30.10.18

किछौछा शरीफ

गोधूली बेला थी। दून अपने निर्धारित समय से लेट थी मगर अपने काम से छुट्टी के बाद अनुकूल समय पर मिल गई थी और हवा से बातें कर रही थी। हमेशा की तरह खाली खिड़की ढूंढ कर मैं खिड़की के पास बैठ चुका था और खिड़की से बाहर का नजारा लेने में मशगूल था। सई नदी के ऊपर से जब ट्रेन गुजरी तो नदी के रेतीले किनारे के पास एक नाव पर निगाहें एक पल के लिए ठिठक गईं। हाय! क्या सुंदर दृश्य था!!! मेरे मोबाइल का कैमरा ऑन होता तो खींच लेता। ट्रेन भी आज कुछ ज्यादा ही तेज चल रही है। मन मसोस कर अपने आस पास देखने लगा।
मेरा ध्यान मेरे बगल में बैठे एक युवक पर गया जो लगातार अपने दो शरारती बच्चों को बड़े प्रेम से संभाल रहा था और उनके झगड़े सुलझा रहा था। उसकी पत्नी सामने के बर्थ पर लेटी थीं। मैंने आदतन अपनी पूछताछ शुरु की...
लगता है दूर जाना जाना है?
हां, जहां तक यह ट्रेन जाएगी.. हावड़ा।
कहां से आ रहे हैं?
अम्बेडकर नगर से चढ़े हैं।
कौन कौन सी बर्थ है आपकी?
यही आमने सामने दो और उधर दो और..
अच्छा! तो कई लोग हैं?
हां, दस बारह लोग हैं।
इतने में सामने लेटी उनकी श्रीमती जी का गर्जन सुनाई पड़ा..झूठ क्यों बोलते हो? कुल छः लोग तो हैं हम लोग! युवक ने बात संभाली..वैसे तो छः लोग हैं बाकी और भी लोग चढ़े हैं। सांवली महिला अब उठ कर बैठ चुकी थीं.. उनसे हमसे क्या मतलब? हम लोगों की कुल छः बर्थ है भाई साहब। इनके बड़े भाई, भाभी बगल में हैं, मेरी बहन है और बच्चे हैं।
मुझे महिला के भोलपन पर आंनद आने लगा। जिन्हें मैं पहले कर्कश समझ रहा था वो तो बड़ी हंसमुख और सीधी सादी निकली! अब वो चहक कर मुझसे बतियाने लगीं और उनके श्रीमान बच्चे संभालते हुए बस हां में हां मिलाने भर के रह गए।
तो आप लोगों का घर अम्बेडकर नगर है और आप लोग कलकत्ता में किसी कम्पनी में काम करते हैं?
नहीं भाई! हम लोगों का घर, दुकान और काम सब कलकत्ता में है। हम लोग किछौछा शरीफ गए थे।
क्या? की छौ छा ?? ये कहां है?
अरे! आप यहीं के हो कर किछौछा शरीफ नहीं जानते! तभी एक दूसरे यात्री ने समझाया कि यह अम्बेडकर नगर रेलवे स्टेशन से २५ किमी की दूरी पर एक छोटा सा कस्बा है, जहां किछौछा शरीफ की दरगाह है। बिलकुल अजमेर शरीफ की तरह!
मेरे लिए यह एकदम नई बात थी। अजमेर शरीफ का नाम तो सुना था लेकिन अयोध्या के इतने पास स्थित इस दरगाह से बिलकुल अपरिचित था। गूगल सर्च किया तो यह जानकारी हाथ लगी...
किछौछा शरीफ प्रसिद्ध सूफी संत सय्यद मखदूम अशरफ जहांगीर अशरफी की दरगाह के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म ईरान में सेमनान में हुआ था और विशेष रूप से चिश्ती पद्धति को आगे बढ़ाने में उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया। इन संत ने बहुत यात्राएं की और लोगों तक शान्ति का सन्देश पहुँचाया। किछौछा दरगाह शरीफ एक छोटी पहाड़ी पर बना है, जो कि एक ताल से घिरा हुआ है। सम्पूर्ण परिसर संगमरमर, टाइल्स और कांच से सजाया गया है। साल भर हजारों की तादाद में श्रद्धालु भारत और दुनिया भर से इस दरगाह पर आते हैं। यहां एक तालाब है। जिसका पानी अमृत के समान है!
पढ़कर मैंने ऐसे एक लंबी सांस ली मानो मैं वाकई महामूर्ख हूं। कलकत्ते से आकर लोग यहां अपनी मन्नते पूरी होने पर चादर चढ़ा कर वापस भी लौट रहे हैं और मुझे यहीं पास के जिले का होकर भी कुछ नहीं पता! पहले पता होता तो न जाने कितने दबे अरमान वक़्त के पैरों तले बेरहमी से कुचले जाने से पहले ही पूरे हो जाते!!!
महिला चहक रही थीं...वहां तो हर समय हजारों की भीड़ रहती है। परिवार है न भाई साहब, परिवार में किसी न किसी को कोई न कोई कष्ट तो होता रहता है। वहां जाने पर सब कष्ट दूर हो जाता है।
मैंने महिला के पति से पूछा..आप क्यों गए थे? क्या मन्नत मांगी थी? पूरी हुई?
पूरी हुई न! तभी तो चादर चढ़ाने गए थे। दरअसल इनको दिमागी बीमारी थी!!!
अब मेरा दिमाग घूम गया। मैं इतनी देर से एक ऐसी महिला से बातें कर रहा हूं जिनका दिमाग खराब था और अब किछौछा शरीफ की दरगाह में मन्नत मांगने से ठीक हो चुका है। अब मैं खूब ध्यान से उसकी हर हरकतों पर गौर करने लगा। पहली बार बात शुरू करते हुए इनका पति से गरजना..हम लोग छः हैं, झूठ क्यों बोल रहे हैं? फिर मुझे मीठी बोली से समझाना/चहकना। महिला अनवरत जारी थी....
अब हम ठीक हैं भाई साहब। कलकत्ते में कालीघाट के पास अपना घर है। इनकी किराने की दुकान है। बहुत बड़ा है हमारा परिवार। ये लोग चार भाई हैं। सभी एक ही घर में रहते हैं। सबके पास अलग अलग कमरा है। हमने अपने बारे में इत्ता सब बताया अब आप अपने बारे में बताइए?
मैं देर तक उन्हें अपने और बनारस के बारे में बताता रहा। आश्चर्य यह लगा कि उन्हें बनारस के बारे में कुछ नहीं पता था! वैसे ही जैसे मुझे किछौछा शरीफ की दरगाह के बारे में कुछ नहीं पता था। 

28.10.18

पटाखे

जिसे देखते ही पूरे शरीर मे उत्तेजना बढ़ जाती है उस माल का नाम पटाखा माल है। जो आँच दिखाते ही धड़ाम से फूट जाय, जिसके फूटने पर आपका मन आंनद से भर जय तो समझो वही पटाखा माल है। आँच दिखाते-दिखाते आपकी पूरी बत्ती जल जाय और धड़ाम की आवाज भी कानों में न सुनाई पड़े तो समझो वो पटाखा नहीं, फुस्सी माल है। पटाखा देखने और पाने के लिए बाजार में घूमना पड़ता है। माल ही माल को खींचता है। इसलिए पटाखा प्राप्त करने के लिए जेब में माल लेकर बाजार में घूमना पड़ता है। अत्यधिक ज्वलनशील होने के कारण पटाखे मॉल में नहीं बिकते, तंग गलियों में या सड़कों के किनारे पटरी पर सज्ज होकर बिकने के लिए आते हैं। पटाखे खरीदते समय अपनी जेब के साथ अपनी उम्र और क्षमता का भी ध्यान रखना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि पटाखा खरिदा आपने, घर लेकर गए और छुड़ाने के लिए मोहल्ले के लड़कों को बुलाना पड़ा!

हर चीज का एक समय होता है। उम्र के किसी पड़ाव पर जो चीज अच्छी लगती है, समय बीत जाने के बाद वही चीज बेकार लगने लगती है। पटाखों का भी यही हाल है। चुटपुटिया छुड़ाते समय काँपने वाली उँगलियाँ आड़ू बम के धमाकों से भी संतुष्ट नहीं होती। किशोर से जवान हुए तो चाहते हैं कि आड़ू बम में आग लगाने से पहले उसे किसी पुराने टीन के कनस्टर से ढक दिया जाय ताकि धमाके के साथ टीन के परखच्चे उड़ जांय! तंग गलियों के छत पर खड़े होकर, बम को हाथ से पकड़ कर, सुतली में आग लगाकर, नीचे फेंकने में जो मजा है वह बुढ्ढों की तरह पुराने अखबार के ऊपर बम रखकर, अखबार में आग लगाकर, कान में उँगलियाँ घुसेड़ कर, चार हाथ पीछे भागने में कहाँ! 

जैसे पटाखे छुड़ाने में आनन्द की एक उम्र होती है वैसे ही पर्यावरण प्रेमियों के लिए भी त्योहारों में प्रदूषण की चिंता करने का शुभ मुहूरत होता है। धर्मनिरपेक्ष समय मे फैलने वाले प्रदूषणों पर पर्यावरण की चिंता का असर नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह सुनी, अनसुनी रह जाती है इसलिए त्योहारों के समय आवाज बुलंद करनी चाहिए। भले रोज मुर्गा उड़ाते हों लेकिन जब बकरीद का समय आये तो बकरों की कुर्बानी पर टेसुए बहाना सबसे मुफीद होता है। भले एक पौधा न रोपे हों, होली में होलिका दहन के लिए सजाए वृक्षों की डाल पर छाती फाड़ने में चैन आता है। यह और कुछ नहीं, दूसरे के फटे में उँगली करने का हम भारतीयों का पुराना स्वभाव है। स्वच्छता के नाम पर अपना कूड़ा या चूहेदानी में फंसा चूहा जब तक पड़ोसी के दरवाजे पर छोड़ नहीं आते हमारी आत्मा को सुकून नहीं मिलता।

सुंदर लाल बहुगुणा गंगा पर टिहरी बांध का विरोध करते रहे, कोई फर्क नहीं पड़ा। सरकारें गंगा पर बांध भी बनाती रही और सफाई के नाम पर गंगा में हाथ भी धोती रही। न बाँध रुका, न गंगा का पानी ही साफ हुआ। गंगा को मुक्त कर दो तो गंगा की धार स्वयं अपनी सफाई के साथ आपके पाप भी बहा ले जाने में समर्थ है। हम व्यवस्था पर व्यंग्य क्या खाक करेंगे? व्यवस्था सदैव हमारा ही मजाक उड़ाती रहती है और हम सब चुपचाप सहने के आदी हो चुके हैं। जान्ह्वी स्वयं मुक्तिदायिनी, पाप हारिणी हैं और हम उस पर बांध बांध कर उसी की सफाई करने में लगे हैं! गंगा में बांध बांधने से प्रदूषण नहीं होता, दिवाली में पटाखे छुड़ाने से प्रदूषण फैलता है।  

सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना कि दो घण्टे पटाखे छुड़ाने से इतना प्रदूषण नहीं होगा कि समाज सहन न कर सके। हम पूछते हैं कि आज के मंहगाई के जमाने में किस आम आदमी की इतनी हैसियत है कि वह दो घण्टे से ज्यादा पटाखे छुड़ा सके? हमने तो अपने जुनूनी समय मे भी एकाध घण्टे से ज्यादा पटाखे नहीं छुड़ाए! हां, पहले लोग 'मजा लेना है जीने का तो कम कम, धीरे धीरे पी' वाले अंदाज में रुक रुक कर पटाखे छुड़ाते थे, अब वही पटाखे दो घण्टे में ही सारे छुड़ा दिए जाएंगे। पहले मुकाबला चलता था। पड़ोस के भोनू की रॉकेट हवा में उड़ी तो ध्यान से देखा जाता था कि वह कितना ऊपर उड़ा और हवा में कितनी जोर से फटा! फिर उसके मुकाबले अपना दो आवाजा छोड़ा जाता। नीचे भोनू के कान के पर्दे भी फटें और दूर ऊपर जा कर इतनी जोर से फटे की नीचे भोनू की छाती फटी की फटी रह जाय।  

हिन्दुओं की बात करते हो तो हिंदुओं के पटाखे छुड़ाने का एक निर्धारित समय होता है। बदमाश लौंडों की बात छोड़ दो तो लक्ष्मी पूजा समाप्त होने से पहले हिन्दू स्वयं धमाके नहीं चाहते। डरते हैं कि कहीं शोर शराबे से उल्लू डर कर भाग न जांय। वे तभी पटाखे छुड़ाते हैं जब आरती समाप्त होने के बाद दिए भी जला कर खाली हो चुके होते हैं। धनी माने जाने वाले परिवारों के लिए भी पटाखे छुड़ाने के लिए दो घंटे बहुत हैं। अब समय में लफड़ा हो सकता है। पण्डित जी यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित समय शाम आठ बजे से पहले पूजा समाप्त कर दें तब तो ठीक लेकिन यदि पूजा कराते कराते रात के दस बजा दिए तो गए पटाखे पानी में! गुस्से में पटाखे यदि पण्डित जी के सर पर फूटे तो और भी लंबे समय के लिए जेल जाना पड़ सकता है। माननीय न्यायालय के इस आदेश से प्रदूषण कितना कम होगा यह तो कह नहीं सकते लेकिन इतना तय है कि पटाखे छुड़ाने वाले घर के गैंग का ध्यान हर समय लक्ष्मी जी के बजाय घड़ी पर ही टिका रहेगा।

22.10.18

वृन्दावन ...लोहे के घर से एक संस्मरण

कोटा पटना का लेट होने का कोटा अभी पूरा नहीं हुआ है। लेट, और लेट, और और लेट होती चली जा रही है।  कोटा से चलकर रात में आनी थी मथुरा, भोर में आई। सुबह, दिन में बदलने जा रहा है लेकिन यह रुक रुक, छुक छुक चल रही है। भाप का इंजन होता तो इसकी छुक छुक कर्ण प्रिय होती। बिजली का इंजन है, छुक छुक इलेक्ट्रिक शॉक की तरह झटके दे रही है। दिन में पहुंचना था बनारस। अब लगता है, कल भोर में पहुंचेगे। 

मथुरा आने का पारिवारिक कारण था। अवसर मिला तो वृन्दावन और आगरा घूम लिए। अवसरवादी तो सभी होते हैं लेकिन आम आदमी सबसे बड़ा अवसरवादी होता है। अपनी छोटी छोटी पहुंच में छोटे छोटे अवसर तलाशता है। पैर फिसलने से नदी में गिर गया तो नहाकर, हर हर गंगे कहते हुए, मुस्कुराते हुए बाहर निकलता है। ताकि आप समझें कि वह गिरा नहीं था, पुण्य बटोर रहा था। यही हाल अपना है। पारिवारिक मिलना जुलना भी हो गया, घुमाई भी हो गई।

आगरा और वृन्दावन की तुलना में वृन्दावन ने अधिक आनंद दिया। वृन्दावन का माहौल ही राधे राधे है। जिस गली या सड़क से गुजरो.. राधे राधे। खुली नालियों वाली गन्दी गली से गुजरो या चमचमाती सड़कों से हर तरफ कृष्ण की भक्ति और संगीत का माहौल। गली के एक घर से आते संगीत की धुन मध्यम पड़ी तो दूसरे घर से उठता भजन सुनाई पड़ने लगा। कहीं नृत्य का अभ्यास हो रहा है तो कहीं हारमोनियम, झांझ और ढोलक की ताल में राधे राधे। 

वृन्दावन में घूमने की शुरुआत निधि वन से हुई। इसके बारे में कई प्रकार की रहस्यमयी बातें सुन रखी हैँ। इसके हजारों वृक्ष रात के समय गोपियाँ बन जाती हैं! कृष्ण स्वयं रात के समय रासलीला रचाते हैं। दिन डूबते ही आज भी मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। रात के समय मन्दिर प्रवेश की इजाजत किसी को नहीं है। इन सुनी सुनाई बातों से उलट, तुलसी के पौधे जैसे दिखने वाली घनी झाड़ियों के इस छोटे से वन में राधे कृष्ण की मूर्तियाँ विद्यमान थीं। वन में बन्दर और मंदिर में पुजारी अपने पेट के जुगाड़ के लिए भक्तों को आसभरी निगाहों से देखते मिले। दोनो के लालच में गहरी समानता दिखी। भक्तों की आस्था जितनी प्रबल, इनका लोभ भी उतना ही उच्चकोटि का। पुजारियों और बंदरों में फर्क सिर्फ इतना था कि बन्दर चना मिलने ही भाग कर, किसी कोने में दुबक थैला कुतरने लगते, पुजारी चादर में नोट सजा कर और और की जुगत भिड़ाते। बन्दर सामने आ कर मांगते,  पुजारी मुख खोल कर नहीं मांगते पर कैसे और मिले इसकी नई नई तरकीबें सजाते।

इन सबसे अलग आने वाले भक्तों में गजब की आस्था दिखी! कोई ताली पीट पीट ठुमकते, कोई हाथ कमर हिलाकर नृत्य करने लगते। सब तरफ राधे कृष्ण का माहौल। आप में जरा भी आस्था हो तो वहाँ का माहौल ही ऐसा है कि आप भक्ति में डूबे बिना नहीं रह सकते। मैं कौतूहल से सबको देखता रहा। सब से अधिक कौतूलह तो मुझे निधि वन के पौधों को देख कर हुआ। खोखले और अष्टवक्री इन पौधों के पत्ते इतने हरे भरे कैसे हैं! इसमें इतना जीवन और इतनी ऊर्जा कैसे है!!! कौन सी निधि इसमें समाई है कि इसका नाम निधि वन पड़ा?


निधि वन बाहर निकले तो एक पुरुवा स्वादिष्ट लस्सी पी कर थकान मिटाई। दुकानदार खरीदने पर ही पानी देता था। लोग पानी के अभाव में, लस्सी पी कर पुरुवा फेंक दे रहे थे। मैंने दुकानदार को एक बनारसी उपदेश पिलाया। तुम पानी नहीं पिलाते हो, लोग पुरुवे के साथ पुरुवे मे चिपका दही भी फेंक रहे हैं। यह गो रस का अपमान है! तुम्हेँ पानी की व्यवस्था करनी चाहिए। ताकि लोग पुरुवे में घोलकर पानी के साथ दही भी पी जांय। उसने मेरी बात स्वीकार नहीं करी तो नकारा भी नहीं। सिर्फ इतना कहा.. आपकी यह बात अलग है! 

वहाँ से निकल बांके बिहारी मंदिर के लिए चला। संकरी गलियाँ और अपार भीड़। दोनो तरफ सजे भांति भांति के दुकान। मैं गलियों का वीडियो बनाने लगा। एक राधे कृष्ण की तस्वीरों के दुकानदार ने वीडियो बनाने से रोक दिया। मैंने कहा..इससे तो तुम्हारा प्रचार ही होगा। तुम्हें क्या तकलीफ है? उसने भी मेरी बात स्वीकार तो नहीँ किया लेकिन नकारा भी नहीँ। वीडियो बनाने से रोकते हुए सिर्फ इतना कहा.. आपकी यह बात अलग है! 

इन दो दुकानदारों से मैंने यह नसीहत सीखी कि जब कोई आपको सत्य का उपदेश देने लगे तो आप उसकी बात शालीनता से, बिना नकारे हुए कैसे काट सकते हैं! आपको सिर्फ इतना कहना होगा.. आपकी यह बात अलग है!!! हम पान सुर्ती खाते हैँ। कोई मना करेगा। जहर खाने का भय दिखाएगा। अवगुन गिनाएगा तो कह देंगे..आपकी यह बात अलग है! 

बाँके बिहारी मंदिर के चारों तरफ घुसने और निकलने के दरवाजे हैं। मन्दिर में प्रवेश करते ही अपार भीड़ और आस्था के महासागर से सामना हुआ। बेचैन मन, आस्था के सागर से उठने वाली लहरों में, डूबने उतराने लगा। जब आप भीड़ से घिर गए हों तो खुद के बचाव का सबसे सरल उपाय यह है कि आप संघर्ष करने के बजाय भीड़ का हिस्सा बन जाओ। जिधर भीड़ ले जाये, उधर चलते चले जाओ। जो भीड़ करे, वही करते चले जाओ। मैं भी भीड़ की तरह राधे-राधे गाते हुए थिरकने लगा और देखते ही देखते मेरी नैया भी पार हो गई। मतलब बाँके बिहारी के दर्शनोपरांत मन्दिर से बाहर आ गया। बाहर निकल कर कुछ पल आनन्द की अनुभूति में डूबा रहा फिर दूसरे ही पल चप्पल ढूंढने के लिए बाहर की भीड़ से संघर्ष करता रहा। चप्पल उतारा एक गेट में, निकला किसी दूसरे अजनबी गेट से। अब ऐसे में संघर्ष के अलावा चारा क्या था! जब बात अपने पर आती है तो तटस्थ रहने वालों को भी भीड़ से संघर्ष करना पड़ता है। संघर्ष किया और संघर्ष का परिणाम सुखद रहा। मुझे मेरा वही पुराना, बिना पलिस का अधमरा चप्पल एक गेट के कोने में उदास पड़ा मिल गया।

एक इच्छा के पूर्ण होते ही दूसरी इच्छा जागने लगती है। जो पूर्ण हुई उसका जश्न मनाना भूल, मन दूसरे के लिए बेचैन हो उठता है। बाँके बिहारी मंदिर से निकलते ही श्री कृष्ण जन्मस्थली के दर्शन की इच्छा हुई। श्री कृष्ण जन्मस्थली की व्यस्था टंच थी। शाम के नौ बजे का समय था। सौभाग्य से यह भगवान कृष्ण की आरती का समय था। मंदिर के ऊपर बने राधे कृष्ण की भव्य छवि की आरती शुरू ही हो रही थी। भक्त भजन गाते हुए थिरक रहे थे। मन्दिर का प्रांगण खूब बड़ा था। स्थान की तुलना में भीड़ अधिक नहीं थी। शांति और प्रेम का माहौल था। हम भी भक्तों में शामिल हो थिरकने लगे। राधे कृष्ण, राधे कृष्ण जपते हुए सुंदर वस्त्राभूषण से सज्जित, राधे कृष्ण की मनोहर छवि का दर्शन करने लगे। सामने दीवारों पर सुंदरता का वर्णन करते कई छंद अंकित थे। स्वभावतः छंद पढ़ते हुए मूर्तियों की सुंदरता का छंद से मिलान करते रहे। जितने सुंदर छंद, उतनी भव्य मूर्तियों की सजावट। मन आनन्द में ऐसा डूबा कि कब आरती खत्म हुई पता ही नहीं चला। वहाँ से निकल नीचे जन्मस्थली का भी दर्शन किया। जन्मस्थली की दीवारें किसी तानाशाह के जेल की तरह ही लग रहीं थीं। सामने चबूतरे पर लड्डू गोपाल की बाल छवि की तस्वीरें, फूल माला के साथ सजा कर रखी हुई थी। एक पुजारी मन्दिर की साफ़ सफाई कर रहे थे। इस मंदिर के किसी पुजारी के चेहरे पर लोभ नहीं दिखा, सभी कृष्ण भक्ति के प्रेम में डूबे मिले। 

रात भर की भारतीय रेलवे की सुखद यात्रा(जिससे सभी पूर्व परिचित हैं।) और दिन भर की अपनी बेचैनी से अर्जित भगदौड़ ने शरीर को इतना थका दिया था कि फिर कुछ देखने की इच्छा नहीँ हुई। कब पड़ाव पहुंचा, कब भोजन किया और गहरी नींद में सो गया, पता ही नहीं चला। 

अपने पास छुट्टी के फ़क़त दो दिन थे और बहुत कुछ देखना बाकी था। मथुरा से साठ किमी दूर, आगरा का ताज महल भी देखना था। आदतन भोर में नींद खुल गई। अपने साथ सो रहे साथी भाई को जगाया और उन्हें प्रातः भ्रमण के लिए राजी कर लिया। एक दिन पहले की भागदौड़ से वे भी थके थे और सोना चाहते थे। टालने का प्रयास किया लेकिन मेरा मूड देख कर झट पट तैयार भी हो गए। नेट में तलाश किया शहर में सबसे बढ़िया उद्यान कहाँ है? नेट ने चार किलो मीटर दूर शहीद भगत सिंह पार्क का नाम सुझाया। देखा नहीं था इसलिए एक ऑटो पर बैठ गया। मन में प्रेम मन्दिर, वृन्दावन देखने की इच्छा भी दबी हुई थी। आदतन ऑटो वाले से बात चीत शुरू कर दी। उसने बताया कि इस समय प्रेम मन्दिर खुला मिलेगा। मथुरा में जहाँ ठहरे थे वहाँ से वृन्दावन लगभग 14 किमी दूर था। थोड़े मोल भाव के बाद ले जाने और ले आने का भाड़ा तय हो गया और हम पहुँच गए प्रेम मंदिर।

ईश्वर अनुकूल होता है तो सब सही सही घटता चला जाता है। हमने प्रातः साढ़े पाँच बजे मंदिर में प्रवेश किया और वहाँ जाने के बाद पता चला कि ठीक साढ़े पाँच से साढ़े छः तक मंदिर खुला रहता है। यह प्रातः परिक्रमा का समय था। सुफेद संगमरमर से बना बड़ा भव्य मंदिर है प्रेम मंदिर। बनाने वाले ने वाकई इसे बड़े प्रेम से बनाया है। इसको देखने से ही पता चलता है कि इसके निर्माण में तन, मन और धन तीनो मुक्त हस्त से लुटाए गए हैं। मंदिर बिजली के प्रकाश से जगमगा रहा था। विशाल प्रांगण के चारों ओर भगवान कृष्ण की लीलाओं की लगभग सभी छवियाँ, सुंदर कलाकृतियों से सजाई गई थीं। जिधर नजरें जातीं, उधर की ओर मुँह कर ठिठक कर खड़े के खड़े रह जाते। विशाल चबूतरे के बीचों बीच बने संगमरमर के भव्य मंदिर की शोभा देखते ही बनती थी। उसी समय जगत गुरु कृपालु महाराज की तस्वीर सजा कर भक्त नाचते गाते राधे कृष्ण, राधे कृष्ण का जाप करते गए मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे। हम भी मंदिर में प्रवेश करना भूल, मंदिर की परिक्रमा करने लगे। मंदिर की दीवारों पर भी कृष्ण लीला की मनोहारी छवियाँ उकेरी गईं थीं। छवियों में लाइटिंग की भी व्यवस्था थी। भोर का समय था। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। 

मंदिर के भीतर की एक परिक्रमा करते करते मंदिर के कपाट बंद हो गए। पुरुष और महिलाएं अलग अलग पंक्तिबद्ध हो बैठ कर भजन कर रहे थे। मंदिर में भीड़ नहीं थी। लग रहा था कि ये रोज आने वाले नियमित भक्त हैं जो भोर में ही स्नान, ध्यान के बाद, ललाट पर चंदन सजा कर, साफ सुथरे वस्त्रों से सज्ज होकर यहाँ विराजमान होते हैं। कुछ कुँआरी कन्याएं भी मीरा की तरह कृष्ण भक्ति में लीन दिखीं। प्रेम मंदिर का पूरा वातावरण कृष्ण प्रेम में पूरी तरह डूबा हुआ था। हम कभी मंदिर की सुंदरता में डूबते तो कभी भक्तों के भक्ति भाव में। प्रेम मंदिर के कण कण से प्रेम और प्रेम ही छलक रहा था। 

प्रेम मंदिर से लौटकर शहीद भगत सिंह उद्यान में घूमने लगे। सुबह के साढ़े सात बज रहे थे। घूमते घूमते घर से बेटियों का फोन आ गया..हम लोग तैयार हैं। आगरा नहीं चलना?

18.10.18

जब जागो तभी सबेरा

आप मुर्गे की बांग से जागते होंगे, हमको तो पड़ोस की जूली जगाती है! जूली का मालिक भोर में चार बजे ही निकल जाता है मॉर्निंग वॉक पर। जूली की मालकिन अपने पति देव के जाने के बाद, गेट बाहर से उटका कर, देर तक कॉलोनी में टहलती रहती हैं और जूली बन्द गेट के भीतर से मालकिन को देख देख कूकियाती रहती है। जूली की कुकियाहट को सुन, दूसरे पड़ोसी का शेरू ताल से ताल मिलाने की तर्ज पर, तीसरे मंजिल की छत से भौंकना शुरू करता है। इधर जूली बोली कुई, उधर शेरू बोला.. भौं! 

पूरे कॉलोनी में भौं-भौं, कुई-कुई की आवाजें गूँजने लगती हैं। शायद इनके शोर से ही कदम्ब की शाख पर बैठे पंछियों की नींद खुल जाती है और वे भी बीच-बीच में चहकने लगते हैं। भौं-भौं, कुई-कुई के शोर से जब अपनी नींद उचटती है तो सुबह के साढ़े चार के आस पास का समय होता है। अपना एलार्म बाद में बजता है, जूली पहले बोलती है। भौंकती है, इसलिए नहीं लिख रहा कि लोग बच्चों से भी जियादा अपने  पालतू जानवरों से  मुहब्बत करते हैं। भले कुत्ते/कुतियों के भौंकने से हमारी नींद समय से पहले उचट जाय, मुहब्बत का सम्मान करना हमारा फर्ज बनता है। 

कुछ लोग घोड़े बेच कर सोते हैं। कुत्ते लाख भौंकते रहें न उनकी नींद टूटती है, न ही मुंगेरी लाल के ख्वाब टूटते हैं। उनका सबेरा सूर्योदय से नहीं, बिस्तर छोड़ने से शुरू होता है। हम जब मॉर्निंग वॉक से लौट रहे होते हैं, वे जम्हाई लेकर चाय पी रहे होते हैं। भले मुहावरे का अर्थ न मालूम हो लेकिन बेशर्मों की तरह हँसते हुए कहते हैं.. जब जागो तभी सबेरा। लोग बिस्तर से उठ कर चाय पीने को ही सबेरा मान बैठते हैं। 

जागना तो तब होता है जब मन का अंधकार दूर हो। जब अंतर्मन में प्रकाश की किरणें फूटें, अपनी गलती का एहसास हो और मन बुरे कर्म छोड़, सत्कर्मों की तरफ लग जाय। तब कहो.. जब जागे तभी सबेरा। यह क्या कि सूरज चढ़ जाने पर बिस्तर छोड़े, चाय पीते हुए फेसबुक/वाट्सएप में गुडमार्निंग स्टेटस अपडेट/फारवर्ड किए और हंसते हुए बोल पड़े.. जब जागो तभी सबेरा! चुनाव परिणाम से पहले जब सरकार नहीं जगती तो आम आदमी एक रात के बाद कैसे जाग सकता है!

पता नहीं आपको अनुभव हुआ है या नहीं, हमको तो हुआ है। भागती कारें गढ्ढे उगलती हैँ! जब हम चार पहिए के पीछे अपनी बाइक दौड़ाते हुए ट्रेन पकड़ने के लिए फुल स्पीड में भाग रहे होते हैं, अचानक कार के नीचे से गढ्ढा निकलता है और अपनी बाइक एक हाथ ऊपर उछल पड़ती है! चार पहिए वाला अपने चारों पहियों को सड़क के बीच मे नरक पालिका द्वारा सजाकर रखे हुए गढ्ढे से बचाकर आगे निकलता है और पीछे चलने वाले बाइक सवार को गढ्ढा तब दिखता है जब बाइक से उछलकर गिरने से बच जाता है। सुबह भले घर से हनुमान चालीसा पढ़कर निकला हो, भगवान को याद करते हुए अंग्रेजी में कहता है.. थैंक्स गॉड! 

अब आम आदमी सड़क पर मिलने वाले ऐसे गढ्ढों के लिए सरकार को नहीं कोसता। सम्भावित दुर्घटना के लिए अपनी गलती मानता है कि उसे अपनी बाइक चार पहिए से इतनी दूरी बनाकर चलानी चाहिए कि जब कारें गढ्ढे छोड़ें तो समय रहते दिख जाए। जब जागो तभी सबेरा की तर्ज पर, कुछ देर तक मैं भी नींद से जाग कर चलता हूँ। फिर भूल जाता हूँ कि नुझे कार से दूरी बनाकर चलना चाहिए। सरकारें हों या कारें, आम आदमी को कभी भी गढ्ढे में धकेल सकती हैं। 

ऐसा ही होता है। एक दिन नहीं, हर दिन होता है। हम रोज जागते और हर रोज सो जाते हैं। कई बार तो दिन के चौबीस घण्टों में बार-बार जागते और बार-बार सो जाते हैं। जब जब गढ्ढे में गिरते हैं, थैंक्स गॉड बोलते हैं लेकिन न सोना छोड़ते हैं न गढ्ढे में गिरना। जीतने के बाद सरकारें सो जाती हैं, गढ्ढे से बचने के बाद आम आदमी सो जाते हैं। सरकार जागती हैं जब सत्ता चली जाती है। बाइक सवार जागता है जब दुर्घटना हो जाती है। कोमा से निकलने के बाद दोनों के मुख से एक मासूम प्रश्न प्रस्फुटित होता है.. मेरी क्या गलती थी? सरकारें आत्म मंथन के बाद निष्कर्ष निकालती है..विपक्ष का दुष्प्रचार हमारे काम पर भारी पड़ा। आम आदमी निष्कर्ष निकालता है..यदि सड़क में गढ्ढा न होता तो वह कभी नहीं गिरता। दोनो दर्द तक जागने के बाद, फिर गहरी नींद में सो जाते हैं। सरकार हो या आम आदमी, दोनो जागें भी तो कैसे? नींद से जगाने वालों को सभी भूनकर खा जाना पसंद करते हैं।  

आपकी नींद का मुझे नहीं पता लेकिन अपनी नींद तो पड़ोस की जूली के कुकियाने  से खुलती है।
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