31.3.12

ब्लॉग पढ़कर जगे भाव....1


कड़ुवा सच को पढ़कर ....

उस शहर में बीपी का मरीज नहीं होगा
जिस शहर में अखबार जाता नहीं होगा।
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जंगल में घूमते थे तब तक तो ठीक था
बस्ती में आ गये हो अब आईना छुपा लो।
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खड़ा होता रू-ब-रू धनुष की तरह
पलटकर भौंकता जैसे तीर छूटा है।
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बस्ती का आलम देख के हैरां है
डर यह है बस्ती में रहना भी है।
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27.3.12

पीपल




हम भटके
बेचैनी में
तुम
ठहरे
हातिमताई।

हम सहते
कितने लफड़े
तुमने
खड़े खड़े
बदले कपड़े !
मेहरबान तुम पर रहती
हरदम  ही
धरती माई।

ना जनम लिया ना फूँका तन
वैसे का वैसा ही मन
कर डाला
फिर सुंदर तन
कहाँ से सीखी
चतुराई ?


बूढ़े हो
दद्दू से भी
दद्दू के दद्दू से भी
बच्चा बन
इठलाते हो
हमे पाठ पढ़ाते हो
अपनी चादर धोने में
हम ढोते
पूरा जीवन
खुद को निर्मल करने में
तुमको लगता
बस एक साल

सच बोलो !  
क्या पतझड़ में
नंगे होते
शरम नहीं आई ?

......................

18.3.12

दो आत्माएँ



जब तक मैं जिस्म में था
लहू दौड़ता था
रगो में
रहते थे करीब
पत्नी, बच्चे, रिश्तेदार, दोस्त और ढेर सारे मच्छर।

तामझाम भी खूब था
समाज  
धर्म   
नैतिकता-अनैतिकता
कहने का मतलब
झूठ के बोझ से
कुचला सच
सच की आड़ में
हंसता झूठ ।

मच्छरों को मारता
जानता कि
ये मेरा खून चूसते हैं
शेष के प्यार में
मारा मारा फिरता
नहीं जानता था
मच्छर भी मुझे वैसे ही प्यार करते थे जैसे...

कभी
कौंधता था सच
पाता था
कुरूक्षेत्र
जागती थी
किंकर्तव्यविमूढ़ता
चाहता था
पलायन
चाहता था
मरना
लेकिन यह आसान नहीं होता
हत्या के लिए
निर्दयी
आत्महत्या के लिए
निर्मोही भी होना होता है
मैं न निर्दयी बन सका
न निर्मोही।

धीरे-धीरे मरा
वैसे ही
जैसे मरते हैं सभी
धीरे-धीरे
दूर होते चले गये सभी
कुछ नहीं रहा शेष
रगो में दौड़ते
लहू
और मच्छरों के सिवा।

जिस दिन
मेरे जिस्म ने अंतिम सांस ली
मैं आजाद  हो
देर तक
मंडराता रहा उसके इर्द गिर्द
मैने देखा
मच्छरों ने भी छोड़ दिया था
उसका साथ !
अब आदमी बनकर पैदा होना
कितना मुश्किल काम है !

आप बताइये ?
आप यहाँ क्या कर रहे हैं !
आपकी सज्जनता की बड़ी तारीफ होती है
लोग आपको
भगवान मानते हैं
आपको तो स्वर्ग में होना था !
यहाँ बेचैनी में क्यों भटक रहे हैं ?

मैं फिर आदमी बनने के चक्कर में हूँ !
कई वर्षों से
ऐसे घर की तलाश में हूँ
जहाँ सभी
एक दूसरे से
खूब प्यार करते हैं।
…………………………………..

11.3.12

हैदराबाद एक संस्मरण



पिछली पोस्ट कुछ पकड़ने में कुछ छूट जाता है में आपने पढ़ा कि हम क्यों और कैसे हैदराबाद पहुँच गये। अब आगे......
  
चारमीनार, चार मीनारों से बनी चौकोर खूबसूरत वास्तुकला की इमारत है। इसका निर्माण  1591 में मोहम्‍मद कुली क़ुतुब शाह द्वारा कराया गया। ग्रेनाइट के मनमोहक चौकोर खम्भों पर बने इस खूबसूरत इमारत पर ऊपर चढ़ने के लिए संकरी सीढ़ियाँ बनी हैं। प्रथम तल पर चढ़ते ही चारों ओर गोल-गोल घूमकर फोटू खिंचवाते लोगों की भींड़ नजर आई। छत पर चढ़ने का द्वार बंद था। छत से पूरे शहर का खूबसूरत नज़ारा दिखता होगा लेकिन किसी ने बताया कि छत का द्वार इसलिए बंद कर दिया गया कि वहां से कूदकर कभी दो युवतियों ने आत्महत्या कर लिया था। लोग खूबसूरती सीधी आँखों से देखने के बजाय कैमरे से देखने में मशगूल थे। पोज पर पोज दिये जा रहे थे। हमने सोचा सुंदर जगह पर आकर ऐसा ही किया जाता होगा। सुंदरता को सीधी आँखों से देखकर मजा लेने के बजाय, कैमरे में कैद कर घर में ले जाकर फोटू देखकर और इससे ज्यादा अपने मित्रों को दिखाकर मजा लिया जाता होगा। हम भी शुरू हो गये। 


मन में लाख पीड़ा हो पर फोटू हिंचवाते वक्त मुस्कुराता हुआ चेहरा जरूर आना चाहिए वरना फोटू खराब माना जाता है। सच दिखाने वाली तस्वीरें कभी अच्छी नहीं लगती। सच बताने वाला चश्मा पहन कर घूमियेगा तो पागल हो जायेंगे। एक आदमी ने कबाड़ी की दुकान से सच बताने वाला चश्मा पा लिया। वह उसे पहनकर जिसे देखता, चेहरे के साथ-साथ उसके मन को पढ़ने की शक्ति भी आ जाती। उसका बेड़ा गर्क हो गया। अच्छे भले खुशहाल जीवन में वज्रपात हो गया। पत्नी बच्चे सभी उसके जान के दुश्मन है यह सच जानते ही वह पागल हो गया। हमे फोटू खींचते देख वहीं पास खड़ा एक युवा सुरक्षा गार्ड हमारे पास आया और बताने लगा कि यहाँ खड़े होकर इस पोज में फोटो खींचिये, अच्छा आता है। हमने तपाक से कैमरा उसे दे दिया। उसने हमारी खूबसूरत तस्वीरें खींची। बड़ा भला था। हमे थोड़ी देर पहले मिले फोटोग्राफर की याद आई। एक वह था और एक यह। एक मूर्ख बनाकर पैसा कमाने से खुश होता है, दूसरा दूसरों की मदद कर खुश होता है। संसार में हर कहीं बुरे भले लोग पाये जाते हैं। शायद संसार की रोचकता इसी से बनी है। सभी अच्छे हो जांय तो सारा मजा जाता रहेगा। नीरस टाइप की जिंदगी हो जायेगी। पता ही नहीं चलेगा कि अच्छा क्या है !



चारमीनार के बगल में ही मक्का मस्जिद है। भव्य और खूबसूरत। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मस्जिद की शुरूआत 1617 ई0 में मुहम्मद कुली क़ुतुबशाह ने की थी लेकिन इसको पूरा औरंगजेब ने 1684ई0 में किया था। इसके विशाल स्तंभ और मेहराब ग्रेनाइट के एक ही स्लेब से बनाये गये हैं। यह कहा जाता है कि यहां के मुख्य मेहराब को मक्का से लाए गये पत्थरों से बनाया गया था, इसीलिए इसका नाम मक्का मस्जिद रखा गया। यहाँ से कबूतरों के झुण्ड और बकरियों के बीच खड़े होकर सामने मस्जिद की इमारत और दूर से हंसता चारमीनार, बड़ा ही खूबसूरत दिखाई देता है। 





चारमीनार के पास ही लाद बाजार है। यह चूड़ी बाजार है। यहाँ के मोतियों की चर्चा पहले ही सुन रखी थी। खूबसूरत मोतियों की माला, कंगन, झुमके देखकर ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप बिना खरीदे वापस लौट जांय। सौभाग्य से आपके पास सौभाग्यवति हों तो आपकी जेब कटनी तय है। क्या हुआ कि आप परदेश में हैं! वह जमाना गया जब आप पत्नी को यह कहकर समझा देते थे, “अरे भागवान! पैसे कम हैं घर भी लौटना है, यहां परदेश में कौन हमारी पैसे से मदद करेगा ? रहने दो, फिर आयेंगे तो खरीदेंगे।“  अब आपकी श्रीमतीजी को भी मालूम है कि आप चाहें तो फोन घुमाकर पैसे कम पड़ने पर मित्रों से उधार मांगकर भी पैसे अपने खाते में जमा करवा सकते हैं। खूब मोलभाव करने के बाद, चार-पाँच हजार की खरीददारी कर चुकने के बाद हम वहां से रूखसत हुए तो बड़े जोरों की भूख लग चुकी थी। 


मक्का मस्जिद के पास खाई स्वादिष्ट बेकरी और मस्त चाय कब तक थामती। आसपास कोई बढ़िया होटल नज़र नहीं आया। पूछने पर पता चला कि दो चार किलोमीटर दूर राजधानी होटल है जहाँ उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय जो चाहें बढ़िया थाली मिल जाती है। एक ऑटो से वहाँ पहुँचे और उत्तर भारतीय तीन थालियों का ऑर्डर दिया। थाली में केले के पत्ते के ऊपर सजी खूबसूरत कटोरियों के बीज जब भोजन सामने आया मन प्रसन्न हो गया। भोजन स्वादिष्ट था लेकिन इत्ता ढेर सारा था कि हम आधा ही खा सके। कल शाम कि हैदराबादी बिरयानी, सुबह की बेकरी-मिठाइयाँ और दिन की स्वादिष्ट थाली उड़ाने के बाद मानना पड़ा कि स्वादिष्ट भोजन के मामले में भी हैदराबाद लाज़वाब शहर है।

मन तृप्त होने के बाद हम ऑटो से बिड़ला मंदिर गये। वैसे भी हम तृप्त होने के बाद ही मंदिर जाना पसंद करते हैं। भूखे-प्यासे, कष्ट में कभी भगवान के पास नहीं जाते। तृप्त रहने पर दर्शन करने का मजा ही कुछ और है। ईश्वर को धन्यवाद देने का मन करता है । यहाँ दर्शन पूजन का नहीं, नये स्थान में घूमने का भाव था। ऊँचे पहाड़ पर स्थित श्वेत संगमर्मर के बने इस विशाल और भव्य मंदिर से सम्पूर्ण हैदराबाद का विहगंम दृश्य दिखलाई पड़ता है। सामने विशाल हुसैन सागर (यह एक कृत्रिम झील है जो हैदराबाद को सिंकदराबाद से अलग करती है। जिसके बीचों बीच गौतम बुद्ध की 18 मीटर ऊँची प्रतिमा स्थापित है),  दूर-दूर तक फैले कंकरीट के श्वेत दिखते जंगल और चौड़ी सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों का देखना काफी रोमांचित करता है। योजनाबद्ध तरीके से बसे इस खूबसूरत शहर को देखकर इंसानों के द्वारा निर्मित कृत्रिम सौंदर्य पर फख्र करने का मन करता है। यहां के खूबसूरत नज़ारे को कैमरे में कैद न कर पाना काफी खला। यहाँ कैमरा, मोबाइल पहले ही रखवा लिया जाता है।

बिड़ला मंदिर का बाहरी दृश्य


यहाँ से लुम्बिनी पार्क जाने के लिए ऑटो वाले को बुलाया तो उसने 80 रूपये मांगे। मैने अपने स्वभाव के अनुसार मोलभाव किया..50 में ले चलो। वह बोला, ठीक है 50 में छोड़ देंगे लेकिन आपको मोतियों की दुकान में जाना होगा ! मैने कहा..नहीं भाई हमे किसी मोतियों की दुकान में नहीं जाना, हमको जो खरीदना था खरीद चुके हैं। वह बोला..कुछ मत खरीदियेगा बस एक बार दुकान में जाकर कुछ देख दाख कर वापस आ जाइयेगा। दूध का जला छाछ को भी फूँक फूँककर पीता है। मैने कहा...नहीं, हमे किसी मोती-वोती की दुकान में नहीं जाना तुम चलो भले 80 रूपये ले लो।

लुम्बिनी पार्क पहुँचते पहुँचते शाम हो चुकी थी। यह पार्क हुसैन सागर के तट पर स्थित है। यहाँ वही सब कृत्रिम सौंदर्य है जो किसी भी शहर में हो सकता है लेकिन सामने फैले विशाल झील से इसकी सुंदरता बढ़ जाती है। तट पर खड़े जहाजनुमा बड़े बड़े झालरों से सजे बजड़ों में कुछ आकर्षक होगा तभी वहाँ जाने के टिकट लग रहे थे ! अंधेरा हो चुका था, हम थक चुके थे, हमने वहाँ से वापस होटल जाने का निश्चय किया।



बाहर निकलकर ऑटो वाले को बुलाया..ताजमहल होटल चलोगे?” वह बोला, बैठिये ! 80 रूपये लगेंगे। मैने फिर कहा..50 में ले चलो। वह बोला..ठीक है, 50 में ले चलेंगे लेकिन आपको बीच में मोतियों की एक दुकान में जाना होगा !” नहीं..नहीं..आप कुछ मत खरीदियेगा बस एक बार मोती देखकर लौट आइयेगा। मैने झल्ला कर कहा...और अगर मेरी बीबी ने हजार दो हजार की एक माला पसंद कर ली तो पैसे क्या तुम दोगे ? जल्दी चलो हम तुम्हें पूरे 80 रूपये देंगे।”

क्रमशः



7.3.12

कुछ पकड़ने में कुछ छूट जाता है।



कुछ पकड़ने में कुछ छूट जाता है। पढ़ो तो लिखना छूट जाता है। लिखो तो पढ़ना छूट जाता है। घूमो तो दोनो छूट जाता है। ठहरो तो घूमना छूट जाता है। आभासी दुनियाँ में विचरण करो तो यथार्त से परे चले जाते हैं। घर गृहस्थी में जुटो तो आभासी दुनियाँ से नाता टूट जाता है। कभी तो हालत शेखचिल्ली जैसी हो जाती है। शेखचिल्ली एक कटोरा लेकर तेल लेने गया था। कटोरा भर गया। दुकानदार ने कहा, "अभी और तेल है।" शेखचिल्ली ने कटोरा पलट कर पींद में तेल ले लिया। मूल गिरा दिया बस पेंदी में जितना अटा लेकर घर आ गया। जब लोग उस पर हंसने लगे तो उसे ज्ञान हुआ कि मैने तो मूल ही गिरा दिया ! कभी-कभी अपनी हालत भी वैसी ही हो जाती है। हमे इसका आभास ही नहीं होता कि हमने क्या पाया, क्या खो दिया। हमें इसका अहसास भी नहीं होता कि हमें पाना क्या था ! हथेली एक, उंगलियाँ पाँच। अपनी मुठ्ठी से अधिक किसने क्या पाया है? धूप पकड़ने की कोशिश में अंधेरा ही तो बांध कर घर लाया है! पाने की खुशी कम, खोने का शोक अधिक मनाया है। छूटने के मातम तले जीवन बिताया है।

फरवरी का अंतिम सप्ताह, आगे मार्च का महीना। दफ्तर में काम का बोझ। इधर बसंत को ढूँढता, फागुन की आहट से मचलता कवि मन तो उधर दायित्व का एहसास। चुनाव, राजनैतिक उधल पुथल, सत्ता का हस्तांतरण, समाचार सुनने की व्यग्रता, एक जान बीसियों शौक। इन सब के साथ साथ आकस्मिक घरेलू दायित्व। किसी अंग्रेज साहित्यकार ने लिखा है...When rape is necessary then enjoy it ! जब बलात्कार अवश्यसंभावी हो जाय तब उसका विरोध नहीं करना चाहिए..आनंद उठाना चाहिए ! पता नहीं सही लिखा है या गलत लेकिन मैने भी यही किया। पुत्री को लेकर एम बी ए की GDPI दिलाने हैदराबाद जाना पड़ा तो सोचा जब जाना ही पड़ रहा है तो क्यों न हैदराबाद घूमने जा रहे हैं, ऐसा सोचा जाय। साथ में श्रीमति जी को भी ले लिया। हैदराबाद मेरे लिए एकदम से नया शहर। ट्रेन से लगभग 30 घंटे का रास्ता। ट्रेन में आरक्षण की समस्या। जाने का वेटिंग टिकट निकाला जो किस्मत से कनफर्म हो गया। आने का टिकट तीन किश्तों में निकाला। सिकंदराबाद से नागपुर, 6 घंटे बाद दूसरी ट्रेन से नागपुर से इटारसी और फिर 10 घंटे बाद इटारसी से वाराणसी। इटारसी तक तो रिजर्वेशन मिल गया लेकिन इटारसी के बाद वाराणसी तक का टिकट अंत तक कनफर्म नहीं हुआ। 27 फरवरी की शाम ट्रेन में बैठा तो 28 की रात लगभग 10 बजे हैदराबाद पहुँचा।

रात भर जाड़े में
दिनभर गर्मी में
चौबिस घंटे
मानो पूरा एक साल
बीत गया
लोहे के घर में।

बनारस से चले
शाम पाँच बजे
इलाहाबाद पहुँचे
रात आठ बजे
आयी ठंडी हवा
बंद हुई
शीशे की खिड़कियाँ
लोहे के घर में।

सतना से इटारसी
चली सुरसुरी ठंडी हवा
निकले चादर
बांधे मफलर
कंपकपाई हड्डियाँ
रात भर
लोहे के घर में।

रातभर
कपाया मध्यप्रदेश ने
भोर हुई  
सहलाया महाराष्ट्र ने
आंध्रा ने किया स्वागत
चली गर्म हवा
लोहे के घर में।

कहां ढूँढ रहे थे
रात भर कंबल
याद आ रही थी
घर की रजाई
कहाँ तलाशने लगे
शीतल पेय
आइस्क्रीम
झटके में बदलता है
मौसम
लोहे के घर में।
....................................

लो जी ! यह तो कविता ही बन गई 

रात सिंकदराबाद, होटल ताजमहल में ठहरे। एक दिन का समय लेकर चले थे सो सुबह उठकर पहुँच गये चारमीनार। चारमीनार में जैसे ही आटो रूकी एक फोटोग्राफर प्रकट हुआ। अपनी कई फोटू दिखाकर बोला...ऐसी फोटो खिंचवानी है ? मैने कहा.. नहीं यार, मेरे पास कैमरा है। वह तपाक से बोला..आपके कैमरे से खींच देते हैं, एकदम ऐसी वाली आयेगी। आप नहीं खींच पाओगे। एक स्नैप के 5 रूपये लगेंगे। मैने भी सोचा कि हम तीनो की फोटो कोई दूसरी ही खींच पायेगा। ऐरे गैरे से खिंचवाने से अच्छा है पाँच रूपया दे ही दें। बोला..चलो खींच दो। वह हमे एक तरफ ले गया और धड़ाधड़, मेरे मना करते-करते 8 स्नैप खींच दिया। मैने कहा तुम लाख खींचो पैसा तो हम एक के ही देंगे, तब जाकर रूका। बड़ी मुश्किल से 20 रूपैया देकर जान छुड़ाई। जब सही स्थान मालूम हो गया तो बाकी फोटू तो हम भी खींच सकते थे !

   

कुछ पकड़ने में कुछ छूट जाता है। संस्मरण लिखो तो होली का त्योहार छूट जाता है। गोजिये के समानों की लिस्ट बगल में धरी है, पप्पू चाय की दुकान में होली के पोस्टर चिपक चुके हैं। मित्र लोग होलियाना मूड में फोनियाये जा रहे हैं...का यार ! घरे से निकलबा कि ब्लगवे में चिपकल रहब। इंटरनेट न हो गयल जी कs जंजाल हो गयल। आवा, इहाँ से फोटू हींच के चिपकावा फेसबुक में..! मजा आ जाई। अब होली तो नहिये छूटने देना है..संस्मरण...फिर कभी। क्रमशः मान लीजिए। सभी को होली की ढेर सारी शुभकामनाएं।