का आदेश हो गया है। अब नहीं भगा सकतीं।
पति तो आप के साथ हैं न! फिर क्या चिंता?
नहींss अभी सास ने भड़का कर अपने साथ मिला लिया है ।
इतने गंभीर विषय पर साथ बैठे एक रोज के यात्री से खूब हंस-हंस कर बातें कर रही हैं!
अब कितने दिनों के लिए बनारस जा रही हैं?
अब अपने मर्जी के मालिक हो चुके हैं, जब चाहे जाओ/आओ। मेरी सास और खाला बहुत परेशान करती थीं। इसीलिए कोर्ट जाना पड़ा।
अब आप क्या चाहती हैं?
हर लड़की सुकून चाहती है। लड़ाई झगड़ा कोई नहीं चाहता। सास और खाला हर वक्त परेशान करती थीं और घर से भगा देती थीं।
मित्र को खूब मज़ा आ रहा है बातें करने में..
तीन तलाक पर आपकी क्या राय है?
अच्छा है। एक जगह से पास हुआ है, एक से नहीं। जब दोनों जगह से पास होगा तब न कानून बनेगा? पास हो जाएगा एक दिन। ऐसे खाविंद को सजा मिलनी ही चाहिए। आखिर लड़की घर मां/बाप छोड़ कर आती है। उसके साथ अन्याय नहीं होना चाहिए।
इतनी परेशानियों के बाद भी आप खूब स्वस्थ हैं!
मोहतरमा खुल कर हंसते हुए बोलीं...अरे! हम मोटी नहीं है। खून कम होने से शरीर फ़ूल गया है।
मुझसे रहा नहीं गया, बोल ही पड़ा..अरे! अापको मोटी किसने कहा?
हंसते और हाथ से इशारा करते हुए..भाई साहब ने। मैं खूब समझती हूं। जो भी मुझे देखता है मोटी समझता है लेकिन मैं मोटी नहीं हूं, खून कम होने से शरीर फ़ूल गया है। शादी से पहले खूब पतली दुबली थी। वैसे आप लोग कहां जा रहे?
मैं फिर बोल पड़ा...हम आपके ससुराल वाले हैं।
मोहतरमा हंसते हुए कहने लगीं...तब आप लोग हमारी किसी बात का बुरा मत मानिएगा। हमको बोलने की आदत है।
नहीं, नहीं बुरा क्या मानना! हम लोगों का आज का सफ़र आपकी बातों से ही कट गया।
शाम का समय, लोहे के घर की खिड़कियों से सुर सुर सुर सुर आती कटीली हवा और अजनबी महिला की रोचक बातें। इस महिला के कारण ससुराल वालों का जीना हराम है या ससुराल वालों ने इसका जीना हराम कर रखा है यह तो ऊपर वाला ही बेहतर जानता होगा मगर एक बात तो तय है कि लड़की को ससुराल में प्यार और सम्मान मिले तो वो बिला वजह मुसीबत क्यों मोल लेगी? सुख से रहना कौन नहीं चाहता? और अकेली महिला के लिए पहले तो गुजारा भत्ता की लड़ाई जीतना कठिन है फिर जीतने के बाद गुजारा भत्ता और उसी घर में एक कमरा लेकर रह पाना हैरतअंगेज करने वाला साहस है। यह सबके वश की बात तो नहीं लगती।
पुराने सामाजिक गठबंधन तेजी से टूटते प्रतीत हो रहे हैैं। कोई किसी की अधीनता स्वीकार करना नहीं चाहता मगर दोनों एक दूसरे को गुलाम बनाए रखना भी चाहते हैं। अब नारी किसी हालत में पराधीनता स्वीकार नहीं करना चाहती, अब पुरुष भी सहमा-सहमा सा दिखता है।
ये वैवाहिक संबंध एक ऐसी अबूझ पहेली है जिसे समझ लेने का दावा हर कोई करता दिखता है मगर समझ कोई नहीं पाता। इसमें कोई एक फार्मूला लागू ही नहीं हो सकता। हर जोड़े के अपने अपने नगमें, अपने अपने पेंच - ओ - खम हैं। कभी- कभी तो शतरंज के खेल से प्रतीत होते हैं वैवाहिक संबंध! जिसमें खेल तो शतरंज का ही चल रहा होता है मगर हर खेल दूसरे से जुदा, हर चाल नई होती है। जैसे शुरुआती चालों के बाद दो खेल कभी एक से नहीं खेले गए वैसे ही सुहागरात तो सबने मनाए लेकिन लिखने वाले ने सभी की कहानियां अलग-अलग लिख दीं!