25.5.13

धोबी के गधे


धोबी के गधे
प्रायः
इस बात से दुखी रहते हैं कि
दूसरे,
उससे कम बोझ क्यों उठाते हैं ?
धोबी, उसी पर
अधिक बोझ क्यों लादता है? 

वे 
एक दूसरे पर खीझते हैं, 
शिकायत करते हैं, 
"मेरे ऊपर ही इत्ता बोझ क्यों?
फलाने पर तो कभी नहीं ! 

ऐसी बातें सुनकर 
उसकी तरह बोझ से दुखी 
दूसरे गधों को बहुत मजा आता है 
लेकिन उसे बहुत बुरा लगता है 
जिसकी शिकायत हुई है। 
वह धमकाता है.. 
"खबरदार! 
गधे हो, 
गधे की तरह रहो, 
साँप बनकर डंसना छोड़ दो!" 

जिस दिन धोबी 
सभी गधों पर समान बोझ लादता है, 
उस दिन भी वे खुश नहीं होते! 
उनकी खुशी का दिन निश्चित होता है
वे
उस दिन 
खुशी के मारे ढेँचू-ढेँचू करने लगते हैं 
जब देखते हैं कि 
उनका कोई साथी 
भारी बोझ तले दबा 
दुखी मन से 
चला जा रहा है! 

वे  
अधिक प्रसन्न होते हैं 
जब धोबी 
उनके ऊपर चढ़कर 
सरपट भागता है!
तब वे 
खुद को गधा नहीं, 
घोड़ा समझते हैं!
उस वक्त
उन्हे इस बात का भी एहसास नहीं रहता कि
ग्राहकों की जेब तो
धोबी ही साफ़ करते हैं
गधे तो
कभी कपड़े का,
कभी धोबी का बोझ ढोने के लिए
पाले जाते हैं!

धोबी जानता है 
किस गधे को 
कब खुश करना है, 
कब दुखी। 

गधे कभी नहीं जान पाते 
आगे बढ़कर 
बोझ से लदे 
साथी के दुखों को कम करना। 
ये जानते हैं 
बोझा ढोना, 
दुखी होना, 
और 
साथियों के दुःख से 
प्रसन्न होना। 

इनका घर
धोबी के संपर्क जाल में रहने वाला 
वह खूँटा होता है
जहाँ ये
भूख मिटाने और रात बिताने के लिए
छोड़ दिये जाते हैं!

ये
धोबी के कुत्ते नहीं होते!
इसलिए 
घर के भी होते हैं
घाट के भी।
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17.5.13

अंधेरे की वजह


घाटशिला की यात्रा यूँ तो मैने बिटिया के समर इन्टर्नशिप के चक्कर में मजबूरी में की थी लेकिन इस यात्रा ने मुझे अग्निमित्र से मिला दिया। देश की भलाई सोचने वाली आग जो कुछ युवाओं के हृदय में प्रज्वलित होते दिखती है वही आग मैने एक सेवानिवृत्त हो चुके शिक्षक के ह्रदय में देखी। उनकी कविताओं की पुस्तक 'फरियाद नहीं' पढ़ते हुए लौटा और वे पूरी तरह मेरे मन मस्तिष्क में छा गये। प्रस्तुत है उनकी एक कविता जिसका शीर्षक है...


अंधेरे की वजह




प्रज्वलित होने को प्रस्तुत
प्रदीप को
प्रदीप्त करती है
गुरूता की लौ।
एक जलती दीपशिखा
जलाती है, अनेक दीपशिखाएँ।
खुद बुझा गुरू
दीप्त, उद्दीप्त, प्रदीप्त नहीं कर सकता
अन्य दीपक।

साहबों-बाबुओं की
मेहरबानी खरीदती,
गुरूशिखा होती है परलोकवासिनी
इस उलूक तंत्र में।
नौकरशाही के पकाए
धर्म-नीति-मूल्य हीन
पाठ्यक्रम परोसता
ट्रांसफर पोस्टिंग की दुश्चिंता में
नींदे हराम करता
मास्टर नामधारी सर्वेंट,
अंधेरे की पहरेदारी करते
दफ्तरशाही के वजन के तले
खो बैठता है, आत्म-प्रकाश।

आदमी-जानवर, भेड़-बकरी-मकान
की गिनती करता,
परिवार नियोजन के इश्तहार चिपकाता,
एड्स से सुरक्षित रहने की बारीकियाँ समझाता
दफ्तर की हरेक सीढ़ी पर
बैठे अपने मालिकों को
सलाम बजाता,
रोजाना लघु-लघुतर होता हुआ,
खुद अंधेरे में पड़ा गुरू
परेशान
टटोलता है पिछले दरवाजे।
आलोक संधान के पाखण्ड में
उसकी आभा ढलान पर!
आशीष देने वाले सक्षम हाथ
अब जुड़े रहम की अपील में
अंधेरे से रोशनी की ओर ले जाने वाला
आज संचालक-संवाहक-विकीरक है
जड़ता का!
थपेड़ों-तूफानो ने कब की बुझा दी है उसकी लौ!
अब वह आदेशपाल, आश्रित निशाचरों-सेंधमारों का।
हुकुम है इसे-जलना मत
रास्ते मत करना रोशन
सियासत के रहमोकरम पर जीने वाले को मालूम है कि
स्याह के सिवा
कोई रंग मैच नहीं करता सियासत से।

आज कुल हैं, कक्षाएँ हैं,
कतारों में सोने-रूपे के दीपक हैं,
सिर्फ समा नहीं दिवाली का
दीपशिखाओं के बिना,
दीप है, बाती है, भक्ष्य है सिर्फ,
इजाजत नहीं तो रोशनी गुल है।
गायब गुरू, रोशनी रूखसत,
द्वीपांतरित महाश्वेता,
गुरू दीप बुझे तब
अनजले रह गये लघुदीप!
बन गई अंधेरे की वजह।
......................................

......मित्रेश्वर अग्निमित्र।

पुस्तकः फरियाद नहीं
प्रकाशकः  पारिजात, कामता सदन, पूर्वी बोरिंग कनाल रोड,
पटना-800001






13.5.13

स्वर्ण रेखा नदी


तेरा असली नाम क्या है,
स्वर्ण रेखा नदी?

तू उस देश में बहती है
जिस देश को कभी सोने की चिड़िया कहते थे,
उस राज्य में बहती है जिसे झारखंड कहते हैं,
उस जिले में बहती है जिसे घाटशिला कहते हैं।

क्या महज इसलिए स्वर्ण रेखा कहलाई कि
पहाड़ियों के पीछे अस्त होने से पहले
सूर्य की सुनहरी किरणें
कुछ पल के लिए
खींच देती है तेरे आर-पार
एक स्वर्णिम रेखा!
या इसलिए कि
तू अपने साथ बहाकर लाई थी कभी
ताँबे और सोने के भंडार?

जाऊँगा बनारस
तो नहीं बता पाउँगा
माँ गंगा से तेरा हाल!
तेरी इतनी बुरी हालत सुनकर
दुखी होगी और
डर जायेगी बेचारी।

बहेलिए
जैसे कतरते रहते हैं
हाथ आई सुनहरी चिड़िया के पंख,
लोभी
जैसे दुहना चाहते है
आखिरी बूँद भी
वैसे ही कतरी,
चूस ली गई दिखती है तू तो!

तू अब
इतनी छिछली हो गई है
कि छोटे-मोटे पहाड़ जैसे दिखते हैं
तुझमें समाई शिलाएँ,
इतनी कमजोर हो चुकी है
कि सिर्फ एक बाँस के सहारे
कोंचते हुए
बिन चप्पू वाली नाव लेकर
आर-पार करता है
बूढ़ा माझी
और इतनी कम हो चुकी है तेरी गहराई कि
बीच धार में
पैदल ही चलकर
अपने जाल बिछाता है
मछेरा !

सोचता हूँ
बावजूद इसके
आज भी इतनी सुंदर है
तो कल कितनी सुंदर रही होगी तू!

तेरे तट पर
दूर-दूर तक बिखरी है
कोयले सी राख
ये काली है मगर कोयला नहीं है!
ये अवशेष हैं स्वर्णिम शिलाओं के
जिन्हें बड़ी सी फैक्टरी में
तोड़कर, तपाकर, निकालकर ताँबा-सोना...
फेंक दिया गया है
तेरे तट पर!

शायद
ऐसे ही पोती जाती है कालिख
सुंदरता के चेहरे पर!


नहीं
तू सिर्फ एक नदी नहीं है
कल शाम
जब डूब रहा था सूरज
खिंच गई थी
तेरे आर-पार स्वर्णिम रेखा
तो तू मुझे
सोने की चिड़िया सी दिखी!

तेरा असली नाम क्या है,
स्वर्ण रेखा नदी?
...........................

स्वर्ण रेखा नदी की शिला पर बैठते, फोटाग्राफी करते, ये भाव जगे।
दिनः 11-05-2013।
समयः जब सूरज पहाड़ियों के पीछे ढल रहा था।