29.6.12

पहिये


रस्ते में
दिखते हैं रोज ही
कांपते/हाँफते/घिसटते/दौड़ते
अपनी-अपनी क्षमता/स्वभाव के अनुरूप
सड़कों पर भागते
पहिये।

इक दूजे पर गुर्राते/गरियाते
पीछे वाले के मुँह पर
ढेर सारा धुआँ छोड़/भागते
बस, ट्रक या ट्रैक्टर के

गिलहरी की तरह फुदकते
छिपकली की तरह
चौराहे-चौराहे सुस्ताते
ग्राहक देख
अचानक से झपटते
आटो के

चीटियों की तरह
अन्नकण मुँह में दबाये
सारी उम्र
पंक्ति बद्ध हो रेंगते
रिक्शों के

आँखों में सिमटकर
गालों पर फूलते
खिड़की के बाहर मुँह निकालकर
पिच्च से थूकते/पिचकते
हारन बजाकर
बचते बचाते भागते
कारों के

बचपन के किसी मित्र को
पिछली सीट पर लादे
इक पल ठिठकते, रूकते, कहते..
"कहिए, सब ठीक है न?"
दूसरे ही पल
गेयर बदल, चल देते
स्कूटर के

या फिर
आपस में गले मिलकर
ठठाकर हँसते
देर तक बतियाते
साइकिल के
पहिये।

रस्ते में
चलते-चलते
इन पहियों को
देखते-देखते
यकबयक
ठहर सा जाता हूँ
जब सुनता हूँ...
'राम नाम सत्य है!'

काँधे-काँधे
बड़े करीब से गुज़र जाती है
बिन पहियों के ही
अंतिम यात्रा।

............................

27.6.12

वर्षा से पहले.....


धान के इन बीजों को बारिश की प्रतीक्षा है।



कमल के इन फूलों को बारिश का भय है।



इन्हें न भय है न प्रतीक्षा। 



स्थानः वही जहाँ रोज घूमने जाता हूँ।
समयः 27-06-2012 की सुबह

25.6.12

कमल का तालाब






कमल-कुमुदनी से पटा, पानी पानी काम ।
घोंघे करते मस्तियाँ, मीन चुकाती दाम ।

मीन चुकाती दाम, बिगाड़े काई कीचड़ ।
रहे फिसलते रोज, काईंया पापी लीचड़ ।

किन्तु विदेही पात, नहीं संलिप्त  हो रहे ।
भौरे की बारात, पतंगे धैर्य खो  रहे ।।  
.................
इस चित्र को देखकर आशु कवि दिनेश गुप्ता जी ( कविवर रविकर ) ने इतनी सुंदर कुंडली लिखी कि इसे यहाँ लगाने से खुद को रोक नहीं पाया। आभार कविराज। 


स्थानः काशी हिंदू विश्व विद्यालय
समयः  25-06-2012 की सुबह
फोटूग्राफरः देवेन्द्र पाण्डेय। 



21.6.12

पहली बारिश में...



शाम अचानक
बड़े शहर की तंग गलियों में बसे
छोटे-छोटे कमरों में रहने वाले
जले भुने घरों ने
जोर की अंगड़ाई ली
दुनियाँ दिखाने वाले जादुई डिब्बे को देखना छोड़
खोल दिये
गली की ओर
हमेशा हिकारत की नज़रों से देखने वाले
बंद खिड़कियों के
दोनो पल्ले
मिट्टी की सोंधी खुशबू ने कराया एहसास
हम धरती के प्राणी हैं !

एक घर के बाहर
खुले में रखे बर्तन
टिपटिपाने लगे
घबड़ाई अम्मा चीखीं...
अरी छोटकी !
बर्तन भींग रहे हैं रे !
मेहनत से मांजे हैं
मैले हो जायेंगे
दौड़!
रख सहेजकर।

बड़की बोली
मुझे न सही
उसे तो भींगने दो माँ!
पहली बारिश है।

एक घर के बाहर
दोनो हाथों की उंगलियों में
ठहरते मोती
फिसलकर गिर गये सहसा
बाबूजी चीखे....
बल्टी ला रे मनुआँ..
रख बिस्तर पर
छत अभिये चूने लगी
अभी तो
ठीक से
देखा भी नहीं बारिश को
टपकने लगी ससुरी
छाती फाड़कर !

एक घर के बाहर
पापा आये
भींगते-भागते
साइकिल में लटकाये
सब्जी की थैली
और गीला आंटा
दरवज्जा खुलते ही चिल्लाये..
सड़क इतनी जाम की पूछो मत !
बड़े-बड़े गढ्ढे
अंधेरे में
कोई घुस जाय तो पता ही न चले
भगवान का लाख-लाख शुक्र है
बच गये आज तो
पहली बारिश में
अजी सुनती हो !
तौलिया लाना जरा…..
बिजली चली गई ?
कोई बात नहीं
मौसम ठंडा हो गया है !
…………………………….

16.6.12

इस प्यार को क्या नाम दूँ..?


साथी की तलाश में भटक रहा हूँ सबेरे-सबेरे


इसी को पटाता हूँ


मजा आयेगा! समझता क्यूँ नहीं ?


प्रेम की कोई जाति नहीं होती। मान भी जाओ....


हम लोग अच्छे दोस्त बन सकते हैं। 


देखो! यूँ मुँह ना मोड़ो, मैं तु्म्हें छोड़ने वाला नहीं।


अब मान भी जाओ।


अब ठीक है।


स्थानः वही.. जहाँ रोज सुबह घूमने जाता हूँ। काशी हिंदू विश्व विद्यालय, विश्वनाथ मंदिर के सामने की सड़क।
समयः सुबह 6 बजे के आसपास।
दिनांकः 16-06-2012
फोटू ग्राफरः देवेन्द्र पाण्डेय।

14.6.12

कंकरीट के जंगल से.....



आकाश से
झर रही है
आग
घरों में
उबल रहे हैं
लोग।

बड़की
पढ़ना छोड़
डुला रही है
बेना
छोटकी
दादी की सुराही में
ढूँढ रही  है
ठंडा पानी
टीन का डब्बा बना है
फ्रिज।

हाँफते-काँखते
पड़ोस के चापाकल से
पापा
ला रहे हैं
पीने का पानी
मम्मी
भर लेना चाहती हैं
छोटे-छोटे कटोरे भी।

अखबार में
छपी है खबर
शहर में
कम रह गये हैं
कुएँ
पाट दिये गये हैं
तालाब
नहाने योग्य नहीं रहा
गंगा का पानी
जल गया है
सब स्टेशन का ट्रांसफार्मर
दो दिन और
नहीं आयेगी
बिजली।
...........................

11.6.12

अच्छों की सूची प्रकाशित हुई....



फिसलन हुई तो फिसल जायेंगे
बुढ्ढे नही जो संभल जायेंगे।


अच्छों की सूची प्रकाशित हुई
 बताओ बुरे अब किधर जायेंगे।


न इधर के रहे न उधर के हुए
झूठी तारीफ लेकर क्या पायेंगे।
J

9.6.12

ब्लॉग चर्चा


."इहाँ रण्डी कS नाच होत हौ? जउन आ गइला कपारे पर! हमे खेले के होई तS खेलबे करब! शतरंज शांति से खेले वाला खेल हौ। तू लोग बीच-बीच में टिपिर-टिपिर बोल-बोल के ई काली कS लौण्डा के चाल बतइबा, हमार माथा खराब करबा, अउर जब हम हार जाब तS हिजड़न मतिन ताली पीटे लगबS! ईकउनो बात भइल?”
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S संझा कS खर्चा तोहरे घरे से आई? पहिले रोजी फिर रोजा। पेट भरल रही तS शतरंज तS खेले के हइये हौ।  वैसे भी ई बाजी में कुछ न होत। चौ-मोहरी (शतरंज के देशी रूप में चार मोहरे शेष रहने पर बाजी ड्रा हुई मान ली जाती थी।) हो जात।

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रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... J 

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जी हाँ, बात कर रहा हूँ अपने दूसरे ब्लॉग आनंद की यादें की नई पोस्ट (घोड़ा भागल टी री री री...) की। पता नहीं उसे लोग काहे नहीं पढ़ते!! बेचैन आत्मा की बेचैनी तो खूब झेलते हैं लेकिन यादों का आनंद उठाना ही नहीं चाहते! पढ़ते भी हैं तो कमेंट बेचैन आत्मा पर कर के चले जाते हैं। लोगों की अरूचि से मुझे भी लगा कि मैं बेकार का लिख रहा हूँ इसीलिए नहीं पढ़ते होंगे। यही कारण है कि उस पर लिखने के प्रति अरूचि सी जागृत हो गई। एक-एक पोस्ट  कई-कई महीने बाद लिखने लगा। लेकिन मित्र लोग कहते हैं कि इसके आगे आपकी कविता बेकार है। अब यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही कि कौन सच कह रहा है? यदि लोग यह समझते हों कि ताजी पोस्ट को समझने के लिए पूरी पोस्ट पढ़नी पड़ेगी तो मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि ऐसी कोई बात नहीं है। सभी पोस्ट एक दूजे से जुड़े होते हुए भी अपने आप में अभी तक तो पूर्ण हैं। 

अब कोई इस ब्लॉग की चर्चा नहीं कर रहा तो अपनी मजबूरी बनती है कि खुद ही इसकी चर्चा करूँ। चर्चा में खर्चा तो कुछ होने वाली नहीं। अपनी दही की तारीफ दुकानदार नहीं करेगा तो क्या कोई  दूसरा करेगा? फिल्म के हीरो-हीरोइन भी तो अपनी नई फिल्म का प्रमोशन करते हैं। मैं भी आनंद की यादें की नई पोस्ट का प्रमोशन कर रहा हूँ।:) 

इस बार यहाँ का कमेंट विकल्प बंद कर देता हूँ नहीं तो आप फिर यहीं टिपिया के चले जायेंगे और वहाँ झांकेगे भी नहीं। :)

कष्ट के लिए खेद है।:)

4.6.12

अपना अपना सबेरा


एक सुबह इनकी


सूरज नवजात शिशु सा और लहरें गोया स्वागत में हुलकना शुरू ही कर रही हों ! नदी के उस छोर से इस छोर तक सुनहले पुल सा पसर गया है आलोक !





नाव पर पैसे और बे पैसे वालों की सुबह है ये जबकि बाकी जनता को नगर निगम और उसकी जलापूर्ति से कोई लेना देना नहीं !


नदी घाटी योजनाओं का नियंत्रण / सुपरविजन और खर्चे का सारा दारोमदार श्वानों के हाथ में है!


जल ठहर सा गया है विदेशी मेहमान को आराम की ज़रूरत है ! उसके आराम और चप्पू पे चिपकी हथेलियों से छूट रहे     पसीने से कुछ पेट पलेंगे !


परिंदों को उम्मीद दानों की और दाने वाले हाथ पुण्य की लालसा में !

एक सुबह इनकी



बिजली के नंगे तारों संग जीना मरना स्तब्ध पेड़ कुछ डरे डरे !



आम (की) उम्मीद खास सबके लिए !



एक सुबह इनकी


                          परिंदों को दाने बिखेरती पुण्यात्माओं का इंतज़ार है !


कौओं की जो सुबह हुई तो गौरैयों की सुबह नहीं !


खिड़की पर के ए सी और बरामदे पर खड़ी बाइक का स्वाद इस जन्म में तो मिला नहीं, स्तब्ध मोर !

एक सुबह इनकी






एक सुबह इनकी


                 जब पेड़ की मोटी शाखों से पत्तों संग टहनियाँ टपकेंगी, वह सुबह कभी तो आयेगी!


फ्रेश एयर, ऑक्सीजन की तलाश तुम्हें होगी हमे तो रोजी रोटी का सवाल है !

नोटः अली सा ने एक-एक चित्र की नम्बरिंग करते हुए उन पर सुंदर कमेंट किये। मैने उन्हें यथा स्थान पहुँचा दिया। इस पोस्ट पर आयें कमेंट्स से श्रम सार्थक हुआ। ..आभार।

3.6.12

छुट्टे पशुओं का आतंक


आपके शहर में कितना है यह तो मैं नहीं जानता लेकिन बनारस में छुट्टे पशुओं का भंयकर आतंक है। नींद खुलते ही कानों में चिड़ियों की चहचहाहट नहीं बंदरों की चीख पुकार सुनाई पड़ती है। खिड़की से बाहर सर निकाले नहीं कि "खों...!" की जोरदार आवाज सुनकर ह्रदय दहल उठता हैं। आँख मलते हुए मुँह धोने के लिए उठे तब तक कोई बंदर कुछ खाने की चीज नहीं मिली तो आँगन से कूड़े का थैला ही उठाकर 'खों खों' करता छत पर चढ़कर चारों ओर कूड़ा बिखेरना प्रारंभ कर देता है। टाटा स्काई की छतरी टेढ़ी कर देना, फोन के तार उखाड़ कर फेंक देना या छत की मुंडेर की ईंट से ईंट बजा देना सामान्य बात है। कई बार तो बंदरों के द्वारा गिराई गई ईंट से गली से गुजर रहे राहगीर के सर भी दो टुकड़ों में विभक्त हो चुके हैं। मनुष्यों ने बंदरों का आहार छीना अब बंदर अपने आहार के चक्कर में आम मनुष्यों का जीना हराम कर रहे हैं। वे भी आखिर जांय तो जांय कहाँ? उनके वन, फलदार वृक्ष तो हमने 'जै बजरंग बली' का नारा लगाकर पहले ही लूट लिया है। गर्मी के दिनों में इन बंदरों का जीना मुहाल हो जाता है और ये हमारा जीना मुहाल कर देते हैं। रात में या भरी दोपहरी में तो नहीं दिखाई पड़ते, कहीं छुपे पड़े रहते हैं लेकिन सुबह- शाम भोजन की तलाश में एक छत से दूसरी छत पर कूदते फांदते नजर आ ही जाते हैं। किशोर बच्चों के लिए इनका आना कौतुहल भरा होता है। ले बंदरवा लोय लोय के नारे लगाते ये बच्चे बंदरों को चिढ़ाते-फिरते हैं। बंदर भी बच्चों को खौंखिया कर दौड़ाते हैं। इसी बंदराहट को देखकर  बड़े बूढ़ों ने कहा होगा..बच्चे बंदर एक समान। मामला गंभीर हो जाने पर बच्चों के पिता श्री, लाठी लेकर बंदरों को भगाने दौड़ पड़ते हैं। एक बच्चा छत में गहरी नींद सो रहा है। कब भोर हुई उसको पता नहीं। घर के और सदस्य नीचे उतर चुके हैं। उसकी नींद दूसरे घरों की छतों पर होने वाली चीख पुकार सुनकर खुल जाती है। देखता है, उसी के छत की मुंडेर पर बंदरों का लम्बा काफिला पीछे की छत से एक-एक कर आता जा रहा है और सामने वाले की छत पर कूदता फांदता चला जा रहा है। काटो तो खून नहीं। डर के मारे घिघ्घी बंध जाती है। सांस रोके बंदरों के गुजरने की प्रतीक्षा करते हुए मन ही मन हनुमान चालिसा का पाठ करने लगता है...जै हनुमान ज्ञान गुन सागर, जै कपीस तिहुँ लोक उजागर... ! कपि के भय से कपि की आराधना करता बालक तब कपि समान उछल कर नीचे उतर जाता है जब उसे ज्ञान हो जाता है कि अब कपि सेना उसके घर से प्रस्थान कर चुकी है। नीचे उतर कर वह खुशी के मारे जोर से चीखता है..ले बंदरवा लोय लोय।

बंदर पुराण खत्म हुआ। आप नहा धोकर भोजनोपरांत घर से बाहर निकलने को हुए तब तक आपकी निगाह अपने बाइक पर गयी। गली का कुत्ता उसे खंभा समझ कर मुतार चुका है! अब आपके पास इतना समय नहीं है कि आप पाईप लगाकर गाड़ी धो धा कर उसपर चढ़ें। 'मुदहूँ आँख कतो कछु नाहीं' कहते हुए बिना किसी से कुछ शिकायत किये कुक्कुर को आशीर्वचन देते हुए घर से प्रस्थान करते हैं तभी पता चलता है कि आगे सड़क जाम है। पूछने पर पता चलता है कि सांड़ के धक्के से गिरकर एक आदमी  बीच सड़क पर बेहोश पड़ा है। माथे से खून बह रहा है। लोग उसे घेर कर खड़े सोंच रहे हैं कि जिंदा है/ उठाया जाय या मर चुका/ उठाना बेकार है। तब तक पुलिस आ जाती है और सड़क/भीड़ साफ होती है। बुदबुदाते हुए बाइक आगे बढ़ाता हूँ..रांड़, सांड़, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचे तS सेवे काशी। :)

दफ्तर से लौटते वक्त बाइक जानबूझ कर धीमे चलाता हूँ। शाम के समय   दौडती भैंसों की लम्बी रेल से भी सड़क जाम हो जाती है। इनके धक्के से साईकिल सवार कुचले जाते हैं। इन पालतू पशुओं के अतिरिक्त छुट्टे सांड़ का आतंक बनारस में बहुतायत देखा जा सकता है।  न जाने कहाँ से कोई सांड़, गैया को दौड़ाते-दौड़ाते अपने ऊपर ही चढ़ जाय !  

ज्येष्ठ को दोपहरी में तपते-तपाते घर पहुँचे तो देखा, लड़का रोनी सूरत बनाये बैठा है! पूछने पर पता चला..साइकिल चलाकर स्कूल से घर आ रहा था कि रास्ते में गली के कुत्ते ने दौड़ा कर काट लिया। चलो भैया, लगाओ रैबीज का इंजेक्शन। अब पहले की तरह 14 इंजेक्शन नहीं लगाने पड़ते नहीं तो बेटा गये थे काम से। सरकारी अस्पताल में ट्राई करने पर सूई मिलने की कौन गारंटी? आनन-फानन में जाकर एक घंटे में मरहम पट्टी करा कर इंजेक्शन लगवाकर घर आये तो चाय पीन की इच्छा हुई। पता चला... दूध नहीं है। दूध बिल्ली जुठार गई! अब कौन पूछे की दूध बाहर क्यों रखा था? जब जानती हो कि बिल्ली छत से कूदकर आंगन में आ जाती है। यह पूछना, अपने भीतर नये पशु को जन्म देने के समान है।:) शाम को फिर से घंटा-आध घंटा के लिए बंदरों का वही आंतकी माहौल। जैसे तैसे नाश्ता पानी करके समाचार देखने के लिए टीवी खोला तो पता चला टीवी में सिगनल ही नहीं पकड़ रहा है। ओह! तो फिर बंदर ने टाटा स्काई की छतरी टेढ़ी कर दी!! भाड़ में जाय टीवी, नहीं चढ़ते छत पर। ब्लॉगिंग जिंदाबाद। देखें, ब्रॉडबैण्ड तो ठीक हालत में है। शुक्र है भगवान का। बंदरों ने फोन का तार नहीं तोड़ा।

खा पी कर गहरी नींद सोये ही थे कि रात में बिल्ली के रोने की आवाज को सुनकर नींद फिर उचट गई। आंय! यह बिल्ली फिर आ गई! दरवाजा तो बंद था! बिजली जलाई तो देखा दरवाजा खुला था। ओफ्फ! अब इसे भगाने की महाभारत करनी पड़ेगी। इस कमरे से भगाओ तो उस कमरे की चौकी के नीचे घुस जाती है। हर तरफ जाली लगी है सिवाय घर में प्रवेश करने वाले कमरे और आँगन में खुले छत के। उसके निकलने के लिए एक ही मार्ग बचा है। घर के सभी सदस्य रात में नींद से उठकर बिल्ली भगा रहे हैं!  मकान मालिक से कई बार कह चुका हूँ कि भैया इस पर भी जाली लगवा दो लेकिन वह भी बड़का आश्वासन गुरू निकला, "काल पक्का लग जाई...!"  बिल्ली जिस छत से घर के आँगन में कूदती है, वहीं से चढ़कर भाग नहीं सकती । इस कमरे से उस कमरे तक दौड़ती फिरेगी। फिर रास्ता न पा किसी के बिस्तर को गीला करते हुए, कहीं कोने बैठ म्याऊँ- म्याऊँ करके रोने लगेगी। बिल्ली न रोये, चुपचाप पड़ी रहे तो भी ठीक। कम से कम रात की नींद में खलल तो न होगी। लेकिन वह भी क्या करे? इस घर में तो दूध-चूहा कुछ  मिला नहीं। पेट तो भरा नहीं। दूसरे घर में नहीं तलाशेगी तो जीयेगी कैसे ?

विकट समस्या है। यह समस्या केवल अपनी नहीं है। आम शहरियों की समस्या है। किसी की थोड़ी किसी की अधिक। लाख जतन के बावजूद किसी न किसी समस्या से रोज दो चार होना ही पड़ता है। जरूरी नहीं कि एक ही दिन बंदर, बिल्ली, कुत्ते, सांड़ सभी आक्रमण कर दें लेकिन यह नहीं संभव है कि आप इनसे किसी दिन भी आतंकित होने से बच जांय। आंतक के साये में तो आपको जीना ही है। सावधान रहना ही है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। मुझे याद है एक बार कई दिन जब फोन ठीक नहीं हुआ तो मैने बी एस एन एल दफ्तर में फोन किया। फोन किसी महिला ने उठाया। मैने उनसे पूछा, "मैडम! मेरे फोन का तार बंदर प्रायः हर महीने तोड़ देता है, इसका कोई परमानेंट इलाज नहीं हो सकता?" उन्होने तपाक से उत्तर दिया.."क्यों नहीं हो सकता? हो सकता है। एक काम कीजिए, आप एक लंगूर पाल लीजिए।" अब इतना बढ़िया आइडिया सरकारी दफ्तर से पाकर तबियत हरी हो गई। मैने सोचा कि इसी तर्ज पर क्यों न हम भी इस समस्या के परमानेंट इलाज के लिए नये-नये आईडियाज की तलाश करें। 

बहुत सोचने के बाद एक बात जो मेरी समझ में  अच्छे से आ गई कि हम लाख परेशान सही लेकिन हमारी परेशानियों के लिए इन जानवरों का कोई दोष नहीं। जिस किसी जीव ने धरती में जन्म लिया उसे भोजन तो चाहिए ही । अपनी भूख मिटाने के लिए श्रम करना कोई पाप तो है नहीं। अब यह आप को तय करना है कि आप इनसे कैसे बचते हैं? आपको छत में कूदते बंदर, गली में घूमते कुत्ते, बीच सड़क पर दौड़ते सांड़ नहीं चाहिए तो फिर इनके रहने और भोजन के लिए परमानेंट व्यवस्था तो करनी ही पड़गी। आखिर जानवरों को इस तरह दर दर इसीलिए भटकना पड़ रहा है क्योंकि आपने अपने स्वार्थ में इनके वन क्षेत्र को शहरी क्षेत्र में बदल दिया। अंधाधुंध जंगलों की कटाई की और खेती योग्य जमीन में कंकरीट के जंगल उगा दिये। क्यों न हम वृद्धाश्रम की तर्ज पर वानराश्रम, कुक्कुराश्रम, नंदी निवास गृह की स्थापना के बारे में शीघ्रता से अपनी सोच दृढ़ करें और सरकार से प्रार्थना करें कि इन जानवरों के रहने, खाने- पीने की समुचित व्यवस्था करें। भले से इसके लिए हमे अपनी आय का कुछ एकाध प्रतिशत टैक्स के रूप में सरकारी खजाने में जमा कराना पड़े। इस तरह हम सभ्य मानव कहलाकर शांति पूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं। आप या तो इस आइडिया पर मुहर लगाइये या दूसरा बढ़िया आइडिया दीजिए ताकि हम कह सकें.."व्हाट एन आइडिया सर जी!"
.....................................................................................................

2.6.12

बंदर



बंदर
टेढ़ी कर देते हैं
टाटा-स्काई की छतरी
तोड़ देते हैं
फोन के तार
घुस आते हैं
कीचन में
उठा ले जाते है
फल या ताजी बनी रोटियाँ
नहाते हैं
पानी की टंकी में घुस कर
डालते है
दिन दहाड़े डाका
हम
लाठी लेकर
बमुश्किल
खुद को
बचा ही पाते हैं।

अकेले हों तो
भले भाग जांय
मगर जब होते हैं झुण्ड में
नतमस्तक हो
खुद ही भागना पड़ता है
इनसे

हमारी तरह चलती है
इनकी सरकार
इनकी संसद
इनके कानून

आपकी श्रद्धा और विश्वास का
ये भी उठाते हैं
भरपूर लाभ

देखा है
संकट मोचन के बंदर
खाते हैं
चने के साथ
शुद्ध देशी घी के
लड्ढू भी !
......................... 

नोटः आपका ब्लॉग न पढ़ पाने के पीछे इन बंदरों का भी बहुत बड़ा हाथ है।:)