31.10.12

आकाश दीप

यह पंचगंगा घाट है। गंगा, यमुना, सरस्वती, धूत पापा और किरणा इन पाँच नदियों का संगम तट। कहते हैं कभी मिलती थीं यहाँ पाँच नदियाँ..सहसा यकीन ही नहीं होता लगता है, कोरी कल्पना है। यहाँ तो अभी एक ही नदी दिखलाई पड़ती हैं..माँ गंगे। लेकिन जिस तेजी से दूसरी मौजूदा नदियाँ नालों में सिमट रही हैं उसे देखते हुए यकीन हो जाता है कि हाँ, कभी रहा होगा यह पाँच नदियों का संगम तट तभी तो लोग कहते हैं पंचगंगाघाट। 

जल रहे हैं आकाश दीप। चल रहा है भजन कीर्तन। उतर रहा हूँ घाट की सीड़ियाँ..



 पास से देखने पर कुछ ऐसे दिखते हैं आकाश दीप। अभी चाँद नहीं निकला है।

यहाँ से दूसरे घाटों का नजारा लिया जाय...



यहाँ बड़ी शांति है।  घाट किनारे लगी पीली मरकरी रोशनी मजा बिगाड़ दे रही है। सही रंग नहीं उभरने दे रही..

 ध्यान से देखिये..चाँद इन आकाश दीपों के पीछे निकल चुका है।

 एक किशोर बड़े लगन से टोकरी में एक-एक दीपक जला कर रख रहा है। ऊपर खींचते वक्त पर्याप्त सावधानी की जरूरत है नहीं तो दिया बुझ सकता है। तेल सब उसी की खोपड़ी में गिर सकता है।














देखते ही देखते चार दीपों वाली टोकरी को पहुँचा दिया आकाश तक। लीजिए बन गया अब यह आकाश दीप।चाँद अब पूरी तरह चमक रहा है।

29.10.12

अस्सी घाट, शरद पूर्णिमा और चाँदनी की पदचाप


























सभी तस्वीरें आज शाम की हैं। दूसरी तस्वीर में आकाश दीप जल रहा है। आज से तुलसी के पौधे और गंगा घाट के किनारे दीप दान प्रारंभ हो चुका है।  तीसरी तस्वीर में एक पुरानी नाव दिखाई दे रही है जिस पर आजकल चाय वाला अपनी दुकान लगाता है। अंतिम तस्वीर थोड़ी हिली न होती तो मस्त आती। इसके हिलने का अफसोस तो है लेकिन फिर भी आपको दिखाने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूँ। आज शरद पूर्णिमा है। खीर पक रही है। चाँदनी अपनी संपूर्ण मिठास के साथ उसकी प्रतीक्षा में है। हमारी शुभकामना यह कि आपकी खीर बिल्ली से बची रहे।


28.10.12

मठाधीश

वाल्मीकि जयंति पर विशेष....

वाल्मीकीय रामायण के उत्तर कांड में एक बहुत ही रोचक प्रसंग है.....

नित्य की भांति श्रीराम आज भी राजकार्य को निपटाने के लिए पुरोहित वशिष्ठ तथा कश्यप आदि मुनियों और ब्राह्मणों के साथ राज्यसभा में आ गये। इधर कार्य को निपटाने के उपरान्त श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा-

लक्ष्मण!


निर्गच्छ त्वं महाबाहो सुमित्रानन्दवर्धन।
कार्यार्थिनश्च सौमित्रे व्याहर्तुं त्वमुपाक्रम।।

तुम स्वयं जाकर देखो। यदि कोई कार्यार्थी द्वार पर उपश्थित है, तो उसे भीतर आने के लिए कहो। श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ने बाहर आकर उच्च स्वर में कहा-क्या किसी को श्रीरामजी से मिलना है? किसी ने भी अपने किसी कार्य के लिए मिलने की इच्छा प्रकट नहीं की। वस्तुतः, राम-राज्य में व्यवस्था इतनी उत्तम थी कि  किसी को अपने कार्य के लिए भटकना ही नहीं पड़ता था, सबके कार्य स्वतः हो जाया करते थे। अतः लक्ष्मण ने  श्रीराम के पास लौटकर कहा-

दृश्यते  न  च  कार्याथी

भगवन! कोई मिलने वाला नहीं है। श्रीराम ने लक्ष्मण से एक बार फिर बाहर जाकर पता लगाने को कहा, तो लक्ष्मण ने तत्परता से आज्ञा का पालन किया। बाहर आने पर उन्होने एक कुत्ते को द्वार पर खड़ा और बार- बार भोंकते देखा, तो उससे पूछा-

किं ते कार्य महाभाग ब्रूहि विस्त्रब्धमानसः।

यदि तुम्हें श्रीराम से कोई कार्य है, तो निंश्चिंत होकर मुझे बतलाओ। 

लक्ष्मण के वचन सुनकर कुत्ता बोला-मैं श्रीराम से मिलना चाहता हूँ और अपना प्रयोजन भी उनके सामने ही स्पष्ट करूंगा। कुत्ते के द्वारा ऐसा कहने पर लक्ष्मण उसे अपने साथ राजसभा में श्रीराम के समक्ष ले आया और उससे बोला-महाराज तुम्हारे सामने विद्यमान हैं-तुम्हें उनसे जो कहना हो, कहो।

कुत्ता बोला-भगवन्! जब देवालयों में, राजभवनो में और ब्राह्मणों के घरों में अग्नि, इन्द्र, सूर्य और वायुदेवता की अबाध गति है, फिर हम-जैसे अधम योनि जीव वहाँ क्यों नहीं जा सकते? कुत्ते ने श्रीराम को अपने मस्तक का घाव दिखाते हुए कहा- सर्वार्थसिद्धि नामक एक प्रसिद्ध भिक्षु ने अकारण मुझ पर प्रहार करके मुझे घायल किया है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैने उनके प्रति कोई अपराध नहीं किया।  

श्रीराम के आदेश पर सर्वार्थिसिद्धि भिक्षु को बुलाया गया और उसने उपश्थित होकर श्रीराम से पूछा- हे निष्पाप राम! मुझे किस कार्य के लिए बुलाया गया है, मैं उपश्थित हूँ मुझे आज्ञा कीजिये।

श्रीराम ने कहा-भिक्षो! इसके सिर पर जो घाव है, वह आपके द्वारा मारे गये डण्डे का परिणाम है। इसने आपका क्या अपराध किया था, जिसका दण्ड आपने इसे इस रूप में दिया है? आप जानते हैं-


मनसा वाचा कर्मणा वाचा चक्षुषा च समाचरेत्।
श्रेयो लोकस्य चरतो न द्वेष्टि न च लिप्यते।।

कि मन, वचन, कर्म और दृष्टि द्वारा दूसरों को दुःख न पहुँचाने वाला और किसी से द्वेष न रखने वाला व्यक्ति पाप से लिप्त नहीं होता।

सर्वसिद्धि बोला-भगवन! भिक्षा का समय बीत चुकने पर भी मैं भिक्षा के लिए द्वार-द्वार भटक रहा था और भूख के कारण परेशान था। यह कुत्ता बीच रास्ते में खड़ा हो गया। मैने इसे हटने के लिए बार-बार कहा, किंतु इसने मेरी एक न सुनी, तो क्रोध और क्षुधा के आवेश में आकर मैने इसे डण्डा मारा है। इसके लिए मैं अपराधी हूँ और दण्ड भुगतने के लिए तैयार हूँ।

श्रीराम ने उपश्थित सभासदों से उपयुक्त दण्ड बताने का अनुरोध किया, तो मुनियों ने एक स्वर में कहा- रघुनन्दन! राजा सबका शासक होता है, फिर आप तो तीनो लोकों पर शासन करने वाले साक्षात् विष्णुनारायण हैं, अतः आप स्वयम् दण्ड का विधान कीजये।

ऋषियों द्वारा इस प्रकार अपना मत प्रकट करने पर कुत्ता बोला-प्रभो यदि आप मेरी प्रसन्नता के अनुरूप इस भिक्षु ब्राह्मण को दण्डित करना चाहते हैं, तो महाराज इस ब्राह्मण को कालंजर में एक मठ का महन्त बना दीजिये। कुत्ते के सुझाव पर श्रीराम ने सर्वार्थसिद्धि को मठ के महन्त-पद पर अभिषिक्त किये जाने की अनुमति दे दी, तो वह महन्त होने के नाते गजारूढ़ होकर चल दिया।

भिक्षु के इस प्रकार शान से प्रस्थान करने पर आश्चर्यचकित सभासदों ने श्रीराम से पूछा-

महाराज! आपने इसे दण्ड दिया है अथवा वरदान से कृतार्थ किया है!  

श्रीराम ने उत्तर दिया- ब्राह्मण को मठाधीश का पद देने के पीछे के रहस्य को आप लोग नहीं समझ सकेंगे। श्रीराम ने अपनी ओर से कुछ न कहकर कुत्ते से इस रहस्य का उद्घाटन करने के कहा, तो कुत्ता बोला-

अहं कुलपतिस्तत्र आसं शिष्टान्नभोजनः।
देवद्विजातिपूजायां दासीदासेषु राघव।।

रघुनन्दन मैं पहले जन्म में कालंजर के एक मठ का मुखिया था। मैं यज्ञ-शेष का भोजन करता, देवों-ब्राह्मणों की पूजा मे तत्पर रहता, दास-दासियों के प्रति न्याय करता और प्राणिमात्र के हित-साधन में संलग्न रहता था, फिर भी मुझे कुत्ते की योनि में जन्म लेना पड़ा है। मैं समझता हूँ कि जिसे अपने बन्धु-बान्धवों के नरक में गिराना हो, उसे मठाधीश बन जाना चाहिए, अन्यथा विवेकशील व्यक्ति को

तस्मात् सर्वास्ववस्थासु कौलपत्यं न कारयेत्

किसी भी अवस्था-दरिद्रता, कष्ट, बाधा आदि-में मठाधीश के पद को ग्रहण नहीं करना चाहिए। कुत्ते के वचन को सुनकर सभी आश्चर्य चकित रह गये। कुत्ता श्रीराम को प्रणाम करके चला गया।
.....................................

अनुवादक एवं व्याख्याकार डॉ0 रामचन्द्र वर्मा शास्त्री, सेना निवृत्त प्राध्यापक दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली की पुस्तक 'वाल्मीकीय रामायण' पृष्ठ सं-375,376,377 से साभार।



24.10.12

सर्वहारा


सूर्योदय हो या सूर्यास्त
चौकन्ने रहते हैं
चिड़ियों की तरह
नाटे, लम्बू, कल्लू, छोटू
या फिर
बिगड़ैल पूँजीपतियों के शब्दों में-
हरामख़ोर।

भागते हैं
साइकिल-साइकिल
दौड़ते हैं
सूरज-सूरज
तलाशते हैं
दाना-पानी

दिन ढले
इन्हें देखकर
खोँते में
किलकने लगते हैं
चँदा, सूरज, राधा, मोहन
या फिर
राजकुमारी।

चोंच की तरह
खुल जाता है
झोले का मुँह
चू पड़ते हैं धरती पर
टप्प से
कुछ स्वेद कण
तृप्त हो जाती है
जिन्दगी।

अजगर की तरह
गहरी नींद
नहीं सो पाते,
बुद्धिजीवियों की तरह
नहीं कर पाते
शब्दों की जुगाली,
बांटते हैं दर्द
आपस में।

कमेरिन कहती है..
लाख काम करो
दू रोटी कम्मे पड़ जात है!
इहाँ चन्ना देर से निकसत हs का ?
गाँव मा तs 
हम जल्दिये सूत जात रहे
इहाँ तs
सोवे कs भी मउका नाहीं मिलत 
पूरा।

कल बहनिया ताना मारत रही 
हमार शहर बहुत बड़ा हs
तोहार तs, जैसे गाँव!

डांटता है कमेरा’....
अच्छा! ऊ का कही गोबर गणेश!!
जस हो, तस भली अहो
दूर क बंसी
सुरीली जान पड़त है
तोहें खबर है?
महानगरी में तs
सूरज डूबबे नाहीं करत

रोवे क भी मउका नाहीं मिलत  
पूरा!
......................

23.10.12

सड़क पर जिंदगी

मेरे हाथ में श्री आनंद परमानंद  जी की पुस्तक है..सड़क पर जिन्दगी। इस पुस्तक में 101 नायाब हिंदी गज़लें हैं। पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा...गद्य सी अपठित हुई हैं छंद जैसी लड़कियाँ। इस पर एक दो कमेंट आलोचना के भी आए। एक दिन परमानंद आनंद जी को अपने घर बुलाउंगा और उन्हीं से प्रतिक्रिया पूछ कर लिखूँगा। उनकी  एक गज़ल यहाँ भी लिख चुका हूँ।  आज इस पुस्तक की पहली गज़ल पढ़ाता हूँ....

सड़क पर जिंदगी है इस जगह कोई न बंधन है।
यहां छोटा-बड़ा हर आदमी, जनता है या जन है।

अवन्ती, कांची, काशी, अयोध्या और यह मथुरा,
सड़क के पांवतर उज्जैन है, अजमेर, मधुवन है।

भले हों व्यास, तुलसी दास, ये रविदास वो कबिरा,
जिसे दुनियाँ पढ़ा करती है, सड़कों का ही चिंतन है।

सड़क की धूल जब उड़ती है, तो आकाश छूती है,
सड़क की सोच ऊँची है, सड़क का एक दर्शन है।

ये बेघर और ये मजदूर, झुग्गी-झोपड़ी वाले,
समझते हैं सड़क इनका ही मालिक और मलकिन है।

ग़रीबी किस जगह जाती अगर सड़कें नहीं होतीं,
ग़रीबों का यहीं संसार है, घर-द्वार आंगन है।

ये सारा विश्व सोता है, मगर सड़कें नहीं सोतीं,
ये सबको जोहती हैं, जागतीं इनका ये जीवन है।

सड़क को छोड़ने वाला कभी घर तक नहीं पहुँचा,
ये घर तक भेजतीं सबको, यही इनका बड़प्पन है।

मेरी कविता यही सड़कें हैं, इनको रोज पढ़ता हूँ,
सड़क तुमको नमन् मेरा, तेरा सौ बार वन्दन है।
............................

21.10.12

गद्य सी अपठित हुई हैं छन्द जैसी लड़कियाँ

गद्य सी अपठित हुई हैं छन्द जैसी लड़कियाँ।
ये महकते फूल के मकरंद जैसी लड़कियाँ।

पर्व के पावन-मधुरतम गीत के स्थान पर,
दर्द में डूबी ग़ज़ल के बन्द जैसी लड़कियाँ।

जो अनुष्ठानों के मंगल कामना के श्लोक सी,
घर के सिर पर हैं धरीं, सौगन्ध जैसी लड़कियाँ।

माँ के आँचल की खुशी ये बाप के पलकों पलीं,
काटती हैं ज़िंदगी अनुबंध जैसी लड़कियाँ।

ये तेरे गमले की कलियाँ हैं, ये मुरझायें नहीं,
गेह भर के नेह के सम्बन्ध जैसी लड़कियाँ।

यातना मत इन्हें दो दोस्तों धन के लिए,
क्यों रहेंगी ये सदा प्रतिबंध जैसी लड़कियाँ।
                                                                                                                   
कर्मधारय, तत्पुरूष, द्विगु, श्लेष, उत्प्रेक्षानुप्रास,                                    
हम सभी, केवल बेचारी द्वन्द्व जैसी लड़कियाँ।

...................................................................

लेखक- चित्र इस ग़ज़ल के लेखक श्री आनंद परमानंद जी का है। 

लंका का मेला

18.10.12

ईश्वर कहाँ है?

आज शाम श्मशान घाट गया था।  नहीं, नहीं, कोई हादसा नहीं। श्मशान घाट वैसे ही घूमने गया था। बेचैन आत्मा हूँ न..! दफ्तर से लौटते वक्त  हरिश्चंद्र घाट की ओर गाड़ी घूम गई। यहाँ पर धूनी रमाये एक अपाहिज तांत्रिक दिखा।  मसान की लकड़ी सुलग रही है। गर्म आँच मिली तो सो गया कुत्ता। मैने तांत्रिक से पूछा.."यह कौन है?" उसने बताया .."सेवक है।" मैने खुद से प्रश्न किया, "क्या यह ईश्वर को ढूँढ रहा है? क्या ईश्वर यहाँ होगा?


बगल में 'लाली घाट' है। शंकराचार्य द्वारा चलाये जा रहे गंगा मुक्ति अभियान के बाद इसे लोग 'शंकराचार्य घाट' के नाम से जानने लगे हैं । वहाँ एक आदमी गंगा निर्मलीकरण अभियान में इस नवरात्रि में, नौ दिन तक लगातार साइकिल चलाने का संकल्प ले साइकिल चला रहा है। यह इसका तप है। सब कुछ साइकिल पर बैठे-बैठे करता है। गंगा आरती भी। संन्यासी भी दिखे जो उसके हाथों पूजा करवा रहे थे।


आरती भी कर रहा है। बाकी समय लगातार साइकिल चलाता रहता है। यह इतना बड़ा तप कर रहा है! ईश्वर यहाँ भी हो सकता है!


 शंकराचार्य घाट के बगल में केदार घाट है। इस घाट की सुंदरता लाज़वाब है। यहाँ गौरी-शंकर का विश्व प्रसिद्ध  मंदिर है।  मैं दर्शन करने नहीं गया। मैं जब भी यहाँ जाता हूँ, इस घाट की सुंदरता, इस पर बनाई गईं खूबसूरत प्रतिमाओं को देखने में ही विभोर हो जाता हूँ। यहाँ तो ईश्वर को होना ही चाहिए।


केदार घाट के सामने भी गंगा आरती की तैयारी चल रही है। ईश्वर यहाँ भी हो सकता है।


या फिर..इस मासूम की मुठ्ठियों में? जो वहीँ मिट्टी से सना, बालू के ढेर से खेलने में मगन था! 


ईश्वर कहाँ है?

16.10.12

टी वी मत खोलना....



सजने लगे पंडाल
गलियों में
उत्साहित हैं बच्चे
गा रहे हैं झूमकर...
"ए हो!
का हो!
माता जी की
जय हो।"

बढ़ने लगी भीड़
मंदिर में
लगने लगे मेले
सुनाई पड़ रहा है भजन..
"या देवी सर्वभूतेषु
मातृ रूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमो नमः।"

खिलने लगीं
कुमुदिनियाँ
फूलने लगे
कास
पियरा चुकी हैं
धान की बालियाँ
तैयार है
पकी फसल
गा रहा है मन...
"मेरे देश की धरती
सोना उगले
उगले हीरे-मोती
मेरे देश की धरती।"

अच्छा है सबकुछ
बस भगवान के लिए
टीवी मत खोलना !
खोल भी दिया
तो समाचार मत देखना !
सुनाई देती हे 
वही चीख पुकार...
भ्रष्टाचार, बलात्कार, हाहाकार।
..................................................

सुबहे बनारस

आज सोचा आप सबको गंगा मैया के दर्शन करा दूँ। बहुत दिन हुए खेतों की तस्वीरें देखते-देखते ऊब चुके होंगे। यह बनारस का अस्सी घाट है। चौकी पर कल शाम की गंगा आरती के समान रखे हैं। दिये की राख ठंडी पड़ चुकी है। लोग स्नान-ध्यान की तैयारी में जुट चुके हैं। सूर्योदय होने ही वाला है।




सूर्योदय हो रहा है। कुछ लोग नैया में घूमने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ गंगा में डुबकी मार रहे हैं। बजड़े को मोटे आसामी की तलाश है। एक शख्स प्लॉस्टिक के गैलन में गंगाजल लेने आया है। कौन कहता है गंगा मैली हो चुकी है?


सूर्य नमस्कार का सुख ही कुछ और है। यह काशी का साधू नहीं, बाहर से आया गंगा भक्त है। दोनो आँखें बंद किये सूर्य के ध्यान में मग्न। मैने चाहा कह दूँ, "आँखें खोलो भक्त महाराज! उगते सूर्य को खुली आँखों से निहारो। पलकें बंद कर के तो तुम  घर में भी सूर्य के दर्शन कर सकते हो!" लेकिन चुप रहा। यह इनकी श्रद्धा है। इन्हें न सही,  मुझे तो इनकी भक्ति का लाभ मिल ही रहा है।:) सुंदर है न तस्वीर?


सूर्योदय के समय, गंगा में कमर तक पानी में डूबे, सूर्य को अर्घ्य देने का सुख तो वही जान सकता है जिसने ऐसा किया हो। समर्पण का भाव मात्र ही सुखकारी है।


ये आने वाले भक्तों के सेवा की तैयारी में जी जान से जुटे हैं। चंदन घोट रहे हैं। यह सेवा ही इनकी रोजी-रोटी है। ये न हों तो नहाकर हम बाल कहाँ संवारने जायेंगे? चंदन-मंदन नहीं लगाया तो घर जाकर कैसे कहेंगे कि आज हम गंगा स्नान कर के आ रहे हैं?:)


इनके पास अपने भगवान हैं। सूर्योदय के वक्त पूजा में मगन हैं। लेकिन एक बात नहीं समझ में आई कि इनका मुँह उत्तर दिशा की ओर क्यों है? पंडित जी तो कहते हैं पूर्व की ओर मुँह करके पूजा करनी चाहिए! क्या यह मुद्रा मेरे जैसे फोटोग्राफरों के लिए है कि मैं सूर्य के साथ इनकी ऐसी तस्वीर खींच सकूँ ?


सूर्यदेव अब पूरी तरह उदित हो चुके हैं। गंगा, गाय और गंगा भक्तों को देखकर सूर्य भी अति प्रसन्न हो  रहे प्रतीत होते हैं।


यह तस्वीर एहसास करा रही हैं, "आज माँ शक्ति की आराधना का दिन है पगले! आज यहाँ कहाँ भटक रहा है?"


 जै हो गंगा मैया!  तू सबको कितना देती है!!

14.10.12

बाजरा

यह चित्र सुबह फेसबुक में पोस्ट किया था। कुछ देर पहले देखा उस पर सलिल भैया (चला बिहारी ब्लॉगर बनने ) ने पूछा, "बा जरा कि भरल बा?" उनको जो उत्तर दिया उसी मूड में यहाँ लिख दिया। इसे एक प्रयोग के रूप में ही लिया जाय। गलती हो तो बताया जाय, सुधार किया जाय। चित्र देखिये, फिर नीचे कविता....


बा जरा                  

बा जरा

ठूँठ में 

बाजरा

ढेर तs

चुग गये

ई चरा

ऊ चरा।




कपार पे                             

हाथ दे

ताकता

टक टका

ना मिला

इक टका

ना दिखा

रोटका।


जे जबर

ऊ चरा

खेत कS

बाजरा                                  

आस मन

में धरा

बा जरा

बा जरा।

...................

चरा-चिड़िया

रोटका-बाजरा।

13.10.12

सुबह की सैर

आज सुबह घूमने गया तो कुछ तस्वीरें खीँची। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी के सामने बने लॉन पर बगुले और कौओं को एक साथ घूमते देख कर यह गीत याद आ गया......


काले गोरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है

कुछ और ना आता हो हम को, हमे प्यार निभाना आता है
जिसे मान चुकी सारी दुनियाँ, मैं बात वही दोहराता हूँ
भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ।



आग बढ़ा तो देखा एक अधकटा  वृक्ष दिखा। कुछ तोते  आते, थोड़ी देर बैठते, आपस में जाने क्या टें..टें..करते  फिर उड़ जाते। मुझे लगा शायद ये अपना घोंसला ढूँढ रहे हैं। 

नश्तर सा चुभता है उर में कटे वृक्ष का मौन
नीड़ ढूँढते पागल पंछी को समझाये कौन?


आगे धान की फूटती बालियों को देखकर मन प्रसन्न हो गया।  फ़िल्म 'उपकार' का सदाबहार देश भक्ति गीत याद आ गया...

"मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती"

12.10.12

फेसबुक में विवाह

फेसबुक में विवाह शब्द पर आराधना 'मुक्ति' जी ने अच्छा विमर्श उठाया है। अपने से बात शुरू करके उन्होने -क्या लड़कियों को विवाह करना चाहिए? विवाह यदि समझौता हो तो फिर इस समझौते में स्त्री को अपनी सुरक्षा के बदले में क्या कीमत चुकानी पड़ती है? जैसे गंभीर विमर्श की शुरूआत की है। आगे एक प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट किया है कि मेरा मंतव्य अपने विवाह के विषय में रखने का नहीं था, मेरा उद्देश्य उस मानसिकता को सामने रखना था, जिसके तहत लड़कियों की शादी भी एक 'करियर ऑप्शन' समझ ली जाती है. वहाँ आये कुछ अच्छे कमेंट्स को यहाँ कट-पेस्ट कर रहा हूँ, अपनी याददाश्त के लिये। वैसे ही जैसे कभी कुछ अच्छा पढ़कर डायरी के पन्नों पर लिख लिया करता था। :) 

आराधना जी ने यह लिखकर विमर्श की शुरूआत की......

कल एक ब्लॉगर और फेसबुकीय मित्र ने मुझे यह सलाह दी कि मैं शादी कर लूँ, तो मेरी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो जायेगी :) इस प्रकार का विवाह एक समझौता ही होगा. तब से मैं इस समझौते में स्त्रियों द्वारा 'सुरक्षा' के लिए चुकाई जाने वाली कीमत के विषय में विचार-विमर्श कर रही हूँ और पुरुषों के पास ऐसा कोई सोल्यूशन न होने की मजबूरियों के विषय में भी :)

विनीत कुमार....

शादी तभी कीजिएगा जब भीतर से महसूस करें..बाकी सुरक्षा,सहयोग सब बकवास है..जो सलाह दे रहे हैं वो आपकी काबिलियत पर  यकीन नहीं करते और ऐसी सलाह देना घिनौनी हरकत है..हां कई बार हम इमोशनल क्राइसिस में होते हैं तो जरुर लगता है कोई साथ हो जिससे सब शेयर कर सकें लेकिन जरुरी नहीं कि वो शादी के बाद मिल ही जाए..खुद से जमकर प्यार कीजिए...


काजल कुमार ........

विवाह institution का संबंध केवल आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा इत्‍यादि मात्र से ही नहीं है अपि‍तु इससे भी कहीं आगे, भावनात्‍मक संबंधों से भी है और स्‍त्री व पुरूष दोनों ही इससे समान रूप से संबद्ध हैं


शिवेंद्र पाण्डेय.

वह फेसबुकिया मित्र जरुर प्रित्सत्ता का ध्वजवाहक रहे होगे जो हमेसा यह मान कर चलते हे की "बगेर शादी के रिश्ते के ओरत का कोई सामाजिक बजूद नहीं हे "


शेखर सुमन...


सामजिक और आर्थिक सुरक्षा का तो पता नहीं लेकिन मानसिक तौर पर ज़रूर एक हमसफ़र की ज़रुरत होती है... विवाह सबका अपना एक निजी निर्णय होता है सिर्फ और सिर्फ उस कारण से विवाह कर लेना कि भाई हमें उसकी ज़रुरत(चाहे जैसी भी हो) पड़ेगी कहीं से भी उचित नहीं है लेकिन अगर किसी के पास एक हमसफ़र के रूप में कोई हो तो ना करने का कोई कारण नहीं है...विवाह का अस्तित्व अनिवार्यता और ज़रुरत से परे ही देखा जाना चाहिए.... सिर्फ ज़रूरतों को पूरा किये जाने के लिए विवाह नहीं किये जाते...


आराधना जी ने आगे लिखा....


वो समय भी पुराना हो गया है, जब बुढ़ापे के सहारे के लिए लोग शादी करते थे. आज एक तरह से देखा जाय, तो कोई अकेला नहीं और दूसरी दृष्टि से सभी अकेले हैं. बहुत से लोग शादी करके भी अकेले ही होते हैं. मेरे पिताजी ने तो शादी की थी ना, अम्मा के देहांत और हमलोगों की पढ़ाई की वजह से बुढ़ापे में अकेले रहे, जबकि उस समय हमारी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी frown


शिवम मिश्रा.....


शादी कर के भी जो अकेले हो जाते है उनका क्या ??? ज़िन्दगी हर रूप दिखा देती है ... पिछले 3 सालों मे अपनी 3 मामी और एक मौसा को अकेला होते देखा है ... बहुत से ऐसे भी लोगो को जानता हूँ जो शादी कर के भी अकेले है क्यूँ कि साथी से नहीं निभती ...


सतीश पंचम .........


विवाह कर लेने में बुराई ही क्या है, जरूरी तो नहीं कि एकला चलो कहते हुए क्रांतिरथ खदेड़ा जाय. विवाह में अहम चीज भावनात्मक लगाव है, सामाजिक और आर्थिक आदि अलग मुद्दे हैं. btw, यदि विवाह न करने का मन हो तो न किजिए लेकिन आपके अविवाहित रहने से शादी का खाना न खा पाने से जो हमारा एक टाईम की पेटपूजा का नुकसान होगा उसकी कुछ भरपाई किजिए smile....ब्याह करने वाले तो उसी वक्त क्रांतिकारी हो जाते हैं जब वे मांग में सिंदूर भरते हैं, इधर सिंदूरदान किया नहीं कि क्रांतिकारी का तमगा मिला....चल बेटा लग जा नून तेल लकड़ी के चक्कर में .....आजकल नून तेल लकड़ी की बजाय नून तेल सिलिंडर कहना चाहिये smile....वैसे मुझे कुछ दिलचस्प खयाल आ रहे हैं. भगवान जी लोग भी विवाह करते ही थे, राम जी को देखिये, शंकर जी को देखिये, हनुमान जी को छोड़िये, वे तो भगवान युग के अन्ना हजारे थे, नारद जी को भी छोड़िये वे तो अपने युग के स्वामी अग्निवेश थे, इधर की बात उधर लगाते थे, और कौन बचा, हां रावण, उसने भी विवाह किया था, मंदोदरी ने उसे कंट्रोल में रखा था, सोचिये रावण यदि अविवाहित रहता तो अनकंट्रोल्ड रावण कितना खतरनाक होता smile

वंदना अवस्थी.......

शादी अगर केवल आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के मद्देनज़र की जाए, समझौता ही है. वैसे देखा जाए, तो शादी एक समझौता ही तो है, सरोकार कुछ भी हों....इस मसले पर मुझे हमेशा कमला दास की आत्मकथा की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-विवाह एक सामाजिक समझौता है, जो बहुत खूबसूरत भी हो सकता है.

आराधना जी ने फिर लिखा है...


हम चाहे जितना कहें कि विवाहितों और अविवाहितों में किसी को कमतर नहीं समझना चाहिए, लेकिन हमारे समाज में आज भी अविवाहित स्त्रियाँ कमतर ही समझी जाती हैं. बिना उनके निर्णय के मंतव्य और पृष्ठ्भूमि को जाने लोग अपने आप कयास लगा लेते हैं कि 'बंदी ज़रूर बहुत स्वच्छंद प्रवृत्ति की होगी' या 'बेचारी में कोई कमी होगी' या 'किसी ने प्यार में धोखा दिया होगा' और ऐसी ही तमाम बातें.


दीपक शुक्ला.......


'शादी''..वह लड्डू, जिसने खाया वह भी पछताया, जिसने नहीं खाया वह भी पछताया... तो खाकर पछताना ज्यादा श्रेयस्कर है मेरे विचार से...क्या पता ना ही पछताना पडे...मेरी तरह....smile..


इंदु बाला सिंह....


विवाह शब्द इतना भयावह हो चला है आज कि लोग बिना विवाह के साथ रहने को रहना पसंद करने लगे हैं .जब तक मन करे साथ चलो फिर उठ कर चल दो ...यह हमारी मानसिक कमजोरी दर्शाता है.वैसे विवाह परिवार को चलाने के लिये किया जाता है ....सुख और सुरक्षा तो खुद कमानी पड़ती है व्यक्ति को ...


प्रमोज तांबट...


बात विवाह की नहीं उस मानसिकता की है जिसने अंधिकांश महिलाओं को अवसरवादी और स्‍वार्थी बना कर रख दिया है। इसमें उन्‍हें दोयम दर्जे का नागरिक माने जाने की बीमार मानसिकता भी शामिल है।


डा0 अरविंद मिश्र.......


It is women's busshnes to get married as soon as possible and a man's to keep it away as long as he can" -a western thought which I find equally hold good for we orientals...........there are solid socio-biological groumds which support this argument. उन्होने इस विषय में एक पोस्ट लिखने का वादा भी किया है.... As soon as I get a little breathing space I would write a post on it on my blog and explain why marraige is more important to women than men and in turn beneficial to survival of our species..

अलका भारतीय.....

विवाहा एक संस्था हैं और जो दो लोगो की भागीदारी से बनती हैं इसमें दोनों हि भगीदार भी बराबर के महत्वपूर्ण हैं दोनों भागीदारी भी इस लिये किसी एक व्यक्ति के लिये अधिक जरुरी या कम जरुरी जैसा नहीं क्योंकि कोई भी संस्था जो दो लोगो की भागी दारी के बिना नहीं चल सकती उसमे वोह दो लोग जो अपनी स्वेक्षा एक दूसरे का साथ चुनते हैं संस्था की स्थापना के लिये वहाँ दोनों के लिये हि व्यक्तिगत आधार पर सामना रुप से "महत्व"एक टूल तरह हो जाता हैं एक लिये भी येह महत्व कम हुआ तो संस्था की स्थापना संभव नहीं हैं।.....

आजकल तो पति पत्नी काम करते हैं इसमें कोई परेशनी भी नहीं असल भारत जहँ बसता हैं गावो मे जहँ पत्नी खेतों मे काम करती हैं और घर एके भी गर आपने पुरुष पति से कुछ मदद की आशा रखती हैं तो तुरंत हि पति का पुरुषत्व जाग जाता हैं जबकि जब वोह खेतों एम् उसके बर्बर काम कर रही होती हैं तो पुरुष का पुरुषत्व कहाँ होत आहें जब उससे वोह मदद ले रहा होता हैं यही दोहरी नीतिया समाज को विकृत करती जा रही हैं।........अर्थ एक शक्ति हैं लेकिन खाली आर्थिक रुप से संपन्न हो जाने मात्र से इस दोहरे मापदंडो की समस्य ख्तम होएं वाली नहीं येह समस्या तभी समाप्त होगी जब औरत बदलेगी।......औरत यानि पति की माँ भी औरत यानि पत्नी की माँ भी आने वाली पीढ़ी की माँ भी......जब तक औरत को भूमि की तरह इस्तेमाल करने के लिये उस पर मालिकाना हक रखने के रुप मे विवाह जैसे संस्कार को देखा जायेगा इस समाज के द्वारा तब तक कुछ बदलने वाला नहीं।

हेमा दिक्षित..............

भविष्य दृष्टा की तरह देखने पर मुझे लगता है कि आने वाले समय में जब स्त्रियाँ आर्थिक रूप से बेहद सुदृढ़ होंगी और समाज में एक सुरक्षित एवं संतुलित मुकाम पर होंगी तो निश्चित रूप से ' पुरुष पत्नियाँ ' भी चलन में आ ही जायेंगी ... और एक बार इस कल्पना मे मुझे कोई बुराई नहीं दिखती कि ' तथाकथित कल्पित पुरुष पत्नियाँ ' वर्तमान की स्त्रियों की भाँति उन सभी घरेलू कार्यों में हाँफते एवं पसीना पोंछते हुए व्यस्त है बिलकुल एक कार्य कुशल ,गृह कार्य दक्ष ,सुन्दर सुघड़ अर्धांगिनी की तरह ... मसलन कपडे धोते ,सुखाते ,तहाते हुए या या सुबह सबेरे बच्चो का टिफिन बनाते हुए आदि-अनादि ... सुखद कल्पना है कि एक घर में अल्ल सबेरे एक स्त्री मौज से अपनी इच्छा पर बिस्तर छोडती है और दरवाजे या बालकनी में पड़ा अखबार उठा क्रर एक कुर्सी पर अपने मालिकाने के साथ विराजती है और उसकी खिदमत में एक प्याला गर्म चाय पेश की जाती है ... :)))) ख्याल तो अच्छा है ना जी ...

इस विषय पर मैने भी लिखा था..

मेरे विचार से विवाह करना इसलिए आवश्यक है कि बिना विवाह के गृहस्थ आश्रम का स्वाद नहीं चखा जा सकता। बिना गृहस्थ हुए पुरूष या स्त्री अपना स्व पूर्ण रूप से नहीं जी सकते। अपने होने का अर्थ नहीं जान पाते। रिश्तों की गहराई, प्रेम, रूसवाई, सबकुछ देखने और समझने के बाद भी लगता है अभी जीवन पूरा नहीं जीया तो फिर बिना विवाह के हमने जीवन जी लिया यह कैसे कह सकते हैं? सुख को तराजू पर रखकर तौलना ही विवाह करने या न करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता।

मुझे यह विमर्श अच्छा लगा। यहाँ संकलित कर दिया। इसमें बहुत से कमेंट्स न हिंदी में लिखे गये हैं न इंगलिश में। हिंगलिश में लिखे कमेंट मुझे हिंगलिश में लिखे होने के कारण अच्छे नहीं लगते। वैसे बात उसमें भी जोरदार थी। और भी बहुत से कमेंट्स थे जिन्हें पढ़ने के लिए आपको वहीं जाना पड़ेगा। यह तो मैने फेसबुकिया ब्लॉगिंग का आनंद लिया है। आप भी पढ़ें और आनंद लें। कुछ जोड़ना चाहते हों तो जोड़ें। आराधना जी से कुछ पूछना चाहते हों तो फेसबुक में उनके दिये लिंक पर जा सकते हैं।:)

धन्यवाद।

इस विमर्श में दो और ब्लॉग हाथ लगे । इनके लिंक्स भी जोड़ रहा हूँ...

लिंक-1 

लिंक-2