17.4.15

गेहूँ

हम शहरियों के लिए
कितना कठिन है
धोना
सुखाना
चक्की से पिसा कर
घर ले आना
आंटा!

उनकी नियति है
जोतना
बोना
उगाना
पकने की प्रतीक्षा करना
काटना
दंवाई करना
खाने के लिए रखकर
बाजार तक ले जाना
गेहूँ!!!

हमारे पास विकल्प है
हम
बाज़ार से
सीधे खरीद सकते हैं
आंटा
उनके पास कोई विकल्प नहीं
उन्हें
उगाना ही है
गेहूँ

हम खुश हैं
उनकी मजबूरी के तले
हमारे सभी विकल्प
सुरक्षित हैं!

11.4.15

गर्मियों के दिन

रद्दी कागज़ बेचोssss
चीखता, निकल गया रद्दी वाला
याद आने लगीं
बनारस की संकरी गलियाँ
पुराना घर

दुपहरिया में
एक गाय आकर
घुसेड़ देती थी पूरी गरदन
गली में खुलते
कमरे के दरवज्जे को धकेल कर
पी जाती थी
एक बाल्टा पानी
हँसता था
सामने
चबूतरे पर बैठा
प्याऊ!
चहकती थीं
ऊपर
बिजली के तार पर बैठीं
गौरैया!

चना जोर गरम बेचता था
लूला
कुहनी के ऊपर से ही
गायब थे उसके
दोनों हाथ
जिसमे बंधे होते थे
स्टील के बड़े-बड़े चम्मच
इन्हीं चम्मचों को पीटकर
बुलाता था ग्राहक
तौलता, बेचता था
चने

शनीवार के दिन
आते थे
शनी देव वाले बाबा
आइसक्रीम वाला
काले-काले जामुन
और भी दूसरे फेरी वाले
मगर यहाँ
कॉलोनी में
सिर्फ एक
रद्दी कागज़ बेचोssss