31.5.19

बुद्धिजीवी

बुद्धिजीवी वह जो खाली पेट तो भगवान से भोजन की याचना करे और जब पेट भरा हो, उसी भगवान को गाली देने में रत्ती भर भी संकोच न करे। बुद्धिजीवी वह परजीवी होता है जो खुद को सबसे बड़ा श्रमजीवी समझता है। बुद्धिजीवी वह जो चौबीस घण्टे काम करे मगर अपने कुर्ते में धूल की हल्की-सी परत भी न जमने दे। बुद्धिजीवी वह जो हर पल अपने मुखारविंद से बुद्धि का दान करता रहे। बुद्धिजीवी वह जिसके दरवाजे, दूसरे के खेत की कटी फसल खुद चलकर पहुँचे और नमस्कार करते हुए कहे..श्रीमान जी! मुझे खाने की कृपा करें। बुद्धिजीवी वह जो भक्त और उसकी भक्ति को आतंकवादी कहे मगर चुनाव के मैदान में उसी से पाला पड़ जाय तो उससे भी बड़ा भक्त कहलाए जाने के लिए उससे भी अधिक भजन-कीर्तन, हवन-पूजन करे।

समय के साथ परिभाषाएं बदल जाती हैं। एक जमाना था जब जामवंत जैसा दिखने वाला हर शक्श बुद्धिजीवी कहलाता था। बढ़ी दाढ़ी, खिचड़ी बाल, बेढंगे/मैले कपड़े, नशे में टुन्न होकर, हवा में सिगरेट के छल्ले उड़ाते किसी शक्श को देख हम झट से अनुमान लगा लेते थे कि यह पक्का बुद्धिजीवी होगा। अब ऐसा समझना मूर्खता का सूचक है। अब ऐसी दसा आम मजदूरों की होती है। बुद्धिजीवी अब सड़क पर नहीं भटकता, लोकतंत्र के हर खम्बे के ऊपर शान से चढ़ कर, अपने झण्डे गाड़ता है। पहले बुद्धिजीवियों के रहने का ठिकाना भी दुर्लभ होता था। आज तो, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे बुद्धिजीवी। 

बुद्धिजीवी बनने की एक शर्त यह भी होती है कि उसकी बुद्धि पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो और बाजार में समस्त मूर्खों/ बुद्धिजीवी बनने की प्रक्रिया में लगे सभी बुद्धिमानों के सूचनार्थ उपलब्ध हो। पुस्तक पढ़ना तो उसके लिए भी जरूरी नहीं जिसके नाम से पुस्तक छपी है। सर्वसाधारण को बस संसूचित होना चाहिए कि फलां बुद्धिजीवी इसलिए है कि उसने इतनी सारी किताबें लिखीं हैं। वैसे भी अधिक पुस्तकें लिखने वाले असली बुद्धिजीवी को भी कई साल पहले लिखी अपनी ही बात कहाँ याद रह पाती है! मन चाहे किसी की पुस्तक पढ़कर लेखक से उसी के लिखे से बहस भिड़ा कर देख लीजिए..अपने ही लिखे के विरोध में तर्क देने लगेगा। याद दिलाओ तो कह देगा.."ओह! ऐसा! वह सन्दर्भ ही दूसरा था, पूरा पढ़ो तब समझ पाओगे।" शायद इसी का नतीजा है कि चाहे जिस फील्ड में हों, प्रत्येक बुद्धिजीवी के नाम, कम से कम एक पुस्तक जरूर प्रकाशित होती है। 

बुद्धिजीवी बनने के लिए पी.एच.डी. करके डॉक्टर कहलाने से ज्यादा जरूरी है, कोई श्रमिक आपके विचारों पर पी.एच.डी. करे। बुद्धिजीवी शब्द में ही इतना आकर्षण है कि हर नेता खुद को बुद्धिजीवी कहलाया जाना पसंद करता है। प्यादे से फर्जी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय के तर्ज पर हर नेता के पास मंत्री बनते ही बुद्धिजीवी बनने का सुअवसर हाथ लगता है। वह नहीं तो उसके चेले उसके नाम से एकाध पुस्तक छपवा ही देते हैं। 

मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। पूजा करता हूँ मगर कभी नहीं भी करता। कष्ट में ईश्वर को जरूर याद करता हूँ मगर जब आनंद में होता हूँ, पूछ बैठता हूँ..ईश्वर कौन है? मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। पुस्तक नहीं छपी मगर कोई प्रकाशक मुफ्त में छापने की कृपा करे तो छपवा भी सकता हूँ।  प्रकाशन के लिए पत्रिकाओं में लेख नहीं भेजता मगर कोई मित्र छपवा दे तो पढ़कर खुश भी होता हूँ। जाड़े में बिना नहाए भी रह लेता हूँ मगर गर्मी में रोज नहाने का उपदेश देता हूँ। पँछी को कभी दाना-पानी दिया तो फेसबुक में पोस्ट करना नहीं भूलता। मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ। गर्मी में गर्मी का रोना रोता हूँ, बारिश में भीगने से डरता हूँ और जाड़े में ठंड से काँपने लगता हूँ। मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ।

मैं भी बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हूँ।  मेरी तरह और भी बहुतेरे ब्लॉगर्स/ फेसबुकिए राइटर, बुद्धिजीवी बनने के मार्ग पर हैं। कोई-कोई तो पुस्तक-उस्तक छपवाकर, ईनाम-विनाम पाकर बाकायदा बुद्धिजीवी घोषित हो चुके हैं। कोई प्रिंट मीडिया से दोस्ती भिड़ाकर, अपने लिखे कूड़े को भी छपवाकर सर्वमान्य बुद्धिजीवी बन चुके हैं। कुछ असली बुद्धिजीवियों को लगा कि फेसबुक में तो बहुत से बुद्धिजीवी हैं तो वे भी इस प्लेटफॉर्म का उपयोग अपने प्रकाशित पुस्तकों के प्रचार प्रसार के लिए करने लगे। हमको इस आभासी संसार मे सबसे सही बुद्धिमान वे लगे जो लेखन, आलोचना छोड़, सीधे प्रकाशक ही बन बैठे। अब इस घालमेल में असली/नकली का भेद कर पाना बड़ा ही कठिन काम है। जो बुद्धिमान होगा वह तो झट से फर्क कर लेगा, जो अनाड़ी होगा वह लाइक और कमेंट को ही बुद्धिजीवी होने का पैमाना मान कर चलेगा। बुद्धिजीवियों की असली पहचान तब होती है जब देश में चुनाव होते हैं। बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी किसी पार्टी के गली के कार्यकर्ता की तरह आपस में झगड़ते देखे जाते हैं। चुनाव के समय बुद्धिजीवियों के चेहरे से बुद्धि का रंग उतरते देख आप भी दांतों तले उँगलियाँ दबा कर चीख पड़ते हैं.. अरे! यह तो रँगा सियार था! 

जैसे सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के वसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से, वैसे ही जो नकली बुद्धिजीवी हैं अपने समय के साथ विस्मृत हो जाएंगे और जो असली बुद्धिजीवी हैं, कबीर की तरह लोगों के जेहन में खोपड़ी-खोपड़ी कूदते हुए सदियों-सदियों तक नज़र आते रहेंगे। बुद्धिजीवी होना गाली नहीं, घनघोर तपस्या का फल है जो सदी में बिरले के भाग में नसीब हो पाता है। आप भी बुद्धिजीवी होने के मार्ग पर हैं तो कुछ गलत नहीं कर रहे बस यह मानना छोड़ दीजिए कि मैं बुद्धिजीवी हूँ। बुद्धिजीवियों की दिल्ली से, मेरी तरह आप भी, अभी कोसों दूर हैं।

13.5.19

माँ

पिता स्वर्ग में रहते
घर में
बच्चों के संग
मां रहती थीं।

बच्चों के सुख की खातिर
जाने क्या-क्या
दुःख सहती थीं।

क्या बतलाएं
साथी तुमको
मेरी अम्मा
क्या-क्या थीं?

देहरी, खिड़की,
छत-आंगन
घर का कोना-कोना थीं।

चोट लगे तो
मरहम मां थीं
भूख लगे तो
रोटी मां थीं
मेरे मन की सारी बातें
सुनने वाली
केवल मां थीं।

स्कूल नहीं गईं कभी पर
कथा कहानी सब सुनती थीं
क्या गलत है, क्या सही है
मां झट से
बतला देती थीं।

बच्चे आपस में लड़ते तो
तुम्हें पता है क्या करती थीं?
जंजीर थी, आँसुओं की,
बांध-बांध पीटा करती थीं।

पिता स्वर्ग में रहते
घर में
बच्चों के संग
मां रहती थीं।

बच्चों के सुख की खातिर
जाने क्या क्या
दुःख सहती थीं।
....................

12.5.19

नदी और कंकड़

वह
घाट की ऊँची मढ़ी पर बैठ
नदी में फेंकता है
कंकड़!

नदी किनारे
नीचे घाट पर बैठे बच्चे
खुश हो, लहरें गिनने लगते हैं...
एक कंकड़
कई लहरें!
एक, दो...सात, आठ, नौ दस...बस्स!!!
वह
ऊँची मढ़ी पर बैठ
नदी में,
दूसरा कंकड़ फेंकता है..।

देखते-देखते,
गिनते-गिनते
बच्चे भी सीख जाते हैं
नदी में कंकड़ फेंकना
पहले से भी ऊँचे मढ़ी से
पहले से भी बड़े और घातक!
कोई कोई तो
पैतरे से
हाथ नचा कर
नदी में ऐसे कंकड़ चलाते हैं
कि एक कंकड़
कई-कई बार
डूबता/उछलता है!
कंकड़ के
मुकम्मल डूबने से पहले
बीच धार तक
बार-बार
बनती ही चली जाती हैं लहरें!!!

न बच्चे थकते हैं
न लहरें रुकती हैं
पीढ़ी दर पीढ़ी
खेल चलता रहता है
बस नदी
थोड़ी मैली,
थोड़ी और मैली
होती चली जाती जाती है।
...............

5.5.19

दड़बे के कबूतर


एक दड़बा था जिसमें निर्धारित संख्या में कबूतर रोज आते/जाते थे। कबूतर न सफेद थे न काले। श्वेत से श्याम होने की प्रक्रिया में मानवीय रंग में पूरी तरह रंग चुके थे। कबूतरों के दड़बे में आने का समय तो निर्धारित था मगर जाने का कोई निश्चित समय नहीं था। दड़बे में रोज आना और अनिश्चित समय तक खुद को गुलाम बना लेना कबूतरों की मजबूरी थी।  उनको अपने और अपने बच्चों के लिए दाना-पानी यहीं से मिलता था।

यूँ तो देश के कानून ने आने के साथ जाने का समय भी निर्धारित कर रखा था लेकिन जिस शहर के मकान में वह दड़बा था उस जिले में राजा ने कबूतरों को नियंत्रित करने और देश हित के कार्यों के लिए जिस बहेलिए की तैनाती कर रखी थी उसे देर शाम तक कबूतरों के पर कतरते रहने में बड़ा मजा आता था। इसका मानना था कि पर कतरना छोड़ दें तो बदमाश कबूतर हवा में उड़ कर बेअन्दाज हो जाएंगे! 

कबूतर भी जुल्म सहने के आदी हो चुके थे। बहेलिया जब किसी एक कबूतर को हांक लगाता, सभी हँसते हुए आपस में गुटर गूँ करते...'आज तो इसके पर इतने काटे जाएंगे कि फिर कभी उड़ने का नाम ही नहीं लेगा!' थोड़ी देर में पर कटा कबूतर तमतमाया, रुआंसा चेहरा, गधे की तरह रेंगते हुए  साथियों के बीच आता और मालिक को जी भर कर कोसता। यह साथी कबूतरों के लिए सबसे आनन्द के पल होते मगर परोक्ष में ऐसा प्रदर्शित करते कि उन्हें भी बेहद कष्ट है!

ऐसा नहीं कि बहेलिया सभी के प्रति आक्रामक था। दड़बे में झांकने वाले कौओं, गिलहरियों, लोमड़ियों, चूहे-बिल्लियों, भेड़ियों या शेर को देखकर गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर था। किसी को डाँटता, किसी को पुचकारता और किसी किसी के आगे तो पूरा दड़बा ही खोल कर समर्पित हो जाता!

एक दिन उद्यान से भटक कर अपने घोसले को ढूँढता, उड़ता-उड़ता एक नया कबूतर दड़बे में आ फँसा! नए कबूतर को देख बहेलिए की बाँछें खिल गईं..'यह तो तगड़ा है! अधिक काम करेगा।' जैसा कि बहेलियों की आदत होती है वे अपने जाल में फँसे नए कबूतरों का तत्काल पर कतर कर खूब दाना चुगाते हैं ताकि वे नए दड़बे को पहचान लें और इसे ही अपना घर समझें। वह भी नए कबूतर पर मेहरबान हो गया। पुराने कबूतर का चारा भी नए कबूतर को मिलने लगा। साथी कबूतर शंका कि नजरों से गुटर गूँ करने लगे..'कहीं मेरा भी चारा यही न हड़प ले!'

नया कबूतर जवान तो न था लेकिन खूब हृष्ट-पुष्ट था। दड़बे में जिस स्थान को उसने बैठने के लिए चुना वह एक युवा कबूतर का ठिकाना था। संयोग से जब नया कबूतर उद्यान से उड़कर आया, वह एक लंबी उड़ान पर था। लम्बी उड़ान से लौट कर जब युवा कबूतर दड़बे में वापस आया  तो उसने अपने स्थान पर नए कबूतर को बैठा हुआ पाया! आते ही उसने नए पर गहरी चोंच मारी। बड़ा है तो क्या ? मेरे स्थान पर बैठेगा? झगड़ा बढ़ता इससे पहले ही साथियों ने बीच बचाव किया और मामला रफा-दफा हो गया। सब समझ चुके थे कि अब यह भी हमारी तरह रोज यहीं रहेगा। नया कबूतर, जो पहले दड़बे में आ कर खूब खुश था, जल्दी ही समझ गया कि मैं गलत जगह आ फँसा हूँ। यह तो एक कैद खाना है! बात-बात में बड़बड़ाता..कहाँ फँसायो राम! अब देश कैसे चलेगा!!!

बहेलिए ने कबूतरों की पल-पल की गतिविधियों की जानकारी के लिए एक 'काकाकौआ' पाल रखा था। काका कौआ भी मानवीय रंग-ढंग में रंगे कबूतरों के बीच रहते-रहते अपनी धवलता खो कर काला हो चुका था। यूँ तो वह दड़बे की देखभाल के लिए नियुक्त प्रधान सेवक था लेकिन अपने मालिक का आशीर्वाद पा कर हँसमुख और मेहनती होने के साथ-साथ बड़बोला भी हो चुका था। कभी-कभी उसकी बातें कबूतरों को जहर की तरह लगतीं। शायद यही कारण था कि जब काम लेना होता तो सभी कबूतर उसे 'काका' बुलाते और जब कोसना होता 'कौआ' कहते! उसका काम था मालिक के आदेश पर कबूतर को दड़बे से निकाल कर उन तक पहुंचाना। जब तक कबूतर ठुनकते, मुनकते हुए मालिक के कमरे तक स्वयं चलकर न पहुँच जाते वह लगातार चीखता-चिल्लाता रहता। न उठने पर हड़काता और मालिक से शिकायत करने की धमकी देता। मरता क्या न करता! काका कौआ को 'कौआ कहीं का!' कहते हुए कबूतर दड़बे से निकल कर मालिक के दड़बे तक जाते। काका कौआ उन्हें हँसते हुए जाते देखता और पीछे से कोई तंज कसते हुए खिलखिलाने लगता। मालिक ने पर नहीं कतरे, सिर्फ धमकी दे कर छोड़ दिया तो वह उड़कर काका को ढूंगता हुआ वापस दड़बे में घुस कर, साथियों के ताल से ताल मिलाकर गुटर गूँ करने लगता।

जैसे सरकारी सेवा में काम करने की एक निश्चित उम्र हुआ करती है वैसे ही यहाँ के कबूतर भी एक उम्र के बाद मुक्त कर दिए जाते थे। उस दिन एक बूढ़े हो चले कबूतर की विदाई थी। साथियों ने धूमधाम से विदाई समारोह मनाया।  विदाई के समय बहेलिए ने भी उसकी लंबी सेवा की सराहना तो खूब करी लेकिन उसके जाने के बाद उसकी गलतियों के दंड स्वरूप उसके द्वारा सेवा काल में बचाए अन्न की गठरी का कुछ भाग जब्त कर लिया और दूसरे कबूतरों से उसके घर खबर भिजवा कर आतंकित करता रहा कि क्यों न तुम्हारे अपराधों के लिए तुम्हें एक काली कोठरी में बंद कर दिया जाय? यह सब देख दड़बे के कबूतर दिन दिन और भी भयाक्रांत रहने लगे।