31.12.11

12 तक 11 होगा



12 तक 11 होगा 
अगले  पल फिर 12 होगा
एक लाभ तो  हुआ सुनिश्चित 
11 से अब 12 होगा

बड़े लोग हैं बड़े दिवाने 
रात रात भर दुआ करेंगे
इक दूजे को बड़े प्यार से
देखेंगे और छुआ करेंगे

बजा-बजा कर बम पटाखा
रात रात भर धुआँ करेंगे
दुःख देंगे धरती माता को
हमको भी सोने ना देंगे 

लगता है 
सबका सारा गम 
अब तो नौ दो ग्यारह होगा
नई सुबह की पौ फटते ही
पौ सबका अब 
बारह होगा

ले लो-ले लो 
मेरी बधाई
नींद आ गई 
सो जायेंगे
अंधियारे जो माल कटेगा
धर देना
उठकर खायेंगे

एक लाभ के स्वप्न लोक में
घूमो यारों 
तभी मजा है
एक बरष की उम्र कम हुई
सोचोगे तो 
क्या पाओगे।

.......................................

नव वर्ष मंगलमय हो।






लोकपाल की याद में.....


अस्सी में...पप्पू की अड़ी पर बैठा था। लोकपाल बिल पर बड़ी गरमा गरम बहस के बीच मैने कहा.."खौला चकाचक गुनगुना हो गया है, भारी गदा था झुनझुना हो गया है।" सभी कहने लगे..बहुत सही...आगे ? आगे घर आकर लिखा। अली सा से पूछा कि ठीक है ? वे बोले, "यहां-यहां गड़बड़ है बाकी सब ठीक है।" दूसरे वाले शेर के पहले मिसरे में खामियाँ बता कर वो बोले, "आप गज़ल लिख रहे हो, मतलब मुसीबत में हो। मैं मुसीबत मोल नहीं लेता।" मैने हामी भरी। गज़ल लिखना मतलब मुसीबत मोल लेना ही है। जो कहना चाहते हैं उसे  गज़ल में अभिव्यक्त कर पाना बड़ा ही कठिन काम है। उनके कहे अनुसार दूसरे शेर को सुधार दिया। वैसे भी समय कम मिलता है। तीन दिन बाद यह गज़ल पूरी हुई मान कर प्रकाशित कर रहा हूँ। इसमें आप भी प्रयास कर सकते हैं तो करें..और अच्छी गज़ल बन जाय। नव वर्ष 2012 में आप सभी पर ( मेरे बाद ) सरस्वती की कृपा बनी रहे। आप सभी बहुत अच्छा लिख पायें और खूब कमेंट पायें। अभी प्रस्तुत है बड़ी मेहनत से लिखी यह गज़ल ..झूठी तारीफ मत कीजियेगा । सही-सही बताइये कि कैसी है ?


खौला चकाचक गुनगुना हो गया है
भारी गदा था झुनझुना हो गया है।

मैली सही पर डुबकियाँ तो लगाओ
थैला अचानक दो गुना हो गया है।

गन्दा नहाता ही कहाँ सर्दियों में
चन्दन लगा कर चुनमुना हो गया है।

कैसी शरम किसका रहम-ओ-करम है
अपना 'सरौता' रहनुमा हो गया है।

हाकिम हमेशा जो कहे वो सही है
आदेश पढ़कर कुनमुना हो गया है।

पप्पू दुकनियाँ बड़बड़ाता बहुत है
घर में अकेले भुनभुना हो गया है।

....................................

23.12.11

दुश्मन कहीं का..!



सुबह ने कहा..

बहुत ठंड है, सो जाओ।

दिमाग ने कहा

उठो ! ऑफिस जाओ !!

धूप ने कहा..

यूँ उंगलियाँ न रगड़ो
आओ ! मजे लो।

दिमाग ने कहा

बहुत काम है !

शाम ने कहा….

घूमो ! बाजार में बड़ी रौनक है।

दिमाग ने कहा...

घर में पत्नी है, बच्चे हैं, जल्दी घर जाओ !

रात ने कहा...

मैं तो तुम्हारी हूँ
ब्लॉग पढ़ो ! कविता लिखो।

दिमाग ने कहा...

थक चुके हो
चुपचाप सो जाओ !

हे भगवान !
तू अपना दिमाग छीन क्यों नहीं लेता !!

……………………………………….
..............................

17.12.11

वृक्षों की बातें



भोर की कड़ाकी ठंड में, घने कोहरे की मोटी चादर ओढ़े गहरी नींद सो रहे पीपल की नींद, नीम की सुगबुगाहट से अचकचा कर टूट गई। झुंझलाकर बोला, तुमसे लिपटे रहने का खामियाजा मुझे हमेशा भुगतना पड़ता है ! इत्ती सुबह काहे छटपटा रहे हो ?” नीम हंसा..वो देखो..! वे दोपाये मेरी कुछ पतली टहनियाँ तोड़ ले गये। देर तक चबायेंगे। पता नहीं क्या मजा मिलता है इन्हें ! पीपल ने उन्हें ध्यान से देखा और बोला, हम्म...ये हमें भी बहुत तंग करते हैं। कल एक गंजा फिर आया था मेरी शाख में मिट्टी का घड़ा बांधने । समझता है मैं घड़े से पानी पीता हूँ। तब तक आम ने जम्हाई ली...लगता है सुबह हो गई। तुम लोग इन दोपायों की छोटी मोटी हरकतों से ही झुंझला जाते हो ! ये तो रोज मेरी डालियों को काटकर ले जाते हैं। जलाकर आग पैदा करते हैं फिर घेर कर गोल-गोल बैठ जाते हैं। इसमे उनको आनंद आता है। उनकी बातें सुनकर, घने जंगली लताओं के आगोश में दुबके, पूरी तरह सूख चुके, पत्र हीन कंकाल में बदल चुके एक बूढ़े वृक्ष की रूह भीतर तक कांप गई ! उसने लताओं से फुसफुसा कर कहा...सुना तुमने..! तुम ही मेरे सहारे नहीं पल-बढ़ रहे हो। मैं भी तुम्हारे सहारे जीवित हूँ। जब तक लिपटे हो तुम मुझसे, इन दोपायों की नज़रों से दूर हूँ मैं। शाम को एक बुढ्ढा दोपाया, छोटे-छोटे बच्चों के साथ अक्सर यहां आता है। मैने सहसूस किया है कि वह मुझे देख बहुत खुश होता है और बच्चों को अपने सीने से लगा लेता है।

नीचे, पेड़ों के पत्तों से धरती पर टप टप टप टप अनवरत टपक रही ओस की बूंदों से निकलती स्वर लहरियों में डूबी एक बेचैन आत्मा, इन वृक्षों की बातों से और भी बेचैन हो, धीरे से सरक जाती है।  
     ……………………………….................................................................................................

11.12.11

ओ दिसंबर !



ओ दिसंबर !
जब से तुम आये हो
नये वर्ष की, नई जनवरी
मेरे दिल में
उतर रही है।

ठंडी आई
शाल ओढ़कर
कोहरा आया
पलकों पर
छिम्मी आई
कांधे-कांधे
मूंगफली
मुठ्ठी भर-भर  
उतर रहे हैं लाल तवे से
गरम परांठे
चढ़ी भगौने
मस्त खौलती
अदरक वाली चाय।

ओ दिसम्बर !
जब से तुम आये हो
उम्मीदों की ठंडी बोरसी
अंधियारे में
सुलग रही है।

लहर-बहर हो
लहक रही है
घर के दरवज्जे पर
ललछौंही आँखों वाली कुतिया
उम्मीद से है
जनेगी
पिल्ले अनगिन
चिचियाते-पिपियाते
घूमेंगे गली-गली
भौंकेंगे
कुछ कुत्ते
नये वर्ष को
आदत से लाचार ।

ओ दिसंबर !
जब से तुम आये हो
गंठियाई मेरी रजाई
फिर धुनने को
मचल रही है।

भड़भूजे की लाल कड़ाही
दहक रही है
फर फर फर फर
फूट रही है
छोटकी जुनरी
वक्त सरकता
धीरे-धीरे
चलनी-चलनी
काले बालू से
दुःख के पल   
झर झर झरते
ज्यों चमक रही हो
श्यामलिया की
धवल दंतुरिया।

ओ दिसम्बर !
जब से तुम आये हो
इठलाती नई चुनरिया
फिर सजने को
चहक रही है।
...............................

8.12.11

चुहल ही चुहल में...


अलसुबह
घने कोहरे में
सड़क की दूसरी पटरी से आती
सिर्फ सलवार-सूट में घूम रही कोमलांगना को देख
मेरे सर पर बंधा मफलर
गले में
साँप की तरह
लहराने लगा !

वह ठंड को
अंगूठा दिखा रही थी
और मैं
आँखें फाड़
उँगलियाँ चबा रहा था।
................................

चुहल ही चुहल में ये पंक्तियाँ बन गईं। कल कमेंट बॉक्स बंद होने से कुछ साथी नाराज थे कि हमें भी चुहल का अवसर क्यों नहीं दिया ? आज खोले दे रहा हूँ। कर लीजिए जो कर सकते हैं..!

7.12.11

चुहल


अलसुबह
घने कोहरे में
सड़क की दूसरी पटरी से आती
सिर्फ सलवार-सूट में घूम रही युवती को देख
मेरे सर पर बंधा मफलर
गले में
सांप की तरह
लहराने लगा !

..........................

एक वे हैं जो ठंड को अंगूठा दिखाते हैं, एक हम हैं जो उन्हें देख आँखें फाड़ उंगलियाँ चबाते हैं।

सिर्फ मौज के लिए लिखा  है। पढ़िये और भूल जाइये।
और कुछ कर सकते थे क्या.....!
कमेंट बॉक्स बंद है।


3.12.11

पिता



चिड़ियाँ चहचहाती हैं 
फूल खिलते हैं 
सूरज निकलता है 
बच्चे जगते हैं 
बच्चों के खेल खिलौने होते हैं 
मुठ्ठी में दिन 
आँखों में 
कई सपने होते हैं 
पिता जब साथ होते हैं 

तितलियाँ 
उँगलियों में ठिठक जाती हैं 
मेढक 
हाथों में ठहर जाते हैं 
मछलियाँ
पैरों तले गुदगुदाती हैं
भौंरे 
कानों में
सरगोशी से गुनगुनाते हैं 
इस उम्र के 
अनोखे जोश होते हैं 
हाथ डैने
पैर खरगोश होते हैं 
पिता जब साथ होते हैं। 

पिता जब नहीं होते 
चिड़ियाँ चीखतीं हैं 
फूल चिढ़ाते हैं 
खेल खिलौने  
सपने 
धूप में झुलस जाते हैं 
बच्चे 
मुँह अंधेरे 
काम पर निकल जाते हैं 
सूरज पीठ-पीठ ढोते
शाम ढले 
थककर सो जाते हैं। 

पिता जब नहीं रहते 
जीवन के सब रंग 
तेजी से बदल जाते हैं 
तितलियाँ, मेढक, मछलियाँ, भौंरे 
सभी होते हैं 
इस मोड़ पर 
बचपने
कहीं खो जाते हैं 
जिंदगी हाथ से
रेत की तरह फिसल जाती है
पिता जब नहीं रहते 
उनकी बहुत याद आती है।

पिता जब साथ होते हैं 
समझ में नहीं आते 
जब नहीं होते 
महान होते हैं। 


.......................

1.12.11

चालाक बिल्ली



चालाक बिल्ली ने
सबसे सीधे चूहे को दिन दहाड़े पकड़कर कुर्सी पर बिठाया
और बोली
म्याऊँ-म्याऊँ !
बिल्ली के हटते ही चूहे के दोस्तों ने पूछा...
बधाई हो बधाई
यार !
तुमने तो ऊँची कुर्सी पाई !
मैडम क्या कहती हैं
यह तो बताओ ?

चूहा बोला
मैडम कहती हैं
म्याऊँ-म्याऊँ
इसका मतलब
यहां बहुत से चूहे हैं
तुम बैठक बुलाओ
मैं खाऊँ।
...............................


27.11.11

वह आया, घर के भीतर, चुपके से...!



वह
चुपके से आया।

वैसे नहीं
जैसे बिल्ली आती है दबे पांव किचेन मे
पी कर चली जाती है
सारा दूध

वैसे भी नहीं
जैसे आता है मच्छर
दिन दहाड़े
दे जाता है डेंगू

न खटमल की तरह
गहरी नींद
धीरे-धीरे खून चूसते

न असलहे चमकाते
न दरवाजा पीटते

वह आया
बस
चुपके से।

न देखा किसी ने, न पहचाना
सिर्फ महसूस किया   
आ चुका है कोई
घर के भीतर
जो कर रहा है
घात पर घात।

तभी तो...

कलकिंत हो रहे हैं
सभी रिश्ते 

धरे रह जा रहे हैं
धार्मिक ग्रंथ 

धूल फांक रहे हैं
आलमारियों में सजे
उपदेश

खोखले हो रहे हैं
सदियों के 
संस्कार

नहीं
कोई तस्वीर नहीं है उसकी मेरे पास
नहीं दिखा सकता
उसका चेहरा
नहीं बता सकता
हुलिया भी

मैं
अक्षिसाक्षी नहीं
भुक्त भोगी हूँ
ह्रदयाघात से पीड़ित हूँ
यह भी नहीं बता सकता 
कब आया होगा वह
सिर्फ अनुमान लगा सकता हूँ 


तब आया होगा
जब हम
असावधान
सपरिवार बैठकर
हंसते हुए
देख रहे थे
टीवी।

हाँ, हाँ
मानता हूँ
इसमें टीवी का कोई दोष नहीं
था मेरे  पास
रिमोट कंट्रोल।

.......................
अक्षिसाक्षी=चश्मदीद गवाह।