28.5.20

लोहे का घर 60

लोहे के घर की खिड़की से
बगुलों को
भैंस की पीठ पर बैठ
कथा बाँचते देखा।

धूप में धरती को
गोल-गोल नाचते देखा।

घर में लोग बातें कर रहे थे...
किसने कितना खाया?
हमने तो बस फसल कटे खेत में
भैस, बकरियों को
आम आदमी के साथ भटकते देखा।

खिड़की से बाहर चिड़ियों को
दाने-दाने के लिए,
चोंच लड़ाते देखा।

सूखी लकड़ियाँ बीनती,
माँ के साथ कन्धे से कन्धा मिलाये भागती
छोरियाँ देखीं। 

गोहरी पाथती,
पशुओं को सानी-पानी देती,
घास का बोझ उठाये
खेत की मेढ़ पर
सधे कदमों से चलती
ग्रामीण महिलायें देखीं।

लोहे के घर की खिड़की से
तुमने क्या देखा यह तुम जानो, 
हमने तो
गन्दे सूअर के पीछे शोर मचा कर भागते
आदमी के बच्चे देखे।
............

24.5.20

बच्चे

रोटी पर बैठकर
उड़े थे
कोरोना खा गया रोटी
पैदल हो गए
सभी बच्चे

तलाश थी
ट्रेन की, बस की
कुचले गए
पटरी पर, सड़क पर

हम
धृतराष्ट्र की तरह
अंधे नहीं थे
देखते रहे दूरदर्शन
देखते-देखते
मर गए
कई बच्चे!

शहर से
पहुँचे हैं घर
बीमार हैं, लाचार हैं
जागते/सोते
देखते हैं स्वप्न...
रोटी का सहारा हो तो
उड़ चलें
फिर एक बार
यहाँ तो
डर है! नफरत है!
कैसे रहें?
..........

20.5.20

बह रही उल्टी नदी.....


तुम नदी की धार के संग हो रहे थे
फेंककर पतवार भी तुम सो रहे थे।

बह रही उल्टी नदी, अब क्या करोगे?
क्या नदी के धार में   तुम फिर बहोगे?

चढ़ नहीं सकती पहाड़ों पर नदी
है   बहुत  लाचार देखो यह सदी।

डूब जाएंगे सभी घर, खेत, आंगन
या तड़प, दम तोड़ देगी खुद अभागन!

किंतु सोचो तुम भला अब क्या करोगे?
बच गए जो भाग्य से क्या फिर बहोगे?

बहना पड़े गर धार में, इतना करो तुम
पतवार भी यूँ भूलकर मत फेंकना तुम

फिर नदी उल्टी बही तो, लड़ सकोगे
जब तलक है प्राण, आगे बढ़ सकोगे।
..............

18.5.20

दृष्टि

हम सभी को मिली है
दृष्टि संजय की!
देख सकते हैं दशा
कुरुक्षेत्र की।

धृतराष्ट्र बन पूछते
कितने मरे?
आज तक घायल हुए
कितने बताओ?

चल रहे हैं सड़क पर
मजदूर सारे
लड़ रहे हैं निहत्थे
क्रूर पल से।

ठीक है किंतु अब तुम
यह बताओ?
क्या कोई, अपना/सगा
घायल पड़ा है?

दूर है काल फिर तो
भय नहीं है
दृष्टि बदलो अब जरा
गाना सुनाओ।

14.5.20

कविता सुनाने का नशा

एक बनारसी कवि ने दो बनारसी कवियों का एक मजेदार किंतु सत्य किस्सा सुनाया। जिसे मैं अपने शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। दोनो कवि मुफलिसी में जीवन गुजारते लेकिन कविता के लिए जान देते। एक दिन एक कवि ने रात्रि में 10 बजे दूसरे कवि का दरवाजा खटखटाया...

कवि जी हैं? कवि जी छंद रच रहे थे, अचकचा कर द्वार खोला तो सामने दर्पण में अपनी छवि की तरह दूसरे मित्र कवि को खड़ा पाया। चौंक कर बोले...इस समय ! यहाँ!!! आइए, आइए, भीतर आइए, बाहर क्यों खड़े हैं? 

कवि जी कमरे में घुसते ही बोले..एक नई कविता लिखी थी, सोचा सुना ही दूँ। गलत समय आ गया, आपको कोई एतराज तो नहीं? 

आतिथेय ने अतिथि से कहा..नहीं, नहीं, एतराज कैसा! आपने तो मेरी मुश्किल आसान कर दी। मैं अभी छंद पूरा करते-करते सोच रहा था.. श्रीमती जी तो कविता के नाम से चिढ़ती हैं, किसे सुनाऊँ?  तभी किस्मत से आप आ गए। शीतल जल पिलाता हूँ, आप अपनी कविता प्रारम्भ कीजिए।

अतिथि कवि प्रसन्न हो कविता सुनाने लगे और आतिथेय वाह! वाह! करने लगे। इधर कविता समाप्त हुई, उधर कवि जी के सब्र का बांध टूटा...आपने बहुत अच्छी कविता सुनाई अब मेरा छंद सुनिए। प्रशंसा से मुग्ध मेहमान जी ने कहा..हां, हां, सुनाइए। मेजबान कवि जी ने अपना ताजा छंद सुनाया और मेहमान कवि जी ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करी।

कविता सुनने सुनाने का यह दौर लम्बा चला। रात्रि के डेढ़ बजे गए। दूसरे कमरे से रह-रह कर श्रीमती जी के गुर्राने और बाउजी के नींद में खर्राने की आवाजें साफ सुनाई पड़ रही थीं। तभी मेहमान कवि जी ने डरते-डरते फरमाइश की...एक कप चाय मिल जाती तो....मजा आ जाता, नहीं? मेजबान मांग सुन, मन ही मन थर्राए..घर में न दूध न चायपत्ती। होती भी तो सर फोड़ देतीं श्रीमती जी। प्रत्यक्ष में हकलाए...हां, हां, क्यों नहीं, लेकिन श्रीमती जी तो सो चुकी लगती हैं। चलिए, बाहर चाय पिलाते हैं आपको। 

मेहमान जी बोले..रहने दीजिए, जब घर मे नहीं मिल रही तो इतनी रात में बाहर कहाँ मिलेगी? 

मेजबान कवि जी ताव खा गए..मिलेगी कैसे नहीं! आपने चाय पीने की इच्छा प्रकट की तो हम आपको चाय पिलाए बिना जाने कैसे दे सकते हैं! चलिए, घर से बाहर निकलिए तो सही।

दोनो कवि मित्र रात्रि के टेढ़ बजे सड़क की खाक छानते, चाय की दुकान ढूँढते, सुनते/सुनाते चले जा रहे थे। कहीं दुकान खुली होती तब न चाय मिलती। रथयात्रा से साजन सिनेमा हॉल तक (लगभग 2 किमी) चले आये, चाय नहीं मिली। मेहमान निराश हो बोले..मैं तो पहिले ही कह रहा था, चाय नहीं मिलेगी। मेजबान बोले..कैसे नहीं मिलेगी? चलिए, कैंट रेलवे स्टेशन तक चलते हैं, वहाँ तो रात भर दुकानें खुली रहती हैं। 

रेलवे स्टेशन लगभग 4 किमी दूर था लेकिन वे चलते रहे। आगे चौराहे पर पुलिस की जीप रात्रि गश्त में निकली थी। दरोगा जी ने देखा..दो दुबले-पतले सात जनम के भूखे युवक, बिखरे बाल, बढ़ी दाढ़ी-मूँछें, लहराते, गाते चले जा रहे हैं! रोककर पूछा...शराब पी रखी है? कहाँ जा रहे हो इतनी रात को? कवियों को गुस्सा आ गया। राष्ट्र चिंतकों का यह अपमान! घोर कलियुग है। गुर्राकर बोले..हम कवि हैं। कविता सुनाकर थक गए तो चाय पीने स्टेशन जा रहे हैं। आपको हमसे तमीज से बात करनी चाहिए। दरोगा जी को गुस्सा आ गया। सिपाहियों से कहा..पकड़कर गाड़ी में बिठाओ, दोनो को। एक रात बन्द रहेंगे हवालात में तो रात में घूमना भूल जाएंगे।

कवि विरोध करते रहे लेकिन भारत मे पुलिस से बड़ा कौन है? दोनो को गाड़ी में बिठाया और 10 किमी दूर मडुआडीह स्टेशन के पास उतारते हुए दरोगा जी बोले..कवि हो इसलिए छोड़े दे रहे हैं, कवि न होते तो जेल में बन्द कर देते। जाओ! सुबह तक चाय जरूर मिल जाएगी। पी कर ही घर जाना। 

दोनो खिसियाए, मुँह लटकाए, दरोगा जी को कोसते, घर की ओर पैदल ही चलने लगे। दोनो मित्रों को घर पहुँचने में भोर हो गया लेकिन मानना पड़ेगा कि चाय पीकर ही एक दूसरे को गुडबाय कहा।

12.5.20

खुश रहिए, मस्त रहिए

हँसाना पहले भी
आसान नहीं हुआ करता था
फिर भी लोग
हँसते थे, हँसाते थे।

अब तो
और भी कठिन हो गया है
दिन ब दिन
बढ़ती जा रही है
दुखियारों की संख्या
और हँसाने वाले, रोने लगे हैं
खुद ही।

फिर भी,
यह जानते हुए भी कि
कम ही होते हैं
जान से ज्यादा
चाहने वाले दुनियाँ में
जब तक
जान में जान है
खुश रहिए, मस्त रहिए
मरना तो है ही
एक दिन
नहीं आया, कोई यहाँ
अमर होकर।
...............

11.5.20

मन बेचैन

मध्य रात्रि का समय है
जारी है बारिश की टिप-टिप
सावन भादों की नहीं
जेठ की बारिश है
अभी तीन दिन पहले ही थी
वैशाख पूर्णिमा।

रात को
आँधी आई थी
रह रह चमक रही है बिजली
गरज रहे हैं बादल
जारी है बूँदा-बाँदी
घण्टों से गुल है
बिजली
ताकत भर जलकर
खतम हो चुका है
इनवर्टर भी
बाहर/भीतर अँधेरा है
घुप्प अँधेरा।

नींद नहीं आ रही
बाहर
झरते हुए पानी का संगीत है,
हवा से लहराते
वृक्षों की शाखों का शोर है
भीतर
गहरा सन्नाटा है
रह रह
खुली खिड़की से आकर
मुझे छू कर
अंधेरे में गुम हो जाते हैं
ठंडी हवा के झोंके।

क्या करूँ?
मोबाइल में बैटरी तो है
नई फिल्म देखना शुरू करूँ?
मित्रों के फेसबुक/वाट्सएप स्टेटस पढूँ?
कितना पढूँ?
कोरोना का अपडेट तो देख लिया
कितना देखूँ?

मन कर रहा है
उठकर
बाँसुरी बजाऊँ!
नहीं,
बवाल हो जाएगा
जग जाएंगे
गहरी नींद में सोए
घर/पड़ोस के
सभी भूत।

जब मेरे पास कोई समाधान नहीं है तो
आप क्या बताएंगे कि मैं
क्या करूँ? 😢

सोचता हूँ
वो बड़ी खोपड़ी वाला चाणक्य
पूरे मगध की नींद उड़ाकर
कैसे सो पाता था
गहरी नींद!
..............

बकवास कविता

चलो!
हम लिखें, तुम लिखो, सब लिखें
बकवास कविता।

पहलवान सर माथे पर
निर्बल दूर भगाएं।
नेता जी की चरण वंदना
साथी को लतियाएँ

लिखो!
अपना चरित्र/आचरण
सतियानास कविता
चलो!
हम लिखें, तुम लिखो, सब लिखें
बकवास कविता।

एक झलक दिखला दिए
समझ गए होगे
अपना कुकर्म अपने को
खूब पता होगा

बताओ!
झूठ/मक्कारी अपनी
लतखोर कविता
चलो!
हम लिखें, तुम लिखो, सब लिखें
बकवास कविता।
........................

मनहूसियत

नीले आकाश में
टँगा है
गुमसुम आधा चाँद,
चिपके हैं
टिमटिमाते कुछ तारे।

धरती में
चाँद/तारों की तरह गुमसुम
खड़े हैं
कदम्ब, अशोक, आम और..
दूसरे वृक्ष

मेरे आसपास
चाँद, तारों और वृक्षों की तरह
खामोश हैं
मनुष्यों के कई घर

इन्ही घरों के बीच
एक घर की छत पर
मध्यरात्रि में
घूम रहा था
मैं भी
खामोशी से
इस उम्मीद के साथ
कि बहेगी
शीतल पुरवाई
लहराकर झूमेंगी
वृक्षों की शाखें
बादलों से करेंगे आँख मिचौली
चाँद/तारे भी

हाय!
ऐसा कुछ नहीं हुआ
थककर
आज फिर पकड़ लिया बिस्तर
खैर...
कल फिर सुबह होगी
देखेंगे..
कबतक छाई रहती है
धरा में
यह मनहूसियत!

रोटी और नींद

औरंगाबाद की घटना सुनी तो पहले लगा, कहीं चलते-चलते हारकर सामूहिक आत्महत्या तो नहीं कर लिया मजदूरों ने! फिर पता चला नहीं, थककर चूर हो गए थे और सो गए थे रेलवे ट्रैक पर। इस घटना से नींद की गहराई का पता चलता है। कितनी गहरी हो सकती है नींद! रेलवे ट्रैक पर भी आ सकती है ! मालगाड़ी की आवाज से भी नहीं टूटती। ट्रैक पर रोटियाँ बिखरीं थीं मतलब उस दिन दुर्भाग्य से पेट भर गया होगा मजदूरों का। भूखे होते तो शायद नहीं आती इतनी गहरी नींद। किसे पता था कि पेट का भरा होना भी, मौत का कारण हो सकता है!

कभी हमको भी आती थी नींद। सोए रहते थे बरामदे में और आतिशबाजी करते हुए संकरी गली से गुजर जाती थी पूरी बारात लेकिन नहीं टूटती थी नींद। वो बचपन के दिन थे। वो दिनभर खेलते रहने के बाद की थकान थी। यह दिनभर रेलवे ट्रैक पर पैदल चलने की थकान है। बहुत फर्क है दोनो थकान में लेकिन नींद में कोई फर्क नहीं। घर में सोए हो तो गली से, गुजर जाती है पूरी बारात, ट्रैक पर सोए हो तो तुम्हें चीरकर, फाड़ते हुए, गुजर सकती है मालगाड़ी।

मजदूरों की नींद नहीं टूटी लेकिन उनके मरने के बाद जाग गई सरकारें। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। अक्सर, हादसों के बाद ही, टूटती है, सरकारों की नींद। विशाखापत्तनम में जागी, औरंगाबाद में जागी और आगे न जाने कितनी बार हमको/आपको आएगी नींद और न जाने कितनी बार जागेंगी सरकारें! 

नींद बड़ी जालिम चीज है। हमारी हो, सरकारों की हो या दूसरे जिम्मेदारों की, जब-जब पेट भरेगा, आएगी जरूर। भूखे को नहीं आती। भूख, भोजन और नींद का आपस मे बड़ा गहरा गठजोड़ है। श्रमिक को थकान लगती है, भूख लगती है और रोटी मिल जाय तो नींद भी लगती है। जैसे रोटी जरूरी है, नींद भी जरूरी है। नींद न लगे तो श्रमिक नहीं कर पाता श्रम। अपने और अपने परिवार की रोटी और नींद से अधिक कुछ सोच भी नहीं पता श्रमिक। सोच ही नहीं पाता तो चाहेगा क्या! मालिक को श्रम चाहिए तो इतना तो करना पड़ेगा। श्रम के बदले, श्रमिकों के लिए रोटी और नींद की व्यवस्था तो करनी पड़ेगी।

रोटी और नींद की व्यवस्था होती तो वह घर नहीं जाता। वह अपने उसी गाँव में वापस जाना चाहता है जहाँ उसके पास काम नहीं है लेकिन उम्मीद है कि वहाँ अपने लोग हैं। आधी रोटी खा कर भी आधी रोटी खिलाएंगे। बहुत खुशी से नहीं जा रहा है घर। तुम्हारा धंधा बन्द हो गया, तुम्हें काम नहीं चाहिए तो छीन ली तुमने उसकी रोटी। दुखी होकर जा रहा है। पैदल जा रहा है। रेलवे ट्रैक पर जा रहा है। जब रोटी मिलती है तो इतनी ताकत भी नहीं बचती कि सोने के लिए कोई सुरक्षित ठिकाना ढूँढ सके। जहाँ है, वहीं सो जा रहा है। सड़क है तो सड़क पर, रेलवे ट्रैक है तो रेलवे ट्रैक पर। हम उनकी तरह थके नहीं हैं, हमारा पेट भरा है और हमको बुद्धि भी आती है कि उन्हें रेलवे ट्रैक पर नहीं सोना चाहिए था। वे थके हैं, भूखे हैं तो जहाँ रोटी मिलेगी, वहीं सो जाएंगे। वे नहीं जागे लेकिन हे मालिक! अब तुम जाग जाओ। रोटी नहीं दे सकते तो सुरक्षित घर तक पहुँचाओ। मत भूलो कि कल फिर सूरज निकलेगा, कल फिर खुलेंगे कारखाने और कल फिर तुम्हें इनकी आवश्यकता पड़ेगी।
...@देवेन्द्र पाण्डेय।

1.5.20

मजदूर एकता एक भद्दा मजाक है।

हम
नारे लगाते रहे..
'कर्मचारी एकता जिंदाबाद'
'इंकलाब जिंदाबाद'
'दुनियाँ के मजदूरों एक हो'

वे समझाते रहे...
तुम हिन्दू हो
मुस्लिम हो
अगड़े हो
पिछड़े हो
दलित हो
अतिदलित हो...।

हम चीखते..
हम मजदूर हैं!
वे कहते...
हां, हां,
हम तुम्हारे सेवक हैं!!!

उनमें
सेवक बनने
और सच्चा, सबसे अच्छा,
दिखने की होड़ लग गई

वे रोटी फेंकते
हम
खाने के साथ साथ
गिनते भी...
किसे अधिक मिला, किसे कम!

अब हम
सिर्फ मजदूर नहीं हैं
हिन्दू हैं
मुस्लिम हैं
अगड़े हैं
पिछड़े हैं
दलित हैं
अतिदलित हैं और
मजदूर एकता!
एक भद्दा मजाक है।