24.12.17

लोहे का घर-34

देर सबेर प्लेटफार्म पर ट्रेन आ गई तो ट्रेन को देखते ही रोज के यात्रियों की पहली समस्या होती है कि किस बोगी में चढ़ें? 60 किमी की दूरी के लिए बर्थ रिजर्व तो होता नहीं। लगभग सभी ए सी क्लास के यात्री होते हैं जो जनरल की भीड़ में रोज चल सकते नहीं। रोज के यात्रियों के लिए रेलवे ने एम.एस. टी. की सुविधा प्रदान कर रखी है लेकिन नियमानुसार इन्हें ए. सी. क्या स्लीपर में बैठने की भी इजाजत नहीं होती। अब दूरी इतनी कम होती है कि स्लीपर में तो टी. टी. इग्नोर कर देते हैं लेकिन ए सी बोगी न खाली होती है न टी. टी. अनुमती ही देते हैं। रेलवे रोज के यात्रियों के लिए ऐसी कोच लगाए तो कहां तक लगाए? सुबह शाम के बाद बाकी समय इन बोगियों पर कौन बैठेगा? हां चाहे तो छोटी दूरी के यात्रियों के लिए एक ए सी/ स्लीपर चेयर कार लगा सकती है जिसमें एम एस टी बनाने का या यात्रा का किराया अधिक हो। यह भी हो सकता है कि 60 किमी के लिए एक इंटर सिटी एक्सप्रेस ट्रेन चले जो सुबह शाम आती जाती रहे। जौनपुर बनारस रूट पर तो इतने यात्री होते हैं कि हर घंटे ट्रेन पूरी तरह भर जाय। लगता है इस समस्या पर रेलवे का ध्यान कभी गया ही नहीं। यह होता तो रोज के यात्रियों को बेवजह की जलालत और रिजर्व क्लास को कभी कोई असुविधा न होती। अब रोज के यात्रियों की मजबूरी होती है कि स्लीपर में ही चढ़ें।

प्रायः सुबह कैंट बनारस आने वाली फ़ोट्टी नाइन अप ट्रेन बनारस में खाली हो जाती है और सभी को पर्याप्त स्थान मिल जाता है। लेकिन अब बोगी में चढ़ने के बाद दूसरी समस्या.. कहां बैठें? यात्री अधिक हैं और सभी के अपने अपने छोटे छोटे ग्रुप हैं। कोई बैठते ही तास खेलना चाहता है तो कोई देश की चिंता करते हुए ताजा खबर पर बहस करना चाहता है। टी वी में राजनैतिक बहस देखते देखते लोग इस राजनैतिक बहस के आदी हो चुके प्रतीत होते हैं। कोई बैठे बैठे ऊंघना/सोना चाहता है तो कोई ऊपर खाली बर्थ देखकर सोने के लिए लपकता है। कई यात्री ऐसे भी हैं जो इसी समय में दफ्तर के अधूरे काम पूरा कर लेना चाहते हैं। कोई मोबाइल में कल रात देखी अधूरी फिल्म पूरी कर लेना चाहते हैं। कोई इत्मीनान से अखबार के अक्षर अक्षर पी जाना चाहते हैं तो कोई वाट्स एप/ फेसबुक में अपना स्टेटस अपडेट करते पाए जाते हैं। जितने यात्री उतने मिजाज के! कोई एक गोल का यात्री दूसरे में बैठना नहीं चाहता। पूरी बोगी खाली मिले तो भी यह समस्या होती है कि कहां बैठें? हम तो बच्चों की तरह खिड़की वाली सीट पर बैठना पसंद करते हैं ताकि मौका मिलते ही एकाध तस्वीर खींच ली जाय।

लोहे के घर में बैठने के स्थान का चुनाव भी वैसे ही करना पड़ता है जैसे घर में हम कमरा या कमरे का एक कोना चुनते हैं। मन माफिक जगह मिल गई, साथी मिल गए तो सफ़र कब कटा पता ही नहीं चलता। यही भीड़ भाड़ वाली ट्रेन में मज़बूरी में एक कोना पकड़ कर बैठना पड़ा तो चेहरा देखने लायक होता है। शाम के समय अक्सर भीड़ भाड़ वाली ट्रेन मिलती है जिसमें कोई च्वाइस नहीं होता। जहां जगह मिल गई बैठ गए। धन्य भाग जो आसन पायो! वाला भाव रहता है।

अभी शाम का समय है। देहरा से आने वाली लेट #दून मेरे समय पर मिल गई। आया था#मरुधर पकड़ने प्लेटफार्म पर दून खड़ी हारन बजाती मिली! मानो कह रही हो.. बैठना हो तो बैठो वरना मैं तो चली। इसके चलते ही मैं भी तपाक से चढ़ गया। बहुत भीड़ है हर बोगी में। कलकत्ता जाने वाले बंगाली यात्री भरे पड़े हैं। पूरे घर में बंगाली ही सुनाई पड़ रही है। मेरे सामने बैठे एक रोज के यात्री Rajiv Singh जी मुझे लिखता देख बोर हो चुके हैं। आपको पढ़ कर बोर होने के लिए धन्यवाद।

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जाड़े की शाम जल्दी ढल जाती है। लोहे के घर में सूर्यास्त देखने नहीं मिलता। आमने सामने बर्थ पर दो महिलाएं, दो बच्चे हैं। अभी जफराबाद से #ट्रेन चली है। दो चार रोज के यात्री और आ गए इस बोगी में। बंगाली परिवार है। बच्चे शैतानी और महिलाएं खूब शोर कर रही हैं। इतनी जल्दी-जल्दी, तेज-तेज बोल रही हैं कि कुछ समझ में नहीं आ रहा। देहरादून घूम कर अब जा रही हैं बनारस घूमने। घर कलकत्ता में है। हरा मटर देख कर बच्चे ललचिया गए और दस दस टका के दो दोने खरीद ही लिए इन्होंने। मेरा मन कर रहा था कि हरे मटर की खामियां बताकर मना कर दूं लेकिन चुप ही रहा। सभी मटर खाते हुए न जाने किस बात पर लगातार हंसे जा रहे हैं!

दोनों महिलाओं ने एक बच्चे को पूरी तरह नंगा कर दिया है! बच्चे को पॉटी करना है। इस जाड़े में भी रेल के सफ़र में छोटे बच्चे के स्वेटर, शर्ट उतार कर पॉटी कराना कुछ पल्ले नहीं पड़ा। मन में कई प्रश्न उठ रहे हैैं। ऐसा क्या धार्मिक होना कि बच्चे को नंगा कर टॉयलेट भेजा जाय! ठंड लग गई तो?

मैंने पूछा..यह क्या जरूरी था?
एक महिला ने उत्तर दिया..हम लोग ऐसे ही जाता!
बड़ा हुआ तो?
गमछा पहन कर जाता। घर में पूजा होता है न! इसीलिए।
आप लोग ब्राह्मण हैं?
हां।
यह तो रेल है, यात्रा के समय इतना क्या धार्मिक रहना!
हम लोग मानते हैं, ऐसे ही चलता है।

अब हमें अपना बचपन याद आया। अपने घर में भी जब तक पिताजी थे यही हाल था। टॉयलेट जाना हो तो एक बनारसी लाल अंगोछा पहन कर जाना पड़ता था। बाहर निकल कर नहाना पड़ता था। भोजन के लिए पीढ़ा और शोला जरूरी होता। वे अपने बचपन के दिन थे। अब नदी में बहुत पानी बह गया। नहाना तो आज भी रोज होता है लेकिन ऐसी कोई पाबन्दी नहीं। सफ़र में तो बिल्कुल भी नहीं। मैं तो भूल ही चुका था इस परंपरा को। न बच्चों पर प्रतिबन्ध लगाया न होश संभालने पर खुद माना। आज इस ब्राह्मण बंगाली परिवार के एक बच्चे को नंगा हो कर पॉटी करने जाते देख याद आया। रूढीवादी परंपराएं संस्कृति का हिस्सा बन जाती हैं। कितने परिवारों ने इसे सहेज कर रखा है, कितने मेरी तरह समय के साथ भूल चुके! बेंगाली परिवार अपने में मगन है और मैं अपने विचारों में उलझा हुआ।

दिल ने जब-जब, जो-जो चाहा, होठों ने वो बात कही है। सही गलत है, गलत सही है। लीक छोड़ कर चलना या फिर एक लीक पर चलना ठीक?  क्या गलत है, क्या सही है?


किसी प्लेटफार्म पर देर तक रुकने के बाद फिर पटरी पर चलने लगी अपनी गाड़ी। भारत की सभी परम्पराओं को देखना, समझना, याद करना हो तो #रेल में सफ़र करना जरूरी है। लोहे के घर में पूरा भारत रहता है। 
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लोहे के घर में एक यात्री फोन में बात कर रहा है.. 'भाई आया था, मिठाई लाया था..दो किलो कोई अकेले थोड़ी न खाएगा! ...सब रखे हैं झोले में।' उधर की कोई बात सुनाई नहीं दे रही। हां, हूं कर रहा है बस। अब किसी को समझा रहा है.. रश भी होता है, लेट भी होता है..

दूसरा यात्री भी मोबाइल में घुसा हुआ है। वह ढूंढ-ढूंढ कर वाट्स एप के मैसेज पढ़ रहा है और वीडियो देख रहा है। नीचे वाली बर्थ पर चार और यात्री हैं। एक अभी खैनी रगड़ कर फ्रेश होने गया है। बाकी तीन कोई कांड करने का मूड बना रहे हैं! एक और यात्री है जो साइड अपर बर्थ पर लेट कर मोबाइल में फिलिम देख रहा है।

चार यात्रियों में एक यात्री जो फ्रेश होने गया था, लौट कर आ गया है। अब चारों में इशारे हो रहे हैं..यहीं कार्यक्रम कर दिया जाय? मैं सशंकित उन्हें देख रहा हूं। एक ने बैग से बीकानेरी आइटम निकाला! दूसरे ने बोतल!!! एक हमें देख थोड़ा लजाया। दाहिने हाथ के अंगूठे को मुंह के पास ले जाकर इशारे से बताया..हम लोग लेंगे थोड़ा! हम केवल मुस्कुरा के रह गए। ओह! तो यह कांड करने वाले थे ये लोग!

कार्यक्रम चालू है। प्लास्टिक के गिलास में ढल चुकी है शराब और पानी मिलाकर बन रहा है पैग। आसपास का माहौल शांत और इस कार्यक्रम के लिए सर्वथा अनुकूल है। कोई कह रहा है..बड़ी तीखी नमकीन है! कोई कह रहा है..धीरे धीरे! जल्दी क्या है? लेकिन चारों ने जल्दी जल्दी कार्यक्रम पूरा किया। बोतल खिड़की से बाहर और शराब पेट में। अब सभी ज्ञानी हो चुके हैं। एक को अधिक चढ़ चुकी है। तीनों को ज्ञान बांट रहा है। बीच बीच में लोग प्रश्न कर रहे हैं..

मुसलमान मछली कैसे हलाल करता है?

मछली तो पहले से हलाल होती है, उसको हलाल नहीं करना पड़ता।

चाइना विश्व की सबसे गंदी जगह है। वहां कीड़े मकोड़े सब खाते हैं। कुत्ते बिल्ली क्या, आदमी को भी खा जाते हैं।

आदमी को भी?

हां, आदमी को भी। चाइना विश्व में सबसे गंदी जगह है।

खाने के मामले में कोई टीका टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। जिसे जो पसंद है वो खाए। एकचुल में हिंदू को माछी, मुर्गा और बकरा ही खाना चाहिए। नियम से खाना चाहिए। झटके वाला खाते हैं तो झटके वाला खाओ!

कुछ भी अनर्गल बतिया रहे हैैं चारों। यह अच्छा है कि पीने के बाद भी देश की चिंता नहीं कर रहे। राजनीति की बातें नहीं कर रहे। गुजरात चुनाव की भी बात नहीं कर रहे। सब खाने की ही बात कर रहे हैं। लगता है पीने के बाद इन्हें भूख लग रही है। भूखे पेट कोई देश की चिंता नहीं करता। सिर्फ खाने की ही बात करता है।

मेरा अंदाजा सही निकला। एक ने कहा..खाना निकालो! टिफिन खुल गए। मैं उनके पास से हटकर सामने के लोअर बर्थ पर बैठ गया जहां एक यात्री फोन से बातें कर रहा था। वह अभी भी उसी से धीरे धीरे बात कर रहा है! अब उधर की आवाज भी सुनाई पड़ रही है। उधर कोई महिला है। पक्का उसकी पत्नी नहीं है। कोई पत्नी से इत्ती देर कैसे बात कर सकता है भला!

सामने चारों शरीफ दारूबाज चुपचाप खाना खा रहे हैं। बातें तो मछली, मुर्गा और बकरे की कर रहे थे लेकिन इनकी टिफिन से निकला.. वही आलू की भुजिया और पराठें! अखबार बिछा है और चारों खाए जा रहे हैं। इन्हे खाता देख अपनी भी भूख जाग रही है। रात के सवा नौ बज चुके और अब आने वाला है बनारस। 

17.12.17

छेड़छाड़

छेड़छाड़ करने वाले गंदे लड़कों ने प्यार करने वालों का जीना हराम कर दिया है. इतने सख्त क़ानून बनवा दिए कि लड़कों का लड़कियों को लाइन मारना भी मुश्किल हो गया है. पता नहीं कौन किस बात का बुरा मान जाय और शिकायत कर दे! फिलिम में नायक द्वारा नायिका को छेड़ने, छेड़ते-छेड़ते पटा लेने और अंत में विलेन से दो-दो हाथ करने के बाद दोनों के मिलन के सुखांत देख-देख हम बड़े हुए हैं. लड़की का भाई, पिताजी बाद में रिश्तेदार पहले तो हमें विलेन ही लगते थे. अब दृश्य बदल चुके हैं. पति को पत्नी से भी शराफत से बात करनी पड़ती है. छेड़छाड़ करने का मूल अधिकार इधर से उधर सरक गया प्रतीत होता है. कोई गोपी सहेलियों के साथ गर्व से गाना गाये..मोहें पनघट पे नन्द लाल छेड़ गयो रे..तब तो ठीक. लेकिन यदि उसने दुखी होकर यही गाना गाया तो कान्हा गए तीन साल के लिए जेल में.!

जब  युवती या महिला के प्रति अश्लील इशारों, टिप्पणियों, गाने या कविता पाठ करना भी अपराध की श्रेणी में आ गया है तो छेड़छाड़ करने वालों के साथ व्यंग्यकारों को इस विषय में लिखने से पहले क़ानून की धाराओं का अध्ययन कर लेना चाहिए. यह कहने से बचा नहीं जा सकेगा कि हमको तो फलाने ने लिखने के लिए चने के झाड़ पर चढ़ाया और हम चढ़ गए. गिरने पर हड्डी तो अपनी ही टूटनी है. चढ़ाने वाला तो यह कह कर निकल जाएगा कि हमने तो ऐसा नहीं कहा था.

पहले की बात अलग थी. स्कूल, कॉलेज से होकर विश्व विद्यायल पहुँचने के बाद ही हम देश भक्ति के फिलिम देखने के बाद बॉबी जैसी एकाध फिलिम देख पाते थे. शोले की बसन्ती जब तक ड्रीम गर्ल बनी विश्व विद्यालय से निकल कर घर/बाहर के आचार संहिता के घेरे में कैद हो गए. विश्व विद्यालय में लड़कों की तुलना में लड़कियां भी इतनी कम होती थीं कि अपने जैसे फटेहाल साइकिल सवार को कौन घास डाले? कहने का मतलब छिड़ने या छेड़ने के अवसर बेहद कम होते थे. आज के दौर के बुजुर्गों पर जो कामुक होने के आरोप लगते हैं कहीं यह इन्ही कुंठा ग्रस्त जीवन शैली अभिशाप तो नहीं? यह शोध का विषय है. इस पर समाज शास्त्री चिंतन मनन करें. 

अब तो पैदा होते ही हाथों में स्मार्ट फोन लेकर बड़े हो रहे हैं बच्चे. स्कूल, कॉलेज से विश्विद्यालय पहुंचते-पहुंचते कितने बॉय फ्रेंड/गर्लफ्रेड और कितने गठबंधन/ब्रेक अप! जितने प्यार करने वाले उतने विलेन. जितने विलेन उतने शोषण. इधर नहीं मिला तो उधर हाथ मारो. लड़कियों के स्कूल के बाहर लड़कों की भीड़. जब लड़कियां पढ़ेंगी तो जाहिर है नौकरी भी करेंगी. कामकाजी महिलाओं की सख्या भी पढेगी. शोषण करने की पुरुषवादी मानसिकता बदलते-बदलते बदलेगी. पीढी दर पीढी सुधार होगा मगर यह जो दौर है वह खतरनाक है. 

सरकार को सख्त क़ानून तो बनाना ही पड़ेगा. अब क़ानून को लागू करने वालों के लिए समस्या यह जान पाना है  कि कौन लड़की पार्क में अपनी मर्जी से राजी खुशी छिड़ी जाने के लिए आई है और कौन बहला फुसला कर लायी गयी है? शादीशुदा लड़कियां भी अब गाढ़ा सिन्दूर या घूंघट डाल कर तो आती नहीं कि पुलिस देखे और झट से पहचान ले कि यह तो विवाहित जोड़े हैं. इनके मौज मस्ती में छेड़छाड़ करी तो नौकरी गई. कौन जोड़ा कितना ताकतवर है?  कहीं ऐसा न हो कि इधर पकड़े, उधर फोन आ जाय! कोई सीधा सादा कमजोर हैसियत का जोड़ा मिले तो उसे पकड़ कर बंद किया जा सकता है. अब पुलिस भी उन्हीं मामलों में हाथ डाल सकती है जब कोई महिला शिकायत करे. आम आदमी के घरों की लड़कियां तो तभी शिकायत करेंगी जब पानी सर से ऊपर बहने लगे. बुरी नीयत से केवल टच करने, छू जाने या मात्र अश्लील बातों पर शिकायत करने वाली महिलाऐं आम नहीं कोई खास ही होगी. अब सरकार क्या करे? कानून बना दिया. अब? लागू कैसे करे? 

छेड़छाड़ रोकना मात्र सरकार का काम नहीं है. इसके लिए समाज को भी मानसिक रूप से तैयार होना होगा. यह संभव है कि सरकारें बलात्कारी को यथाशीघ्र कड़ी से कड़ी सजा दे जिससे कोई बलात्कार करने की सोच भी न सके लेकिन मात्र सरकार के भरोसे छेड़छाड़ रुकने से रहा. जितने प्यार करने वाले बढ़ेंगे, उतने विलेन भी पैदा होंगे और उतनी छेड़छाड़  की घटनाएँ भी बढ़ेगी. समाज में बदतमीजी रुक जाए तो समझो गंगा नहा लिए. प्यार करना तो प्राणी मात्र का प्राकृतिक स्वभाव है, यह कैसे रुकेगा? और यह रुकना भी नहीं चाहिए. वैसे तो यह मां-बाप के लिए भी कठिन हो चला है लेकिन फिर भी अब लड़कियों के साथ घर के लड़कों को भी नसीहत देने की जरूरत है. जब तक आपने उनके हाथों में स्मार्ट फोन नहीं पकड़ाया है शायद आपके दबाव में आ ही जांय! और बात मान लें कि हमें किसी लडकी से बदतमीजी नहीं करनी है. मतलब वो काम नहीं करना है जो करने से लडकी मना कर दे. 

जमाना बदल रहा है. यह बदलाव का दंश है. इस दंश से बचने के लिए सभी को मिल बैठ कर सोचना पड़ेगा. समाज को सही दिसा में ले चलने की जिम्मेदारी जितनी घर के अभिभावकों की है उतना ही आज के युवाओं की भी है. आज नहीं तो कल वे भी बड़े होंगे और उनके बोए बबूल के कांटे उन्हें ही अधिक चुभेंगे. अपने राम का क्या है! जैसे वो दौर देखे वैसे ये दौर भी झेल लेंगे. अब आज के दौर में यह तय कर पाना मुश्किल है कि सुपर्नखा छेड़ी गई थी कि राम/लक्ष्मण को छेड़ने पर उसे उसके कर्मों का फल मिला था! जय राम जी की.

सुबह की बातें-7

सुबह उठा तो देखा-एक मच्छर मच्छरदानी के भीतर! मेरा खून पीकर मोटाया हुआ,करिया लाल। तुरत मारने के लिए हाथ उठाया तो ठहर गया। रात भर का साफ़ हाथ सुबह अपने ही खून से गन्दा हो, यह अच्छी बात नहीं। सोचा, उड़ा दूँ। मगर वो खून पीकर इतना भारी हो चूका था क़ि गिरकर बिस्तर पर बैठ गया! मैं जैसे चाहूँ वैसे मारूं। धीरे-धीरे मुझे उस पर दया आने लगी। आखिर इसके रगों में अपना ही खून था। मैंने उसे हौले से मुठ्ठी में बंद किया और बाहर उड़ा दिया। इस तरह वह लालची अतंकवादी और मैं सहिष्णु भारतीय बना रहा।

संडे की नींद मोबाइल के अलारम से नहीं, मित्र के फोन काल से खुलती है। मोबाइल में नाम पढ़ा तो चौंक गया..रावत जी! बहुत दिनों बाद किसी शतरंज के खिलाड़ी ने याद किया। शतरंज खेलना तो वर्षों से छूट ही चुका है। अब लगता है ये हमको हरा के ही मानेंगे! कोई जमाना था जब शतरंज खेलते सुबह से शाम हो जाती थीं। गुलाब पान वाले की अडी में जब हम लोगों की बाजी जमती तो लोग खड़े होकर, मोमबत्ती जला कर भी शतरंज देखते। लेकिन आज इतनी सुबह!

नमस्कार! सब ठीक तो है?

संडे को तो आप मार्निंग वॉक करने जाते हैं न? हम भी चलेंगे।

हां, सूर्योदय के बाद चलेंगे अभी तो अंधेरा है।

सूर्योदय हो चुका पण्डित जी! सुबह के सात बज रहे हैं। रजाई से मुंह बाहर निकालिएगा तब ना।
तब निकलिए! गुलाब की दुकान पर मिलते हैं।

साइकल चला कर जब पान की दुकान पर पहुंचे तो वे सड़क किनारे खड़े हो, एक टक ताकते हुए मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। न मेरा आना जान पाए न साइकिल खड़ी करना। मैंने हाथ हिलाया..

उधर क्या देख रहे हैं?

अरे! किधर से आ गए!

रावत जी को देखकर झटका लगा। जिस्म ठीक ठाक था लेकिन पूरे बाल झक सफेद हो चुके थे!

आप के बाल तो पूरे सफेद हो चके हैं? बूढ़े हो गए आप तो!

आपके काले हैं क्या? जब से रिटायर हुए हैं हेयर डाई लगाना छोड़ दिए। आप छोड़ दीजिए आपके भी सफेद हो जाएंगे।

अब यह दूसरा झटका था। मतलब डाई लगाना छोड़ दें तो अपने बाल भी ऐसे ही सफेद दिखेंगे! हम कितने भ्रम में जीते हैं!

डाई न लगाते होते तो इतनी जल्दी सफेद न होते। लेकिन अब मन नहीं करता। क्या फ़र्क पड़ता है! बेकूफी किए जो डाई लगाना शुरू किए।

शतरंज ?

शतरंज भी छूट गया।

आज कैसे याद किए?

लोहे के घर के अलावा आप की और भी दुनियां है पण्डित जी। आप सब भूल चुके हैं। आप ने नहीं याद किया तो हमने सोचा संडे को तो मिलेंगे ही, उसी समय आपको पकड़ते हैं। सुबह की सैर भी हो जाएगी, आप से भेंट भी। कैसी रही ये वाली चाल?

अरे! इसका तो कोई जवाब ही नहीं। बढ़िया आइडिया है।

Image may contain: one or more people, people standing and outdoorखंडहर वाले लॉन में धमेख स्तूप के पीछे से निकलकर सूर्यदेव थोड़ा ऊपर आ चुके थे। खंडहरों के बीच एक अकेली विदेशी महिला सेल्फी लेते हुए अपना ही वीडियो बना रही थीं। इक्का दुक्का पर्यटक आने लगे थे। स्तूप पर कबूतर कम और कौए अधिक बैठे थे। अकेले घूमने में सिर्फ देखना और महसूस करना होता है, कोई मित्र साथ हो तो महसूस की हुई हर बात जुबां पे आ जाती है। मैंने रावत जी को छेड़ा..

धमेख स्तूप में भगवान बुद्ध की अस्थियां हैं क्या इसलिए स्तूप पर कबूतरों से अधिक कौए बैठे हैं?

रावत जी हंसने लगे...कौए कहां कम हैं पण्डित जी? हर जगह कबूतरों की तुलना में कौए अधिक पाए जाते हैं।
और गिद्ध? गिद्ध क्यों गायब हो गए?

गिद्ध जब जान गए कि आदमी के रहते मांस मिलना मुश्किल है तो कहीं मर/खप गए होंगे!

हमने एक दो चक्कर और लगाए। मौसमी फ़ूल खिल चुके थे। एक ग्रुप अब धर्मराजिका स्तूप के पास बैठकर पूजा अर्चना कर रहा था। अकेली विदेशी महिला अभी भी अपनी सेल्फी/वीडियो बनाने में मगन थी। मुझे लगा...
एक हम ही नहीं पागल, बेचैन हजारों हैं।

लोहे का घर-33

भण्डारी स्टेशन जौनपुर के प्लेटफार्म नंबर 1 पर एक ट्रेन दुर्ग-नौतनवां 18201आधे घंटे से अधिक समय से खड़ी है। दुर्ग से आई है और शाहगंज आजमगढ़ होते हुए गोरखपुर नौतनवां जाना है। इसके परेशान यात्री गोल बनाकर स्टेशन मास्टर के कमरे के बाहर खड़े हैं। स्टेशन मास्टर यहां नहीं बैठता। लोग कह रहे हैं..गार्ड भाग गया! स्टेशन मास्टर को फोन किया, वो कह रहा है..15 मिनट में कोई व्यवस्था करते हैं। जितने लोग उतनी बातें। कोई कह रहा है..गार्ड आएगा तो ड्राइवर भाग जायेगा! स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में है।

एनाउंस हो गया.. गाड़ी चलने को तैयार है। सिंगनल हो गया। हॉर्न बज गया। भीड़ अपने अपने डिब्बे में चढ़ी। ट्रेन चल दी। कोलाहल शांत हुआ। अब प्लेटफार्म में कम लोग शेष रह गए हैं। एक ट्रेन की सकुशल विदाई हुई है प्लेटफार्म से। एक लड़की की विदाई के बाद शादी के लॉन जैसा सन्नाटा पसरा है चारों तरफ।
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भण्डारी पर भोले की आरती खतम हुई। यूं तो हांफते-डांफते बिफोर आ गई लेकिन आरती से चूक गई गोदिया। आजकल जाड़े में आरती का समय बिफोर हो गया है। भोग भी मौसम और सुविधा के हिसाब से मिलता है भगवान को!

राइट टाइम चली है गोदिया। चलाने वालों की कृपा बनी रहे तो यही ट्रेन है जो सही समय पर चलती है। अक्सर भीड़ भी नहीं होती लेकिन आज भीड़ है। मौसम के हिसाब से अब लोग शाम ढलते ही बर्थ खोल कर बिस्तर बिछा लेते हैं। चाहे जिस ट्रेन से लौटें दो चार रोज के यात्री मिल ही जाते हैं।

एक बच्चा रो रहा है। एक लड़का मोबाइल हाथों में लिए सो रहा है। एक बुजुर्ग खर्राटे भर रहे हैं। रोते बच्चे को थपकी दे कर घुमा फिरा कर मां की गोदी में लिटा कर बगल में बैठा है बच्चे का बाप। उसके बस का नहीं था चुप कराना। मां शाल ओढ़ाकर करा रही हैं स्तनपान। अब चुप हो, सोने जा रहा है बच्चा। सामने बैठे अनवरत बोलते यात्री से हाथ जोड़ कर निवेदन कर रहा है निरीह पति..'प्लीज चुप हो जाइए! फिर जग जाएगा तो जल्दी नहीं उठेगा बच्चा।' बोलने वाला दयालू निकला! तुरन्त चुप हो गया। इस दर्द से पक्का यह भी गुजरा है, कभी न कभी।

ट्रेन हवा से बातें कर रही है। एक पुल गुजरा है। पुल के थरथराने के साथ घनघनाई है पूरी ट्रेन भी। दर्द कभी एक तरफा नहीं उठता। बस तटस्थ हो दोनों को महसूस करने की बात है।
बच्चा सो रहा है। कितना सुकून है मां की गोद में! न पुल के थरथराने से न ट्रेन के घनघनाने से। मां की गोद से बच्चा नहीं उठता, किसी के शोर मचाने से।

लोहे के इस घर में कुछ दूर दूसरा बच्चा भी है। वह तोतली जुबान वाला चंचल बच्चा है। ऊपर बर्थ में लेट कर लोहे के रौड को हाथों से पकड़े, दीवार में पैर पटक रहा है। मुंह से तोतली जुबान में कुछ न कुछ बोले जा रहा है। ट्रेन किसी छोटे स्टेशन से गुजरते वक्त बदलती है पटरियां तो झूला झुलाते हुए चलती है। बच्चा झूला झूलते हुए मजे ले रहा है। मज़ा का क्या है! बस आना चाहिए। जितना जमाने के दर्द और चिन्ता से मुक्त है प्राणी, उतना सरल है मज़ा लेना। किसी ने खूब कहा है..

नींद तो दर्द के बिस्तर में भी आ सकती है
तेरे बाहों में सर हो, यह जरूरी तो नहीं।।


गहरी नींद सो रहा है एक रोज का यात्री। बनारस में इसे जगाना पड़ेगा वरना हो सकता है आज घर न पहुंच पाए।
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लोहे के घर में खाली-खाली बर्थ पर आराम से लेटे हैं हम और बैंक के मनीअर्जर साहब। ऊपर से लेकर सामने की लोअर अपर बर्थ में कहीं कोई नहीं है। पूरी बोगी खाली नहीं है, दूसरे यात्री हैं लेकिन अपना इलाका सन्नाटेदार है।

यह किसान है, अपने साथ के साथी इसे छोड़ गोदिया  पकड़ने गए हैं। शाम के ८ बजे के आस पास जौनपुर के भण्डारी स्टेशन पर जब दोनों ट्रेनें अलग अलग प्लेटफार्म पर साथ साथ खड़ी होती हैं तो बनारस जाने वाले यात्रियों में अजीब सा ऊहापोह हो जाता है। इसे पकड़ें या उसे पकड़ें, मंजिल तक कौन पहुंचाएगी पहले? २० मिनट पहले पहुंचने के लिए लोग कभी इधर तो कभी उधर भागते फिरते हैं। उनके जाने से हमें पूरा इलाका खाली मिल गया। गोदिया बनारस तक नॉन स्टॉप है और इसे दो स्टेशन रुकना है।

अपनी #ट्रेन पहले चली मगर एक स्टेशन चल कर रुक गई है। लगता है यहीं क्रास कराएगी गोदिया को। निर्णय गलत होने का मातम मनाएं या फिर खाली बर्थ मिलने का जश्न!

अरे! यही चल दी!!! निर्णय भी सही और खाली बर्थ का सुख भी..किस्मत साथ चल रही है। #भारतीय_रेल है, कब क्या करेगी कुछ भी सटीक नहीं कहा जा सकता। प्लेटफार्म पर आओ तो केवल ट्रेन का नंबर पढ़कर मत बैठ जाना, यह भी देख लो कि रेल का इंजन किस ओर है! पता चला उत्तर जाने के बजाय दक्खिन चले गए! सोचा अप वाली है, १२ घंटे लेट डाउन वाली निकली!!! ट्रेन के डिब्बों में दोनों नंबर लिखे होते हैं।

एक स्टेशन बाद फिर रुकी! मनीअर्जर साहब चौंक कर उठे। हाय! यहां क्यों रोक दी? यहां तो इसका स्टॉपेज नहीं है!

यह कहां लिखा है कि ट्रेन स्टॉपेज पर ही रुकेगी? रेलवे ने कोई प्रमाण पत्र जारी किया है क्या?

मनीअर्जर साहेब फिर दुखी हुए। लगता हैं यहां क्रास कराएगी गोदिया को। बड़ी गलती हुई। गोदिया ही पकड़नी चाहिए थी। हम भी हां हूं कर अफसोस मानते हुए लिखे जा रहे हैं। तकलीफ इस बात की नहीं है कि हम लेट हो रहे हैं, तकलीफ यह है कि वो हमसे पहले घर पहुंच जाएंगे। हमारा निर्णय गलत उनका सही हो जाएगा।

एक लम्बा हारन सुनाई पड़ा। अपनी ट्रेन फिर चल दी! हम फिर खुश हो गए। अपनी ट्रेन फिर अगले स्टेशन पर रुकी और फिर चल दी! हम फिर खुश हो गए। अपने दोनों स्टॉपेज से निकल गई किसान। अब गोदिया इसे नहीं पाएगी। वे अब पीछे ही रहेंगे, हम पहले पहुंचेंगे बनारस।

सफ़र करने वाले पल-पल खुश होने और उदास होने के बहाने ढूंढ लेते हैं। निर्णय सही रहा तो खुश होते हैं, निर्णय गलत रहा तो अफसोस करते हैं। साथियों को कहते सुना है..इतनी मेहनत पढ़ाई के समय कर लिए होते तो आज हम भी अफसर होते। सफ़र के वक़्त जो अच्छा लगता है, हम अक्सर उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं। गाड़ी जब तक पटरी पर चलती रहती है खुश होते रहते हैं। जब गाड़ी पटरी से उतरने लगती है तब यही कहना पड़ता है...

लक्ष्य तो दृढ़ थे मेरे प्रारंभ से ही किन्तु हर घटना अचानक घट गई..

गोदिया में बैठे यात्री अभी यही कह रहे होंगे मगर भारतीय रेल और किस्मत कब पलटी खाए और हम फिर पिछड़ जाएं, कुछ भी निर्धारित नहीं है।

अपनी ट्रेन फिर किसी स्टेशन पर रुकी है और मुझे ग्रीन सिगनल की प्रतीक्षा है।

सूर्यदेव निकल रहे हैं और पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी। यह वाराणसी-सुल्तानपुर पैसिंजर है जो कैंट से ठीक ७ बजे छूट जाती है और ८.२० में पहुंचा देती है जौनपुर। पहले मनमर्जी चलती थी, रोज के यात्रियों ने प्रभु जी के दरबार में कई प्रार्थना पत्र डाले और प्रभु कृपा से यह निर्धारत समय पर चलने लगी।

आम आदमी सही समय पर चलने वाली पैसिंजर पा कर भी खुश हो जाता है, उसे बुलेट की कोई आकांछा नहीं है। पैसिंजर ट्रेन लोहे का वह घर है जिसमें आम के साथ गरीब भी रहते हैं। इस घर में अमीर, गरीब और मद्यम सभी घुलमिल कर एक वर्गीय हो जाते हैं। यहां उच्च और निम्न के साथ कोई भेदभाव नहीं रहता। भारत में समाजवाद पैसिंजर ट्रेन में ही देखने को मिलता है।जब एक्सप्रेस छांटा(धोखा) देती है तो सभी के लिए यह जीवन रेखा(लाइफ लाइन) बन जाती है।

यह अपने हिसाब से एक घंटे पहले चलती है। अनुकूल समय २०४९ फॉट्टी नाइन का है लेकिन साथी कहते हैं अब वह स्वीट पॉयजन (मीठा जहर) हो चुकी है! जब से मुगल सराय का नाम दीन दयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन होने की घोषणा हुई तब से लेट चलने लगी! हावड़ा से चलती है और वाराणसी से १८ किमी दूर मुगल सराय तक लगभग रोज सही समय ७.३० तक आ जाती है लेकिन वाराणसी कैंट अपने निर्धारित समय ८.२५ पर नहीं आ पाती। १८ किमी की दूरी तय करने में इसे एक घंटे से अधिक का समय क्यों लगता है? यह रोज के यात्रियों के लिए एक अनसुलझी पहेली है जिसे साथी प्रायः ट्रेन की प्रतीक्षा में सुलझाते पाए जाते हैं।

ऐसा नहीं कि #रेलवे अपनी पटरी से उतर गई है। इधर खूब काम हुए हैं। पटरियों की मरम्मत से लेकर प्लेटफार्म के नवीनीकारण तक कई काम हैं जो अपने पूर्वांचल में होते दिखते हैं। सभी का हाल तो नहीं पता लेकिन कैंट स्टेशन का तो काया पलट हो रहा है। नई स्वचालित सीढ़ियों से लेकर लिफ्ट तक लग चुके हैं। प्लेटफार्म के पत्थर बदले जा चुके हैं। स्थाई और टिकाऊ काम खूब हो रहे हैं। सिवाय ट्रेन को निर्धारित समय पर चलाने के शेष सभी काम हो रहे हैं। ट्रेनें निर्धारित समय पर चलने लगे तो फिर भारतीय रेल से किसी को कोई शिकायत न रहे।

इस दिशा में एक अच्छी पहल यह देखने को मिल रही है कि ट्रेनें कैंसिल हो रही हैं। यह सही है। लेट चलाने से अच्छा है ट्रेन चलाया ही न जाय। जितनी क्षमता हो उतनी ही ट्रेन चले, शेष निरस्त कर दी जाय। सभी का समय मूल्यवान होता है। ट्रेन नहीं रहेगी तो जनता कोई दूसरा विकल्प ढूंढ लेगी। जैसे आज फोट्टी निरस्त है तो हमने पैसिंजर पकड़ लिया।
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का पकड़ला ?
टाटा पकड़ली!
टाटा जौनपुर में ना रुकत
रुक ग य ल।


शाम के समय बनारस जाने वाले रोज के यात्री नॉन स्टॉप #ट्रेन पकड़ कर खुश हैं। जफराबाद स्टेशन पर भी इसकी चाल धीमी है, यहां से भी चढ़ गए लोग।

टाटा का क्रेज है रोज के यात्रियों में। सुबह बनारस से जौनपुर आते समय भी सप्ताह में दो दिन (मंगलवार और बृहस्पति वार) इसके दर्शन होते हैं। सुपर फास्ट है तो मात्र ४० मिनट में जौनपुर पहुंचा देती है। जौनपुर में इसका स्टापेज नहीं है लेकिन एक स्टेशन पहले जफराबाद में धीमी होती है। रोज के यात्री चढ़ते हैं और जफराबाद में चलती ट्रेन से कूद-कूद कर उतरते हैं। पिछले साल एक साथी कूदने के चक्कर में पटरियों और प्लेटफार्म के बीच फंस कर स्वर्गवासी हो चुके हैं। कुछ दिनों तक तो लोग दुर्घटना से व्यथित हुए फिर सब भूल भाल कर इस पर चढ़ने लगे। समय से दफ्तर पहुंचने की चिंता में जान हथेली पर लेकर टाटा में चढ़ते हैं। रोज के यात्रियों में एक स्लोगन काफी चर्चित है...टाटा के दीवाने कभी कम न होंगे, अफसोस! हम न होंगे।

आज शाम के समय टाटा अकस्मात मिल गई! लेट थी और आगे रेड सिगनल था। इसे रुकना ही था। बनारस में तो इसका स्टॉपेज है ही। सुपर फास्ट है तो इसकी चाल भी मस्त है। लोग खुश हैं कि आज जल्दी घर पहुंच जाएंगे।

ट्रेन में जहां हम बैठे हैं वहां प्लास्टिक के तीन कूपे रखे हैं। पहली बार देखा तो अलीबाबा और चालीस चोर वाले कूपे लगे! मैंने पूछा.. बाकी ३७ कूपे कहां हैं? वो बोला..तीन ही हैं। तेल भरे हो? (कैसे पूछता कि बस तीन चोर!) वो झुंझला कर बोला..तेल नहीं घरेलू सामान है। पहली बार समझ में आया कि कूपे में घरेलू सामान भी हो सकता है!

अगल बगल से समझ में न आने वाले बंगाली शब्द सुनाई पड़ रहे हैं। दो शब्द समझ में आए..राहुल और मोदी। मैं समझ गया लोहे के घर के यात्री देश की चिंता कर रहे हैं। देश की चिंता के लिए ट्रेन से बढ़िया कोई दूसरा स्थान नहीं होता। पल्ले से समय भी खर्च नहीं होता और देश की चिंता भी हो जाती है।

देश की चिंता शराबी भी करते हैं। उधर मुर्गा पक रहा है, इधर देश की चिंता हो रही है। खाली समय के लिए देश की चिंता बढ़िया काम है। उधर मुर्गा पक कर तैयार हुआ, इधर देश की चिंता खलास! पेट भरा और चल दिए अपने रस्ते। शाम के समय शराबियों के बीच एक संवाद होता है..आज देश क चिंता न होई?

यह ट्रेन है। यहां लोग बिहार के नीतीश और पश्चिम बंगाल की ममता से लेकर मोदी राहुल तक की कमियां, खूबियां गिना रहे हैं। नीतीश के नशा बन्दी का समर्थन कर रहे हैं और गुजरात में मोदी जी को जीतने वाला बता रहे हैं। लोगों की इस बात में सहमती है कि मोदी जी ने चुनाव के समय प्रधान मंत्री की गरिमा को कम किया है। इनकी बातों से पता चल रहा है कि प्रधान मंत्री के पद की गरिमा प्रधान मंत्री की कुर्सी से बड़ी होती है।

एक दिन की जिन्दगी

जिंदगी
चार दिन की नहीं
फकत
एक दिन की होती है।
हर दिन
नई सुबह
नया दिन
नई शाम और..
अंधेरी रात होती है।
सुबह
बच्चे सा
पंछी-पंछी चहकता
फूल-फूल हंसता
दिन
जैसे युवा
कभी घोड़ा
कभी गदहा
कभी शेर
कभी चूहा
शाम
जैसे प्रौढ़
ढलने को तैयार
भेड़-बकरी की तरह
गड़ेरिए के पीछे-पीछे
चलने को मजबूर
रात
जैसे बुढ़ापा
जुगनू की रौशनी को
नसीब मान
समय की टिक-टिक
ध्यान से सुनता
पुनर्जन्म/नई सुबह से पहले
मर जाता।
....देवेन्द्र पाण्डेय।

10.12.17

मेहमान नवाजी

मेहमान नवाजी शब्द में वो मजा नहीं है जो अतिथि सत्कार में है.  मेहमान का स्वागत तो मोदी जी भी कर सकते  है,अतिथि का कर के दिखाएँ तो जाने! मेहमान वो जो बाकायदा प्रोटोकाल दे कर आये. फलां तारीख को, फलां गाडी से, फलां समय आयेंगे. ये घूमना है, यह काम है और इतने बजे लौट जायेंगे. सब कुछ पूर्व निर्धारित. इसके उलट बिना तिथि बताये, छुट्टी और आपकी लोकेशन ताड़ कर जो सीधे आपके घर की काल बेल बजा दे वह  अतिथि कहलाता है. सब काम छोड़कर इस अकस्मात टपक पड़े अतिथि का  स्वागत करने में जो बहादुरी है वह प्रोटोकाल बता कर आने वाले अतिथि में कहाँ! सरल शब्दों में कहें तो भारत आने वाली ट्रम्प की बिटिया को आप मेहमान और नवाज शरीफ को बधाई देने अचानक लाहौर पहुंचे हमारेआदरणीय प्रधान मंत्री जी को आप अतिथि कह सकते हैं.

अतिथि तो हमारे पिताजी के समय आते थे. जब मोबाइल, नेट वर्क नहीं था. अब बिना तिथि बताये अतिथि बन कर आना या जाना बैड मैनर कहलाता है. अब मेहमान ही आते हैं. पहले आपसे फेसबुक में चैट करेंगे, आपकी सुविधा का ख्याल करेंगे, अपना पूरा प्रोटोकाल देंगे और फिर यदि आपकी इच्छा हो तभी ना नुकुर करते हुए मेहमान बनना स्वीकार करेंगे. इस पूर्व निर्धारित प्रोग्राम में सबसे पहले जो चीज है वह है रोमांच! यही सिरे से गायब हो जाता है. लेखक के मन में अब 'तू कब जाएगा अतिथि?' जैसे भाव आते ही नहीं तो वह इस विषय पर क्या खा कर व्यंग्य लिखेगा? लिखेगा तो कोरी गप्प मानी जायेगी. अब कोई शरद जोशी जैसा कैलेंडर की तारीखें दिखाकर प्राण फाडू ढंग से नहीं पूछ सकता..तुम कब जाओगे अतिथि? 

अव्वल तो मेहमान आने ही नहीं पाते. उनको न आने देने के लिए आपके पास पहले से सौ बहाने मौजूद रहते हैं. अब आप गैरतमंद हुए, वह बहुत अजीज हुआ और मुसीबत आ ही गई तो जाने की तारिख और समय पहले से  निर्धारित रहती है. मेहमान का स्वागत पान पराग से करना है या खैनी रगड़ कर चूना लगाना है सब पहले से ही तय रहता है. 

यह तो मानी जानी बात है कि जब मुसीबत आती है तो सबसे पहले अपने ही साथ छोड़ जाते हैं. इधर आप ने हिम्मत करके मेहमान को आने का न्योता दिया उधर श्रीमती ने मायके जाने का निर्णय सुना दिया!...'आप स्वागत करिए मित्र का, हम तो चले अम्मा से मिलने! कई दिनों से बीमार चल रही हैं!!! चार दिन हम तो नहीं झेल सकते. अब आप चाहें तो आने वाले मेहमान को सास की बीमारी के कारण अचानक ससुराली जाने की आवश्यकता बता कर आने से रोक सकते हैं या आप में दम हो तो अकेले के दम पर मेहमान का स्वागत कर सकते हैं. 

आप नेता है या अफसर हैं तो आपके लिए प्रोटोकाल निभाना कोई कठिन काम नहीं है. सारी मेहनत और खर्च आपके कार्यकर्ता या अधीनस्थ कर्मचारी करेंगे आपको तो सिर्फ अपना कीमती समय निकल कर मेहमान से गप्प लड़ाना है. नैय्या पर बैठकर गंगा आरती देखनी है या मुग़ल गार्डन में झूला झूलना है. मेहमान नवाजी में कोई कमी रही तो सारा दोष कर्मचारियों पर और सब अच्छा रहा तो क्रेडिट आपकी! आपके कुशल संचालन में क्या बेहतरीन ट्रिप रही!!!  

मेहमान नवाजी बड़े लोगों के लिए मौज मस्ती, आम लोगों के लिए मुसीबत का सबब और गरीबों के लिए किस्मत की बात होती है. आम आदमी के पूरे माह का बजट बिगड़ जाता है लेकिन अतिथि के आने से गरीब के भाग जाग जाते हैं ! गरीब अतिथि को एक भेली गुड़, ठंडा पानी और पूड़ी-सब्जी, दाल-भात खिलाकर इतना प्रसन्न होता है कि आज उसके घर भगवान पधारे! मेहमान के जाने पर उसके साथ पत्नी और बच्चे भी दुखी होते हैं और जाते समय हाथ जोड़ कर दिल से पूछते हैं..अब कब आयेंगे? हमने मोबाइल खरीद लिया है, बता कर आते तो रजाई भी मंगा लेते. आपको ठंडी भी नहीं लगती. खैर कोई बात नहीं..जल्दी आइयेगा. मुनौवां को छोड़ दीजिये एक दो महीने के लिए यहाँ. बच्चों के साथ खूब हिल मिल गया है. हमारी पत्नी को अम्मा कहता है. 

मेहमान नवाजी का लुत्फ लेना है तो किसी गरीब के घर प्रेम की गठरी कंधे पर लादे, खूब समय निकल कर इत्मीनान से, बिना किसी प्रोटोकाल के अतिथि बन कर जाइये. वैसे अब कोई किसी के घर प्रेम से सिर्फ मिलने के उद्देश्य से नहीं जाता. किसी शहर में घूमने या काम से गया तो रहने का ठिकाना ढूँढता है और मित्र भी मेहमान का हिडेन एजेंडा भांप कर कन्नी काटता है. दोनों साथ-साथ नहीं चलता. प्रेम और स्वार्थ एक साथ कहाँ रह पाते हैं!  स्वार्थी की भेंट प्रेमी से कैसे हो सकती है? मेहमान नवाजी के महल तो प्रेम के बुनियाद पर टिके हैं.    


Good Morning Sarnath

यह मेरा नया ब्लॉग है. इसमें सारनाथ के चित्र, उससे सम्बन्धित जानकारी और प्रातः भ्रमण के दौरान मन में आये विचार सुबह की बातें शीर्षक से प्रकाशित करने का मूड बनाया है. कोशिश है कि आज नहीं तो कल सारनाथ के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए यह एक बढ़िया लिंक बने. इस ब्लॉग से जुड़कर आप अपनी शुभकामनाएँ देंगे तो मुझे खुशी मिलेगी. लिंक इस ब्लॉग में ऊपर है और अलग से है यह रहा....Good Morning Sarnath

8.12.17

लोहे का घर-32

लघुशंका जाने से पहले पत्नी को जगा कर गये हैं वृद्ध। पत्नी की नींद टूटी। पहले बैग की तरफ निगाह थी, अब करवट बदल ऊपर के बर्थ की ओर मुंह कर सीधे लेटी हैं। नींद में दिखती हैं पर नींद में नहीं हैं। चौकन्नी हैं। सोच रही होंगी.. "सामने बैठा अधेड़ बड़ा स्मार्ट बन मोबाइल चला रहा है, दिखने में तो शरीफ दिखता है मगर क्या ठिकाना! ट्रेन में किसी पर विश्वास करना ठीक नहीं। जमाना खराब है।"

ऊपर साइड अपर बर्थ पर दो लड़कियां एक दूसरे की तरफ पैर कर लेट गई हैं। अभी कुछ देर पहले चिड़ियों की तरह चहक रही थीं। एक लड़की मुझे ही देख रही है। मैंने दो बार गरदन ऊपर करी, दोनों ही बार मुझे ही देख रही थी। दूसरी बार तो हल्की सी मुस्कान भी थी उसके चेहरे पर! पता नहीं मुझे लिखता देख यह क्या सोच रही है! लड़कियों के मन की बात समझना आसान है क्या?

बुजुर्ग आ गए। वृद्धा अब चैन से सो रही हैं। ट्रेन को रुका देख पूछ रही हैं...कोई स्टेशन है क्या? पता नहीं आम आदमी को यह विश्वास कब होगा कि ट्रेनें स्टेशन पर ही रुका करती हैं!

छोटे छोटे स्टेशन पर दौड़ते हुए चढ़ते हैं लोकल वेंडर। इस रूट में हरा मटर खूब बिकता है। खासियत यह है कि पूरे वर्ष हरा ही रहता है। बल्टा भर मटर लेकर जब कोई छोकरा बगल से 'हरा मटर' चीखते हुए गुजरता है तो नाक में मसालों की एक तीखी गंध घुस जाती है। साफ हवा आने और सांस लेने में कुछ देर लगता है। चाय बोलिए चाय, खाना बोलिए खाना..कोई दिन में चैन से सो नहीं सकता लोहे के घर में। शायद यही कारण है कि ट्रेन में चोरियां कम होती हैं।

एक हिजड़ा ताली पीटते, पैसे मांगते हुए निकला है बगल से। खूबसूरत साड़ी पहने है और बढ़िया मेकअप में सुन्दरी दिख रहा है। अपने ग्रुप से बिछुड़े हुए कबूतर की तरह फड़फड़ाते हुए निकल गया। ज्यादा देर किसी बर्थ के आगे नहीं रुका। थपड़ी बजाई, हाथ फैलाए और आगे बढ़ गया। जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला टाइप।

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भीड़ है लोहे के घर में। दून के अलावा आज कोई दूसरी ट्रेन नहीं आई। रोज के सभी यात्री कुम्भ मेले में बिछुड़़े भाइयों की तरह बड़े प्रेम से भंडारी टेसन में एक दूसरे से हाय हैलो कर रहे थे, चढ़ते ही टूट कर गिरे पारे की तरह ओने-कोने बिखर कर दुबक गए। कोई सामान की तरह ऊपर टंगा है, कोई कहीं अड़स कर बैठा है और कोई मायूसी से टुकुर-टुकुर ताकते हुए खड़ा है।

बगल में साइड लोअर बर्थ पर तीन लोग बैठे हैं। दो लोग मूंगफली खा रहे हैं और छिलके जमीन पर बिखेरते हुए देश की चिंता कर रहे हैं। दोनो के बीच बैठे एक बुजुर्ग घड़ी देख रहे हैं और रेलवे को कोस रहे हैं..'तीन बजे इसे बनारस पहुंच जाना था, अभी तक यहीं है। कोई काम ठीक से नहीं हो रहा है!' मूंगफली के छिलके जमीन पर बिखेरने वाले भी हां से हां मिला रहे हैं।

मैंने कहा..आप लोगों को भी छिलके यूं नहीं बिखेरने चाहिए थे। नहीं? वे मेरी बात से सहमत होते हुए पहले की तरह फर्श गंदा करते रहे और लेट होने के लिए व्यवस्था को कोसते रहे। यह अच्छा रहा कि उन्होंने मेरी बातों को सुना अनसुना कर दिया। पलटकर झगड़ा नहीं किया। कह सकता था..रेलवे क्या तुम्हारे बाप की है? मैं भी एक बार उपदेश दे कर चुप हो गया। 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे।' दूसरे ठीक से काम करें लेकिन हम नहीं सुधरेंगे। इनके उतरने के बाद दूसरे यात्री चढ़ेंगे और वे गंदगी के लिए रेलवे को कोसेंगे!

मेरे सामने चार यात्री बैठे हैं। दो पुरुष, दो महिलाएं। महिलाएं एक दोना हरा मटर खरीद कर एक ही चम्मच से बारी-बारी खा रहे हैं। पुरुषों में परस्पर इतना प्रेम दुर्लभ है। दांत काटी यारी हो तो अलग बात है। बगल में एक बंगाली प्रौढ़ जोड़ा है। दोनों गुमसुम बैठे हैं और अजीब नजरों से इधर उधर देख रहे हैं।

भांति भांति के वेंडर चढ़ते हैं लोहे के घर में। हरी ताजी मटर, गरम चाय से लेकर खाना पानी तक। अभी एक पुस्तक बेचने वाला दस रुपए में जनरल नॉलेज बेच रहा था। अभी एक नकली मोतियों, रुद्राक्ष की माला बेचने वाला काशी के नाम पर माला बेच रहा है।

जलालपुर में एक ग्रामीण जोड़ा चढ़ा। मूंगफली के छिलके बिखेरने वाले बैठे रहे, बुजुर्ग को उठना पड़ा। सामने वाले बर्थ पर उनको एडजस्ट किया गया। अब नए पुराने सहयात्री एक ही घर के निवासी हो गए। सभी अब अच्छी अच्छी बातें करते हुए देश की चिंता में लीन हो गए। ट्रेन के सफर में देश की चिंता करना बड़ा सुरक्षित है। पल्ले का कुछ नहीं जाना, समय भी नहीं।

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आजाद वीजा 

कल शाम लोहे के घर में एक गिरमिटिया मिला। गांधी जी के समय दक्षिण अफ्रीका जाने वाला नहीं, इक्कीसवीं सदी में सउदी अरब जाने वाला। उसकी बातों से पता चला कि वह चार साल वहां रहकर आया है। मुझे उससे बात करने का मन किया।

तब तो खूब नोट कमाए होगे?
हां हां, क्यों नहीं! वहीं के पैसे से घर बनाए, बिटिया की शादी करी और भी एक दो काम किया जो यहां रहते तो जिंदगी भर नहीं कर पाते।
कहां के रहने वाले हो?
वर्धमान, पश्चिम बंगाल।
जब इत्ती कमाई थी तो लौट क्यों आए?
अब कितना मेहनत करते? उमर भी हो गई।
तुम तो अभी ४०से अधिक के नहीं लगते?
हां.. वहां का काम बहुत मेहनत वाला है।
क्या करते थे?
कुछ भी। कोई काम करने में संकोच नहीं किया। झाड़ू भी लगाया, मजदूरी भी करी। वो टेंट टाइप घर नहीं होता? हां, वहां रेत ही रेत है। एक घर बनाने का 200 रियाल मिलता था।
#रियाल! एक रियाल कित्ते का होता है?
18 रुपए का।
मतलब एक घर बनाते थे तो ३६०० पा जाते थे!
हां।
और कित्ता समय लगता था एक घर बनाने में?
२-३ घंटे।
अरे वाह! तब तो बहुत कमाई होती थीं!!
हां।
अब ई बताओ, गए कैसे? वीजा बनाए थे?
आजाद वीजा!
यह क्या होता है?
इसमें कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। जो मर्जी काम करो। एक ने कम पैसा दिया तो दूसरे के पास चले जाओ।
कैसे बनवाए आजाद वीजा?
एक दलाल से!
कित्ता लिया?
एक लाख तीस हजार। बहुत अच्छा दलाल है। आपके पास पैसे कुछ कम हो न! वो कहता है..कमा कर लौटा देना।
तब तो बहुत अच्छा है! आप भाग्यशाली लगते हैं मगर किसी को धोखा भी देता होगा।
नहीं, किसी को नहीं। मैंने अपने भाई और बेटे को भी भेजा है वहां।

उसकी बातें सुनकर मैं गहरे सोच में डूब गया। गिरिराज किशोर और  पहला गिरमिटिया  याद आए। आजादी से पहले कैसे धन कमाने के चक्कर में अनुबन्ध के तहत भारतीय दक्षिण अफ्रीका जाते थे और वहां जा कर गुलामों से बदतर जिंदगी जीते थे। वह तो भला हो मोहन दास का जिन्होंने वहां जा कर उनके लिए लंबी लड़ाई लड़ी और उन्हें एहसास दिलाया कि उन्हें भी सम्मान के साथ जीने का हक है। वे सिर्फ गोरों के काले गुलाम नहीं हैं। इसका मतलब इक्कीसवीं सदी के गिरमिटिया विदेशों में आजाद वीजा लेकर मौज करते हैं।

मैंने उससे फिर पूछा..
किसी अनुबन्ध के तहत जाते होंगे? मन मर्जी कैसे काम कर सकते हैं?
वैसे भी जाते हैं। किसी कम्पनी के कर्मचारी बन कर। उसमे फिर उसी के यहां काम करना होता है। काम छोड़ा तो पुलिस पकड़ लेती है।
अरे!
हां। अपना तो आजाद वीजा था !

अब मुझे नहीं पता बन्दा कित्ता सच बोल रहा था, कित्ता हांक रहा था लेकिन उसके चहरे से ग़ज़ब का आत्मविश्वास झलक रहा था।

2.12.17

सुबह की बातें-6

साइकिल ले कर भोर में सैर को निकला तो मॉर्निंग हो ही रही थी और थोड़ा गुड-गुड लगना शुरू ही हुआ था।  पूरा गुड लगता कि सजे हुए मैरिज लॉन दिखने लगे। भीगी_पलकें का समय था। बिदाई की बेला थी। घर की अजोरिया परायों की होने वाली थी। अपना भी मन शोकाकुल हो इससे पहले तेज पैडिल मार कर आगे बढ़ गया। आगे दूसरा मैरिज लॉन दिखा। दरवाजे पर कुत्ते ही दिखे, पलकें भीतर भीगी हो रही होंगी। आगे पान की दुकान पर साइकिल खड़ी कर पैदल पैदल हो गया। पान वाले ने तपाक से उंगली करी..के के बोट देहला? हमने भी उंगली दिखाई.. जेहके देहले होई, जाई त तोहरे में! पता नहीं क्या समझा, जोर से ठहाके लगाने लगा। पता नहीं अपनी हर सही बात को लोग व्यंग्य क्यों समझ लेते हैं!

अब मॉर्निंग हो चुकी थी। सड़क की मरकरी लाइट के बिना भी लोग दिखने लगे थे। पटरी पर एक ठेले के पीछे तीन बुढ़िया मूंगफली बीन रही थीं। जमादार झाड़ू से धूल उड़ा रहा था। दो लड़के सड़क के किनारे खड़े हो सूखे पत्ते जला कर धुआँ उड़ा रहे थे। मॉर्निंग बैड हो, फेफड़ों में धूल घुसे इसके पहले नकपट्टी चढ़ा लिया। धूल/धुएं के पीछे लोग मॉर्निंग वॉक/जॉगिंग कर रहे दिखे।

बुद्ध_मन्दिर का द्वार खुल चुका था। ज्ञान लेने वालों को पंक्तिबद्ध लाइन में खड़ा कर हांकता, ज्ञान देने वाला अनुशासित हो कर मन्दिर में प्रवेश कर/करा रहा था। हम दोनों से बच कर, बगल से निकल लिए। आजकल इसी में बुद्धिमानी है। ज्ञान देने और लेने वालों से बच गए तो समझो आप बड़े भाग्यशाली हैं।

भगवान बुद्ध की मूर्ति चमक रही थी। फूल हंस रहे थे। हम आगे बढ़े तो पंक्ति में वर्षों से खड़े अशोक के कटिंग किए हुए छतरी आकार के बूढ़े वृक्ष हवा के झोंके लेते मिले। हलकी सी भी हवा चलती है तो पीपल के पत्ते बच्चों की तरह खुश हो, ताली पीटते से दिखते हैं लेकिन अशोक बड़के ज्ञानी की तरह अविचलित जस के तस खड़े रहते हैं। अक्सर ऐसा ही होता है। ज्ञानी बच्चों की तरह मिलते हैं, बुद्धिजीवी अकड़े-अकड़े।

अशोक के नीचे पत्थर के बेंच पर बैठे बूढ़े घूम घाम, थक थुका कर आपस में बतियाते दिखे। एक बूढ़ा झगड़ालू  महिला की तरह हाथ नचाकर कुछ कह रहा था बाकी लाचार पुरुष की तरह सुन रहे थे।

लॉन में बने मंच का प्रयोग स्थानीय युवा सुबह योग के लिए करते हैं। उसमें दरियां बिछाई जा रही थीं। हीरन पार्क के बगल वाला नहर नुमा तालाब मरम्मत के बाद सूखा पड़ा था। कमल उखाड़े जा चुके थे। जमीन दरकने लगी तो तालाब के सड़ रहे, ठहरे पानी को बदलने की आवश्यकता महसूस हुई होगी। नई जमीन पर नए पौधे लगेंगे तो यह चमन और भी खूबसूत होगा। यह बात सभी समझते हैं।

भगवान बुद्ध के उपदेश स्थल का चक्कर लगाते देखा बुद्ध और उनके पांचों शिष्य हमेशा की तरह मूक बैठे हैं। मूर्तियां बोल नहीं सकतीं पर इन्हे देख ऐसा लगता है कि कभी बुद्ध ने बोला होगा, कभी शिष्यों ने सुना होगा। आज भी गुरु बोलते हैं, शिष्य सुनते हैं मगर दुनियां पहले से अधिक दुखी है! कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने बुद्ध के उपदेशों को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया! या फिर बुद्ध ने कहा कुछ और हमने कुछ और ही समझ लिया! कुछ तो लोचा है।

बुद्ध मन्दिर से लौटते समय जैन मन्दिर के विशाल चिर युवा बरगद की याद आई। सोचा चलकर उन्हें प्रणाम करते हैं और चिर युवा रहने का मंत्र पूछते हैं। आखिर कब तक नहीं बताएंगे? हाय! मन्दिर का द्वार ही अभी बन्द था। यहां लोग कम आते हैं शायद इसीलिए जाड़े में पुजारी जी ने भी सूर्योदय के हिसाब से समय बदल दिया होगा। जब खुद भूख लगे, प्रसाद चढ़ाओ। पत्थर की मूर्तियां कुछ खाती थोड़ी न हैं, वे तो भाव की भूखी हैं।

सारनाथ के धमेख स्तूप वाले खंडहर पार्क का द्वार खुल चुका था। अंदर घुसा तो खंडहरों के उस पार धमेख स्तूप के पीछे सूर्यदेव निकलते दिखे। मैंने प्रणाम किया और मोबाइल से उनकी तस्वीर ले ली। मुझे लगा अपनी सुबह की पूजा संपन्न हुई। एक चक्कर लगा कर जब स्तूप के पास पहुंचा तो भक्त पूजा/ध्यान में लीन दिखे। एक पहले से तैयार फोटोग्राफर भक्तों की हर एंगिल से तस्वीरें खींच रहा था। भक्त श्रद्धा भाव से कुछ मंत्र भी पढ़ रहे थे। मेरे दुष्ट मन को लगा वे कह रहे हैं.. खींच मेरी फोटो! खींच मेरी फोटो!

यहां से निकलकर अडी में हर हर महादेव हुआ, चाय पान हुआ और कोई खास बात नहीं हुई। साइकिल उठाया, नकपट्टी चढ़ाया और बिटिया की लेडिज साइकिल के हैंडिल कैरियर में गोभी के दो ताजे फूल रख कर घर वापस आ गया। अपनी उम्र अब गुलाब के फूल लेकर जाने वाली नहीं रही।

29.11.17

लोहे का घर-31


ट्रेन ने बदली पटरियाँ 
लोहे के घर की खिड़की से 
हौले से आई और..
दाएं गाल को चूमकर 
गुम हो गई 
जाड़े की धूप।

..........


पुत्रों को सौंप
धानी चुनरिया
सन बाथ ले रही है
धरती माँ
पटरी पर चल रही है
अपनी गाड़ी।

........


सुबह के समय लोहे के घर की खिड़कियों से दिखते हैं सुनहरे धूप में नहाए स्वर्णिम खेत। खड़ी ज्वार/गन्ने की फसल हो या गाय/भैंस के मल से बने कंडे, यत्र तत्र सर्वत्र एक सुनहरी आभा बिखरी होती है। खेत के साथ खेतों की रखवाली के लिए तैनात बजुके भी दिखते हैं।
पंछियों को डराने के लिए किसान खेतों में बजुके खड़े करते हैं। चालाक पँछी आदमी के इन पुतलों से नहीं डरते। आकाश से उतर कर सीधे बजुकों के सर पर बैठते हैं। इधर-उधर ताकते हैं फिर पूँछ उठाकर, पँख फड़फड़ा कर पुतलों की बाहों से होते हुए खेतों में उतर, ढूँढने लगते हैं दाने। इसे देख एक बात समझ में आती है कि किसी को बहुत दिनों तक मूर्ख नही बनाया जा सकता।

अब प्रश्न उठता है कि इन बजुकों में अगर जान आ जाय तो क्या हो? स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय मानव प्रजाति के व्यवहार को देखते हुए तो यही लगता है कि लाख खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की व्यवस्था करो, सबसे पहले खेतों के दाने तो बजुके ही उड़ाएंगे! पूछो तो सारा इल्जाम चिड़ियों पर!..जरा सी आँख लग गई थी साहेब। अब हर समय तो जाग नहीं सकता!
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लोहे के घर की बन्द शीशे की खिड़कियों से आ रही है सुर सुर सुर सुर ठंडी हवा। आमने सामने की बर्थ पर हम छः यात्री हैं और सभी अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हैं। सभी साथी हैं मगर सभी को एक दूसरे से ज्यादा कुछ और पसन्द है। किसी को फिलिम पसन्द है, किसी को मोबाइल गेम।
कमोबेस यही हाल कंकरीट के घरों का भी है। कहने को तो सभी एक परिवार के सदस्य हैं मगर सभी की रुचियाँ अलग-अलग हैं। सभी को अपनी जिंदगी जीने का अधिकार और खुला स्पेस चाहिए। यदि कोई किसी से अपने मन की बात करना चाहता है तो अगले के खाली होने तक उसे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। बीच में टोका तो हो गया उपेक्षा का शिकार! उपेक्षा से आहत हुआ अहंकार। आहत दिल से उपजा क्रोध। क्रोध ने कराई बात। शुरू हुआ बेबात का झगड़ा। बहुत लफड़ा है। जीवन सरल भी हुआ है और कठिन भी।

एक अकेला अजनबी यात्री ऊपर बर्थ में पद्मासन लगा कर बैठा नीचे वालों को टुकुर टुकर ताक रहा है। अलग अलग मोबाइल से आ रही आवाजें सुन रहा है। शायद उसके पास मोबाइल नहीं है। युवा है लेकिन उसका हाल घर के दद्दू जैसा है। जो परिवार के सभी सदस्यों की बात चुपचाप सुनता रहता है लेकिन अपने मन की बात किसी से नहीं कह पाता। ऊपर वाले को दद्दू की तरह बस मंजिल की प्रतीक्षा है।
#ट्रेन देर से रुकी थी। लोग अकुला कर एक दूसरे से बात करने ही वाले थे कि चल दी। आजकल जब समस्या आती है तभी घर के सदस्य एक दूसरे से बातें करते हैं। अजी सुनते हैं? मुन्ना अभी तक कोचिंग से नहीं आया! पति हाँ, हूँ करते हुए करवट बदलता है तभी डोर बेल बज जाता है। मुन्ना आ गया। समस्या खतम। संवाद खतम। एक तो वैसे ही हम दो, हमारे दो वाला छोटा परिवार उप्पर से सभी के अपने अपने मूड। पहले घर में बच्चे रहते और रहतीं थीं भाभी, दादी। गीतों के झरने बहते थे, झम झम झरते कथा, कहानी।
ऊपर पद्मासन लगा कर बैठा बन्दा सुफेद चादर ओढ़कर सो गया। नीचे बैठे छ में से एक सदस्य अपनी मोबाइल बन्द कर खिड़की का शीशा उठाकर बाहर अँधरे में मंजिल झाँक रहा है। दो एक ही मोबाइल में कोई मजेदार फ़िल्म देख कर खिलखिला रहे हैं। नॉन स्टॉप ट्रेन फिर किसी छोटे स्टेशन पर देर से रुकी है।
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भारतीय रेल अच्छे अच्छों को अपने समय जाल में फंसा सकती है। सात बजे फरक्का को जौनपुर आना था वह अभी तक नहीं आई। उसके बदले ८.१० में आने वाली गोदिया ९.३५ में आ गई। हम यह सोच कर मन बहलाते रहे कि वह अब चल चुकी है, अब आ रही है। पहले ही कह देती की हम इतने देर से आएंगे तो इसे कौन पूछता? सब सड़क का रास्ता नहीं पकड़ लेते! अब आ गई है तो इत्मीनान से खड़ी है। सिंगल ट्रैक है, एक मालगाड़ी छूटी है अभी। अब जब तक वह अगले स्टेशन तक पहुंचेगी, इसे रुकना ही है। हम अब इसकी एक बोगी में लेट कर इसके चलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बोगी में कोई कह रहा है.. काशी जाना आसान नहीं। उसके कहने का आसय यह कि मोक्ष पाना इतना सरल नहीं है।
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अपनी गाड़ी पटरी पर चल रही है। इस दौर में जब पटरी से उतर जाने की खबर चर्चा में हो, गाड़ी का पटरी पर चलते रहना सुखद है। क्या हुआ कि अब तक मिल जानी चाहिए थी मंजिल लेकिन नहीं मिली! क्या हुआ कि आना था कब और आई है अब! क्या हुआ कि जब घर पहुंच कर, खा पी कर सो चुकना था हमें मगर मगर फंसे हैं, रस्ते में! देर से चली मगर बड़ी रफ्तार से चल रही है अपनी गाड़ी। रात के सन्नाटे में किसी पुल को थरथराती, किसी छोटे स्टेशन पर पटरियां बदलती, झूला झुलाती ट्रैक बदलती है #ट्रेन तो बड़ा मज़ा आता है।
कुछ सो रहे हैं और कुछ इतने रात को भी ऐसे चहक रहे हैं कि अभी सबेरा हुआ हो! जो दूर से यात्रा करते हुए चले आ रहे हैं और अभी दूर जाना है वे मुंह ढककर सो रहे हैं। जिन्होंने प्लेटफार्म पर लंबी प्रतीक्षा के बाद के बाद ट्रेन पकड़ने में सफलता पाई है, वे चहक रहे हैं। न जाने क्या है इस ट्रेन की मोहब्बत में कि रोज धोखा देने के बाद भी कभी बेवफा नहीं लगती। रोज कहते हैं कि न जाएंगे कभी इससे और रोज लगता है कि बस चढ़े नहीं कि घर पहुंच गए। मंजिल से प्यारा है इसका सफर। अजनबी भी लगने लगते हैं हमसफ़र!
अभी देर से किसी स्टेशन पर रुकी है। पक्का बता देती कि रात भर रुकी रहेगी तो सो जाते चैन से। मगर कभी पक्की बात न करना ही तो ट्रेन की जानमारू अदा है। सही बता देती तो चलने वाले हारन की आवाज में इतनी मिठास कहां होती!
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सुबह सबेरे एक युवक चलती #ट्रेन के दरवाजे पर बैठा खेत झाँक रहा था। हमने कहा...उठो! रास्ता दो। स्टेशन पास आ रहा है, उतरना है।
वह उठा तो उसका आसन दिखाई दिया। दरअसल वह लकड़ी की एक पटरी थी जिसके चारों कोनों पर पहिए लगे हुए थे! अब हमारा ध्यान इकहरे स्वस्थ बदन वाले युवक पर गया। वह अपने एक टाँग पर खड़ा था। दूसरा पैर घुटने से गायब था!
कहाँ जाना है?
ट्रेन अमृतसर तक जाएगी तो अमृतसर चले जायेंगे!
#दिव्यांग के लिए पूरी बोगी है, वहाँ क्यों नहीं बैठे?
उसने प्रश्न के जवाब में प्रश्न किया...वहाँ बैठते तो माँगते कैसे?
अब हमको समझ मे आया कि यह तो भिखारी है!
कब से भीख मांग रहे हो?
बचपन से।
पैर कब कटा?
जब सात साल के थे।
कोई दूसरा काम क्यों नही करते? एक पैर कटा तो क्या हुआ? स्व्स्थ हो, सभी दूसरे अंग सलामत हैं।
घर वाले करने नहीं देते। सब यही काम करते हैं!
तब तक अपना स्टेशन आ गया और हम उतर गए। किसी भिखारी को देख कौंध जाता है उसका भी चेहरा तो लगता है भीख मांगना भी एक काम है। 


लेखक

जब कोई बड़ा लेखक मरता है
हमारे पास आता है।
अखबारें करती हैं
उनकी चर्चा
छापती हैं
उनकी कविताएं, संस्मरण, कृतियाँ और,..
पुरस्कारों के नाम।
जब कोई बड़ा लेखक मरता है
यकबयक
जागृत हो जाता है
मृतप्रायः साहित्यिक समाज
चमकने लगती हैं
गोष्ठियाँ
राजनैतिक चर्चा छोड़
चाय पान की अढ़ियों में
होने लगती हैं
किसी चर्चित पुस्तक या प्रसिद्ध कविता पर
बातचीत।
जब कोई बड़ा लेखक मरता है
तब याद करते हैं हम उसे
अरे!
कौन सी तो पुस्तक थी इनकी?
हमने पढ़ी थी यार!
बहुत अच्छी थी।
हाँ, हाँ यह वाली कविता
क्या बात है!
अच्छा!
अब चलेंगे पुस्तक मेले में
तो याद दिलाना
खरीदनी पड़ेगी इनकी
कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें
पढ़े नहीं तो
कितने बुद्धू लगेंगे हम
बुद्धिजीवियों में!
जब कोई बड़ा लेखक मरता है
स्थान पाता है
पढ़े-लिखे समाज में।

संघर्ष तो होगा

हम नहीं करेंगे
तुम नहीं करोगे
लेकिन वह जरूर करेगा
जिसे सहन नहीं होगा
संघर्ष तो होगा।

उतनी ही चलती है तानाशाही
जितनी झुक पाती है
रीढ़ की हड्डी
उतना ही रो पाती हैं
आँखें
जितने होते हैं
आँसू
पांच गांव मिल जाता
तो क्या
महाभारत होता?
संघर्ष तो होगा।

झूठ की ही नहीं
आँच अधिक होने पर
फूट जाती है
सच की भी हांडी!
गलत सही
सही गलत
कब तक होगा?
संघर्ष तो होगा।