22.6.19

लोहे का घर-53




इस मौसम की पहली बारिश हुई जफराबाद स्टेशन में। झर्र से आई, फर्र से उड़ गई। ढंग से सूँघ भी नहीं पाए, माटी की खुशबू। प्रयागराज जाने वाली एक पैसिंजर आ कर भींगती हुई खड़ी हो गई। बड़ी इठला रही थी! गार्ड ने हरी झण्डी दिखाई तो कूँ€€€ चीखते, शोर मचाते/भींगते चली गई। अभी थोड़ी दूर नहीं गई होगी कि रुक गई बारिश। उमसिया गई होगी। गरम तवे पर, छन्न से भाप बन कर उड़ने वाले पानी के छीटों की तरह, नहाई होगी, पैसिंजर।

खुश थे कुछ धूल भरे पत्ते, मिट्टी से उठ ही रही थी सोंधी-सोंधी खुशबू, तभी रुक गई बारिश। आ गई अपनी फिफ्टी डाउन। एक घण्टे देर कर दी आज आने में। जरूर बारिश में नहाने के चक्कर मे रुक गई होगी कहीं।

बड़ी उमस वाली गर्मी है। पसीने-पसीने हुए हैं लोग। ट्रेन चले तो हवा भीतर आये। चलने पर राहत है। खेतों की मिट्टी में दिख रही है नमी। लगता है दूर तक हुई है, थोड़ी-थोड़ी बारिश। लगता है राजा ने न्याय किया है! सभी को बराबर-बराबर बांटा है बारिश का पानी। असली खबर तो मीडिया बताएगी। जब घर जा देखेंगे समाचार।



देर से रुकी है #ट्रेन अनिर्धारित प्लेटफार्म पर। मौके का फायदा उठा रहा है एक #छोकरा। साइकिल में बेच रहा है पानी। मैने कहा..एक फोटू खिंचवाओ! उसने बेफिक्री से कहा..हींच लो.।


वीरापट्टी में, दो सहेलियों की तरह अगल बगल खड़ी हो, देर से बतिया रही हैं, दून और फिफ्टी। दोनो के बीच मे खड़े हैं रोज के यात्री। जो पहले चलेगी, उसी में चढ़ेंगे! ट्रेने हैं कि चलने का नाम ही नहीं ले रही। इनकी बातें खतम ही नहीं हो रही। 

फिफ्टी ने दून से कहा..हाय दून! अभी तक यहीं हो! इतनी लेट? दून झल्ला रही है...तुम राइट टाइम हो न? फिर क्यों खड़ी हो? बात करती हो। क्या चलना, रुकना हमारे हाथ में है?  फिफ्टी ने कहा..सुनो न, यात्री लोग कित्ती गन्दी-गन्दी गाली दे रहे हैं हमको। ये नादान हैं, नहीं जानते कि अपने बस में कुछ भी नहीं, सबकी डोर ऊपर वाले के हाथ मे है।


वीरपट्टी के बाद अगले स्टेशन शिवपुर में, फिर रुकी देर तक #दून। पता चला, अभी मालगाड़ी आगे गई है। #फिफ्टी अभी वीरपट्टी में ही होगी। यहाँ भी इसका स्टॉपेज नहीं है। बकायदा लस्सी, पान की दुकानें खुल गई हैं इस वीराने में भी। पता नहीं, इन लोकल दुकानदारों की स्टेशन मास्टर से कोई सेटिंग तो नहीं है! कि जैसे ही कोई एक्सप्रेस आये, मालगाड़ी छोड़ देना!!!

18.6.19

पिता जी



        गंगा की लहरें, नाव, बाबूजी और तीन बच्चे। इन तीन बच्चों में मैं नहीं हूँ। तब मेरा जन्म ही नहीं हुआ था।

पिताजी के साथ अपनी बहुत कम यादें जुड़ी हैं लेकिन जो भी हैं, अनमोल हैं। सबसे छोटा होने के कारण मैं उनका दुलरुआ था। इतना प्यारा कि शायद ही कोई मेरा बड़ा भाई हो जिसने मेरे कारण पिटाई न खाई हो। साइकिल चलाना, गंगाजी में तैरना सिखाना, यहाँ तक कि सरकारी प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाने भी पिताजी नहीं गए। मेरी टांग टूटे या खोपड़ी फूटे, बुखार आए या पेट झरे, सब जगह बड़े भाई ही दौड़ते। वे सिर्फ डांटते और पैसा देते। उनका मानना था कि सारी मुसीबतें मेरी ही बुलाई हुई हैं। मैं यह समझता हूँ कि पिताजी के पैसे पेड़ में उगते हैं जिन्हें खर्च कराना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य है!  प्रत्यक्ष पिताजी कुछ नहीं करते थे लेकिन उनका होना ही मेरे लिए सब कुछ था।

जब तक वे थे मैं आस्तिक था, जब वे नहीं रहे, नास्तिक हो गया। जवानी में कदम रखने से पहले ही वे भगवान के घर चले गए। पिताजी क्या गए मैने उनके सभी भगवानो की छोटी मूर्तियों को, पॉलिथीन में रखा और बक्से में बंद कर दिया। जब पिताजी को नहीं बचा सकते तो भगवान का क्या काम?

एक बार, पिताजी के कंधे पर बैठ, नाटी ईमली का भरत मिलाप देखने गया था। नाटी इमली का भरत मिलाप मतलब बनारस का लख्खा मेला। लाखों की भीड़ में घंटों कंधे पर बिठा कर घुमाने वाला पिताजी के अलावा दूसरा कौन हो सकता था! वे पिता जी ही थे।

जब गणित के किसी सवाल में अटकता, पूछने पर, पिताजी बता देते। वे अधिक नहीं पढ़े थे लेकिन उनके पास मेरे सभी प्रश्नों का हल होता था।

जब हाई स्कूल का रिजल्ट आया, गणित में सौ में 92 नम्बर देख बहुत खुश थे। खुश होकर बोले..मैं तुम्हें ईनाम दूँगा। शाम को मेरे लिए एक टेबल लैम्प ले कर आए! पहले ईनाम में पिज्जा/बर्गर खिलाने या मोबाइल दिलाने का चलन नहीं था।

पिताजी शतरंज के दुश्मन और ब्रिज के खिलाड़ी थे। ब्रिज के खेल में चार खिलाड़ी होते हैं। जब वे तीन होते तो मुझे बुलाकर अपना पार्टनर बना लेते। मैं केवल पत्ते पकड़ता और कलर की  बोली बोलता। बोली फाइनल होते ही मेरे पत्ते या तो बिछ जाते या पिता जी के हाथों चले जाते।

पिताजी एक नम्बर के धोबी और तमोली थे। सुबह उठकर पान के छोटे-छोटे टुकड़े काटते, पान के बीड़े बनाते और उन्हें एक छोटे से लाल कपड़े में लपेट कर, स्टील के पनडब्बे में सहेजते। झक्क सुफेद धोती, कुर्ता पहन कर ऑफिस जाने से पहले घर भर के कपड़े धोना, नील और टीनोपाल से चमकाना उनकी आदत थी। वे भयंकर परिश्रमी थे। उनकी कंजूसी से उनके ईमानदारी का पता चलता था। दस पैसा बचाने के लिए एक दो कि.मी. पैदल चलना आम बात थी।

बाबू जी के मित्र थे स्व0 अमृत राय जी। शायद अपनी साहित्यिक गतिविधियों से पीछा छुड़ाकर यदा-कदा बाबूजी से मिलने ब्रह्माघाट आते। शाम को नैया खुलती और लालटेन की रोशनी में देर शाम तक जाने क्या बातें होती!

तब मैं छोटा बच्चा था। मेरी समझ में कुछ न आता। अमृत राय से बाबूजी की कैसी मित्रता! बाबूजी को धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी पढ़ने के अतिरिक्त अन्य किसी साहित्यिक गतिविधी में हिस्सा लेते नहीं देखा। मैं भी अमृत राय के बारे में कुछ जानता न था। उन्हें कभी भाव नहीं देता। वे परिहास करते-कभी तुम्हारे बाबूजी से मेरी कुश्ती हो तो कौन जीतेगा? मैं ध्यान से दोनों को देखता। अमृत राय, बाबूजी से खूब लम्बे, मोटे-तगड़े थे। मैं उनकी बातें सुन हंसकर भाग जाता। कई बार ऐसा हुआ तो एक दिन मुझसे भी रहा न गया। झटके से बोल ही दिया-बाबा आपको उठाकर पटक देंगे!

बाबूजी मेरा उत्तर सुन अचंभित हो मुझे डांटने लगे-तुमको पता भी है किससे बात कर रहे हो? ये मुंशी प्रेम चन्द्र जी के पुत्र हैं। जिनकी कहानियाँ तुम्हारे कोर्स की किताब में पढ़ाई जाती है। चलो! माफी मागो। मैं कुछ कहता इससे पहले अमृत राय जी ने मुझे गोदी में उठा लिया और हंसकर बोले-अरे! बिलकुल ठीक उत्तर दिया लड़के ने। यही उत्तर मैं इसके मुँह से सुनना चाहता था।

पिताजी की मृत्यु 8 जून 1980 के बाद अमृत राय जी का एक अन्तरदेसीय शोक सन्देश आया था और कुछ याद नहीं।

वे कहा करते..रिटायर होते ही हम भी चले जाएंगे। हम सोचते..पता नहीं कहाँ जाएंगे! भारतीय जीवन बीमा निगम से रिटायर होते ही एक दिन वे बीमार पड़े और फिर नहीं उठे। पन्द्रह दिनों की बीमारी के बाद हमे ही उन्हें उठाना पड़ा। उनके शरीर मे कितने रोग थे यह उनके बीमार पड़ने पर डॉक्टरों से ही पता चल पाया। जब तक जीवित थे, मेरे शक्तिमान थे।

लोहे का घर-52

गरमी के तांडव से घबराकर घुस गए ए. सी. बोगी में। दम साधकर बैठे हैं लोअर बर्थ पर। बाहर प्रचण्ड गर्मी, यहाँ इतनी ठंडी कि यात्री चादर ओढ़े लेटे हैं बर्थ पर! ए. सी.बोगी में गरमी तांडव नहीं कर पाती, गेट के बाहर चौकीदार की तरह खड़ी हो, झुनझुना बजाती है। पैसा वह द्वारपाल है जो हर मौसम को अपने ठेंगे पर रखता है।

भीतर दो यात्री बैठने के प्रश्न पर तांडव मचा रहे हैं। लोअर बर्थ वाला बैठना चाहता है, मिडिल बर्थ वाला लेटना चाहता है। मिडिल बर्थ वाला कहता है.. मेरी बर्थ है, मैं क्यों गिराऊँ? मुझे नहीं बैठना, लेटना है। लोअर बर्थ वाला नियम बता रहा है..सुबह छः बजे से शाम दस बजे तक आप सो नहीं सकते। आपको बर्थ गिराना होगा। मन कर रहा है, जाकर नियम की जानकारी दूँ। बुद्धि कहती है.. चुपचाप बैठो रहो, झगड़े में पड़े और किसी ने पूछ लिया..आपकी कौन सी बर्थ है तो? जो खुद गलत हो उसे दूसरे को सही/गलत का उपदेश नहीं देना चाहिए। कछुए की तरह मुंडी घुसाकर हरि कीर्तन करना चाहिए। खैर कुछ सही लोग भी थे अगल-बगल जिन्होंने मामला सुलझाया और झगड़ा आगे नहीं बढ़ा।
….......….........................................................................

शाम के 6 बज चुके हैं लेकिन लोहे के घर की खिड़कियों से घुसी चली आ रही हैं सूर्य की किरणें। ढलते-ढलते भी, दहक/चमक रहे हैं, सुरुज नरायण! भीड़ है लोहे के घर में। एक स्लीपर बोगी के लोअर बर्थ में एक महिला लेटी हुई थीं। न वो उठने को तैयार हुईं न किसी की दाल गली। मैने कहा..आप आराम से लेटिए, मुझे बस, मिडिल बर्थ उठाने दीजिए। वो तैयार हो गईं। अब मैं भी लेटा हूँ मिडिल बर्थ में, वो भी सो रही हैं आराम से। जो महिला को उठाने का प्रयास कर रहे थे, मुँह बनाकर आगे बढ़ चुके। थोड़ा दिमाग चलाओ, प्रेम से बोलो तो बिगड़े काम भी बन सकते हैं। झगड़ने या कानून बताने से आसान काम भी कठिन हो जाता है।

गरमी का हाल यह है कि किसी टेसन में जब गाड़ी रुकती है तो प्यासे यात्री, खाली बोतल लेकर, पानी की तलाश में, प्लेटफॉर्म पर दौड़ते/भागते नजर आते हैं। इनमें मिडिल क्लास के मध्यमवर्गीय हैं, जनरल बोगी के गरीब हैं। इनमें सबके वश में नहीं होता, ए. सी. क्लास की तरह मिनिरल वाटर खरीदना। हैंडपम्प के इर्द-गिर्द गोल-गोल भीड़ की शक्ल में जुटे सभी यात्रियों में एक समानता है, सभी आम मनुष्य हैं। पलटकर बार-बार देखते रहते हैं ट्रेन। कहीं चल तो नहीं दी! कान खरगोश की तरह इंजन के हॉर्न पर, निगाहें अर्जुन के तीर की तरह बूँद-बूँद गिर रहे पानी पर। जिसकी बोतल भर जाती है, जरा उसकी विजयी मुद्रा तो देखिए! आह! जनम का प्यासा लगता है। खड़े-खड़े घुसेड़ देना चाहता है पूरी बोतल, अपने ही मुँह में! गट गट, गट गट।

ट्रेन का हारन बजा, रेंगने लगी प्लेटफॉर्म पर। भीड़ काई की तरह छंट गई। जो खाली बोतल लिए लौटे उनके चेहरे ऐसे लटके हुए थे जैसे धर्मराज जूएँ में हस्तिनापुर हार गए हों! जो बोतल भर कर लौटे वे ऑस्ट्रेलिया को विश्वकप में हराने वाली क्रिकेट टीम की तरह उछल रहे थे! गरमी का और आनन्द लेना हो तो जनरल बोगी में चढ़ना पड़ेगा। जब पड़ती है मौसम की मार तब पता चलता है कि आदमियों के कई प्रकार होते हैं। एक लोहे के घर में कई प्रकार की बोगियाँ होती हैं। स्वर्ग भी यहीं है, नर्क भी यहीं है। 

भगवान का नहीं, उत्तर रेलवे के नियंत्रक का शुक्र है कि ट्रेन हवा से बातें कर रही है। हवा भी ट्रेन से बातें करते-करते, खिड़कियों के रास्ते मुझे छू कर निकल रही है। गर्म है तो क्या! हवा तो हवा है। नियंत्रक सो जाय या किसी काम में डूबा सिगनल देना भूल जाए तो ट्रेन रुक सकती है। ट्रेन के रुकते ही हवा भी रुक सकती है। सूरज के साथ नियंत्रक ने भी तांडव दिखाया तो आम आदमी हवा के लिए भी मोहताज हो जाएंगे। अब चीजें मुफ्त नहीं मिलतीं। धूप, हवा और पानी मुफ्त लुटाने वाले भगवान को भी नहीं पता कि उनके बाद धरती पर नियंत्रक और भी हैं। 
.........................................................................................


सुबह 9 बजे का समय है। वाराणसी कैंट से आगे बढ़ चुकी है, हावड़ा-अमृतसर। बहुत ही शानदार दृश्य है। पाँच पंजाबी महिलाएं मिस्सी रोटी और आम का अचार खा रही हैं और खाते-खाते आपस में खूब बतिया रही हैं। आप कहेंगे इसमें शानदार क्या है?
शानदार यह है कि तीन महिलाएं, सामने के तीन बर्थ पर, एक के ऊपर एक क्रम से बैठी हैं और दो, साइड लोअर/साइड अपर बर्थ पर, एक के ऊपर एक। मैं तस्वीर खींचने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। सभी बहुत हट्टी-कट्टी हैं। 
बगल की बोगी से एक और आ गयीं..ओए! कित्थे बैठी है? अब छवों महिलाएं, भंयकर अंदाज में, रहस्यमयी बातें कर रही हैं! अपने इलाके की महिलाएं भी जब रहस्यमयी अंदाज में आपस में, बतियाती हैं तो कोई बात अपने पल्ले नहीं पड़ती, यह तो पंजाबन हैं। इनके हाथ नचाने के ढंग, आँखें फाड़ कर चौंकने का अंदाज और किसी को कोसने जैसा हावभाव देख कर लगता है कि छठी महिला ने जरूर कोई नई खबर शेयर करी है, जिससे ये अपनी मिस्सी रोटी हाथों में धरे-धरे बतियाने में मशगूल हो गई हैं।
छठी महिला अपना काम कर के जा चुकी हैं। अब पाँचों फिर से चटखारे ले कर मिस्सी रोटी खा रही हैं और नई जानकारी पर बहस कर रही हैं। एक चाय वाला आया और सभी चाय-चाय चीखते हुए, चाय लेकर पीने लगीं। चाय पी कर लेट गईं और अब लेटे-लेटे बतिया रही हैं। इनको फोन से बात न हो पाने और नेटवर्क न मिलने का काफी मलाल है। सभी अपनी- अपनी कम्पनी को कोस रही हैं। हाय रब्बा! कोई नई मिलदा नेटवर्क!!! सही बात है, आपस में कितना बतियाया जाय? नेटवर्क मिलता तो कुछ दारजी से भी बातें हो जातीं।

गर्मी का ताण्डव

इतने तनाव में क्यों हो? धूप में पैदल चलकर आ रहे हो? 
नहीं भाई, समाचार देख कर आ रहा हूँ। 
अरे! रे! रे! इतना जुलुम क्यों किया अपने ऊपर? जेठ की दोपहरी में दस किमी पैदल चलना मंजूर, समाचार देखना नामंजूर। 
क्या बताएं यार! आज छुट्टी थी, कोई काम भी नहीं था, बाहर धूप थी, सोचा समाचार ही देख लें...
बस यहीं चूक कर गए। 
......×××......×××.......××××.....×××.....×××..........
धूप के कई साइड इफेक्ट हैं। धूप में चलना पड़े तभी समस्या होगी यह जरूरी नहीं। धूप में न चल पाना और घर में ही फँसे रह जाना भी मुसीबत का कारण बन सकता है। ऐसे वक्त समस्याएँ आपको निर्बल जान, आप पर आक्रमण कर सकती हैं। गरमी भेष बदल कर तांडव करती है!

सारा दिन घर में हो, कोई ढंग का काम नहीं किए! कम से कम बाथरूम ही साफ़ कर लिया होता!!!

इतने मैले कपड़े खूँटी में टँगे हैं, इनको ही धो लिया होता।वाशिंग मशीन में ये अपने से उड़ कर तो जाएंगे नहीं। शर्ट के कॉलर, पैंट की मोहरी..सब वाशिंग अपने से साफ नहीं करती जनाब! थोड़े हाथ भी चलाने पड़ते हैं।

छुट्टी में ए.सी.की जाली नहीं साफ़ करेंगे तब कब करेंगे?
......×××......×××.......××××.....×××.....×××..........
बनारस की गलियों में यह समस्या नहीं है कि गरमी प्रचण्ड है तो घर से बाहर कैसे निकलें? एक गमछा लपेटो, एक कंधे पर रखो और निकल कर बैठ जाओ पास के किसी पान/चाय की अड़ी पर। अरबपति भी छेदहा बनियाइन पहने, पान घुलाए बैठे दिख जाते हैं। बहरी अलंग गांवों में रहने वाले भी पूर्वजों के पुण्य प्रताप से लगाए किसी घने बरगद/नीम/आम के नीचे खटिया बिछा कर बेना डुलाते, बेल फोड़ते/घोलते, खैनी रगड़ते दिन काट लेते हैं। समस्या शहरी कॉलोनी में रहने वालों के लिए है। गरमी उनके सर पर चौतरफा तांडव करती है। ए.सी. कमरे से निकल कर मॉल में घुस सकते हैं लेकिन कितने दिन? अधिकतर तो दिखावटी रईस हैं! एक दिन के बाद दूसरे दिन से ही बजट गड़बड़ाने लगता है। भरे बाजार, बिगड़ता EMI नजर आने लगता है। पड़ोसी को कार निकालते देख चिढ़ने/खीझने लगते हैं। मुँह से बिगड़े बोल निकलने लगते हैं... बहुते गरमी चढ़ल हौ! जल्दिए दख्खिन में मिल जाई। अब इस वाक्य में गरमी का अर्थ सुरुज नारायण के धूप से नहीं, पैसे की प्रचुर मात्रा से है। 'दख्खिन में मिलना' एक अश्लील गाली है जिसे बनारसी ही समझ सकते हैं और दूसरे जो नहीं समझते, न ही समझें तो अच्छा है। बनारसी समझें तो कोई हर्ज भी नहीं, वे रोज ऐसी गाली देते/लेते रहते हैं। 
......×××......×××.......××××.....×××.....×××..........
एक दिन मैं, जेठ दुपहरिया के मध्यान में, सर पर गमछा लपेटे, हेलमेट पहने, ट्रेन पकड़ने, तारकोल की सड़क पर, बाइक चलाते हुए, अपनी धुन में, चला जा रहा था। बगल से चाँद खोपड़ी वाला, एक प्रौढ़, स्कूटी से गुजरा! मैं कभी अपना गमछा/हेलमेट सही करता, कभी उस चन्डुल को हैरत से देखता। तीखी सूर्य किरणों का ताप इतना ज्यादा था कि मेरे चप्पल से बाहर निकलती उँगलियाँ भी झुलस जाना चाहती थीं। यह शक्श कैसे इस धूप में सही सलामत, नङ्गे सर, स्कूटी चला रहा है! जैसे सूर्य की रोशनी पा, पूनम का चाँद चमकता है, वैसे ही उसकी दिव्य खोपड़ी दिनमान की आभा से देदीप्यमान थी। मन किया पूछ लूँ..भाई साहब! आपको गर्मी नहीं लग रही? 

तभी उसने स्कूटी साइड में करी, पिच्च से पान थूका और फोन में गरजने लगा..खोपड़ी धूप से भन्ना गयल हौ भो#ड़ी के! तू हउआ कहाँ?...

उसने आगे भी कुछ सांस्कृतिक शब्दों का प्रयोग किया होगा लेकिन मैं जल्दी में था और निकल लेने में ही अपनी भलाई समझी। सोचा..मैं भी कितना मूर्ख हूँ! बाल-बाल बचा। सूरज की गरमी उसके सर पर तांडव कर रही थी और मैं आग में घी डालने जा रहा था! 
......×××......×××.......××××.....×××.....×××..........

4.6.19

हे माँ शारदे !

कुछ शब्द दो
उछालूँ दर्द भर कर हवा में
नभ चीर कर बरसें बादल उमड़-घुमड़
भर जाए
ताल-तलैयों से
धरती का ओना-कोना
हरी-भरी हो
धरती।

कुछ शब्द दो
तट पर जा
अंजुलि-अंजुलि चढ़ाऊँ
स्वच्छ/निर्मल
कल-कल बहने लगे
गंगा।

कुछ शब्द दो
गूँथ कर पाप, सारे जहाँ के
हवन कर दूँ
बोल दूँ..
स्वाहा!

शब्दों से हो सकता हो चमत्कार तो
कुछ शब्द दो
दूर हो
पर्यावरण का संकट
जीवित रहें
जल चर, थल चर, नभ चर
मर जायें सभी
मनुष्य रूपी
भष्मासुर!
............