31.1.10

आयो रे बसंत चहुँ ओर.


अपने शहर में, घने कोहरे और हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बीच 'वसंत पंचमी' का त्यौहार कब आया और चला गया पता ही नहीं चला. हाँ, ब्लॉग जगत में बसंत झूम कर आया. इधर ४-५ दिनों से इस शहर के मौसम में ऐसा बदलाव आया कि लगा ..यही तो है बसंत. आज मैंने भी ठान लिया कि बसंत पर कुछ लिखा जाय. २ घंटे की मेहनत के बाद जो भी बन सका उसे ज्यों का त्यों पोस्ट कर दे रहा हूँ ..अभी इस पर संपादक की नज़र भी नहीं गयी है अतः यह गुरुतर दायित्व भी मैं आप पर ही छोड़ता हूँ. प्रस्तुत है एक गीत.


आयो रे बसंत चहुँ ओर


धरती में पात झरे
अम्बर में धूल उड़े

अमवां में झूले लगल बौर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.

कोयलिया 'कुहक' करे
मनवां का धीर धरे

चनवां के ताकेला चकोर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.

कलियन में मधुप मगन
गलियन में पवन मदन

भोरिए में दुखे पोर-पोर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.
..........................................................


24.1.10

धूप, हवा और पानी



तंग गलियों में  
नालियों के किनारे बसे
एक कमरे वाले घरों में
खटिये पर लेटे-लेटे
आदतन समेटते रहते हैं वे
बंद खिड़की के झरोखों से आती
गली के नाली की दुर्गन्ध,
कमरे की सीलन, सड़ांध.....सबकुछ.

अलसुबह
दरवाजे का सांकल
खटखटाती है हवा
घरों से निकलकर झगड़ने लगतीं हैं
पीने के पानी के लिए
औरतें.

गली में
रेंगने लगते हैं
दीवारों के उखड़े प्लास्टरों में
भूत-प्रेत, देव-दानव को देखकर
गहरी नीद से चौंककर जगे
डरे-सहमें
बच्चे.

पसरने लगती है
दरवाजे पर
छण भर के लिए आकर
मरियल कुत्ते सी
जाड़े की धूप.

गली के मोड़ पर
सरकारी नल की टोंटी पकड़े
बूँद-बूँद टपकते दर्द से बेहाल
अपनी बारी की प्रतीक्षा में
देर से खड़ी धनियाँ
खुद को बाल्टी के साथ पटककर
धच्च से बैठ जाती है
चबूतरे पर

देखने लगती है
ललचाई आँखों से
ऊँचे घरों की छतों पर
मशीन से चढ़ता
पलटकर नालियों में गिरकर बहता पानी.

नाली में तैरते कागज की नाव को खोलकर
पढ़ने लगता है उसका बेटा
प्रकृती सभी को सामान रूप से बांटती है
धूप, हवा और पानी.





17.1.10

जाड़े की धूप


इस कविता का सृजन आज से 25 वर्ष पूर्व, सन 1985 में मकरसंक्रांति के दिन , एक प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को देखकर किया था. आज... जब मैं अपनी पुरानी डायरी पलटने लगा... तो इसे देखकर... उसी दुनियाँ में खो गया. मन हुआ, समर्पित कर दूं इसे अपनी श्रीमती जी को .....वो भी क्या याद करेंगी कि किससे पाला पड़ा है.





जाड़े की धूप


षोडसी को नहलाकर

प्यार से सहलाकर

छत की मुंडेर से

उतरने लगी है

जाड़े की धूप.


स्वेटर बुनती

गोरी उंगलियाँ

आँखों में अनगिन

ख्वाबों की गलियाँ

ऊन के गोले सा

गोरी की बाँहों से

लुढ़कने लगा है

सूरज .


पंछियों में बदल गए

सभी पतंग सहसा

शर्म से

लाल हुआ जाता है

दिन !

10.1.10

आत्मा की बेचैनी और भूखा भेड़िया


आत्मा की बेचैनीः-
आज रविवार है, कविता पोस्ट करने का दिन । मैने रविवार को कविता पोस्ट करने का दिन इसलिए रखा कि यह छुट्टी का दिन है, आराम से कविता पोस्ट करूँगा और दूसरे के ब्लाग में जाकर दिनभर कमेंट टिपटिपाता रहूँगा लेकिन हाय री किस्मत 'बिजली रानी' मेरे इस कवित्त प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पाई। सौतन बन कहने लगी, "अच्छा तो यह बात है, मैं तेरे जगते ही दिनभर के लिए चली जाउंगी ! वो मेरे निश्चय का दिन और ये बिजली रानी का कातिलाना व्यवहार, मेरे शहर में बिजली सुबह ९ बजे से दिनभर गायब रहती है और देर शाम ढले ६ बजे के बाद मुंह चिढ़ाते हुए आ जाती है ! बेशर्मी से पूछती है, "क्यों बेचैन आत्मा, क्या किया दिन भर ? बड़े आए थे ब्लाग-ब्लाग घूमने....उहं !
मैं भी कहाँ मानने वाला था। मैने भी तय कर लिया कि ब्रह्म-मुहूर्त में ही जागकर कम से कम अपनी कविता तो जरूर पोस्ट कर दुंगा। देखता हूँ ये 'बिजली रानी' मेरा क्या बिगाड़ लेती है ! तब से हर इतवार ब्रम्हमुहूर्त में ही उठकर कविता पोस्ट करता हूँ। लेकिन आज ? हाय !! लगता है सभी सरकारी विभाग मेरी ब्लागरी के दुश्मन बन गए हैं। आज सुबह ४ बजे जब मैने नेट आन किया तो देखा, लिंक ही नहीं मिल रहा है ! फोन की नाड़ी टटोली तो अवाक रह गया एक भी धड़कन सुनाई नहीं दी ! आत्मा बेचैन हो गई। अरे,.. यह तो डेड है ! तो लिंक कैसे मिलेगा ? अरे, करमजले बी०एस०एन०एल, तू ने कब से बिजली रानी से दोस्ती कर ली..? वह तो अभी है, तू कहाँ मर गया ? अब इतनी सुबह कौन आए मेरी मदद करने ! फिर सोंचा, मैं ही चला जाता हूँ किसी साइबर में बैठकर कविता पोस्ट कर दुंगा.. लेकिन इतनी सुबह कौन साइबर खुलेगा !

अब आप कल्पना कर सकते हैं कि मैं सुबह से कितना बेचैन था। साइबर खुला तो आ गया कविता पोस्ट करने लेकिन बेचैनी में कविता की डायरी घर ही भूल गया ! अब मैं क्या करूँ ? सोंचा यही लिख दूँ जो हुआ है। बाकी सब आपकी दुआ है। ईश्वर से मनाइए कि बी०एस०एन०एल० अच्छी सेवा देने लगे, बिजली रानी दिनभर रहे और बेचैन आत्मा की बेचैनी कुछ कम हो।

भूखा भेड़ियाः-

अभी एक बात और याद हो आई। ताउ डाट काम के फ़र्रुखाबादी विजेता (159) पहेली में एक चित्र था....एक जानवर की चार टांगों के बीच छुपा दूसरा भूखा जानवर । जब मैने चार टांगे देखीं तो दिमाग पर जोर दिया, कहीं यह भारत का लोकतंत्र तो नहीं ! सुना है कि लोकतंत्र की भी चार टांगे होती है। दिमाग में कीड़ा रेंगा- कहीं यह गधा तो नहीं !! ध्यान से देखा.. गधा ही था। अब प्रश्न शेष था कि इन चार टांगो के बीच भूखा जानवर कौन हो सकता है ? मेरे आँखों के सामने बहुत से चित्र आ-जा रहे थे। शरारती दिमाग ने तुरंत पहचान लिया......भूखा भेड़िया !! मैने तुरंत उत्तर लिखा - "गधा और भूखा भेड़िया" । कहना न होगा कि दूसरे दिन मैं ही विजेता घोषित हो गया। क्यों ? है न मजेदार बात ! इसी पर एक कविता लिखने का प्रयास करता हूँ देखिए क्या होता हैः-

भूखा भेड़िया




पहेली में चित्र था

बहुत बढ़िया

गधे की चार टांगों के बीच

भूखा भेड़िया !

सभी ने कहा

गधा,

बंधा है.

परतंत्र है.

मैने कहा

नहींऽऽ

यह

आधुनिक भारत का लोकतंत्र है !

दुःख इस बात का है

कि मेरी बात को आपने

अधूरे मन से माना

लोकतंत्र की चार टांगे तो पहचान लीं

भेड़िये को

अभी तक नहीं पहचाना !

भेड़िये को

अभी तक नहीं पहचाना !

3.1.10

प्रेम



घने कोहरे और कंपा देने वाली ठंड से निकलकर

मूंगफली और छिमी के दाने सा

कीचन में पकते अम्मा के बगोने में पापा के प्यार सा

अमरूद के नीचे जलते अलाव की गर्मी सा

पापा की सुर्ती और अम्मा की फुर्ती सा

बाबा की दाढ़ी और गाढ़ी कमाई सा

मुन्नी की राखी सा

मंदिर की घंटी सा

लो फिर आ गया

घने कोहरे और कंपा देने वाली ठंड से निकलकर

सबके द्वार खटखटाता

प्यारा नववर्ष।


सभी को नववर्ष की एक बार फिर बहुत-बहुत बधाई। आज रविवार है... कविता पोस्ट करने का दिन । नए वर्ष का पहला रविवार। सफर से पहले, ठहर कर अपनी ताकत अंदाज लेने का अवसर देने वाले मील के पहले पत्थर सा... पहला रविवार। मेरे पिछले पोस्ट को आप सभी ने जो स्नेह दिया उसका तहे दिल से आभारी हूँ। मैने लिखा -प्रथम मास के.. प्रथम दिवस की.. उषा किरण बन.. मैं आउंगा बधाई देने नए वर्ष की.. तुम अपने कमरे की खिड़कियाँ खुली रखना...अब बहुत से लोग कह रहे हैं कि आज तीन दिन से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ....... रोज कमरे की खिड़कियाँ खुली रखता हूँ....... आखिर कब आओगे...!! अरे, तुम आओ या न आओ कम से कम धूप को तो भेज दो...! उसे भी क्यों पकड़े हुए हो..? बड़ी समस्या है.. हरकीरत 'हीर' लिखती हैं कि देवेन्द्र जी खिड़कियाँ खोल दी हैं ....अब मच्छर या सर्दी ने परेशान किया तो आप जाने ......!! मुझे उनके साथ-साथ अपनी बहुत चिंता सता रही है ...तीन दिन से रोज आसाम जा रहा हूँ उनकी खिड़कियाँ हैं कि बंद ही नहीं हो रहीं !! अब उन्हें कौन समझाए कि
मैं कवि के साथ बेचैन आत्मा भी हूँ ....कुछ भी बन सकता हूँ ..!!! बीमार हो गईं तो नाहक इल्जाम मेरे सर। वैसे भी
कहा गया है-जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि।


पिछले सप्ताह एक और मजेदार वाकया हुआ। मैने श्री रवि रतलामी जी के प्रसिद्घ ब्लॉग रचनाकार में http://rachanakar.blogspot.com/2009/12/blog-post_31.html?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed:+rachanakar+(Rachanakar)आयोजित व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता में अपना व्यंग्य लेख व्यंग्य -लेखन पुरस्कार आयोजन – देवेन्द्र कुमार पाण्डेय का व्यंग्य : स्कूल चलें हम -भेज दिया। जब यह प्रकाशित हो गया तो इंतजार करने लगा कि देखें पाठक क्या प्रतिक्रिया देते हैं ! हाय, सिर्फ एक प्रतिक्रिया !! मै बड़ा दुःखी हुआ।
सोंचा ....१५ दिन की मेहनत के बाद एक लेख लिखा......... इतनी मेहनत से टाइप किया और सिर्फ एक प्रतिक्रिया !! फिर सोंचा अपने दो अनुज हैं उन्हे ई-मेल से अवगत कराते हैं कि भाई जरा पढ़ लो.... बताओ कैसा लिखा है मैने ? एक ने पढ़ा कि नहीं पता नहीं... दूसरे ने मेरा छोड़ सभी का पढ़ा फिर ई-मेल कर दिया... कि भैया आपका नहीं मिला तो जो मिला उसी की तारीफ कीए दे रहे हैं !! मैने सर पीट लिया। किसी को न बताने की कसम खाई थी लेकिन ऐसा दर्द किसे कहा जाय ? आप लोगों के सिवा और कोई है जो सुनेगा !! कहेगा ......."सर मत खाओ बाप.... अपनी कविता जाकर किसी और कवि को सुनाओ।"


मेरी बकवास पढ़कर यदि आप बोर हुए हों तो अवश्य लिखें... भविष्य में शार्टकट से काम चला लुंगा। चलिए चर्चा नए वर्ष के प्रथम रविवार की पहली कविता की करें। आज जो कविता मैं पोस्ट करने जा रहा हूँ उसे मैने अपने जीवन साथी की आंखों में पढ़कर हूबहू उतारा है। यह कविता मैं अपनी श्रीमती जी को समर्पित करता हूँ जो मेरी कविताओं की पहली श्रोता व अंतिम संपादक हैं। प्रस्तुत है आज की कविता जिसका शीर्षक हैः-



प्रेम







तुम

एक दिन

उलझे मंझे की तरह

लिपट गए थे

मेरी जिन्दगी से



मैंने

घंटों.....

धूप में खड़े होकर

तुम्हें सुलझाया है ।



आज

जब तुम्हारे सहारे

मन-पतंग

हवा से बातें करता है

तो झट

तुम्हें

अपनी उंगलियों में

लपेटने लगती हूँ ।



डरती हूँ

कि कहीं

किसी की

नज़र न लग जाए........



डरती हूँ

कि कहीं

तू

फिर

उलझ न जाए......!