30.12.14

नई सुबह कभी तो आएगी

वे पहले
हाथ मलते हैं
फिर अपनी
चाल चलते हैं

इधर कोशिश
अपनी दाल गल जाये
उधर उम्मीद
बकरा हलाल हो जाये

हम सोचते हैं
नई सुबह
कभी तो आएगी
वे सोचते हैं
बकरे की अम्मा
कब तक खैर मनाएगी!

28.12.14

ओ दिसम्बर!

आजकल
शाम होते ही
कोहरे की मोटी चादर ओढ़
सोने लगती है धरती

मुर्गा
समय पर देता है बांग
पंछी
नहीं भूलते चहचहाना
छटपटाने लगते हैं
दो पाये
उठाते-उठाते
थक जाता है सूरज
मगर
सोती रहती है धरती
देर तक

आसानी से नहीं जगती माँ
किरणें
धूप दिखा
करती हैं मन्नतें
सूरज
हौले-हौले
कोहरे की चादर को
बादलों में कहीं
छुपा देता है
तब कहीं जाकर
अलसाई-अलसाई
जगती है धरती

जगते ही
देखती है घड़ी
मुँह बिचकाती
सूरज को कोसती
बच्चों को खाना खिला
करने लगती है
फिर से
सोने का उपक्रम
बड़बड़ाती है
अभी नहीं आया
नववर्ष!

ओ दिसम्बर!
तू उदास मत हो
तू ही तो है
जिसके आने पर
धरती के मन में
नई जनवरी
खिलने लगती है।

लोहे का घर-१ (बनारस से बलिया)

वाराणसी और बलिया के बीच कई छोटी-छोटी नदियाँ मिलती हैं। राजवाऱी स्टेशन से आगे बढ़ते ही गोमती, नन्द गंज से पहले गांगी, गाजीपुर घाट के बाद बेसो, युसुफपुर के बाद मंगई और फेफना से पहले टौंस या तमसा। सभी छोटी-बड़ी ये नदियाँ आगे चलकर गंगा में मिलती हैं। पूरा इलाका काफी उपजाऊ है।

भोर होने वाला है। अँधेरा छंटने वाला है। पैसिंजर ट्रेन खरगोश की तरह उछलने के बाद चींटी की तरह रेंगने लगी। आ रहा है स्टेशन - कादीपुर।

अँधेरा तेजी से छंट रहा है। पैसिंजर ट्रेन फिर खरगोश की तरह उछलने के बाद जोर-जोर से हार्न बजाते हुए धीमी हो रही है। रजवारी स्टेशन है। चायवाला ठेले पर कोयले के चूल्हे को तेजी से हांक रहा है। धुआँ फैला है। उसकी चाय नहीं बन पायी। 

भोर हो चूका है। ट्रेन औडिहार स्टेशन पर रुकी है। बिजली के तार पर बहुत से कौए बैठे हैं। प्लेटफोर्म में बहुत भीड़ है। पकौड़ी वालों की पकौड़ी छन चुकी है। सामने 3 नम्बर प्लेटफोर्म पर पानी की पाइप टूटी हुई है जिससे एक फुहारा-सा निकल रहा है। भीड़ का रेला, महिलाओं, बच्चों की कचर-पचर मेरे इर्द-गिर्द बढ़ती जा रही है। अब लोग बैठ गए हैं। कुछ यात्रि अखबार के टुकड़ों मे घूम-घूम कर पकौड़ी खा रहे हैं। ट्रेन ने सिटी बजा दी। घूम रहे लोग हडबडा कर ट्रेन में चढने लगे।  एक अँधा भिखारी ढपली बजाते आ गया-दुर्गा भवानी हो, माई महरानी हो, दुखवा सुनावे कहाँ जाई माई?



सैदपुर भितरी यही नाम है स्टेशन का। भितरी में छोटी इ की मात्रा है। प्लेटफार्म नहीं दिख रहा है। सूरज अपनी किरणों को तेजी से धरती में पार्सल कर रहा है। धूप पीछे-पीछे भागी चली आ रही है।

तरांव से पहले कई गाँव आये। ट्रेन रुकी है। एक मालगाड़ी किसी उद्योगपति का माल लादे पैसिंजर ट्रेन को हिकारत की नज़रों से देखती, गुर्राती तेजी से निकल गयी। उसके जाते ही पैसिंजर ख़ुशी से किलकने लगी। यात्रियों ने मुक्ति की लम्बी सांस ली। लठ्ठा नमकीन वाला चीख रहा है-ताजा-ताजा हौ। खईबो करा घरे ले के जयिबो करा। ए भईया! केहू ना लेइ का हो?

इन दिनों ट्रेन के सफ़र में छोटे बच्चे की तरह खिड़की के पास बैठने के लिए मन मचलता है। जिधर देखो उधर धान की फसल लहलहा रही है। बीच-बीच में बाजरा सीना ताने खड़ा है। बिजली के तार पर बैठे, इधर-उधर उड़ते श्वेत-श्याम पंछियों के झुण्ड का कलरव फ़सल पकने की आहट दे रहा है। बंजर धरती पर भी खिले 'कास' को देखकर ऐसा लगता है जैसे अभी बर्फवारी हुई है।

माँ दुर्गा दो बार आती हैं। दोनों समय धरती की सुन्दरता देखते ही बनती है। हम अपनी दैनिक चिंताओं को भूल प्रकृति के इस सौगात से जुड़ सकें तो मन गुड़हल की तरह खिलने लगता है। यकीनन हमारे देश में नववर्ष दो बार आता है।

नंदगंज से पहले और बाद दो हाल्ट आते हैं। बासुचक और सहेड़ी हाल्ट। दोनों को पार कर ट्रेन मस्त चाल से भागी जा रही है। क्रासिंग का झंझट न हो तो पैसिंजर समय से पहुंचा सकती है। डबल लाइन का कार्य युद्ध स्तर पर किया जाना चाहिए। आजादी के इतने वर्षों बाद भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। ट्रेन आकुसपुर स्टेशन पर रुक गयी। अगला स्टेशन गाजीपुर है।

गाजीपुर स्टेशन में बड़ी धमाचौकड़ी है। सीट के लिए मारामारी है। कोई कूद कर ऊपर जा रहा है कोई थोड़ा घिसकने का आग्रह कर रहा है। गाजीपुर से बलिया जाने वाले डेली यात्री भी बहुत हैं। पैसिंजर में वैसे भी भीड़ रहती है, गाजीपुर के बाद कुछ ज्यादा हो गई है। एक महिला गोदी में बच्चा लिए खड़ी है। तीन और बच्चे उससे चिपके खड़े हैं।  खिड़की में दो बच्चे एक दुसरे के ऊपर लदे हैं। एक बच्चा बाबूजी की गोद में जोर-जोर से अम्मा-अम्मा चीख रहा है। चार की सीट पर पाँच-छः यात्री बैठे हैं। इसी भीड़ में चना, लठ्ठा-नमकीन बेचने वाले भी आ-जा रहे हैं। कई महिलाएँ खड़ी हैं। इतनी संख्या में कि पुरुष यदि उनके लिए अपनी सीट छोड़ दें तो सभी खड़े नज़र आएंगे। रोज़ के यात्री जिन्हें प्रतिदिन 10 घंटे का सफ़र तय करना है वे तो इतनी सहृदयता दिखाने से रहे।

बाहर घूमने का मन कर रहा है लेकिन लौटने पर फिर सीट मिलने की उम्मीद नहीं है। सामने बच्चों के साथ बैठी ग्रामीण महिला भी मोबाईल में फोटू-सोटू देख-दिखा रही हैं। देश ने संचार के मामले में खूब तरक्की की है। कोई गाड़ी फिर गई। पैसिंजर फिर ख़ुशी के मारे उछलने लगी।


खेतों में शांति से दाने चुग रहे बगुले, कौए, कबूतर और दूसरे पंछी इंजन के हार्न से घबरा कर उड़ते हैं। इन उड़ते पंछियों के फ़ोटू खींचने का करता है मन। इस बात से बेखबर की हमारे दखल से दुखी हो, उड़ रहे हैं पंछी!

फेफना में अक्सर दिखते हैं भेड़ों के झुण्ड। एक चरवाहा हांकता दिखता है डडौकी से...


आज ट्रेन पूरे एक घण्टे लेट है। अभी सागरपाली में हैं। अगला टेसन - बलिया। 


14.12.14

ईश्वर!


हे ईश्वर!

कड़ाकी ठण्ड में
कैसा है रे तू?
गरम पानी
मिलता है क्या नहाने को?

मैं तो
रजाई में दुबका
फेसबुक का मजा ले रहा हूँ
चुटकुले पढ़ रहा हूँ
तू?
चैन से सोया है न!


धरती, आकाश, आग, हवा,पानी
सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र.....
इतना सब दिया तूने
कि आज तक
ठीक-ठीक जान भी नहीं पाया
कितना दिया तूने!

न मागने की आदत गई
न भूख मिटी
किसी ने सही कहा है-
भिखारियों को जितना भी दो
रहेंगे भिखारी ही।


हमारे मांगने से परेशान मत हो
कोई तकलीफ हो
तो लिख
पूरी कोशिश करूँगा
कि तेरा कष्ट
दूर हो।

आदमी हूँ
पुरखों का नाता है
बेवफाई नहीं करूँगा
निश्चिन्त रह।

जहाँ भी है
खुश रह
मस्त रह।

26.11.14

गंगा के तट पर...


मंदिर दिखता
पुजारी दिखते
पंडे दिखते हैं
मंदिर के ऊपर फहराते
झंडे दिखते हैं
भक्तों की लाइन लगती है
गंगा के तट पर
लोटे में गंगा
काँधे पर
डंडे दिखते हैँ।

कहीं गंजेड़ी
कहीं भंगेड़ी
कहीं भिखारी
कहीं शराबी
लोभी, भूखे, भोगी दिखते
बगुले भी योगी
गंगा तट पर भाँति-भाँति के
चित्तर दिखते हैं
सभी चरित्तर मार के डुबकी
पवित्तर दिखते हैं।

कोई पूरब से आता है
कोई पश्चिम से
कोई उत्तर से आता है
कोई दक्खिन से
सब आते हैं पुन्य लूटने
कुछ आते मस्ती में
कुछ सीढ़ी पर उड़ते दिखते
कुछ डूबे कश्ती में
देसी और विदेशी
जोड़े दिखते हैं
धोबी के गदहे भी आकर
घोड़े दिखते हैं।

मिर्जा भाई दाने देते
रोज़ कबूतर को
और रामजी के दाने
कौए खाते हैं
पुन्नू साव खिला रहे हैं
आंटे की गोली
मछली उछल-उछल कर खाती
है कितनी भोली!
उसी घाट पर एक मछेरा
जाल बिछाये है
पाप पुण्य की लहरें लड़तीं
गंगा के तट पर
रोज़ चिताएँ जलती रहतीं
गंगा के तट पर।

8.11.14

संस्मरण

पैसिंजर ट्रेन में बैठने भर की जगह थी। जाड़े के दिनों में मैं तजबीज कर इंजन की तरफ पीठ करके बैठता हूँ ताकि खराब हो चुकी खिड़कियों से होकर हवा का तेज़ झोंका मेरी सेहत न खराब कर दे।

युसुफपुर स्टेशन से मिर्जा चढ़ा और मेरे सामने आकर बैठ गया। मेरे बगल में उसने अपनी वृद्ध अम्मी को बिठाया जो कुछ देर बाद बैठे-बैठे, टेढ़ी-मेढ़ी हो कर सोने का उपक्रम करने लगीं। मोबाइल से फेसबुक चलाते-चलाते मैंने महसूस किया कि वह मुझसे कुछ कहना चाहता है। हिचकते हुए उसने कहा-'आप मेरी जगह बैठ जाते तो मैं अम्मी का सर गोदी में रखकर सुला देता।' उसका प्रस्ताव सुनते ही एक झटके से मैंने मना कर दिया-'नहीं-नहीं, मैं यहीं ठीक हूँ। वहाँ बैठा तो मुझे ठंडी लग जायेगी।' मिर्जा बोला-'ठीक है, कोई बात नहीं। अम्मी सो रहीं थीं इसलिए मैंने ....

नहीं, मैं मिर्जा को नहीं जानता। जो अजनबी मुझे प्यारा लगता है मैं उसके धर्म के अनुसार उसका नाम अपने दोस्तों, भाइयों के नाम से रख लेता हूँ और अपनी बात कहता हूँ। 

मेरा ध्यान फेसबुक से भंग हो चूका था। मुझे लगा मैंने कुछ गलत बोल दिया। विचार किया तो लगा गलत नहीं, बहुत गलत बोल गया! मैं उस लड़के को ध्यान से देखने लगा। कितना प्यारा लड़का है! अपने मिर्जा भाई के लड़के जैसा। अम्मी से कितनी मोहब्बत करता है! मैं उठकर खड़ा हो गया-अम्मी को ठीक से सुला दो! माँ को सुला कर वह उनके पैर उठाकर बैठने लगा तो मैंने दुसरे यात्रियों से थोड़ी जगह बनाने का अनुरोध कर उसे भी अपने पास ही बिठा लिया। अम्मी को चैन से सोने दो, तुम यहीं बैठो।

रास्ते भर मिर्जा मुझे धन्यवाद देता रहा और मैं ईश्वर को जिसने समय रहते मेरा विवेक जगा दिया। मुझे महसूस हुआ कि इंसान को इंसान बनने से सबसे पहले उसका स्वार्थ रोकता है। विवेक ने साथ दिया तो आत्मा चीखने लगाती है और वह फिर हैवान से इंसान बन जाता है।

20.10.14

भूख बड़ी कुत्ती चीज है!

कुत्ते 
दौड़ते हैं 
बीच सड़क पर
इस पार से उस पार
उस पार से इस पार
कभी कोई
बाइक के सामने आ जाता है
कभी कोई
कार के सामने आ जाता है
बाइक के सामने
आदमी की टांग टूटती है
कार के सामने
कुत्ते की टांग टूटती है
कुत्ता 
किसी से टकराना नहीं चाहता
वह चाहता है
रोटी का एक टुकड़ा

भूख बड़ी कुत्ती चीज है!

............

12.10.14

भय

अँधेरे से,
गली में भौंकते 
कुत्तों से,
छत पर कूदते 
बंदरों से,
खेत में भागते 
सर्पों से,
अब डर नहीं लगता।

दुश्मनों के वार से,
दोस्तों के प्यार से,
खेल में हार से,
दो मुहें इंसान से,
डर नहीं लगता।

जान चुका हूँ
मान/अपमान
सुख/दुःख
मिलता है
इस जीवन में ही,
भूत या भगवान से
अब डर नहीं लगता।

माँ और मसान
दोनों की गोद में
भूल जाता है प्राणी
अपना अभिमान
दोनों का होना भी तय
मगर दिल है
कि मानता नहीं
भयभीत होने के सौ बहाने 
ढूँढ ही लेता है!
न जाने मुझे
किस बात का भय रहता है!!!

3.10.14

कूड़ा

नदी पर पुल
पुल के किनारे कूड़े का ढेर
कूड़े के ढेर पर बच्चे
बच्चों के हाथों में प्लास्टिक के बोरॆ
बोरों में
शाम की रोटी का सपना

पुल के नीचे नदी
नदी में नाला
नाले में डुबकी लगाता आदमी
आदमी के एक हाथ में लोटा
दुसरे में नाक।

न कभी
जल की पवित्रता घटी
न कभी
किसी की नाक कटी
मगर
कुछ तो हुआ है
जो सभी ने
उठा लिये हैं
हाथों में झाड़ू!

2.10.14

बंदर प्रवृत्ति

बंदर
भूल चुके हैं
सुग्रीव,बाली या हनुमान की ताकत
छोड़ चुके हैं
पहाड़
नहीं भटक पाते
कंद मूल फल के लिए
वन वन।

सभी बंदर
नहीं जा पाते
संकट मोचन
सबको नहीं मिलते
भुने चने या
देसी घी के लड्डू!
अधिकांश तो
मारे-मारे भटकते फिरते हैं
छत-छत, सड़क-सड़क, टेसन-टेसन...
घुड़की देते हैं
भीख मागते हैं
छिनैती करते हैं
फंस गए तो
नाचते भी हैं
मदारी के इशारे पर।

बापू!
जन्म दिन पर ही नहीं
कभी-कभी
एक पंक्ति में बैठे
दिख जाते हैं
तीन बंदर
तो भी तुम्हारी
बहुत याद आती है।

हा..हा..हा...
तुम वाकई महान आत्मा थे!
तीन बंदरों के सहारे बदल देना चाहते थे
सम्पूर्ण मानव समाज की
बंदर प्रवृत्ति!
........

17.9.14

विज्ञान क चमत्कार

विज्ञान क चमत्कार
सब आपै क सरकार।

कइसे बइर(वैर) लें
हमें का परी ?
सौ साल पहिले
आप जलाये
ट्यूब लाइट
सौ साल बाद
हम जलायें ढिबरी !

बड़ी मेहरबानी
पहिले दऊ देत रहेन
आज आप देत हौ
धूप, हवा, पानी।

हम पढ़े नाहीं मालिक
लइका बतावत रहा
चोर चोरी करत रहेन
अउर साव
मजूरा बनके पहुँचात रहेन
तांबा, पीतल, हीरा, कोयला, अभ्रक-सभ्रक..
बड़ा खजाना रखे है माई !

ओहू का करी ?
पढ़ लिख के अपाहिज हो गयल ससुरा
न खेत न शरीर में जोर
बतिया करे
बड़ी-बड़ी
शहर में
नाहीँ जुगाड़ पावत बा
नून, तेल, लकड़ी।

छिमा करें
बहक गये
बहुत बोल गये 
आप क विज्ञान
आप क चमत्कार
आप क संसार
नमस्कार।

…………………………….

20.7.14

लोहे के घर से........2

जब यात्रा लम्बी होती है तो कभी-कभी पैसिंजर ट्रेन के यात्रियों को भी करना पड़ता है ए.सी. में सफ़र। यात्री पुराना किताबी कीड़ा हुआ, नयाँ-नयाँ ब्लॉगर हुआ, हजारों मित्र सूची वाला फेसबुकिया हुआ और लैपटॉप नेट का जुगाड़ साथ-साथ लिये घूम रहा है तब तो  फिर कोई चिंता नहीं। सफ़र तीन दिन का हो या चार दिन का। जब तक सर पर सवार होकर कोई कैटर खाना-खाना न खड़खड़ाये तब तक वह होश में आने वाला नहीं। लेकिन यदि इनमे से कुछ नहीं हुआ। पैसिंजर ट्रेन में सुर्ती ठोंककर, मूँछें ऐंठकर, धुरंधर राजनैतिक बकवास करने वाला हुआ तब तो उसका बेड़ा गर्क हुआ समझिये। सफ़र पूरा होने तक वह पागल न हुआ तो यह तय मानिये कि एकाध शरीफ यात्री के शराफत की चादर जबरी खींचकर उनसे दो-दो हाथ जरूर कर चुका होगा।

यहाँ चारों तरफ अजीब शराफती माहौल है। कोई किसी से बात नहीं कर रहा। सभी शराफ़त की धुली चादर ओढ़े अपने-अपने बर्थ पर लेटे हैं। बनारस से चेन्नई तक के सफ़र में वैसे भी तमिल भाषी यात्री अधिक मिलते हैं। कभी-कभार जब वे आपस में बातें कर रहे होते हैं या फोन से बतिया रहे होते हैं तो उनकी भाषा को ध्यान से समझने का प्रयास कीजिए। कुछ संस्कृत से मिलते शब्द लगते हैं लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ता। हाँ, पढ़े-लिखे हैं तो हर वाक्य में हिंदी नहीं अंग्रेजी जरूर लपेटे रहते हैं। हिंदी से इनका कोई पुराना वैर लगता है। अंग्रेजी के एक शब्द से और बोलने के अंदाज से पूरे वाक्य का थोड़ा बहुत अनुमान लगाया जा सकता है कि बात किस दिशा में हो रही है। कभी कोई बच्चा माँ के अनुरोध पर अंग्रेजी पोयम सुनाता है तो सुनकर अपार हर्ष होता है कि यह तो मेरा बेटा भी सुनाता था! मतलब हम एक ही देश के निवासी है।

सुबह का समय है। बंद शीशे के पार धरती का अपार विस्तार है। खेत तेजी से पीछे भाग रहे हैं। कभी कभार दो बैलों की जोड़ी लिये किसान दिख जा रहे हैं। इससे पता चलता है कि दक्षिण भारत में अभी भी किसान बैलों की सहायता से खेतों की जुताई करते हैं। दो बैलों की जोड़ी के महानायक मुंशी प्रेमचंद जी के पूर्वांचल में तो बैल प्रायः लुप्त हो चुके हैं। नाले जैसी इक नदी यहाँ भी दिखी। यह जरूर कंकरीट के जंगल से होकर आई होगी। दो सफेद बगुले यहाँ भी दिखे। एक स्टेशन गुजरा। यात्रियों की थोड़ी-सी भींड़ मेरी भागती ट्रेन को कौतूहल से निहार रही थी। यहाँ के खेत जंगल जैसे फैले हैं। हमारे पूर्वांचल में तो ट्रेन से जिधर देखो जोते, बोये खेत ही दिखते हैं। फिर दो बैलों की जोड़ी लिये हल चलाता किसान दिखा। फिर जंगल। इन जंगली पौधों, वृक्षों के नाम के मामले में मेरा ज्ञान कम है वरना आपको उनके नाम लेकर बताता । सामने पहाड़ियाँ दिखने लगीं। इन पहाड़ियों के नाम भी मुझे नहीं मालूम। बड़े साहित्यकार कैसे जर्रे-जर्रे की पड़ताल करके लिख देते हैं! L अपन को तो कुछ ज्ञान ही नहीं। धूप आ गई। कोई बदली हारी होगी। बंद शीशे से हवा भले न घुस पाये धूप तो घुस ही जाती है..बेधड़क। आगे खेत सुंदर दिख रहे हैं। अरहर जैसे लेकिन अरहर नहीं हैं। कुछ भुट्टे भी रोपे गये हैं। कुछ भैंसे लेकर एक ग्रामीण महिला खड़ी थी। सफेद बगुला यहाँ भी बैठा था एक भैंस की पीठ पर। ये बगुले भैंस की पीठ पर हर जगह बैठ जाते हैं। क्या उत्तर, क्या दक्षिण। मंडेला जीत गये मगर लगता है भैंस की पीठ पर बगुलों का शासन कभी खत्म नहीं होगा।

पहाड़ियाँ नजदीक आ रही हैं। हरी-भरी हैं। सतना की पहाडड़ियों की तरह पथरीली नहीं हैं। दूर पहाड़ियाँ, फैले खेत, बीच-बीच में छोटे-छोटे मकान और सामने रेल की एक पटरी सभी साथ-साथ चल रहे हैं। ढेर सारी रेल की पटरियाँ दिख रही हैं। लगता है कोई स्टेशन आने वाला है। छोटा स्टेशन था, ट्रेन नहीं रूकी। आज हम बड़ी ट्रेन के यात्री हैं। छोटों के मुँह नहीं लगते। फिर सामने फैला खेत। ट्रैक्टर से खेत जोतता किसान भी दिखा। बिजली के बड़े-बडे जालीदार खंबे, इर्द-गिर्द उड़तीं छोटी-छोटी चिड़याँ। ढेर सारे अर्ध निर्मित फ्लैट्स। ओवर ब्रिज भी दिखा। लगता है आदमियों के लाखों घोंसले वाला कंकरीट का कोई बड़ा जंगल करीब आ रहा है। शायद विजयवाड़ा।

एक यात्री ने बताया कि तमिल का संस्कृत से कोई संबंध नहीं है। हम जैसे हिंदी नहीं जानते वैसे संस्कृत भी नहीं जानते। मुझे आश्चर्य हुआ। दक्षिण भारतीय लोग ईश्वर के प्रति ग़ज़ब के आस्थावान होते हैं। इनकी शिव भक्ति तो बनारस में रोज देखता ही आ रहा हूँ। इन्हे संस्कृत के एक भी श्लोक याद नहीं! इनके श्लोक भी तमिल में ही होते होंगे। इसका एक अर्थ यह भी समझा जा सकता है कि तमिल साहित्य इतना समृद्ध है कि उसे संस्कृत या हिंदी के मदद की कोई आवश्यकता ही नहीं है! हम तो यही समझते थे कि पंडित वही जो संस्कृत में श्लोक पढ़े। मैने यात्री से कहा कि शिव जी तो संस्कृत ही समझते हैं तो वह हँसने लगा—नहीं, शिव जी तमिल हैं। उनकी आस्था, उनके विश्वास को नमन।


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नोटः- यह सब फेसबुक में यूँ ही लिखता और शेयर करता चला गया। जब अंतिम पैरा शेयर किया तो कुछ बढ़िया कमेंट आये जिससे बात और साफ़ हुई...

सनातन कालयात्री दोनों भाषायें एक दूसरे से समृद्ध हुई हैं। संस्कृत के नीर, मीन आदि शब्दों के मूल दक्षिणी हैं। आज संस्कृत के प्रमाणिक विद्वानों का अधिकांश तमिल या दक्षिण मूल से है, बनारस तो इस मामले में मृतप्राय है। रही बात संस्कृत से अनजान होने की बात तो वे सज्जन द्रविड़ आन्दोलन से प्रभावित रहे होंगे। शिव संश्लिष्ट देव हैं उत्तर के रुद्र और दक्षिण के शंकर मिल कर शिव सुन्दर हो गये। उनसे पूछना था दक्षिणी शिव सुदूर उत्तर कैलाश में क्यों रहते हैं? और गंगा का पानी रामेश्वरम को क्यों चढ़ता है? 

Kajal Kumar तमिल , दुनि‍या की ऐसी अकेली प्राचनीतम भाषा है जो आज भी बोली जाती है. अन्‍य प्राचीन भाषाएं आज नहीं बोली जातीं. तमिल समाज में, अन्‍य समाजों की तरह यह बताने के लि‍ए पंडि‍तजी/काजी/मौलवि‍यों आदि‍ जैसे भाषावि‍शेषज्ञों की आवश्‍यकता नहीं पड़ती कि‍ फलां कि‍ताब में जो लि‍खा है, उसके मायने क्‍या हैं. तमि‍ल संस्‍कृति‍ में तांत्रि‍कता का महत्‍व भी नगण्‍य है.

कमेंट्स को पढ़कर इस विषय में और जानने की इच्छा हुई तो गूगल में सर्च किया। ब्लॉग जगत में एक शानदार पोस्ट हाथ लगी। आदरणीय प्रतिभा सक्सेना जी की यह पोस्ट तमिल और संस्कृत का अंतः संबंध उजागर करती है। पठनीय है। लिंक यह रहा.. तमिल और संस्कृति का अंतः संबंध


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14.7.14

ढल रहा था दिन......



अकेले लेटा था

भागते घर के ए.सी. कमरे में

साइड वाले बिस्तर पर

सामने थी

शीशे की बंद खिड़की

पर्दा

आधा खुला था

दिख रहे थे

ठहरे हुए बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े

तेजी से पीछे भागती

वृक्षों की फुनगियाँ

ढल रहा था दिन

हुआ एहसास

घर ही नहीं

भाग रही है

पूरी धरती ही।


अचानक से चाँद दिखा

चलने लगा साथ-साथ

ऐसे

जैसे पीछा कर रहा हो मेरा

युगों-युगों से

मैं मचला

जैसे मचलते हैं

लड़के

बादल सिंदूरी हो गये

मन कस्तूरी हो गया।


कुछ ही पलों के बाद

आगे यह भी हुआ

घर को

अँधेरी सुरंग ने छुआ

एक बाद दूसरी

दूसरी के बाद तीसरी

जब तक कटता

सुरंगों का सफ़र

चाँद

अँधेंरेमें

कहीं गुम हो चुका था।
....................

7.7.14

चींटी और पहाड़


चींटियों को
घर-आँगन
अन्नकण मुँह में दबाये
पंक्तिबद्ध हो
आते-जाते ही देखा है न?

तपती रेत में
अपने सर पर पहाड़ लादे
दिशा हीन
इधर-उधर भागते तो नहीं देखा ?

कल देखा तो एकदम से डर गया!
चीखने लगा...

रूको!
मूर्ख चींटियों
पेट
चीनी के एक दाने से भी छोटा
और सर पर लादे भाग रही हो पहाड़!!!

मेरी चीख से
लड़खड़ा गये
एक चींटी के कदम
सर से गिरकर
लुढ़कने लगा पहाड़
पहाड़ के साथ खाई में गिरकर
मर गया
एक हाथी का बच्चा
बच्चे के मरते ही
हवा से बातें करने लगा
पागल हाथियों का झुण्ड।

चींटी ने मुझे
डांटते हुए कहा....

मूर्ख !
क्या मैं इतना भी नहीं जानती
कि मेरा पेट
चीनी के एक दाने के बराबर है ?
पहाड़ ढोती हूँ तो क्या खा सकती हूँ पूरा ?

एक अन्नकण के लिए
पहाड़ ढोना
मेरी नीयति है
पेट से अधिक
कौन खा पाता है भला?

मैं समझ नहीं पाया
बोलते-बोलते चींटी बड़ी होती जा रही थी
या मैं
चींटी की तरह छोटा !

.......................

बारिश



बारिश के मौसम का मजा यह भी है कि अंधेरी रात में घर में बिजली न हो, इंनवर्टर भी जवाब दे गया हो और हल्की-हल्की फुहार के बीच बिजली की प्रतीक्षा में आप छत पर टहल रहे हों। दाहिनी ओर फैले खेत से मेंढ़कों और झिंगुरों की जुगल बंदी के बीच किसी अजनबी पंछी की टेर रह-रह कर सुनाई दे रही हो। बायीं ओर कंदब के घने वृक्षों के बीच बेला के फूल चमक रहे हों। बांसुरी हाथ में हो पर बजाते हुए भय लग रहा हो कि कहीं कोई सर्प सुनते हुए ऊपर न चढ़ जाये। इतने में बिजली आ जाय और आप वापस फेसबुक में मूड़ी घुसेड़ कर सुख का अनुभव करें! 

जब छत पर टहल रहे हों तो बिजली की प्रतीक्षा करें और जब फेसबुक से जुड़े हों तो प्रकृति के आनंद को याद करें। मन कितना चंचल है!!!


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सुबह छत पर गया तो देखा कॉलोनी की कच्ची सड़क पर खूब पानी जमा है। मतलब जब मैं गहरी नींद में था तब जमकर बारिश हुई होगी। पहली बारिश के बाद जो पीले मेंढक दिखाई पड़ रहे थे वो कहीं गुम हो चुके हैं। रात में सभी मिलकर टरटराकर शंखनाद कर रहे थे अभी हरे-हरे, डरे-डरे दिखाई दिये। पंछियों की चहचहाहट ही सुनाई पड़ रही है। वक्त एक समान नहीं होता। बेला के कुछ फूल पानी से गलकर सड़ चुके थे, कुछ जमीन पर झड़े थे और कुछ पूरी तरह खिल कर चमक रहे थे। जो आज चमक रहे हैं वे कल झड़ जायेंगे, जो आज जमीन पर गिरे हैं वो कल सड़ जायेंगे और बहुत सी कलियाँ भी हैं जिन्हें कल खिलना है। रात में कंदब दिखाई नहीं पड़ रहे थे सुबह शाख से लटके झूम रहे थे। 

बदली अभी भी घिरी है। सूरज कोशिश कर रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई शरारती बच्चा बार-बार पर्दा हटाकर कमरे में झांक रहा हो और माँ के आँख दिखाने पर छुप जा रहा हो।

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दोपहर से बारिश बंद है। मौसम ठंडा है। घर लौटते वक्त अंधेरे में बाइक की हेडलाइट के आगे बहुत से पतिंगे आ रहे थे। धूल नहीं थी इसलिए चश्मा नहीं पहना। दूर नहीं जाना था इसलिए हेलमेट भी नहीं लगाया। पतिंगों को शायद इसी का इंतजार था। आँखों में ऐसे घुसे आ रहे थे जैसे यही इनका घर है। जैसे तैसे घर आया तो दरवाजे पर ढेर सारे पतिंगे। कमरे में घुसते ही बिजली बंद किया। दरवाजे की खिड़कियों पर जाली लगी है मगर न जाने कहाँ-कहाँ से पतिंगे घुस जाते हैं! अभी भी लैपटाप की स्क्रीन पर दो चार मंडरा रहे हैं। जवानी के दिनो में एक शेर गुनगुनाता था...पता नहीं किसका लिखा है...

कितने परवाने जले राज़ ये पाने के लिए
शमा जलने के लिए है या जलाने के लिए।

फिर आगे कुछ ऐसा था....

शमा की गोद में जलते हुए परवाने ने कहा
क्यूँ जला करती है तू मुझको जलाने के लिए।

परवाने तो हैं मगर शमा का स्थान ट्यूब लाइट या शेफल बल्ब ने लिया है। पंतगे इनमें पर तोड़-तोड़ कर गिर रहे हैं। मर रहे हैं मगर न शमा है न शमा की गोद। कितने बदनसीब है आज के परवाने। शमा पर मरते तो हैं मगर जलने का आनंद भी नहीं ले पाते!


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अभी छत से टहल कर आ रहा हूँ। अजीब सा सन्नाटा पसरा है। कंदब, आम, सागौन और बेला सभी स्तब्ध हैं। न फिज़ाओं में हवा की सरगोशी, न गगन में बादलों की आवाजाही, न शाखों का हिलना, न कल की तरह मेंढकों की टर टर। मैने पूछा- इतना सन्नाटा क्यों पसरा है भाई? कोई कुछ नहीं बोला। एक चमगादड़ इधर से उधर उड़ा। सागौन के वृक्ष में छुपे कुछ जुगनू हंसते हुए चमक दमक मचाने लगे। सन्नाटे में दूर दूर तक बस झिंगुरों का शोर ही सुनाई पड़ रहा था। तभी एक मेंढक की टर टर सुनाई दी...

झिंगुरों से पूछते, खेत के मेंढक 

बिजली कड़की
बादल गरजे
बरसात हुयी

हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा

मगर जो दिखना चाहिए 
वही नहीं दिखता !

यार ! 
हमें कहीं, 
वर्षा का जल ही नहीं दिखता !

एक झिंगुर 
अपनी समझदारी दिखाते हुए बोला-

इसमें अचरज की क्या बात है !

कुछ तो 
बरगदी वृक्ष पी गए होंगे

कुछ 
सापों के बिलों में घुस गया होगा

मैंने 
दो पायों को कहते सुना है

सरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है 
फटाफट सूख जाता है !

हो न हो
वर्षा का जल भी 
सरकारी अनुदान हो गया होगा..! 


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नोटः-बहुत दिनों से ब्लॉग में कुछ लिख नहीं पा रहा हूँ। एक दिन फुर्सत का मिला तो फेसबुक में ही जुटा रहा। वहाँ लिखे स्टेटस को यहाँ कापी-पेस्ट करके एक पोस्ट बना दी। उन मित्रों के लिए जो फेसबुक से नहीं जुड़े हैं।

7.6.14

स्नातक, च्यूतिया

अपने आपको पढ़ा-लिखा लगाने वाले एक युवक से पानवाला पूछता है-'गुरूss, ई स्नातक क मतलब का होला? उत्तर मिला-'बी.ए. यानी बैचलर ऑफ आर्ट्स यानी ग्रैजूएट।' पानवाला कहता है-'हमके ज्ञान क चोन्हा मत देखावs। हम शब्द पुछली त ओकर अर्थ बतावs। तू त भावार्थ आउर अुनुवाद बूकै लगला।' लोग परीक्षा पास कर लेहलन लेकिन अर्थ जनबैै नाहीं करतन। हमहूं का जानित एक दिन एही दुकान पर दू जने कविता बतियावत रहलन। हमहूँ के ओम्मे मजा आवे लगल त सुन लेहली। कहा त बताई?

युवक की जिज्ञासा पर पानवाला बताने लगा- 'बात ई भइल कि सामने से पाउडर लिपिस्टिक लगउले दुइठे जवान मेहरारू चलल आवत रहलिन। ऊ लोगन क लीपल पोतल चेहरा क चमक देख के एक जने कहलन-'गुरू मान ला कि ई दुन्नो कहीं हमहन से छुआ जायँ त ई लोग जौन-जौन समान पोतले हइन ऊ हमहूँ लोगन के लग जाई आउर ई लोगन के कुल चमक बिखर जाई। ई कवन सुन्दरता हौ?  हमहन के घरे एक बार नहा के निकलै लिन त जूड़ा से पानी अइसे अइसन चुवैला जइसे सावन में बरसात भइले के बाद छानी की ओरी से पानी चुवत होय। यही के कहल जाला सद्यः स्नाताSS।

यह बिना ढोंग का ढंग है जिसमें अपनी बात समझाते हुए एक ने दूसरे को बतलाया-'यही स्नाता से स्नातक बनल हौ। ऊँचा स्कूल याने हाई स्कूल ओके कहल गयल हौ जहाँ उँची-उँची बात कहै क शुरूआत होला। एकरे बाद इंटरमीडिएट ओके कहल गयल जहाँ विषय तोहरे बीच आ जाय या तोहई विषय के बीच आ जा। जेके बैचलर कहै ला ओकरे बदे स्नातक शब्द ज्यादा अच्छा बा। विषय के धारा में जे आमूलचूल डुबकी लगा ले, ऊ हौ स्नातक।' 



दूसरे ने विस्मय के साथ कहा- अच्छा ! तो स्नातक का मतलब स्नान से है? 

पहले ने कहा-आउर का? हमहूँ के ओही दिन पता चलल। होला का कि कोई के घरे गइला आउर उहाँ से बिना समझले बुझले आगे बढ़ गइला, त तू का जनबा? शब्द से चलला आउर कूद गइला वाक्य पर, आउर फिर तुरंतै भाषा में दौड़े धूपै लगला। अरे, ठहरला नाहीं, रूकला नाहीं, पुरनकन से पुछला नाहीं कि ई कइसे बनल आउर कउने-कउने अर्थ में एक प्रयोग होला, त तू कइसे जनबा? पहिले क विद्वान जौन इ सब जानें में पूरी जिन्दगी खपा देत रहलन ऊ का च्यूतिया रहलन?

दूसरे ने वर्जना की- यार गाली मत बक्का।

पहले ने स्पष्टीकरण दिया- ई गाली नाहीं हौ। एके झूठै सरीर के अंग से जोड़ के लोग गाली मानें लन। ई संस्कृत शब्द हौ 'च्युत' हो जाना या चूक जाना। जे कभी च्युत नाहीं होत ओके 'अच्युत' कहल जाला। ई परमात्मा क विशेषता हौ। लेकिन आदमी हौ त ऊ कभी कदा चुकबै करी। ओकरे एही सुभाव की तरफ इसारा करे बदे प्रेम से च्यूतिया शब्द क इस्तेमाल होए लगल।'

यह नीर क्षीर विवेक यहाँ के पानवाले का है। जिसे सुनकर का उद्गार है-'राजा, हउआ तू छँटल भयल गहरेबाज। दुनियाँ के पान खियावैला आउर दुकान पै बइठके अकेले रसपान करल करै ला।'

पान वाला कहता है-'नाहीं मालिक सब बिखरल हौ काशी में बस ध्यान देवे क जरूरत हौ।'

युवक भी कम नहीं है। वह टिप्पणी जड़ता है-'तबै राजा बड़े-बड़े से बीड़ा उठवावैला।'

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यह पोस्ट 'सोच विचार' पत्रिका में प्रकाशित श्री राजेश्वर आचार्य के आलेख 'हमारी काशी' का वह अँंश है जो मुझे अधिक अच्छा लगा और जिसे मित्रों को पढ़ाने के मोह मैं नहीं छोड़ पाया।

31.3.14

नववर्ष।


हाड़ कंपाने वाली ठंड में
सूट-बूट पहनकर
ए.सी. में बैठकर
इस्की-व्हिस्की चढ़ाकर
किसी को हलाल कर
ओटी-बोटी चाभ कर
नाचते-झूमते
संपन्नता की नुमाइश करने के लिए आता है
अंग्रेजी नववर्ष।


बर्गर, पिज़्जा या फिर
टमाटर की चटनी के साथ
आलू या छिम्मी का परोंठा खा कर
मोबाइल में मैसेज भेज कर
देर रात तक जाग-जाग कर
टी.वी. में
सपने देखता
बजट बिगाड़ता
आज की नींद
कल की सुबह खराब करता 
मध्यमवर्ग
तब चौंकता है
जब हैप्पी न्यू ईयर कहकर
मुँह चिढ़ाते हुए 
भाग जाता है
अंग्रेजी नववर्ष।

अथक परिश्रम के बाद
जब गहरी नींद में
सो रहा होता है
मजदूर, किसान
मध्य रात्रि में
चोरों की तरह आता है
अंग्रेजी नववर्ष।

सूर्योदय की स्वर्णिम आभा बिखेरता
पंछियों के कलरव से चहचहाता
गेहूँ की लहलहाती बालियों में
सोना उगलते
बौराये आमों, गदराये फलों, खिलते फूलों
झर झर झरते पुराने,
फर फर हिलते नये कोमल पत्तों के बीच
वसंत के गीत गाता
नई उर्जा का संचार करता
जन-जन को
गहरी नींद से जगाता
हँसते हुए आता है
भारतीय नववर्ष।

सृष्टि का प्रथमदिवस
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
नवसंवत्सर!
इसके आते ही
सुनाई देती है
उजाले की हुँकार
होने लगता है
अंधेरे का पलायन
दिन बड़े,
छोटी होने लगती हैं रातें
भरने लगते हैं
अन्न के भंड़ार
गरीब क्या,
मिलने लगते हैं दाने
पंछियों को भी!

नवदुर्गा का आह्वाहन
व्रत, तप, संकल्प और जयघोष के साथ
शुरू होता है
भारतीय नववर्ष।

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