27.4.16

लोहे का घर -14


आज वरुणा में बैठने का सौभाग्य मिला। बढ़िया ‪#‎ट्रेन‬ है। बनारस से लखनऊ आने-जाने वालों की प्रिय ट्रेन। जौनपुर में भीड़ खत्म हो जाती है। बहुत से थके मांदे दिखाई पड़ रहे हैं। जिसे जहाँ मौक़ा मिल रहा है वहीं लेट जा रहा है। कोई ऊपर लोहे वाले बर्थ में तो कोई नीचे। जिस बर्थ में एक से अधिक हैं वे ऊँघ रहे हैं। आज शनिवार है। वीकली यात्रा करने वाले काम काजी भी दिखाई पड़ रहे हैं। चाल मस्त है। एक घण्टे में जौनपुर से बनारस। बस से सफर करने की तुलना में बेहतर है। यह शादियों का मौसम है इसलिए बस में बहुत भीड़ होती है। थोड़ी देर सही, बस की तुलना में इससे सफर करना अधिक आराम दायक।
अब इसकी चाल धीमी हो रही है। जफराबाद स्टेशन क्रास कर रही है ट्रेन। इस ट्रेन की बोगियों में भीतर पैसिंजर वाली गन्दगी लेकिन बाहरी दीवारें विज्ञापनों से खूब रंगी हुई। अब चाल फिर तेज हुई। सरकोनी स्टेशन की पटरियां बदलती, खटर -पटर करती, हवा से बातें कर रही है। गोमती को पार कर गंगा से मिलने को बेताब भागी जा रही है वरुणा। जलालगंज का पुल काँप गया इसकी रफ़्तार देखकर। फिर धीमी हुई। जलालगंज स्टेशन में रुकेगी एक मिनट के लिये।
ऊपर लोहे के बर्थ पर लेटा यात्री मोबाइल में बड़ा मधुर गीत बजा रहा है-अजी रूठ कर अब कहाँ जाइयेगा, जहाँ जाइयेगा हमें पाइयेगा....। पलकें बन्द कर सुन रहा है। चेहरे में गहरी नींद का भाव है। नींद में होगा तो सुनते-सुनते ख़्वाबों में चला गया होगा। दौड़ रहा होगा आगे-आगे भागती अपनी प्राण प्यारी के पीछे ..अजी रूठ कर अब कहाँ जाइयेगा...!
वरुणा भाग रही है रेल की पटरियों पर। न जाने यह कौन सा गीत गा रही है! कौन होगा इसका प्रेमी? ऐसा लग रहा है जैसे यह अपने आशिको को अपनी बोगियों में बिठा कर उड़ने के मूड में है।
जिंदगी की जंग लगी फाइलों में खुशियों वाले पन्ने दिखते तो हैं, उठा कर पढ़ने का प्रयास करो तो चिंदी-चिंदी बिखर जाते हैं। बिखरे टुकड़ों में बिखरी खुशियों को देख पलकों के कोरों से ढरकने लगता है दर्द। दृश्यमान हो, ढरकते-ढरकते गालों से फिसलें, इससे पहले बन्द कर देनी पड़ती है फाइलें।
धीमी हो रही है वरुणा की स्पीड। नजदीक आ चुका है बनारस का आउटर। शुभ रात्रि।

भूल भुलइया,भूल भुलइया,भूल भुलइया 
जिनगी 
भूल भुलइया
गोल गुलइया, गोल गुलइया, गोल गुलइया
घूमो 

गोल गुलइया

कुछ ऐसे घर में लटके
कुछ वैसे घर में भटके
हैं कई जनम के प्यासे
हैं कई जनम के भूखे

झूठ ह भइया, झूठ ह भइया, झूठ ह भइया
ईश्वर
झूठ ह भइया!
भूल भुलइया,भूल भुलइया,भूल भुलइया 
जिनगी 
भूल भुलइया।

..........................
लोहे के घर में कई परिवार अपने-अपने में मगन साथ-साथ चलते हैं। जब तक रहते हैं बड़े खुश दिखते हैं। पत्नी के मुख से पानी उच्चारित हुआ नहीं कि पति पूरी बोतल निकाल कर समर्पित खड़ा हो जाता है। थोड़ी देर बाद प्रेम से पूछता भी है-और? पत्नी भी बड़ी अदा से बोतल परे हटाती है-बस्स.. रहने दो! गरम हो गया है।
पापा को तंग कर रहा है बेटा-मैंगो जूस लेंगे। मम्मी बैग से नोट निकालती है-दिला दो न! छोटे स्टेशन पर दौड़ पड़ते है पापा। ट्रेन चल दी, पापा आये नहीं! गहरी बेचैनी के बाद हर्ष से खिल उठता है बेटे का चेहरा-बड़ी बोतल लाये हैं पापा! पीछे से आ रहे हैं।
टिफिन खोल सलीके से पूड़ी निकाल पति को नाश्ता कराती पत्नी। आहा! कितने प्रेम से रहते हैं ये लोग जब ‪#‎ट्रेन‬ में चलते हैं! क्या घर में भी ऐसे ही रहते हैं ? आज्ञाकारी और विशाल ह्रदय के स्वामी! सभी के पास एक दूसरे के लिये समय ही समय। वाह! क्या बात है।
साइड लोअर बर्थ में पापा की छाती पर मूंग दल रहे हैं तीन बच्चे! पापा सब ऐसे सहन कर रहे हैं जैसे ये इनकी रोज की आदत हो। लड़का पैर पर बैठ कर पेट को ढोलक की तरह बजा रहा है और दो लड़कियाँ आपस में झगड़ते-झगड़ते पापा का बाल नोच रही हैं। पापा दोनों हाथ से बच्चों को पकड़ कर शांत करा रहे हैं। छोटी रोने लगी तो अब उसकी पुच्ची ले रहे हैं! पत्नी ऊपर अपर बर्थ में घोड़े बेच कर सो रही है, चैन की नींद। अहा! लोहे का घर कितना प्यारा!!!

लोहे के घर में सुबह का माहौल बड़ा खुशनुमा होता है। एक हाथ डूबता चाँद, दूसरे हाथ उगता सूरज होता है। हर पल दृश्य बदलते रहते हैं। कभी दूर क्षितिज में घने वृक्ष, चारों तरफ फैले खेत तो कभी नये उग रहे कंकरीट के जंगल। मन बच्चा हो तो खिड़की से चिपके रहने और बाहर ही देखते रहने का मन करता है। इसीलिये बच्चे खिड़की के पास बैठने कि जिद करते हैं। बूढ़े...सब देख-सुन अघाये... बस बच्चों की आँखों में झाँक कर सब सुख पा जाते हैं।
स्लीपर क्लास में चलने वाला मध्यम वर्गीय परिवार सफर का खूब आनंद लेता है। इतने प्रकार के नाश्ते, खाने का जुगाड़ बना कर चलता है जितना उसे त्यौहार या साप्ताहिक अवकाश के दिनों को छोड़, रोज मर्रा के दिनों में कभी नसीब नहीं होता। सभी एक दूसरे का खूब ख़याल रखते हैं-आपने ब्रश किया? बेटा भी पूछता है पापा से! मम्मी निकालती हैं पूड़ी, भिन्डी की सूखी सब्जी, आचार, मिठाई और बीकानेरी भुजिया भी। पापा के पास है अपना नाश्ता-लाई-चना और शुगर फ्री बिस्कुट।
काली चिड़िया आज भी बैठी है बिजली के तार पर! बचपन से देख रहा हूँ भैंस की पीठ पर बैठते बगुले। तीन बच्चे आज भी दौड़ते दिखे। उनके हाथों में साइकल के टायर नहीं, फटी धोती का लम्बा टुकड़ा था। जुग बदला, समय बदला, बच्चे से बूढ़े होने को आये मगर लोहे के घर की खिड़की से दिखने वाला भारत का सीन न बदला।
भाग रही है अपनी ‪#‎ट्रेन‬। बड़ी तेजी से पीछे छूटते जा रहे हैं पड़ाव। बचपन बीता, जवानी बीती आगे बुढ़ापा है। अगर किसी ने चेन पुलिंग नहीं किया तो उसे भी आना है और अपन को यह कहते हुये उतर जाना है कि अपनी मंजिल आ गई.. टा टा।

फिफ्टी खड़ी है देर से जफराबाद में। कोटा-पटना क्रास कर निकल गई आगे। जब वो अगले स्टेशन तक पहुंचेगी तब चलेगी यह। हरा मटर खरीदा था बच्ची के कहने पर पापा ने। खिलाने लगा तो किसी कारण से बच्ची ने दूसरी तरफ मुँह फेर लिया। जोर का मुक्का मारा पीछे गरदन पर राक्षस ने। बच्ची अभी ऊपर बर्थ पर बैठी महिला की गोदी से चिपक कर रो रही है। सुफेद शर्ट पैजामे में खिड़की के पास बैठा काली घनी दाढ़ी-मूंछों वाला आदमी एक पल में पापा से राक्षस कैसे बन गया! मटर पर खर्च हुआ 10 रुपिया कितना मूल्यवान होता है आम आदमी के लिए! फेंका तो नहीं उसने, जब बच्ची ने नहीं खाया तो पूरा खा लिया खुद ही!
‪#‎ट्रेन‬ भाग रही है अपनी स्पीड में। बीत चुका जलाल गंज का पुल। बच्ची रह-रह सुबक रही है अभी भी। बेल का शरबत लेकर आया है वेंडर। अब बच्ची को पिला रही है माँ बेल का शरबत। बच्ची एक घूँट पीने के बाद नहीं पी रही। माँ पुचकार रही है। मना रही है -पी लो, बेटा! धीरे-धीरे पी लिया बच्ची ने पूरा शरबत। पानी भी पीया। अब खुश दिख रही है। इधर-उधर देख रही है। कितना फर्क होता है पिता और माँ के खिलाने-पिलाने में! माँ न होती तो पुरुष प्रधान मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे कैसे जी पाते!
और भी हैं ट्रेन में। साइड लोअर बर्थ की सीट पर बैठी हैं दो किशोर लड़कियां और दोनों के बीच में एक किशोर बालक। तीनो भाई बहन लगते हैं। तीनों खिड़की से बाहर खेत में गोधुली बेला की सुंदरता देख रहे हैं। पिण्डरा के पास एक मिनट के लिये रुकी थी ट्रेन। सूरज मुखी के बड़े-बड़े फूल बेहद खूबसूरत दिख रहे थे। तीनों मगन हैं बाहर देखने और आपस में बात करने में। लड़के का लोअर जीन्स का पैन्ट थोड़ा नीचे खसक आया है और टी शर्ट थोड़ा ऊपर। मगर उसको इसका ध्यान नहीं है। लड़कियों ने पहन रखे हैं सलवार सूट। बाबतपुर स्टेशन आ गया। वेंडर बेच रहे हैं मूँगफली। गर्मी में अच्छी नहीं लगती मूँगफली, जाड़े में अच्छी लगती है। ट्रेन रुकी तो लड़का बाहर घूमने लगा। चली तो फिर आ कर बहन के पास बैठ गया। कटे गेहूँ के खेत, डूबते सूरज और आम के वृक्षों पर लटके टिकोरों की बात कर हैं बच्चे।
कितना काम बटोर लेता हूँ मैं लोहे के घर में! साथियों की बात सुनना, यात्रियों को पढ़ना, बाहर देखना और इन सब के बीच निरन्तर मोबाइल पर अंगूठा चलामा। वक्त को अंगूठा दिखाना एक मुहावरा है, मोबाइल पर अंगूठा चलाना बेचैन मन की आदत। 

21.4.16

कितने कवि चातक पपीहा चकई चकवा चकोर कुररी आदि को पहचान सकते हैं?


पंछियों को पहचानता नहीं हूँ। इनको सुनता खूब हूँ, देखता भी हूँ मगर इनको इनके नाम से नहीं जानता। मोर की चीख, कोयल की कूक, कौए की काँव-काँव, बुलबुल का चहकना, तोते की टें, टें, कबूतरों की गुटर-गूँ और गौरैया की चहचहाहट तो समझता हूँ मगर इनके अलावा बहुत से पंछी हैं जिनके गीत तो सुनता हूँ, नाम नहीं जानता। नाम का न जानना मेरे आनंद लेने में कोई समस्या नहीं है। आनन्द लेने के मामले में मैं बहुत स्वार्थी रहा हूँ। कभी नाम जानने का प्रयास ही नहीं किया बस गुपचुप इन पंछियों के संगीत सुनता रहा। यही कारण है कि आज तक मैं इन पंछियों का नाम नहीं जान पाया। समस्या अभिव्यक्ति में है। आनंद देने में है।

शायद अपने पूर्वांचल में पंछियों के सबसे अधिक मुखर होने का यही मौसम है। भोर में...मतलब भोरिये में..लगभग 4 बजे के आस-पास..एक चिड़िया मेरे इकलौते आम की डाली पर बैठ कर सुरीले, तीखे स्वर में चीखती है। तब तक चीखती है जब तक मैं जाग न जाऊँ! जाग कर मैं उसी को सुनता रहता हूँ। कभी सोने का मन हो तो भगा कर फिर लेटा हूँ। वह फिर चीखी है..तब तक जब तक अजोर न हो जाय! मैं उसका नाम नहीं जानता। जानता तो बस एक वाक्य लिखता और आप समझ जाते कि मैं किस चिड़िया की बात कर रहा हूँ!
सारनाथ पार्क में मोर और कोयल के साथ संगत करती है एक चिड़िया। ऐसा लगता है जैसे जलतरंग बजा रहा है कोई! एक दूसरी प्रजाति वीणा की झंकार की तरह टुन टुनुन टुनुन ..की तान छेड़ती है। अब मुझे इन पंछियों के नाम मालूम होते तो आपको बताने में सरलता होती। फलाँ चिड़िया ने राग मल्हार गाया, फलाँ ने राग ...अरे! बाप रे!!! मुझे तो राग के नाम का भी ज्ञान नहीं। 
frown emoticon
कई बार और मजेदार बात हुई है। मॉर्निंग वॉक के समय पंछियों को खूब बोलते हुये सुन मैंने राह चलते ग्रामीण से पूछा है-दद्दा बतावा! आज चिरई एतना काहे गात हइन ? दद्दा ने जवाब दिया है-गात ना हइन। पियासल हइन, चीखत हइन! अब आप बताइये, कवियों के कलरव गीत पर अकस्मात सन्देह होगा या नहीं?

मिर्जा कहते हैं -पण्डित जी मैं आपको फूलों, पत्तियों और वृक्षों के नाम बताता हूँ, बाकी आपका काम है। अधिक पूछने पर बनारसी संस्कार दिखाते हुये झल्लाने लगते हैं-देखा! ....मत चाटा। ई नाम में का रख्खल हौ? मजा ला। कवि क ..आंट मत बना।
बड़ी समस्या है। अब मान लीजिये मुझे सबका नाम पता होता और लिख भी देता तो क्या आप समझ पाते कि मैं किस पंछी की बात कर रहा हूँ?
छोड़िये! अभिव्यक्ति की यह बहुत बड़ी समस्या लगती है। ऐसा कीजिये, कल भोर में कान लगा कर सुनिए, बाग़ में जा कर सुनिए और तब बताइये कि मैं कहना क्या चाहता हूँ।

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इसे मोबाइल से लिखकर जब फेसबुक में पोस्ट किया तो इस पर श्री अरविन्द मिश्र जी का यह  कमेंट आया...

DrArvind Mishra पूर्व और पश्चिम का फर्क है यह। यहां केवल रस विभोर होते हैं लोग जबकि पश्चिम में कौतूहल भाव प्रबल होता है। कौन चिड़िया है यह? नाम क्या है? प्रवासी तो नहीं। आदि आदि। बहरहाल आप फोटो तो खींच ही सकते हैं। बाकी मदद हम कर देंगे। अपनी अज्ञानता का भी महिमामंडन कोई आपसे सीखे 😛

इस कमेन्ट के बाद मुझे याद आया कि मिश्रा जी ने ब्लॉग में भोर में चीखने वाली  चिड़िया दहगल पर एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट लिखी थी. उनसे अनुरोध किया तो उन्होंने गूगल सर्च करने और अपने से ढूँढने की सलाह दी. गूगल ने पोस्ट का पता दे ही दिया. यह रहा लिंक ....यह ग्रीष्म गायन सुना आपने?  यह पोस्ट वाकई बहुत बढ़िया है. और इस पर एक वीडियो है जिसमें दह्गल पंछी का मन्त्र मुग्ध करने वाला गायन तो क्या कहने !
श्री ज्ञान दत्त पाण्डेय जी का कमेन्ट तो और भी तीखा...

Gyan Dutt Pandey इतने कवि छाप हैं सोशल मीडिया पर। उनसे पूछें - खंजन या चातक के बारेमें। इनको कविता के प्रतीक में खूब ठेलते होंगे। पर सामने दिखने पर पहचान नहीं सकते होंगे। grin emoticon

मिश्र जी ने फिर पाण्डेय जी के कमेंट के बाद लिखा-

DrArvind Mishra कितने कवि चातक पपीहा चकई चकवा चकोर कुररी आदि को पहचान सकते हैं?

अब यह कवियों के लिए खुली चुनौती के सामान है. कुछ कहना है इस पर कवियों को ?


19.4.16

बाबू जी की याद में एक संस्मरण


        गंगा की लहरें, नाव, बाबूजी और तीन बच्चे। इन तीन बच्चों में मैं नहीं हूँ। तब मेरा जन्म ही नहीं हुआ था। 
बाबू जी के मित्र थे स्व0 अमृत राय जी। शायद अपनी साहित्यिक गतिविधियों से पीछा छुड़ाकर यदा-कदा बाबूजी से मिलने ब्रह्माघाट आते। शाम को नैया खुलती और लालटेन की रोशनी में देर शाम तक जाने क्या बातें होती!
तब मैं छोटा बच्चा था। मेरी समझ में कुछ न आता। अमृत राय से बाबूजी की कैसी मित्रता! बाबूजी को धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी पढ़ने के अतिरिक्त अन्य किसी साहित्यिक गतिविधी में हिस्सा लेते नहीं देखा। मैं भी अमृत राय के बारे में कुछ जानता न था। उन्हें कभी भाव नहीं देता। वे परिहास करते-कभी तुम्हारे बाबूजी से मेरी कुश्ती हो तो कौन जीतेगा? मैं ध्यान से दोनों को देखता। अमृत राय, बाबूजी से खूब लम्बे, मोटे-तगड़े थे। मैं उनकी बातें सुन हंसकर भाग जाता। कई बार ऐसा हुआ तो एक दिन मुझसे भी रहा न गया। झटके से बोल ही दिया-बाबा आपको उठाकर पटक देंगे!
बाबूजी मेरा उत्तर सुन अचंभित हो मुझे डांटने लगे-तुमको पता भी है किससे बात कर रहे हो? ये मुंशी प्रेम चन्द्र जी के पुत्र हैं। जिनकी कहानियाँ तुम्हारे कोर्स की किताब में पढ़ाई जाती है। चलो! माफी मागो। मैं कुछ कहता इससे पहले अमृत राय जी ने मुझे गोदी में उठा लिया और हंसकर बोले-अरे! बिलकुल ठीक उत्तर दिया लड़के ने। यही उत्तर मैं इसके मुँह से सुनना चाहता था।
पिताजी की मृत्यु 8 जून 1980 के बाद अमृत राय जी का एक अन्तरदेसीय शोक सन्देश आया था और कुछ याद नहीं।

लोहे का घर-१३


भंडारी स्टेशन में बाहर शांति भीतर गोदिया की बोगी में वेंडरों का कलरव गूँज रहा है। यात्री‪#‎ट्रेन‬ चलने की प्रतीक्षा में हैं। ठीक 8.15 बजे और गोदिया ने लम्बे हार्न के साथ प्लेटफॉर्म छोड़ दिया। स्पीड बढ़ रही है धीरे-धीरे। बाहर अँधेरा है और अपने कोच में हल्की रोशनी। इसी धुंधलकी रोशनी में एक युवक अखबार पढ़ रहा है, दूसरा मेरी तरह मोबाइल चला रहा है और एक प्रौढ़ महिला जो शायद इन युवकों की माँ हैं, बगल में बैठी इधर-उधर सतर्क नजरों से देख रही हैं।
गोमती के ऊपर से गाड़ी गुजर रही है। एक अलग ही शोर उठा और शांत हो गया। अजीब सी खामोशी है, अजीब सा सन्नाटा है। ट्रेन में प्राण नहीं है लेकिन कई प्राणियों को लिये चलती रहती है रात दिन। प्राणी न हों तो ट्रेन न चले। यात्री ही प्राण हैं ट्रेन के। यात्रियों की जान है ट्रेन। दोनों एक दुसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे के सहारे चल रहे हैं। पटरी पर चलती है ट्रेन तो पटरी पर चलती है लाखों की जिंदगी। लोग पति पत्नी को एक दूसरे का पूरक मानते हैं। यात्री और ट्रेन भी एक दूसरे के पूरक हैं। यात्रियों की तरह कितनी पत्नियाँ पति रूपी ट्रेन की गोदी में बैठकर पूरा जीवन काट देती हैं! जैसे लोहे का यह घर दौड़ते-भागते उफ़! नहीं करता वैसेे कितने ही पति हैं जो अपने जीवन साथी को लिए भागते रहते हैं! गरीब, मध्यम वर्गीय, अमीर सभी प्रकार के यात्री। जनरल, स्लीपर, एसी सभी प्रकार की बोगियां। लोहे के एक घर में कितने प्रकार के कमरे! मनुष्यों में कितने प्रकार के लोग! यह ट्रेन है या जीवन की कोई अबूझ पहेली। परत दर परत उधेड़ते जाओ पर कभी पूरी नहीं खुलती। एक ऐसी किताब जिसके पन्ने पलटते-पलटते पाठक थक जांय लेकिन किताब कभी पूरी न हो।

50 डाउन में भीड़ है। शाम का समय है। सूरज डूब चुका है मगर अँधेरा नहीं हुआ। खेतों में दिख रहे हैं गेहूँ के गठ्ठर। कहीं-कहीं चल रहे हैं थ्रेसर भी। जुगाली करते चौपाये भी दिख रहे हैं। कोई स्टेशन करीब आ रहा है। धीरे-धीरे रुक रही है ‪#‎ट्रेन‬। अमृतसर से काशी जा रहे यात्रियों में मंजिल तक पहुँचने की बेचैनी है। घड़ी देख एक दूसरे को दे रहे हैं आश्वासन। बच्चे पूछ रहे हैं-हम कब उतरेंगे? भीड़ भाड़ वाले स्लीपर डब्बे में बैठ पूरी दोपहरी काटने के बाद मंजिल पर पहुँचने की बेताबी समझी जा सकती है।
पश्चिम में फ़ैल रहे अँधेरे के पार दूर क्षितिज में बुझ रही सुनहरी रौशनी की आभा चमक रही है। घरों में जलने लगी हैं बत्तियाँ। रोशन हो चुका है लोहे का घर भी। धीरे-धीरे घने अँधेरे में खो रहे हैं खेत। सूर्योदय की लालिमा की तरह लम्बी नहीं होती गोधुली की बेला। पंछी-पंछी चहक-चहक कर मौन! गाँव के सीने को चीरती शहर-शहर रुकती भागती रहती है ट्रेन। प्लेटफॉर्म पास आते ही कितना चीखने लगती है ! गाँव की झोपड़ी झुग्गी को देखने के बाद शहर की रौशनी में चौंधिया जाती होंगी इसकी आँखे।
दस साल की एक बच्ची खड़ी हो गई है। पापा समझा रहे हैं-बस 10 मिनट में आ रहा है बनारस। फिर अपनी सीट पर बैठ गई। पापा फिर समझा रहे हैं-शिवपुर आ गया अब अगला स्टेशन बनारस ही है। पैक हो चुके हैं सामान। बस अब आ जाय मंजिल तो चैन मिले. लो! बज गया हारन, अब तो आ ही गया समझो बनारस। दूर के यात्रियों को मंजिल के करीब आ कर कितनी खुशी मिलती है! इसी स्टेशन पर हम रोज चढ़ते, रोज उतरते हैं मगर कोई खुशी नहीं!!! खुशी के लिए करनी पड़ती है लम्बी यात्रा, सहना पड़ता है बड़ा दुःख। जितनी छोटी यात्रा उतनी छोटी खुशी।

आज कोटा-पटना मिली भंडारी स्टेशन पर। फिफ्टी डाउन आगे है। बनारस तक नॉन स्टॉप है अपनी ‪#‎ट्रेन‬। फिफ्टी को रुक-रुक कर चलना है। मैं चाहता हूँ वो किसी स्टेशन पर खड़ी मिले और मैं हाथ हिला कर टा टा करूँ। वो मुझे देख कर जल भुन जाये और कहे-बड़े आये हैं‪#‎कोटापटना‬ वाले ऊँह!
तुम तो नहीं मिली किसी स्टेशन पर खड़ी, ट्रेन ही सही। जिंदगी में ऐसा होता नहीं है। जिस स्टेशन पर जो मिलती है उसी से अगले पड़ाव तक पहुंचता है यात्री। भाग्यशाली होते हैं वे जिनकी सीटें पहले से आरक्षित होती हैं। एक खूबसूरत लड़की बैठी है साइड अपर बर्थ पर। एक हाथ से पलट रही है पत्रिका के पन्ने दूसरे हाथ से सटाये हुए है दाहिने कान में मोबाइल। न पत्रिका पढ़ रही है न मोबाइल से बात ही कर रही है। मेरी इच्छा है कि उसके मोबाइल से यह गीत बजे-होठों पे हंसी, सीने में तूफ़ान सा क्यों है। इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है! कुछ इच्छाएं ऐसी होती हैं जो पूरी नहीं होती। अब वो अपनी पलकें बन्द कर लेट गई है। उसके सीने से लग कर चैन से सो रही है पत्रिका।

15.4.16

आस्था, ईश्वर और प्यार

बात आस्था की, विश्वास की, प्रेम की थी पत्थर को भी हमने भगवान बना दिया. बात नफ़रत की, अविश्वास की, छल की थी भगवान को भी तुमने पत्थर समझ लिया. तुम कहते हो जो मंदिर में खुद से एक दिया नहीं जला सकता वो तुम्हारे जीवन में क्या रौशनी करेगा? हम कहते हैं उसने हमें हाथ-पांव-दिमाग इसीलिये दिया कि हम संसार का अँधेरा मिटा सकें. मंदिर में दिया जला कर हम अपने मन का अँधेरा भगाते हैं और तुम समझते हो कि हम भगवान के घर को रोशनी से भर रहे हैं! हमारी इतनी क्षमता नहीं है मित्र कि हम ईश्वर को रोशनी दिखा सकें.
भगवान के पास इतनी फुर्सत नहीं कि वो सभी प्राणी के दुःख दर्द सुनता फिरे. उसने एक संसार बना दिया अब कैसे जीना है यह तुमको तय करना है. सही कहते हैं बच्चन जी.. अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ..राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला. मंदिर नहीं जाना चाहते तो मस्जिद में जाओ, गिरजाघर जाओ, गुरूद्वारे जाओ ..कहीं नहीं जाना चाहते कहीं मत जाओ..जिस रस्ते चलना चाहते हो उसी रस्ते चलो, दूसरों के रस्ते को गलत, अपने को सही समझते हो, समझो मगर किसी का उपहास मत उड़ाओ. अपने विशवास पर अडिग रहो. सुख से रहो. जीयो और जीने दो. इश्वर ने जो ब्रह्माण्ड रचा है न मित्र! उसे देखने, समझने और प्यारी प्रकृति से प्यार करने के लिए यह उम्र बहुत कम है. इसे यूँ बरबाद मत करो.
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प्यार तो जइसे धरती से गायब ही हो गया है। है तो बस अहंकार, अहंकार और अहंकार। जिसके पास जो चीज ज्यादा है उसी का अहंकार है। हसीनो को अपनी ख़ूबसूरती का, बॉडी बिल्डरों को अपने शरीर का, रईशों को अपने पैसे का अंहकार तो समझ में आता है। उनके व्यवहार से मन दुखी हो तो आप यह कह कर सन्तोष कर सकते हैं कि हे! भगवान। इन्हें बुद्धि देना। ये जानते नहीं, क्या कर रहे हैं। मगर बुद्धिजीवियों का अंहकार! इनके पास तो पहले से बुद्धि ज्यादा है! अब आप क्या करेंगे? इनके अहंकार से पीड़ित हुये तो कहीं शरण शेष है?
दायें चलने वाला बायें चलने वाले को मूरख और न जाने क्या-क्या कहता है! बायें चलने वाला दायें चलने वाले को मूरख और न जाने क्या-क्या कहता है! दोनों का सामना हो गया तो समझो बवाल हो गया। कितना अंहकार! कैसी बुद्धि? किस काम की बुद्धि? दुश्मन देश में किसी मनुष्य पर अत्याचार हो तो इनके आँखों से आँसू बहने लगते हैं, आतंकवादी को फाँसी पर चढ़ाया जाय तो मानवता के नाम पर दुखी हो जाते हैं, राष्ट्र विरोधियों को भी कष्ट हो तो इनसे सहन नहीं होता मगर अपने ही देश के सैनिकों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं! इनके बुद्धि का पलड़ा राष्ट्र के पलड़े पर हमेशा भारी पड़ता है।
पिजड़े में कैद तोते की तरह आजादी-आजादी रटते हैं मगर पिंजड़े का दरवाजा खोल दो तो उड़ना ही नहीं जानते! कहाँ जाना है यही नहीं पता। फिर दुबक कर उसी पिंजड़े में घुस जाते हैं...आजादी-आजादी!
ओs रेs कुम्हार! 
थोड़ा 
प्यार भी तो भर 
अपने घड़े में

काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार भर दिया 
आंसूओं से तूने
पूरा घड़ा भर दिया
थोड़ी 
खुशी भी तो भर
अपने घड़े में ।

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वो कुछ नहीं करता। उसने तुम्हें बनाया, जीने योग्य सामग्री पैदा करी, जी सकने के लिए पर्याप्त बुद्धि दी और भूल गया। यह संसार जैसा है वह सब तुम्हारा किया धरा है। अपनी मूर्खता और वहशीपने के परिणाम को ईश्वर पर थोपना बन्द करो।

राम जी का बड्डे


आज श्री राम जी का हैप्पी बड्डे है 
'गिफ्ट' कुछ दोगे उन्हें या 'वरदान' 'मांगोगे?
पानी, हवा, रोटी, चाय और पान मांगोगे?
वादा कोई करना नहीं 
पूरा नहीं करते
कंहना कि अवगुणों की खान प्रभु हम हैं
रोज गलती हो ही जाती राम जी हमसे
भूल कर अपराध सब
माफ़ कर देना
ईश्वर दयालू है तुम्हें
माफ़ कर देगा
फिर नया अपराध कल
धीरे से कर लेना
आज तो
भजन गाओ, किर्तन करो-
भये प्रकट कृपाला दीन दयाला
कौशल्या हितकारी....
जय श्री राम।

आजादी


आज सुबह मार्निंग वॉक में शाख से झूलते तोते मिले. 
मैंने कहा,
आज प्रभु श्री राम जी का बड्डे है बोलो-जय श्री राम!
तोते इस शाख से उस शाख में झूलते और मुझे देख कहते-टें..टें.. 
मुझे लगा पंडित जी ने इन्हें ज्यादा नहीं पढ़ाया होगा. फिर बोला-
गोपी कृष्ण कहो बेटू, गोपी कृष्ण.
तोते बोले-टें.
टें....
अच्छा बोलो-जय भीम!
तोते बोले-टें.टें...
तभी मुझे जेएनयू की घटना का संस्मरण हो आया. मैंने सोचा अभी ये मेधावी छात्र होंगे. मैंने कहा-बोलो आजादी! छीन के लेंगे आजादी!!! टुकड़े होंगे, टुकड़े होंगे.
तोते इस बार गुस्से से चीखते हुए उड़ गए-
टें..टें..टें...टें...
मुझे एक बात समझ में आ गई. तोते यदि वास्तव में आजाद हों तो बस अपनी ही जुबान बोलते हैं.
‪#‎व्यंग्य‬

9.4.16

लोहे का घर-१२

रस्ता लम्बा इसलिए क़ि मंजिल है अति दूर
रस्ते को मंजिल समझ, पग-पग चमके नूर।



फिफ्टी डाउन मिल ही गई आज तो! जितनी देर से मैं निकला उतनी देर से वो आई। बड़ी तेज रफ़्तार है। टाइम कवर करने के मूड में लगती है। अभी भूंसे का गुबार सा भर गया था बोगी में, अभी आ रही है ठंडी, ताजी हवा। किसी किसान के खेत में रतजगा है आज। हो रही होगी गेहूँ की दंवाई। लहर-लहर, उछल-उछल कर चल रही है। जलालगंज का पुल थरथरा कर कांप सा गया था। खालिसपुर नजदीक है।
साथी मस्त हैं। कुछ मनबढ़ विद्यार्थी उपद्रव कर रहे थे, अब शांत हैं। बन्दर और बच्चे कब क्या कर जांय पता नहीं चलता। कब किसे काट लें, कब किसकी पगड़ी उतार दें। ऐसे मौकों पर शेष यात्रियों की शराफत देखते ही बनती है।
अगल-बगल के यात्री नये-नये मुद्दे तलाश कर बहस कर रहे हैं। सब व्यवस्था को दोष दे रहे हैं। इनके बहस को सुनकर कोई और विचार आ ही नहीं पा रहे! ‪#‎ट्रेन‬ में बैठकर अच्छा लिखना बहुत कठिन है, खासकर तब जब हम किसी भीड़-वाली बोगी में यात्रा कर रहे हों। इनकी बहस में हिस्सा लेने से अच्छा तो कान में हेडफोन लगाकर कोई गाना सुनना है।
बाबतपुर आ गये। हवाई अड्डे की लाइटिंग अँधेरे में अच्छी दिख रही है। यह मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि सब जगह अँधेरा है इसलिये हवाई अड्डे में उजाला है या हवाई अड्डा में उजाला है इसलिये सब जगह अंधेरा है। कुछ लोग खुश हैं इसलिए सब अधिक दुखी हैं या सब दुखी हैं इसलिए कुछ लोग खुश हैं।
अब लोग भरष्टाचार पर बहस कर रहे हैं! वे भी बहस में हिस्सा ले रहे हैं जिनके पास स्लीपर में बैठने योग्य टिकट नहीं है!!!
अपना बनारस आने वाला है। हर गङ्गे हर गंगे। वही लूटते पूण्य यहां पर जो होते मन के चंगे।

भंडारी स्टेशन में ठीक समय पर आई गोदिया। बर्थ खाली थी लेट गया। ठंडा वाला माझा पानी, मैंगो जूस, चाय-काफी चाय-चाय, कोल्ड ड्रिंक मैंगो फ्रूटी, ठंडा पानी का बोतल, हरा-हरा खीरा, गरमा गरम वेज बिरियानी, अंडा बिरियानी...अनवरत ऐसी आवाजें आ रही हैं। चली नहीं है अभी ‪#‎ट्रेन‬। अभी 8.12 हुआ है, छूटने का समय 8.15 है। भारत में कभी-कभी ट्रेन अनूठे अधिकारी की तरह एकदम सही समय पर चलती है! लो, चल दी। मतलब 8.15 हो गया। ट्रेन के चलने पर बोगी में अभी-अभी किसी ने नारा लगाया-बोलो शंकर भगवान की जय! काशी जा रहा भक्तों का जत्था होगा।
अब वेंडरों की आवाजें आनी बन्द हो चुकी हैं। इस बोगी में अपने आस-पास भीड़ नहीं है। सभी यात्री आराम से पसरे हुये हैं। इतने सुकून से तो घर के बिस्तर में भी नहीं सो पाते होंगे! जितने चैन से शाम के समय यहां लेटे हुये हैं!!! गोदिया अपना रंग जमा रही है। मेरा मतलब धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ चुकी है। पटरियों की खटर-पटर बता रही है कि जफराबाद स्टेशन है, भगवान ने चाहा तो यह सीधे बनारस ही रुकेगी। रेलवे टाइम-टेबुल के हिसाब से इसका अगला स्टेशन बनारस ही है। रफ़्तार धीमी हो गई है, हारन भी बजा रही है, कहीं कोई भैंस तो नहीं गुजर रही है पटरी से! नहीं, जफराबाद स्टेशन क्रास कर रही है। कहना मुश्किल है कि यह यहां के स्टेशन मास्टर को सलामी दे रही थी या स्टेशन मास्टर ठीक समय पर चलने के लिए इसे बधाई दे रहा था!
फिर रफ़्तार पकड़ी है इसने। शाबासी पा कर मस्ता गई लगती है। इतनी तेज चल रही है कि खुली खिड़की से हवाएँ आंधी की तरह सरसरा कर गंजी खोपड़ी को सहला रहे हैं। यदि किसी किसान के खेत में गेहूँ की दँवाई चल रही होगी तो पूरी बोगी एक झटके से भूंसे से भर जायेगी। ट्रेन की रफ़्तार से पटरियों की खड़खड़ाहट और पुल की थरथराहट बढ़ गई है। कोई विदेशी इस ट्रेन के स्लीपर कोच में यात्रा कर रहा होगा तो पटरियों के शोर से उसकी हडबडाहट भी बढ़ गई होगी। इस मामले में हम भारतीय बड़े बहादुर हैं, जानते हैं कि एक दिन मरना ही है फिर क्या डरना! कभी किसी अंग्रेज ने आश्चर्य व्यक्त किया था कि इन पटरियों पर इतनी तेज रफ़्तार में ट्रेने चलती कैसे हैं! उस बेवकूफ को नहीं मालूम कि जब तक चलती हैं तब तक चलती हैं जब नहीं चल पातीं तो पटरियों से उतर जाती हैं। मगर इसका यह मतलब थोड़ी है कि हम गिरने के भय से तेज भागना बन्द कर दें। अभी क्या, अभी तो हम इन्ही पटरियों पर गतिमान के बाद बुलेट चला कर दिखाएंगे!
बड़ी खामोशी है। ट्रेन के अलावा कोई यात्री शोर नहीं कर रहा। सब सोने का अभिनय कर रहे प्रतीत हो रहे हैं। वरना इतनी खटर-पटर और बगल से अचानक गुजरती दूसरी ट्रेन की कान फाडू चीख के बीच कोई सो सकता है भला! घर में क्या इन थके मांदे पुरुषों की पत्नियाँ इससे भी ज्यादा शोर करती हैं! शायद दफ्तर में बॉस और घर में पत्नियों के सताये पुरुष सफर में ऐसे ही चैन से घोड़ा बेच कर सोते हैं। अरे! उठो भाई!!! बनारस अब करीब है। दारू तो नहीं चढ़ा रख्खी सबने!

नव वर्ष

अशोक, आम, नीम, पीपल....
सभी ने पहन लिए हैं 
नये वस्त्र
सूर्य देव से बनवाये
सोने के गहने पहन
झूम रही हैं
गेहूँ की बालियाँ
गूँज रहे हैं
पंछियों के कलरव
डाल पर
आ गये हैं टिकोरे
दमक रहे हैं
गुड़हल के फूल
लटक रहे हैं
नीबू
टप-टप टपक रहे हैं
महुए
घर-घर
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: के स्वर
गली-गली, मंदिर-मंदिर, सुन्दर श्रृंगार
डगर-डगर
पूजा की थाली
लगता है आ गया
हमारा प्यारा नव वर्ष
ढेर सारी बधाइयाँ
हार्दिक शुभकामनाएँ.

2.4.16

लोहे का घर -11


आज गोदिया मिली। अभी चली है जौनपुर से। ऑफिस में देर होने पर यह आख़िरी सहारा है। प्रायः सही समय पर छूटती है जौनपुर से। रोज के एक भी यात्री नहीं हैं ‪#‎ट्रेन‬ में या होंगे भी तो मुझसे नहीं मिले। मैं भागा-भागा आया और ट्रेन में बैठ गया। बैठते ही ट्रेन चल दी। सुबह भी यही हुआ था। 49 अप में बैठा और ट्रेन चल दी! आजकल मैं ट्रेन की तरह स्मार्ट हो गया हूँ! वक्त न मैं जाया करता हूँ न ट्रेन! एक मजेदार बात और हो रही है। न टीवी देख पा रहा हूँ न सोसल मीडिया। बड़े सुकून से कट रही है जिंदगी। काम, थकान, भोजन और गहरी नींद। एकदम कोल्हू के बैल की तरह मस्त!


50 डाउन धरा गई आज तो! मुझे लिए बिना भागी जा रही थी, दौड़कर पकड़ लिया। मौसम में जहरीली ठण्ड है। गेहूँ की फसल मछली की तरह खेतों में उलटी पडी है। मायावी काले बादल इंद्रजीत के इशारों पर नाच रहे हों जैसे! अँधेरा-अँधेरा ही दिखता है लोहे के घर की खिड़कियों से।
घर में उजाला है। एक बच्चा खिड़की से बाहर झाँकने का प्रयास कर रहा है। उसके पापा ने फटाक से खिड़की बन्द कर दी। वह भागकर सामने वाली बर्थ पर अपने भाई की पीठ पर लद कर खिड़की से झाँकने लगा। पापा ने वो खिड़की भी बन्द कर दी। अब माँ की गोद में चढ़कर बड़बड़ा रहा है-अबहिन न आई तोहार घर! हमे ठंडी न लगी।
संजय जी मोबाइल में वही पुराना गाना सुन रहे हैं- पद घुँघरू बाँध मीरा नाची थी और हम नाचे बिन घुँघरू के....। ‪#‎ट्रेन‬ स्पीड सें चल रही है। जलालगंज का पुल बीत गया। बारिश से पटरियों में जान आ गई हो जैसे।
दूसरों के गम के प्रति उदासीनता और अपने गम का मातम मनाना हम इंसानों की फितरत है। इंसान क्या शायद प्रकृति में ही यह गुण विद्यमान है। भारत में तो यह उदासीनता और भी गहरी दिखती है। 'कोई नृप होय हमें का हानी!' वाला भाव खूब दिखता है। आम, गेहूँ, सरसों के तेल की मँहगाई का मातम मीडिया अभी कुछ समय बाद मनाएगी, अभी तो वे रो रहे हैं जिनकी खड़ी फसल बरबाद हुई है।

किस्मत अच्छी है। रात 9 बजे प्लेटफॉर्म में आ पाया और सामने 7 बजे आने वाली किसान खड़ी मिली! शायद ‪#‎ट्रेन‬ लेट इसलिये ही होती है कि हम जैसे मजदूर मालिक के बन्धन से मुक्त होने के बाद घर जा सकें। ट्रेन में लेटने के बाद घर की याद आई। फोन से पूछा तो बोला -क्या हाल होगा! जैसी सुबह वैसी शाम। मित्र भी व्यस्त लगते हैं। परेशान या अधिक प्रसन्न होते तो फोन करते। मेरी तरह सभी की गाड़ी पटरी पर चल रही होगी।
ऑफिस से छूटते ही अपनी दूसरी दुनियाँ शुरू होती है। एक नकाब उतरता है, दूसरा चढ़ जाता है। नौकर से आदमी बन जाते हैं। याद आता है कि हमारा भी कोई घर है, पत्नी है, बच्चे हैं। हकीकत की दुनियाँ और आभासी दुनियाँ दो जहाँ के वासी हैं हम। हिंदू हैं, ब्राह्मण है, मस्त हैं, बेचैन हैं हम। खण्ड-खण्ड अखण्ड भारत में पटरी पर तेजी से भागता यह लोहे का घर एहसास कराता है कि भारत के नागरिक हैं हम।


थोड़ी बहुत अंगरेजी भी पढ़ी है हमने। कहीं लिखा था -हू एंज्वॉय ऑन फ्राइडे विल वर्क ऑन संडे। शायद एंट एंड ग्रासोफेर वाली कहानी थी जिसमे मेहनती चींटी आलसी टिड्डे को चेतावनी दे रही थी मगर ग्रासोफर नहीं मानता और बारिश के दिनों में भूखे मरता है।
बनारसी मजा लेने में बहुत आगे हैं। 'घर फूँक तमाशा देख' वाले। बहुत मजा लिया होली का, अब उसका रंग छुड़ाना है। मजदूर का मजा डबल मजदूरी के प्रायश्चित से ही कटता है लेकिन मालिक का मजा गंगा में डुबकी लगाने से कट जाता है। मालिक डबल मजा उड़ाता है। पहले पाप करने का मजा लेता है फिर पाप कटाने के नाम पर गंगा स्नान का मजा लेता है। मजदूर जैसे ही मजा लेता है, रोटी के लाले पड़ जाते हैं। उसके लिये मजा लेना ऐसा पाप है जो गंगा स्नान से नहीं डबल मजदूरी से ही कटता है।
मनुष्यों के मामले में आलसी ग्रासोफर और मेहनती चींटी के फार्मूले में कई अपवाद हैं।

पहले भिखारी को देख दया आती थी। हाथ झट से चला जाता था जेब में और उँगलियाँ टटोलने लगती थीं सिक्के। बड़ा सुकून मिलता था पैसा मिलने के बाद उसके चेहरे की मुस्कान देख कर। पहले दया का सागर हिलोरे मारने लगता था लेकिन अब ‪#‎ट्रेन‬ में आते जाते रोज जाने पहचाने चेहरों को भीख मांगते देखने का असर यह हुआ कि भिखारियों को देख दया के भाव नहीं जगते। सब चेहरे धंधेबाजों के लगते हैं।
हाथ में त्रिशूल लिए शंकर का भेष बनाये ढोंगी बाबा हो या झोले में सांप दबाये नाग देवता के दर्शन कराता धूर्त। किसी मजार का चादर फैलाये मौलवी हो या जवान लड़की को साथ लिये बेटी की शादी के नाम पर मदद की गुहार लगाती प्रौढ़ा। गोवा जाना है, सब सामान चोरी हो गया 'हेल्प मी प्लीज!' कहने वाला ठग हो या हाथ में कटोरा लिये घूमता कोई अपाहिज। सभी चेहरों को बार-बार देखने का परिणाम यह हुआ कि अपने भीतर के दया भाव में ही गहरी सेंध लग गई! दया का सागर सूख कर वरुणा नदी की तरह नाले में बदल गया।
अपने इस ह्रदय परिवर्तन को देख एक और बात समझ में आई कि मुसीबत में दया का पात्र बनकर शरीफ आदमी से भी अधिक दया कि अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। वह आपको ठग समझ सकता है!