7.6.14

स्नातक, च्यूतिया

अपने आपको पढ़ा-लिखा लगाने वाले एक युवक से पानवाला पूछता है-'गुरूss, ई स्नातक क मतलब का होला? उत्तर मिला-'बी.ए. यानी बैचलर ऑफ आर्ट्स यानी ग्रैजूएट।' पानवाला कहता है-'हमके ज्ञान क चोन्हा मत देखावs। हम शब्द पुछली त ओकर अर्थ बतावs। तू त भावार्थ आउर अुनुवाद बूकै लगला।' लोग परीक्षा पास कर लेहलन लेकिन अर्थ जनबैै नाहीं करतन। हमहूं का जानित एक दिन एही दुकान पर दू जने कविता बतियावत रहलन। हमहूँ के ओम्मे मजा आवे लगल त सुन लेहली। कहा त बताई?

युवक की जिज्ञासा पर पानवाला बताने लगा- 'बात ई भइल कि सामने से पाउडर लिपिस्टिक लगउले दुइठे जवान मेहरारू चलल आवत रहलिन। ऊ लोगन क लीपल पोतल चेहरा क चमक देख के एक जने कहलन-'गुरू मान ला कि ई दुन्नो कहीं हमहन से छुआ जायँ त ई लोग जौन-जौन समान पोतले हइन ऊ हमहूँ लोगन के लग जाई आउर ई लोगन के कुल चमक बिखर जाई। ई कवन सुन्दरता हौ?  हमहन के घरे एक बार नहा के निकलै लिन त जूड़ा से पानी अइसे अइसन चुवैला जइसे सावन में बरसात भइले के बाद छानी की ओरी से पानी चुवत होय। यही के कहल जाला सद्यः स्नाताSS।

यह बिना ढोंग का ढंग है जिसमें अपनी बात समझाते हुए एक ने दूसरे को बतलाया-'यही स्नाता से स्नातक बनल हौ। ऊँचा स्कूल याने हाई स्कूल ओके कहल गयल हौ जहाँ उँची-उँची बात कहै क शुरूआत होला। एकरे बाद इंटरमीडिएट ओके कहल गयल जहाँ विषय तोहरे बीच आ जाय या तोहई विषय के बीच आ जा। जेके बैचलर कहै ला ओकरे बदे स्नातक शब्द ज्यादा अच्छा बा। विषय के धारा में जे आमूलचूल डुबकी लगा ले, ऊ हौ स्नातक।' 



दूसरे ने विस्मय के साथ कहा- अच्छा ! तो स्नातक का मतलब स्नान से है? 

पहले ने कहा-आउर का? हमहूँ के ओही दिन पता चलल। होला का कि कोई के घरे गइला आउर उहाँ से बिना समझले बुझले आगे बढ़ गइला, त तू का जनबा? शब्द से चलला आउर कूद गइला वाक्य पर, आउर फिर तुरंतै भाषा में दौड़े धूपै लगला। अरे, ठहरला नाहीं, रूकला नाहीं, पुरनकन से पुछला नाहीं कि ई कइसे बनल आउर कउने-कउने अर्थ में एक प्रयोग होला, त तू कइसे जनबा? पहिले क विद्वान जौन इ सब जानें में पूरी जिन्दगी खपा देत रहलन ऊ का च्यूतिया रहलन?

दूसरे ने वर्जना की- यार गाली मत बक्का।

पहले ने स्पष्टीकरण दिया- ई गाली नाहीं हौ। एके झूठै सरीर के अंग से जोड़ के लोग गाली मानें लन। ई संस्कृत शब्द हौ 'च्युत' हो जाना या चूक जाना। जे कभी च्युत नाहीं होत ओके 'अच्युत' कहल जाला। ई परमात्मा क विशेषता हौ। लेकिन आदमी हौ त ऊ कभी कदा चुकबै करी। ओकरे एही सुभाव की तरफ इसारा करे बदे प्रेम से च्यूतिया शब्द क इस्तेमाल होए लगल।'

यह नीर क्षीर विवेक यहाँ के पानवाले का है। जिसे सुनकर का उद्गार है-'राजा, हउआ तू छँटल भयल गहरेबाज। दुनियाँ के पान खियावैला आउर दुकान पै बइठके अकेले रसपान करल करै ला।'

पान वाला कहता है-'नाहीं मालिक सब बिखरल हौ काशी में बस ध्यान देवे क जरूरत हौ।'

युवक भी कम नहीं है। वह टिप्पणी जड़ता है-'तबै राजा बड़े-बड़े से बीड़ा उठवावैला।'

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यह पोस्ट 'सोच विचार' पत्रिका में प्रकाशित श्री राजेश्वर आचार्य के आलेख 'हमारी काशी' का वह अँंश है जो मुझे अधिक अच्छा लगा और जिसे मित्रों को पढ़ाने के मोह मैं नहीं छोड़ पाया।