26.6.16

शादी की वर्षगांठ

शादी की वर्षगांठ एक कलैंडर वर्ष में आने वाली वह तारीख है जिस दिन गठ बंधन हुआ था और आगे से सामाजिक रूप से साथ रह कर काम करने और प्रेम करने की छूट मिली थी। शुरू के वर्ष तो धकाधक, चकाचक, फटाफट कट जाते हैं मगर प्रेमी-प्रेमिका से माता-पिता बनने के बाद दायित्व बोझ के तले आगे के वर्ष काटे नहीं कटते। ज्यों-ज्यों घटना की तारीख नजदीक आती जाती है, पत्नी के मन में खुशियों के लढ्ढू फूटने लगते हैं, पती के मन में खर्च की गांठ बनने लगती है। कुछ लापरवाह किस्म के पती घटना को दुर्घटना मान भूल जाते हैं और एन वक्त पर याद दिलाये जाने पर चारों खाने चित्त हो, पत्नी को बहकाने का असफल प्रयास करते हुए आगे-पीछे घूमते पाये जाते हैं। कुछ सावधान, चालाक किस्म के पती, आसन्न खतरे को भांप कर, पूरी तैयारी से रहते हैं और किस्मत ने साथ दिया तो अच्छे पती बनकर प्यार पाते हैं। कुछ तमाम कोशिशों के बावजूद पत्नी को खुश नहीं कर पाते तो तुलसीदास जी को याद कर संतोष करते हैं-हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश हरि हाथ!
आधुनिक जीवन में अपने छोटे से छोटे सतकर्म का भी आभासी दुनियाँ में जोर-शोर से ओटू-फोटू चस्पा कर डंका बजाने और प्रशंसा पाने का रिवाज है। यह सीख हमें अपने प्रधानमंत्री जी से मिली या हमसे उन्होने सीखा, शोध का विषय है। चाहे जो भी हो, मित्र शादी के वर्ष गांठ का डंका फेसबुक में खूब बजाते हैं। आज मेरी 18 वीं है, आज मेरी 25 वीं है, आज मेरी 34 वीं है, आज मेरी.....। जिसकी जितनी ज्यादा वो उतना खुश दिखाई देता है। उसे यह समझ में नहीं आता कि 2-3 बच्चे होने के बाद यम के अलावा किसी में दम नहीं है कि उन्हें जुदा कर सके। यह गांठ उन्हें हर वर्ष कस कर बांधनी ही है । वे नहीं बांधेंगे तो बच्चे बांध ही देंगे। अब उनकी हालत पिंजड़े के पंछियों की तरह है जिसकी चाभी बच्चों के हाथ है।

22.6.16

आप सब जानते हैं सरकार!

(१)
स्कूल में
घोड़े भी थे
लेकिन टाप किया
एक गधे ने।
अरे! यह कैसे हुआ?
आप सब जानते हैं सरकार!
.....................

(२)
स्कूल मे
आम के
कई वृक्ष थे
आम
न विद्यर्थियों को मिले 
न शिक्षकों को।
फिर कौन खाया?
आप सब जानते हैं सरकार!
...........................

(३)
स्कूल में
चपरासी कुर्सी पर बैठा था
बाबू
कक्षा में पढ़ा रहा था
अध्यापक
हिसाब-किताब देख रहे थे
प्रधानाचार्य
फ़ाइल ढूंढ रहे थे.
अरे! सब उल्टा-पुल्टा कैसे?
आप सब जानते हैं सरकार!
................................

(४)
दफ्तर में
जब अधिकारी था
बाबू नहीं
जब बाबू था
अधिकारी नहीं 
दोनों थे
मगर फाइल नहीं मिली
दैव संयोग!
एक दिन ऐसा भी आया
जब सभी थे।
तब तो काम हो गया होगा?
अफसोस!
उस दिन साहब का मूड ठीक नहीं था।
अरे! तब काम कैसे हुआ?
आप सब जानते हैं सरकार!!!
................................

12.6.16

गाय

‘प्रणाम’ कपिला’ आर्य प्रकाशन मंडल नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक है जिसका संकलन एवं संपादन श्री देवेन्द्र दीपक जी द्वारा किया गया है. इस पुस्तक में मेरी इस कविता सहित ‘गाय’ पर केन्द्रित कुल १३४ कवियों की १४५ कवितायेँ हैं. यह कविता मैंने ७-८ साल पहले लिखी थी जब इस पुस्तक के लिए मुझसे गाय विषय पर कविता लिखने का आदेश मिला था. कल जब यह पुस्तक मिली तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. यह अपने ढंग की अनूठी पुस्तक है कि इसमें एक ही विषय ‘गाय’ पर अलग-अलग कवियों की कविताओं का संग्रह है. 

गाय 
.........
गाय हमारी माता है,
सफ़ेद, काली, चितकबरी, सुन्दर,
हमेशा मीठा दूध देने वाली,
माँ.
मगर एक प्रश्न
हमेशा सालता है
कि क्या गाय
‘दूध' हमारे लिए देती है?
क्या दुनियाँ की कोई माँ
दूसरों के बच्चों के लिए
दूध देती है?
कहीं ऐसा तो नहीं
कि हम
उसके बच्चों का दूध
खुद पी जाते हैं
इसलिए कि वह
बहुत सीधी है!

मैंने देखे हैं
ठण्ड से ठिठुरकर मरते
गायों के ‘नर’ बच्चे
मैंने देखा है
अपना बच्चा समझकर
लकड़ी के पुतले को
चाटती, पुचकारती, खूंटे से बंधी गाय
और
उसके दोनों पैरों को बाँध कर
दूध दुहता
आदम पुत्र!

क्यों जिन्दा रह जाते हैं
गाय के मादा बच्चे?
क्यों मर जाते हैं
‘नर’ ?
कहीं इसलिए तो नहीं
कि अब हमारे खेत
ट्रैक्टर से जोते जाते हैं!
“गाय हमारी माता है.”
सुनने में कितना अच्छा लगता है
यह वाक्य,
लगता है जैसे हम कितने महान हैं
जो जानवरों को भी
‘माँ’ का दर्जा देना जानते हैं.
मगर एक प्रश्न
गाय हमारी माता है
तो क्यों थन सूखने के बाद
छोड़ दी जाती हैं गलियों में
कूड़ाघरों से पौलीथीन के
गंदे थैले खाने के लिए?

निःसंदेह
‘माँ’ की तरह
सब कुछ न्योछावर करती है ‘गाय’
न होती तो
दूध के लिए
तरस कर रह जाते
हमारे बच्चे!
दुःख इस बात का है कि
नहीं पिला पाती अभागी
सिर्फ अपने बच्चों को ही
जी भर के दूध
पी जाते हैं सब के सब आदमजात.

क्या करते हैं हम
‘गोमाता’ के लिए
ले-देकर
जी बहलाने के लिए
यही एक संतोष
कि हम अच्छे हैं उनसे
जो करते हैं
गो हत्या!

क्षमा करना ‘माँ’
जो मुझसे कोई तकलीफ पहुँची हो
शर्मिन्दा हूँ
कि नहीं चुका पाया आज तक
तुम्हारे दूध का मूल्य
नहीं कर पाया
तुम्हारी रक्षा.
...................

उसके दो मुँह हैं!

उसके चार हाथ हैं
दो से
काम करता है
दो से
अपनी पीठ थपथपाता है।
उसके चार पैर हैं
दो से
आगे जाता है
दो से
पीछे आता है।
वह
आज भी
वहीं खडा़ है
जहाँ से
चलना शुरू किया था
मगर
आकाश मे उठ रहे
धूल-धुएं को देख समझता है कि
मीलों चल चुका!
और...
उसके दो मुँह हैं
एक से
सबकी आलोचना करता है
दूसरे से
अपनी तारीफ करता है।
................................

बरखा रानी! तुम कब आओगी?



बरखा रानी! तुम कब आओगी? अभी चार दिन पहले की बात है. रात का समय था. धूल भरी आँधी में वृक्ष की शाखों से झर-झर झर रहे थे सूखे पत्ते. बिजली चमकी थी. बादल गरजे थे. क्या अदा से आई थी तुम! मैंने तुम्हारे स्वागत में गीत भी लिखे थे.. पहली बारिश में. तुम एक घंटे के लिए आई और मैं पूरी रात भीगता रहा. पहली के बाद फिर दूसरी नहीं हुई. हाय! तुझे किसकी नजर लग गई? तुझे याद करते हैं अभी तक मेरी गली के गढ्ढे. तू फिर कब आयेगी मेरी दामिनी?
मेरे शहर में सूरज इतना आग उगल रहा है कि दो दिन की छुट्टियाँ घर में कैद हो बीत गईं. सुबह ज़रा सी आँख क्या लगी, सबेरा उड़न छू हो गया! आँख खुलते ही देखा मार्निंग, गुड बाय करता भगा जा रहा है और घरों की लम्बी परछाइयां उसे पकड़ने का असफल प्रयास कर रही हैं. जल्दी-जल्दी तैयार हो कर साइकिल निकाला तो सूरज हंसने लगा...अब निकले हो बच्चू! अभी तुम्हें पसीने से ऐसा नहलाता हूँ कि सारी मार्निंग वाक भूल जाओगे. गई तुम्हारी मार्निंग, रात के संग. अब मेरा साम्राज्य है!
मैंने बादलों की ओर कातर भाव से देखा दूर-दूर तक नीला आकाश और खिलखिलाता सूरज. मुझे गुस्सा आया...ठहरो! इतना आग मत उगलो. अभी असाढ़ है, आगे....सावन, भादों . तुम्हें कीचड़ में डुबो कर गेंद की तरह खेलेंगे गली के बच्चे. मेरे देश में किसी की तानाशाही नहीं चलती. सूरज और ठठाकर हंसने लगा. मैं सकपका कर साइकिल और तेज चलाने लगा.
चाय-पान की दूकान पर मेरी साइकिल खड़ी हुई तब तक मैं पसीने से नहा चुका था. मार्निंग वाक का नशा उतर चुका था. पान वाला मुझे देख हंसने लगा-पंडित जी! दुपहरिया में मार्निंग वाक होला? मैंने उसे चुप कराया...पढ़ल-लिखल त हउआ नाहीं. विटामिन डी लेवे बदे दुपहरिया में घूमल जाला. वो भी कहाँ मानने वाला था... जाड़ा में विटामिन डी लिया, अभहिन चा.. पीया और घरे जा के सूता. लू लग जाई त कुल भुला जाई.
हे बरखा रानी! वो सुबह थी और यह शाम होने का समय. पारा वैसे ही चढ़ा हुआ है. कमरे से बाहर निकलते ही लगता है जैसे आग जल रही है. जांयें तो कहाँ जाएँ ? इतनी विशाल धरती के होते हुए भी हम घर में कैद हो कर रह गए. तुम कब आओगी? आओ तो अपनी भी सांस आये. सूख रहे पौधों में जान आये. पंछियों का कलरव गान आये. बच्चे वाट्स एप में कितना लिखेंगे..मिस यू, लव यू, ? आओ तो फिर हसीन शाम आये. मेंढक-झींगुरों की जुगलबंदी में राग बरसाती सुने पूरे एक बरस हुये. आओ बरखा रानी! केरल को छोड़, अपने पूर्वी उत्तर प्रदेश में आओ..यहाँ तुम्हारे स्वागत में नव अंकुरित होने वाले कवियों की पूरी फ़ौज मिलेगी. तालाब भले ही भू-माफियाओं ने हड़प लियें हों, बीच सडक में बड़े-बड़े गड्ढे तो हैं ही. नयी बनी कालोनियों के हसीन आँगन-दरवाजे तुम्हारी राह तक रहे हैं. आओ! जो मान तुम्हें केरल में न मिला, हमारे उत्तम प्रदेश में मिलेगा.

5.6.16

चार कवितायेँ

(१)
भरम 
दौड़
घर से मन्दिर तक
परसाद पेट में
दुनियाँ
मुठ्ठी में!
..............
(२)
धूप 

धूप 
धरती पर
घूमने चली।

भीग गये कपड़े
बादल ने किये झगड़े
हो गई पागल
दिखी कोई बदली 

धूप
कलियों को
चूमने चली।
..................
(३)
चिड़िया 
आ चरी आ
खा चरी खा
पढ़ चरी पढ़
पिंजड़ा लिख
सपना लिख
कैद हो जा
उड़ गई तो बाज पकड़ ले जायेगा!
................................
(४)
सत्य 
डाल से गिरे
छत-आँगन में फैले
गंध हीन
मरे पत्ते
ढेर बने
आग मिली
धुआं-धुआं
जले पत्ते
वृक्ष ने कहा..
'यही सत्य है!'
दो-चार और..
झरे पत्ते.

लोहे का घर -16

फिफ्टी अपने रंग में है। जफराबाद से छूटी तो अब यह खालिसपुर में जाकर दम लेगी। भीड़ है‪#‎ट्रेन‬ में। जहां जगह मिली वहीं बैठे हैं रोज के यात्री। खिड़की से दिख रहे हैं चौपाये, दो पाये, हवा में उड़ते परिंदे और दूर क्षितिज में डूबता सूरज। इस समय कभी लौटती होंगी कान्हा के साथ गायें। उड़ती होगी धूल। शायद इसीलिए कहते होंगे इसे गो धूली की बेला! अब नहीं दिखतीं गायें, अलबत्ता दिख जाती हैं भैसें। भैंस चराने वालों को कान्हा बनने का सौभाग्य कैसे मिले! इसके लिये तो चरानी पड़ेगी गायें, बजानी पड़ेगी बंशी। भैंस तो बीन की आवाज सुन कर भी खड़ी पगुराती रहती है। गाढ़ा दूध और मीठे दूध में बड़ा फर्क है।
अँधेरा हो रहा है। बाबतपुर हवाई अड्डे पर जल चुकी हैं बत्तियाँ। लोहे के घर में भी जल चुकी हैं लाइटें। सूरज के डूबते ही प्रकाश का जुगाड़ कर लेते हैं दो पाये। परिंदों को चुप हो घोंसले में रहना पसन्द है। अँधेरे में क्या करते होंगे परिंदे सारी रात! इतनी लम्बी नींद तो नहीं होगी उनकी भी। इनके घोसलों में भी टी वी लगी होती तो ये क्या देखना पसन्द करते? संसद की कार्यवाही तो नहीं ही देखते, डिस्कवरी चैनल देखते शायद। मोर का नृत्य और कोयल के गीत पर मस्त होते।
भंडारी स्टेशन में गोदिया आ चुकी है, किसान आने वाली है। दो-दो ट्रेन है किसमे बैठा जाय, किसे छोड़ा जाय! गोदिया 8.15 में छूटेगी, किसान आई तो आते ही चल देगी। किसान दूर से आते दिख रही है। कौन-सी ‪#‎ट्रेन‬ पकड़ी जाय?
किसान सामने आ कर खड़ी हो गई। गोदिया प्लेटफॉर्म नम्बर 5 से बुला रही थी। हम आलसी, जो सामने थी उसी पर बैठ गये। अब यह पहले चले तो बात बने। खड़ी है। 1.30 घण्टे लेट है मगर चल नहीं रही। लो! चल दी। 2 मिनट ही सही, गोदिया से पहले छूटी। अब देखने वाली बात यह है कि कौन पहले बनारस पहुंचेगी! दूसरे के दुःख से सुखी और दूसरे के सुख से दुखी रहने वाले हम आम आदमियों के लिये 10 मिनट लेट या पहले पहुँचना कितना महत्वपूर्ण होता है!

जलाल गंज से आगे बढ़ चुकी है अपनी किसान। अब इसका को स्टापेज नहीं। गोदिया अभी पीछे है। अब यह तय हो चूका है कि यही पहले पहुंचेगी। मेरे आस पास थके मांदे सिंगल यात्री ही बैठे हैं। कोई जोड़े से या बच्चों के साथ नही। मनहूसियत से ऊँघ रहे हैं सभी। पटरियाँ बदलती, खटर-पटर की तेज धुन सुनाती, भागी जा रही है ‪#‎ट्रेन‬। शोले की बसन्ती बैठी होती इसकी बोगी में तो चीख ही पड़ती-' चल धन्नो! आज तेरी इज्जत का सवाल है, गोदिया को आगे मत बढ़ने देना! मगर यहां तो हम अकेले ए. के. हंगल की तरह हवा में अकेले प्रश्न उछाल रहे हैं-इतना सन्नाटा क्यों पसरा है भाई?

लोहे के घर की खिड़कियों से झांकता अँधेरा, बोगी में ऊंघते लोग! इक्का-दुक्का मेरी तरह मोबाइल में आभासी दुनियां से जुड़े हैं। वर्तमान और हकीकत से मुँह मोड़, आभासी दुनियाँ में सुंदर-मुन्दर दिखते, अच्छे-सच्चे दिखते लोग। बनारस करीब आते ही नींद से जाग जायेंगे। लोहे के घर को छोड़ अपने-अपने घर की ओर भागने लगेंगे। अभी एक दूसरे के परम हितैषी दिखते हैं, प्लेटफॉर्म में उतरते ही किसी के पास किसी के लिये एक पल का समय नहीं होगा।
भंडारी स्टेशन जौनपुर में घोषणा हो रही है-'कृपया ध्यान दीजिए! मुरादाबाद, लखनऊ के रास्ते फिरोजपुर छावनी से चलकर वाराणसी, मुगलसराय के रस्ते धनबाद तक जाने वाली गाड़ी नम्बर 13308 प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर आ रही है।'

बहुत देर कर दी! हुजूर आते-आते। फिफ्टी छूट गई, और तूने रुला दिया। बगल में बैठा एक अपरिचित यात्री घोषणा सुन रहा है फिर भी मुझसे बार-बार पूछ रहा है-किसान कब आएगी? वह सोच रहा है कि मैं मोबाइल में ट्रेन ही ढूंढ रहा हूँ। उसे यह भी नहीं पता कि जिस ट्रेन की घोषणा हो रही है उसी का पुराना नाम किसान है।

प्लेटफॉर्म में इतनी देर तक बैठा कि अब ‪#‎ट्रेन‬ में बैठने की ताकत नहीं बची। चढ़ते ही साइड अपर खाली बर्थ ढूंढ कर लेट गया। नीचे से बगल में कुछ पागल चुनावी चर्चा करते-करते चीखने-चिल्लाने लगे हैं। दोनों जाति समर्थक लगते हैं। एक दूसरे द्वारा समर्थित पार्टियों के नेताओं को जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल कर गाली भी दे रहे हैं और ऐसा न करने की चेतावनी भी दे रहे हैं बहस सुन कर लग रहा था कि ये अभी आपस में मार कर लेंगे मगर यह क्या! हंस-हंस कर दाना खा रहे हैं!!!
इनके माथे की लकीरों पर साफ़ लिखा है-हम नहीं सुधरेंगे।
जब-जब चुनाव आता है तब-तब विकास की बातें पीछे छूट जाती है। सबकी खोपड़ी पर सवार हो जाता है जाति वाद का जिन्न। ऐसे में कोई सरकार क्यों विकास की चिंता करे जब आपको वोट अपने जाति समीकरण के आधार पर ही देना है? कोई सरकार किसी भी मजदूर संघठन से क्यों डरे? क्या कोई संघठित होकर अपनी मांगों के न माने जाने के लिये सरकार पर यह दबाव बनाने की स्थिति में नहीं है कि मांगे पूरी नहीं हुई तो हम तुमको वोट नहीं देंगे? धमकी भले दे दे मगर हर संघठन के नेता अच्छी तरह जानते हैं कि इनके आह्वान पर कर्मचारी दफ्तर में काम बन्द कर धरना तो दे सकते हैं, वोट नहीं दे सकते।
फिक्स वोटों के अतिरिक्त कुछ वोट ऐसे होते हैं जो भावनाओं में भटक कर अंतिम समय में अपना निर्णय बदलते हैं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो विकास को भी ध्यान में रख कर वोट देते हैं। यही कारण है कि सरकारें विकास के कार्यों, जनता की भलाई के कार्यों के अतिरिक्त भावनात्मक मुद्दे भी उछालती है। वह् जानती है कि पूर्ण बहुमत पाना है तो दूसरी बिरादरी के उन 10 प्रतिशत सीधे-सादे लोगों का वोट पाना है जो भावनाओं में भटककर या विकास के कार्यों को देख कर वोट देती हैं।
हम देश में ईमानदारी ला देंगे, न खाएंगे न खाने देंगे, मन्दिर वहीं बनाएंगे, मुफ़्त में गिफ्ट बाटेंगे, शराब बन्द कर देंगे, अपराधियों की जगह जेल में होगी, काला धन वापस ला देंगे.. और ऐसे ही बड़े भावनात्मक मुद्दे उछाले जाते हैं जो इधर-उधर भटकने वाली बिरादरी को बहका/भड़का देते हैं, आकर्षित करते हैं। बाकी जो देश का विकास हो रहा है वो तो सबके सामने है ही।
बहस करने वाले यात्री थक कर सो गये लगते हैं। उधर से कोई आवाज नहीं आ रही। नीचे कोई मोबाइल में गाना बजा रहा है-बहारों फूल बरसाओ, तेरा महबूब आया है!...बड़े प्रेम से सुन रहे हैं सभी। भले रात 9 बजे घर पहुँचने पर सब्जी का झोला या दूध की बाल्टी ले बाजार जाना पड़े! 
लोहे के घर की स्लीपर बोगी में बहुत गर्मी है। कम भीड़ में भी, घूम-घूम कर टी टी ढूँढ ही लेते हैं बेटिकट यात्री। बाहर सूखे खेत में ढूंढ ही लेती हैं बकरियाँ, हरी घास। दिनभर चरते रहने वालों पर गर्मी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
गर्मी से आतंकित हैं अपने घरों के ए. सी. कमरों में बैठे लोग। खेतों में क्रिकेट खेल रहे लड़कों पर भी गर्मी का कोई असर नहीं दिखता। न जाने कब से भैस की पीठ पर बैठे हैं सुफेद बगुले। न भैस चरना छोड़ती है न बगुले अपना कमीशन लेना। अपनी रफ़्तार से पटरी पर चलती रहती है देश की ‪#‎ट्रेन‬। एक दूसरी शोर मचाती गुजरी है बगल से। धीमी हो रही है अपनी वाली। आ रहा है कोई स्टेशन।
रुकी नहीं, चलती रही अपनी वाली। इसे बनारस से पहले कहीं रुकना नहीं है। जितना रुकना था, मुझे चढाने से पहले ही रुक चुकी है। रेलवे की भाषा में कहें तो लेट है 4-5 घण्टे। इतना लेट होना यात्रियों के लिये बहुत मायने नहीं रखता। बहुत सहनशील हैं इस सफ़र के यात्री। परेशानी तब होती है जब ट्रेन सही समय पर छूट जाती है। अभी सुबह की बात है, बिलकुल सही समय पर छूट गई थी 49अप। मैं दस मिनट देर से पहुँचा था प्लेटफॉर्म पर! कितना दुःख हुआ था ट्रेन को सही समय पर छूटा जानकर। इसकी यही अदा मुझे अच्छी नहीं लगती। जब इसके लेट आने को मैं सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हूँ तो क्या जरूरत है कभी-कभार ठीक समय, मुझे छोड़ जाने की!
अब देखिये! बनारस से मात्र 5 किमी पहले आ कर शिवपुर में रुकी है 15 मिनट से! इसे यहॉं नहीं रुकना था मगर रुक गई! अब इसकी मर्जी के आगे कौन क्या करे! हम क्या प्रभु भी कुछ नहीं कर सकते। बगल में बैठा लड़का पूछ रहा है-अंकल! कब पहुंचेगी बनारस? पूछा किये हैं वे और सुन रहा हूँ मैं। ग़ालिब तुम्ही कहो कि हम बताएं क्या! देर से आना, जल्दी जाना ए साहेब! यह ठीक नहीं। मुझे तुम्हारी यह बद चलनी कभी अच्छी नहीं लगती।
गोदिया खड़ी है भंडारी स्टेशन पर। बोगी में चढ़ते ही आव देखा न ताव, ऊपर चले गये! साइड अपर बर्थ मुझे पा कर धन्य हुई। बहुत धूल जमी थी इसमें। लगता है कोई सुबह से इस पर चढ़ा नहीं था। गन्दा हो गया अपना रुमाल पर लेटने लायक हो गई बर्थ। सरकार ने बर्थ उपलब्ध करा दी, जिसे लेटना हो साफ़ करे और लेटे।
नीचे एक आदमी जोर-जोर से फोन में किसी को डांट रहा है। उसके सामने वाली बर्थ पर एक प्रौढ़ अपनी दोनों टाँगे सिकोड़ कर आधे में लेटा है। पूरी बर्थ खाली होते हुए भी आधे में लेटा है! मतलब इसका रिजर्वेशन नहीं है। अब उसने एक टांग खिड़की पर चढ़ा दिया है, दूसरी वैसी ही, सिकुड़ी की सिकुड़ी! आँखें बन्द हैं। एक हाथ पेट में दूसरा कपार पकड़े है! दुखी लग रहा है। सोच रहा होगा-घर जा कर भी क्या करूंगा? घर में प्रेमिका थोड़ी न है! वही पुरानी बी बी, वही कहना न मानने वाले बच्चे। आज फिर कोई नई समस्या बताएँगे। घर पहुँचने पर भोजन थोड़ी न परोस देंगे पहले! दुःखी लगता है। घर से भले न हो अपने कर्मों से हो, दुखी है।
हम भले आज लेट हो गये ‪#‎ट्रेन‬ अपने सही समय पर छूटी है। जल्दी वाली सभी ट्रेने चली गईं। रोज के सभी यात्री घर पहुँच गये होंगे। वे पहले पहुँच कर कौन सा तीर मार लिये होंगे! हम भी पहुंचे होते तो क्या उखाड़ लेते!!! टी वी में क्रिकेट देख रहे होते या एग्जिट पोल पर हो रही बकवास सुन रहे होते। 91 साल का बुढ्ढा चीफ मिनिस्टर बने या 92 साल का हमे क्या फर्क पड़ता है! जब बुड्ढों के गले में माला पहनाते वहाँ की जनता नहीं शरमाई तो हम कौन होते हैं आलोचना करने वाले? बुड्ढों की आड़ में पूरा कुनबा मलाई काटे, हमें क्या फर्क पड़ता है! हमारे तो सी एम भी जवान, पी एम भी मजदूर नम्बर वन। एग्जिट पोल में तो दिल्ली में भी भाजपा की सरकार बन रही थी, आसाम में बन ही जायेगी तो हमसे क्या मतलब? हमको तो बस ट्रेन समय से मिल जाय, मोबाइल में लिखने लायक ताकत बनी रहे, यही बहुत है।
बड़ी स्पीड से चल रही है गोदिया। यह ऐसी ट्रेन है जो एक घण्टे में जौनपुर से बनारस पहुंचा देती है। अभी अच्छे दिन पी एम् ओ दफ्तर से चले हैं, हम तक नहीं पहुंचे। जिस दिन पहुँच जाएंगे न, बस दस मिनट में पहुँच जायेंगे बनारस। न खाली बर्थ ढूँढने की चिंता न डेरी की चिंता। ये चढ़े, वो पहुँचे बनारस। भले बनारस स्टेशन से घर पहुँचने में जाम के कारण दस मिनट की दूरी एक घण्टे में तय करनी पड़े, बनारस तो पहुँच ही जायेंगे टाइम से। अच्छे दिन आने वाले हैं। बस चल चुके हैं, बस आ रहे हैं। हम तो यही सोच के अपना दिल बहला रहे हैं। मगर वो नीचे लेटा बुड्ढा बड़ा दुखी लगता है! अभी तक आधे बर्थ में ही लेटा हुआ है! अब उसने दूसरी टांग खिड़की पर चढ़ा ली है। अब उसने दूसरा हाथ अपने कपार पर रख लिया है।
Sanjay जी चिढ रहे हैं-रेलवे को समय की कोई चिंता नहीं रहती। अजीब बात है! ट्रेन चल रही है जौनपुर में कन्ट्रोलर लखनऊ में बैठ कर कंट्रोल कर रहा है। किसान पहले आई, मगर छोड़ दिया सुहेल देव एक्सप्रेस को! उसे बनारस जाना भी नहीं, जफराबाद से रुट बदल जानी है, फिर भी उसे पहले छोड़ दिया! इस राइट टाइम ट्रेन को घण्टों लेट कर दिया। रेलवे को समय से ज्यादा पैसे की चिंता है। यात्रियों की सुविधा का कोई ख़याल नहीं। ऑफिस से जल्दी निकलने का कोई मरलब नहीं हुआ।
किसान देर से खड़ी है भंडारी स्टेशन पर। साथ बैठे यात्री तेल में तली लिट्टी, पानी और मैंगो जूस खा-पी चुके। संजय जी अभी भी गरिया रहे हैं। अब चली, शायद संजय जी का मूड कुछ बदले। लेकिन नहीं, संजय जी लगातार कोसे जा रहे हैं। जाफराबाद आ गया, यहां वही ट्रेन को खड़ी देख बोले-साला! यहाँ खडा रखने के लिये हम लोगों को इतना लेट कर दिया!
जफराबाद में कुछ और साथी चढ़े। Sarvesh जी संजय जी को एक वीडियो दिखा रहे हैं। संजय जी का मूड अब एकदम से मस्त हो गया लगता है। सर्वेश जी कान में बुदबुदा रहे हैं-'नया आसाराम बापू मिला है। इसका वीडियो वायरल हो चुका है!' हमको भी देखने की इच्छा हुई। एक बुड्ढे के तीन महिलाओं के साथ अलग-वीडियो! बुढ्ढा बहुत बुड्ढा है। महिलाएं जवान! कोई जोर जबरदस्ती नहीं, सबकुछ सहमति से हो रहा है। गजब ज़माना! कितना रंगीन मिजाज बुढ्ढा! घर चल कर टीवी देखना पड़ेगा। शायद प्रिंट मीडिया में भी यह खबर वायरल हुई हो! पता चले बुड्ढा कौन है! या फालतू का वीडियो है यह। बहरहाल जो भी हो संजय जी का मूड अब बदल चुका है। पानी पी-पी कर रेलवे को कोसना उन्होंने बन्द कर दिया है।
‪#‎ट्रेन‬ का इंजन लोहे के घरों को लिये अपनी रफ़्तार में भागा जा रहा है। घर में कौन, क्या गुल खिला रहा है, उसे इससे कोई मतलब नहीं। सामने बर्थ पर एक युवा अपनी पत्नी को कोई वीडियो दिखा रहा है। पत्नी जोर-जोर से हंस रही है। वो हंसने वाला वीडियो होगा। बहुत से लोग अपने-अपने अंदाज में सफ़र कर रहे हैं। ट्रेन अभी बनारस नहीं पहुँची। संजय जी अब फिर विलम्ब के लिये रेलवे को कोस रहे हैं-ट्रेन एकदम सही समय थी, बेवजह देर कर दिया.....! खुशी कितनी क्षणिक होती है!
लोहे के घर में बहुत से लोग हैं मगर कोई जान पहचान का नहीं है। शहर में बहुत से मकान हैं, कोई घर नहीँ है। दफ्तर में बहुत से साथी हैं, कोई मित्र नहीं है। आभासी दुनियां में बहुत से मित्र हैं, कोई साथ नहीं है। कोई मिलता जिसे प्यार कर पाता तो मन्दिर क्यों जाता? छोडो! अब मैं तुमसे भी बोर हो चुका, तुम्हारी पूजा करने का भी अब मेरा कोई मन नहीं है। अब मैं उनको सुनना चाहता हूँ जिनकी बोली समझ नहीं पाता। अब मैं उनको सुनाना चाहता हूँ जो मेरी भाषा नहीं समझते। सुनते-सुनते खो जाना चाहता हूँ। बोलते-बोलते मौन हो जाना चाहता हूँ।

यह सुबह का सीन है। फ़ोट्टी नाइन अप से आ रहा था तब का। अभी तो गोदिया से लौट रहा हूँ। अभी लेटा हूँ साइड अपर बर्थ पर। सामने एक बर्थ पर पापा-बिटिया खा रहे हैं खाना, दूसरे में चादर बिछा कर बैठा एक युवा पढ़ रहा है कोई पत्रिका। नीचे एक बर्थ में दो महिलाएं बैठी है, उनके बगल में सो रही है एक बच्ची। दूसरे में गुमसुम बैठा है एक आदमी। ऊपर वाले बर्थ का आदमी अब खाना छोड़ बिटिया से कह रहा है-'खा लो! खा लो पूरा खा लो।' बिटिया खा रही है चम्मच से। पापा मदद कर रहे हैं। पिता-पुत्री के प्यार वाली तस्वीर नहीं खींच पायेगा कैमरा। इसे तो सिर्फ देखा और मेरा लिखा पढ़कर थोड़ा-बहुत महसूस किया जा सकता है।
पढ़ने वाला पढ़ने में मशग़ूल है। लगता है इसने अपने पैसे से खरीदी है पत्रिका। मांग कर लाया होता तो लेट जाता, इतनी देर तक क्यों पढ़ता भला! नीचे गुमसुम बैठा आदमी लेट चुका है। सामने बैठी महिलाओं से बातचीत करने का साहस/योग्यता नहीं है शायद। महिलाएं आपस में बतिया रही हैं। दो महिलाएं साथ हों तो उनके लिए समय बीताना बड़ा सरल होता है। दिल खोल कर खूब बातें करती हैं। दो पुरुषों की तरह पीठ घुमा कर मोबाइल में वीडियो नहीं देखतीं।
सीन तेजी से बदल रहा है लोहे के घर का। पिता-पुत्री खाने के बाद बत्ती बुझा कर लेट गये हैं। पढ़ने वाला भी लेट गया है। महिलायें भी रह-रह कर चुप हो जा रहीं हैं। कहीं रुकी है ‪#‎ट्रेन‬। भगवान करे कोई स्टेशन हो! वैसे तो इसे बनारस में ही रुकना चाहिये था, पहले क्यों रुकी ? यह बहुत से दूसरे यात्रियों के लिये चिंता का विषय हो सकता है। मेरे लिए फिकर की कोई बात नहीं। घर में ही हूँ। कंकरीट में चार प्राणी हैं, इस लोहे के घर में तो कई हैं। मेरे जिस्म में चलती सांस से अधिक कहीं कोई साथ न देगा। हारन बजी, ट्रेन चलने लगी। अधिक देर रुकना कोई पसन्द नहीं करता।
स्पीड अच्छी है। हवा लग रही है। घर के चलने की खटर-पटर के अलावा सब शांति है। ऊपर बगल में जल रही ट्यूब की डंडी में भटक कर आ गये टिड्डों के अलावा मेरे आस पास बैठे इस घर के प्राणियों में कोई हलचल नहीं दिखती। शाम के 9 बजने वाले हैं। सब ऐसे सो रहे हैं जैसे इन्हें दूर जाना है।
लोहे के घर का आनंद ही कुछ और है। न बॉस न बिग बॉस, एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक जाने वाले यात्री। इस समय खाने का दौर चल रहा है। मेरे सामने बैठे दुबले-पतले स्मार्ट से दिखने वाले प्रौढ़ सज्जन पूड़ी खाने में पिछले 15 मिनट से जुटे हैं। धीरे-धीरे, एक-एक कौर चुबलाते हुए खा रहे हैं। खाते हुए याद कर रहे होंगे उसे जिसने पका कर बड़े सलीके से चकमक प्लेट में सजा कर पार्सल किया है। आलू का एक टुकड़ा भी छोड़ना नहीं चाहते। छोटे-छोटे फांक भी झाँक-झाँक कर बीन रहे हैं। मेहनत की कमाई से बनी घरवाली की रोटी का स्वाद हम रोज के यात्री खूब समझते हैं। याद आ रही है आज दिन में खाई करेले की सब्जी और आम के आचार के साथ खाई सूखी रोटियाँ। कैसे तो ललचाई नजरों से देख रहे थे मेरे कुलीक! वे क्या जाने टिफिन और लोहे के घर का आनन्द!
मेरे बगल में दो महिलाएं बैठी हैं। उनके बगल में बाबूजी। साइड अपर बर्थ में लेटा युवा मोबाइल में कोई वीडियो देख रहा है। सामने प्रौढ़ व्यक्ति के बगल में बैठी महिला आधे भरे बोतल के पानी को आँचल से लपेटे खामोश, टुकुर-टुकुर देख रही है खिड़की के बाहर। खिड़की के बाहर अन्धेरा है, घर में रौशनी। बाहर चाहे जितना भी अन्धेरा हो, भीतर रोशनी होनी ही चाहिये। इसी रोशनी के सहारे कट जाता है सफ़र। सफ़र, फिर चाहे वो कितना ही लम्बा क्यों न हो!
प्रौढ़ खाना खा कर, पानी पी कर तृप्त हो चुका है। क्या तन कर बैठा है बर्थ में पीठ सटाये! विजय बाबू कई बार फोन कर चुके। कई बार फोन उन तक आया भी। अधिक फोन आना और करना स्मार्ट होने की निशानी है। बहुत से लोगों के अरमान इनकी फाइलों में जब्त होंगे, बहुत लोगों से इनकी भी अपेक्षाएं जुडी होंगी। कोई बेमतलब 30 पैसा भी एक काल पर क्यों खर्च करेगा!
बगल में बैठी महिला वाट्स एप पर चैट्टिंग कर रही हैं। अपर बर्थ वाला लड़का अब पेट के बल लेट कर, दोनो हाथों से छुपा कर, बड़े मनोयोग से वीडियो देख रहा है। वीडियो काफी इंटरेस्टिंग लगता है। पहले अंगरेजी सनीमा देखने हम हॉल तक जाते थे, अब तो ऑन लाइन देख लेते हैं बच्चे!
बाबतपुर एयर पोर्ट की जगमग झांकी दिखाती गुजरी है अपनी ‪#‎ट्रेन‬। अँधेरे में चमकते सैकड़ों दिये देख झटके में ऐसा लगा जैसे जुगनुओं ने अँधेरे के खिलाफ लड़ाई के लिये कोई बड़ी गोलबंदी कर ली है! अगले ही पल भरम टूट गया। लोहे के घर की खिड़कियों से झांकता मायावी अँधेरा मौन हो ठहाके लगाने लगा! अँधेरे के खिलाफ जुगनू इतनी बड़ी संख्या में कभी एक जुट नहीं हो पाते। वे तो बस किसी घने वृक्ष के नीचे छोटी-मोटी सभा कर, सूरज के निकलने से पहले कहीं गुम हो जाते हैं।
लोहे के घर में उमस बहुत है। पंखें चल तो रहे हैं मगर हवा दायें-बायें कहीं गुम हो जा रही है। इंजन की तरफ पीठ किये बैठा हूँ तो ‪#‎ट्रेन‬ के चलने पर भी हवा नहीं लग रही है। मेरे सामने बीस बरस की बिटिया बैठी है। कुर्ता पैजामा पहने पापा उसके बगल में बैठे एक वृद्ध से बातें कर रहे हैं। संजय जी बनारस से लाया, अंतिम बचा पान जमा कर मोबाइल में वीडियो देख रहे हैं। डॉक्टर साहब ऊँघ रहे हैं। ऊँघने से पहले बता रहे थे आज 14 ऑपरेशन करना पड़ा तबियत थक गई है।
जलाल गंज से आगे बढ़ रही है किसान। अब पुल आएगा। ट्रेन के गुजरते समय पुल की चाहे जो हालत हो, ट्रेन को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह मस्ती से पटरियों के भरोसे गुजर जाती है। पटरियाँ इतराती हैं कि एक और ट्रेन सकुशल पार हुई, पुल भुनभुनाता है कि झटके मुझे लगे और ट्रेन को पार लगाने का श्रेय भी नहीं मिला। अब पुल को कौन समझाए कि दुखी न हो, मंत्री जी के सफल दौरे का श्रेय भी बड़े अधिकारी ले लेते हैं। भले उनके शहर आगमन पर पूरा कुनबा हलकान होता है। पुल गुजर गया। अंधरे में डूबा पुल। हमने तो बस उसकी थरथराहट सुनी। उसकी हालत पटरियाँ जाने तो जाने ट्रेन तो मस्ती से सीटी बजा रही थी!
सामने बैठी बिटिया की आँखें लगातार खिड़की से बाहर अँधेरे में कुछ ढूंढ रही हैं। शायद उसे जुगनुओं की तलाश है। पूनम का चाँद नहीं तो सफ़र में जुगनू की रोशनी भी मायने रखती है।
तेज रफ़्तार भागते लोहे के घर की खिड़की से अंधेरी रात में बाबतपुर एअरपोर्ट के विशाल मैदान के चारो तरफ गड़े खम्भे में जल रही बिजली की बत्तियाँ क्रिकेट के मैदान में गोल-गोल खुशी से नाचतीं चीयर गर्ल्स की तरह दिखीं।
लोहे के घर की खिड़की से बगुलों को भैंस की पीठ पर कथा बाँचते देखा। धूप में धरती को गोल-गोल नाचते देखा। घर में लोग बातें कर रहे थे, किसने कितना खाया! हमने तो बस भैस, बकरियों को खेत चरते देखा। खिड़की से बाहर चिड़ियों को गाते, चोंच लड़ाते देखा। सूखी लकड़ियाँ बीनती, माँ के साथ कन्धे से कन्धा मिलाये भागती छोरियाँ देखी। गोहरी पाथती, पशुओं को सानी-पानी देती, घास का बोझ उठाये खेत की मेढ़ पर सधे कदमों से चलती महिलायें देखी। लोहे के घर की खिड़की से तुमने क्या देखा यह तुम जानो, हमने तो गन्दे सूअर के पीछे शोर मचा कर भागते आदमी के बच्चे देखे।
लोहे के घर के बगल वाले कमरे में महिलाएं चरखी चिड़ियाँ की तरह चीख-चीख कर आपस में बातें कर रहीं हैं। शायद उन्होंने कोई वेंडर या दो पाये की शक्ल में बिल्ला देखा है! मेरे वाले कमरे में अलग-अलग बर्थ पर दो आदमी लेटे हैं। महिलाएं एक भी नहीं, शांति है। खिड़कियों से आती हवा और खटर-पटर से घर के पटरियों पर रेंगने की आहट मिल रही है। कंकरीट के घरों में हवा के चलने से हवा मिलती है, यहाँ तो घर खुद ही भागता है, हवाएँ क्या करें! खिड़कियों से उलझकर भीतर हम तक पहुँच ही जाती हैं।
पटरी पर दौड़ती ट्रेन हवा से बातें कर रही है। खिड़कियों से आती गुमसुम हवा हमसे कोई बात नहीं करना चाहती। इधर से आती और उधर को निकल जाती है। शायद इसी को हवा का चलना कहते हैं। ये मजबूरी में चलने वाली कृतिम हवाएँ, घर के किसी पड़ाव पर रुकते ही गुम हो जाती हैं। बिहार चुनाव से पहले चलने वाली असहिष्णुता की हवा हो या 2 साल बीत जाने पर मनाये जाने वाली सरकारी उपलब्धियों की हवा हो, अधिक देर ठहर नहीं पातीं। एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव पर पहुंचते ही लोहे के घर में लगने वाली हवा की तरह गुम हो जाती हैं।
‪#‎ट्रेन‬ फिर हवा से बातें कर रही है। उमस कम हुई है। चरखी चिड़ियाँ खामोश हैं। बिल्ला भाग गया होगा। एक दूसरी ट्रेन सन्न से गुजर्री है। जलाल गंज का पुल थरथराया है। लोहे का घर आहिस्ता-आहिस्ता जलगंज स्टेशन पर रुक कर कुछ यात्रियों को उतार रहा है, कुछ को चढ़ा रहा है। हम डर रहे हैं कि अभी तो चैन से लेटे हैं, कोई आकर उठा न दे। लोहे के घर में लेटने लायक बेड किस्मत वालों को नसीब होती है।
कोई उठाने नहीं आया। अब आएगा भी नहीं। अगला पड़ाव बनारस ही है। अब उठे तो उतर जायेंगे। लोहे के घर से उतरकर कंकरीट के घर की ओर दौड़ जायेंगे। कंकरीट के घर के एक कमरे में जादू का डिब्बा है। स्विच ऑन करते ही दुनियाँ भर की खबरें दिखाने लगता है। दुनियाँ भर की खबरें मतलब दुनियाँ भर की समस्याएँ। एक बेचैनी से उतरे, दूसरे में चढ़े।आखिर हम कोई आदमी तो हैं नहीं, बेचैन आत्मा हैं।
आज लोहे के घर में कुछ लिखने का मन नहीं किया। देर शाम गोदिया की बोगी में बैठ जैसे ही चश्मा निकालने लगा पता चला चश्मा तो ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ी में ऑफिस में ही छोड़ आया! फिर कुछ ही देर बाद दो परिवार अपने छोटे-छोटे बच्चों के हड़बड़ाते हुये टिकट से मिलान कर बर्थ कन्फर्म करने लगे और मेरे आस-पास यह कहते हुए डेरा जमा लिया कि यह 5 बर्थ अपनी है। मैंने कहा-ठीक है, पांचो में बैठो। हम तो छठीं सीट पर बैठे हैं जो आपकी नहीं है। खैर खड़े में जितना उखड़े थे, बैठने के बाद उतने ही शरीफ हो गए। पता चला बच्चों की छुट्टी हुई है, मैहर देवी दर्शन करने जा रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ। इतनी गर्मी में चार-चार खिलखिलाते, नाजुक बदन मासूम बच्चों को लेकर पथरीले पहाड़ों वाली मैहर देवी के दर्शन को जाना कहाँ कि बुद्धिमानी है! एक दो बार बारिश हो जाय तब जाना ठीक होता शायद। लेकिन अब तो वे जा ही रहे थे। अधिक कहना उनका मजा बिगाड़ना था सो हम चुप लगा गए।
बच्चे लगातार पापा कि मोबाइल से खेल रहे थे। लड़का लगभग एक साल बड़ी अपनी दीदी पर भारी पड़ रहा था। दीदी से कहता-तुम खड़ी होकर देखो! पापा झल्लाकर मोबाइल रख लिए तो लड़की मांगने लगी-पापा! मोबाइल? पापा ने मना किया तो रोने लगी। बाबू को तो दे दिए हमको नहीं दे रहे! अम्मा को बीच में कूदना पड़ा-दे दीजिये न! पापा ने रास्ता निकाला-मोबाइल की बैटरी खतम हो गई। हम का करें? धीरे-धीरे बच्चे मान गए और उनका ध्यान दूसरी शरारतों में लग गया।
इन्हीं सब में इतना रम गया कि लिखने का मन ही नहीं हुआ।
लोहे के घर में
जटाधारी
त्रिपुण्ड चन्दन
रुद्राक्ष की मालायें
एक हाथ में कमण्डल
दूसरे में कटोरा
खड़ा हो गया 
मेरी मोबाइल के सामने..

दे! 
बाबा को दे
कल्याण होगा!

मोबाइल ने 
लिखना बन्द कर
कैमरा ऑन किया
दिव्य दृष्टि से
बाबा का दर्शन करना चाहा
भाग गया बाबा!

कुछ शब्द
हवा में उछल कर
खिड़की के रास्ते कहीं गुम हो गये...

बाबा को देने के लिये पैसे नहीं
फ़ोटू खींचता है!
सर्वनाश हो तेरा।


कैन्ट प्लेटफॉर्म नम्बर 5 पर इस समय 49अप को होना चाहिये था लेकिन टाटा खड़ी है। टाटा जौनपुर में नहीं रुकती, अगला स्टॉपेज फैजाबाद है। जौनपुर जाने वालों के लिये मौत का फरिश्ता। ऑफिस में देर की सम्भावना से आतंकित जौनपुर के यात्री इस पर चढ़ जाते हैं और जौनपुर में जब टाटा धीमी होती है, कूद-कूद कर उतरते हैं। पिछले साल इसी कूदने में एक कर्मचारी की मौत हो चुकी है। कुछ दिन तो लोग भय से जाना बन्द किये फिर इसमें मरने वाले की उतरने में चूक मान कर लोग फिर टाटा पकड़ने लगे। इसके पीछे है 49। यह चले तो वह आये। अधिक देर होने पर देखा देखी टाटा में वे भी चढ़ जाते हैं जिन्हें चलती ट्रेन से उतरने का अभ्यास नहीं है। यह स्थिति काफी खरनाक और दुर्घटना को दावत देने जैसा है। रेलवे प्रशासन इस पर ध्यान देता और टाटा को एक मिनट के लिए भी जौनपुर में रोक देता तो कितनों का भला हो जाता।

भंडारी स्टेशन पर भोले के मंदिर की आरती ख़तम हो रही थी जब गोदिया आई. अंतिम बोल जो कानों में पड़े वो थे.. 'सुखी रहे संसार, दुखी रहे न कोय'. बोगी में चढ़ते ही जहाँ सीट मिली वहां एक आदमी सामने वाले से लगातार बोले जा रहा था. सामने वाला हाँ, हूँ में मुंडी हिला तो रहा रहा था मगर अपने मोबाइल के वीडियो से उसकी नजरें एक पल के लिए भी हटी नहीं थी. अब वो मेरी तरफ मुखातिब हुआ और मुझसे भी लगातार कुछ कह रहा था. कुछ भी काम का या महत्वपूर्ण नहीं था. फालतू की बकवास जिससे मुझे कोई मतलब नहीं हो सकता था.
वह छपरा से चढ़ा था और उसे भी बनारस जाना था. जब उसने खैनी की डिबिया निकाली और पत्ते वाली सुर्ती रगड़ने लगा तो मेरा ध्यान उस पर केन्द्रित हुआ. भला सा आदमी निकला!‪#‎ट्रेन‬ में इतने भले लोग कहाँ दिखते हैं!!! उसकी हर ताल और चुटकी पर मेरा दिल धडकने लगा. क्या समाजवादी नशा है खैनी भी! मंदिर के उपदेश ट्रेन में चढ़ते ही भूल गया लेकिन खैनी ने ह्रदय परिवर्तन करने में एक पल का समय नहीं लिया! उसने जब अपना हाथ मेरी तरफ बढाया तो मुझे यकीन हो गया कि वो भला ही नहीं, समझदार भी था और उसके मन में वही भाव होगा....सुखी रहे संसार, दुखी रहे न कोय.